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अनेकान्त/54-2 Sssssssscccccccccee इस आशंका का समाधान यह है कि राग और द्वेष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस प्रकार अनुकूलता तटस्थता के प्रतिकूल है और मनोज्ञ वस्तु के प्रति राग की सूचक है, उसी प्रकार अमनोज्ञ के प्रति द्वेष भी तटस्थता के प्रतिकूल है और अनुकूल के प्रति राग-वृत्ति को सूचित करता है क्योंकि अनुकूल के प्रति राग के अभाव में अनुकूलता-प्रतिकूलता का बोध न होने से अमनोज्ञ के प्रति द्वेष होना सम्भव नहीं है। अमनोज्ञ के प्रति द्वेष की उत्पत्ति तभी हो सकती है, जब उसके विपरीत (मनोज्ञ) के प्रति राग हो। इसलिए जिस प्रकार राग परिग्रह का मूल है, उसी प्रकार राग के समानान्तर अमनोज्ञ के प्रति उत्पन्न होने वाला द्वेष भी परिग्रह का कारण है और इसीलिए उक्त पांचों भावनाओं में मनोज्ञ के प्रति राग और अमनोज्ञ के प्रति द्वेष को समान रूप से संगृहीत किया गया है।
जैन परम्परा में मूलतः परिग्रह के अनतरंग और बाह्य ये दो भेद किये गये हैं। इनमें अन्तरंग परिग्रह के 14 भेद हैं-मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध, मान, माया और लोभ। बाह्य परिग्रह के 10 भेद हैं--क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयनासन, कुप्य और भाण्ड। इस प्रकार परिग्रह के कुल चौबीस भेद हैं। यह भेद कल्पना अत्यन्त सूक्ष्म और मनोविज्ञान पर आधारित है। इन सब का मन, वचन और काय पूर्वक त्याग से ही अपरिग्रह महाव्रत सिद्ध होता है। उपर्युक्त अन्तरंग और बाह्य परिग्रहों का पूर्णविसर्जन क्रमश: चौदह गुणस्थानों में आरोहण के माध्यम से होता है।
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि परिग्रह विषमता, संघर्ष और अशान्ति का कारण किस प्रकार है? इस प्रसंग में यह सुविदित होना चाहिए कि प्रकृति जहां विश्व के विविध प्राणियों को जन्म देती है, वहीं वह उनके आहार आदि के लिए अपेक्षित मात्रा में ही (न कम न अधिक) भोगसाध न भी प्रस्तुत करती है। जब मानव-समाज के कुछ व्यक्ति अनिवार्य अपेक्षा से अधिक साधन सामग्री संकलित कर लेते हैं, तो निश्चय ही दूसरी ओर कुछ लोगों के लिए अनिवार्य साधन-सामग्री का अभाव हो जायेगा। ऐसी स्थिति में असन्तोष और संघर्ष का जन्म होना स्वाभाविक है, जो अशान्ति का मूल कारण बनता है। भूख से तड़पता हुआ व्यक्ति, व्यक्तिविशेष के पास अपार भोजन-सामग्री को देखकर उसके प्रति