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अनेकान्त/54-2
रूप से देखा था और उनका निर्विवाद रूप से परस्पर अभिन्न एक मार्ग सुझाया था, जैन परम्परा ने सर्वप्रथम इसे अणु या महाव्रत के रूप में स्वीकार किया, तो बौद्ध परम्परा ने दश मूल शिक्षाओं में इन्हें प्रतिष्ठित किया। वैदिक परम्परा के मनु और पंतजलि आदि ने इन्हें यम के नाम से सार्वभौम महाव्रत माना है। अहिंसा आदि महाव्रतों के प्रतिपक्षी हिंसा, असत्य (छल-छद्म), स्तेय (परस्वापहरण), अब्रह्मचर्य (कामुकता) और परिग्रह अर्थात् लोभ, मोह पूर्वक अनन्त साधन-सामग्री का संग्रह; ये मानव की अनन्त समस्याओं के मूल हैं। प्रस्तुत आलेख में हम परिग्रह के दुष्परिणामों तथा अपरिग्रह के माध्यम से मानव की बहुविध समस्याओं के समाधान के रूप पर विचार करेंगे।
परिग्रह का अर्थ है कम या अधिक, छोटे या बड़े, सचित्त या अचित्त विद्यमान या अविद्यमान बाह्य द्रव्यों अथवा आभ्यन्तर भावों के प्रति आसक्ति एवं ममत्व का अनुभव करते हुए चित्त का लोभ-मोह से मृच्छित होना। अपरिग्रह का अर्थ है अमूर्छा।' अपरिग्रह व्रत (अणुव्रत
और महाव्रत) के पालन में इन सबके प्रति आसक्ति; ममत्व (मूर्छा) का परित्याग करना अभीष्ट होता है। ममत्व की परतें जितनी सघन होती हैं, निर्मलता पर उतना ही सघन आवरण रहता है। साधक के पास जो वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन आदि, यहां तक कि पीछी और कमण्डलु, जो संन्यास धर्म के अनिवार्य उपकरण हैं, के प्रति भी ममता (आसक्ति) रूपी मूर्छा का विसर्जन अभीष्ट है। इन सांसारिक या धार्मिक उपकरणों के प्रति रागवश अपनत्व या स्वामित्व की कल्पना होने से उनकी प्राप्ति में हर्ष और अप्राप्ति में पीड़ा का जन्म होता है तथा हर्ष और पीड़ा के प्रति लगाव या दुराव अनेक प्रकार के संघर्षों को जन्म देता है। परिग्रह के मूल में लोभ और मोह रहा करते हैं। एक बार उत्पन्न हुए लोभ की फिर कोई सीमा नहीं होती कामनाएं निरन्तर वैसे ही बढ़ती चली जाती हैं, जैसे घृत की आहुति से अग्नि।' जिसके फलस्वरूप समाज में बड़ी-बड़ी विषमताएं, बैर-विरोध और संघर्ष उत्पन्न होते हैं। चारों ओर अशान्ति का साम्राज्य छा जाता है। सामाजिक नियम अथवा राज-व्यवस्था द्वारा परिग्रह की भावना का उन्मूलन कभी सम्भव नहीं है। इसी कारण परिग्रहमूलक विषमताओं, संघर्षो और अशान्ति का शमन समाज व्यवस्था अथवा राजव्यवस्था द्वारा न कभी हो सका है और न कभी हो सकेगा। इसीलिए