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अनेकान्त / 54-2
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अधिक (खेत), घर, सुवर्ण आभूषण, धन-धान्य, दास-दासी तथा अन्य घरेलू उपकरणों को संगृहीत नहीं करूंगा और इस निर्धारित सीमा का वह आजीवन पालन करता है। स्थूल रूप से इनका पालन करता हुआ, यदि वह मन से भी परिग्रह करने को सोचता है तो उसे अतिचार कहा जाता है। अतिचार का स्वरूप इस प्रकार हो सकता है, मान लीजिए एक व्यक्ति ने क्षेत्र और वास्तु के सम्बन्ध में परिमाण निर्धारित किया कि मैं एक खेत से अधिक खेत या एक घर से अधिक घर नहीं रखूंगा। इस निश्चय के अनुसार उसने अन्य खेतों और घरों को त्याग भी दिया; किन्तु कालान्तर में उसके खेत के पास एक और खेत सुलभ हो जाता है एवं उसके घर के पास एक और घर उसके अधिकार में आ जाता है। उस समय उस व्यक्ति के मन में लोभ उत्पन्न हो जाता है और वह निर्धारित प्रमाण का स्थूल रूप से पालन करने के लिए दोनों खेतों के बीच की विभाजक रेखा को मिटाकर दो खेतों को एक बना लेता है। दोनों घरों के मध्य की सीमा - भित्ति को तोड़कर उन्हें एक घर के रूप में परिणत कर देता है। इस स्थिति में वह क्षेत्र, वास्तु प्रमाण का स्थूलतः पालन अवश्य कर रहा है, परन्तु इसे क्षेत्र - वास्तु प्रमाण का अतिचार ही कहा जायेगा। इसी प्रकार सुवर्ण आभरण, धन-धान्य, दास-दासी और घरेलू उपकरण आदि के प्रमाण - निर्वाह के लिए अतिरिक्त नवीन प्राप्त को किसी प्रकार प्रमाण में लाना अथवा किसी अन्य के घर सुरक्षित कर देना धन-धान्य, दास - दासी, कुप्य आदि का अतिचार माना जायेगा। इन सभी अतिचारों में मानसिक परिग्रह का अधिक महत्त्व है । "
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अपरिग्रह महाव्रत के पालन में महाव्रतों की निम्नलिखित पांच भावनाएं बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये भावनाएं हैं- पांचों ज्ञानेन्द्रियों के विषयों में से प्रिय के प्रति राग और अप्रिय के प्रति विद्वेष का पूर्णतया परित्याग । इन भावनाओं को श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति, चक्षुरिन्द्रिय रागोपरति, घ्राणेन्द्रिय रागोपरति, रसनेन्द्रिय रागोपरति और स्पर्शेन्द्रिय रागोपरति नाम से जाना जाता है। इन पांचों भावनाओं में मनोज्ञ के प्रति राग के विसर्जन के साथ-साथ अमनोज्ञ के प्रति द्वेष का विसर्जन भी आवश्यक माना जाता है।" यहां प्रश्न हो सकता है कि अपरिग्रह के क्रम में अमनोज्ञ के प्रति द्वेष के विसर्जन को भावना में क्यों सम्मिलित किया गया है? क्योंकि विषय-भोग सामग्री चाहे मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ, उसके प्रति द्वेष तो परिग्रह का कारण नहीं बनता ।
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