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__ अनेकान्त/54-2 Conssssssccccccccces मर जाने पर इन्द्रियां विषय वासनाओं में नहीं टिकतीं, वे भी वहां से भाग खड़ी होती हैं
मणणरवइणो मरणे मरति सेणाई इंदियमयाई। ताणं मरणेण पुणो मरंति णिस्सेसकम्माइं॥
विषयों के प्रति मन में आसक्ति रहने पर इन्द्रियां असंयत होकर विषयोपभोग के लिए भागती हैं।। फलत: मनुष्य आपत्तियों से घिर जाता है। अनेक प्रकार के संघर्षों में पड़कर अपनी शान्ति खो बैठता है। अत: साधक परम्परा ने इन्द्रियों के संयम को ही सुखों का मूल माना है। कहा भी गया है
आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः। तज्जयः संपदां मार्गो येनेष्टं तेन गम्यताम्॥2
जैन परम्परा के इस अपरिग्रह सिद्धान्त की मूलभूमि को श्रीमद्भगवद्गीता में बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वहां कहा गया है कि परिग्रह से प्राप्त होने वाले, दूसरे शब्दों में परिग्रह से अभीष्ट विषयोपभोगों का चिन्तन करने मात्र से उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। विषयों के प्रति आसक्ति कामना को जन्म देती है। यह अनिवार्य नहीं है कि कामना सदा सम्पूर्ण रूप से पूर्ण हों। ऐसी स्थिति में कामी के हृदय में क्रोध भभक उठता है। क्रोध से सम्मोह का जन्म होता है, अर्थात् क्रोध से विवेक विलीन होने लगता है, जिसका परिणाम होता है स्मृतिभ्रंश। स्मृतिभ्रंश का उत्तररूप है बुद्धिनाश और बुद्धिनाश का परिणाम है सर्वनाश। यहां गीताकार का तात्पर्य यह है कि परिग्रह सर्वनाश का कारण है, इसलिए जो सर्वनाश से बचना चाहते हैं, उन्हें अपरिग्रह का पालन अनिवार्य रूप से करना चाहिए।
परिग्रह का अर्थ केवल स्थूल रूप से भोग-साधनों का संग्रह ही नहीं है, अपितु मन और वचन से भी उनके प्रति आसक्ति है। एक सामान्य गृहस्थ जो अणुव्रत के रूप में अपरिग्रह का पालन करता है, वह अपेक्षित साधन-सामग्री का न केवल मन और वचन से, अपितु स्थूल रूप से भी परिग्रह तो करता है, परन्तु उसके प्रति आसक्ति नहीं रखता। इसीलिए वह परिग्रह करते हुए भी क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधन-धान्य दास-दासी घरेलू उपकरण के सम्बन्ध में एक प्रमाण निश्चित करता है कि मैं इस मात्रा से SSSSSSSSCCCCCCCCC