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अनेकान्त/54-2
हैं अथवा श्रुत का कारण होने से वितर्क शब्द का अर्थ श्रुत है। नाना अर्थो के वाचक जो शब्द हैं उनमें संक्रम अर्थात् परावर्तन को और योगों के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। इस वीचार होने से शुक्लध्यान को आगम में सवीचार कहा है। इस तरह पृथक्त्व अर्थात् भेदरूप से वितर्क अर्थात् श्रुत का वीचार (संक्रान्ति) जिस ध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान है। यह ध्यान उपशान्तमोह
कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों को होता है।" 2. एकत्ववितर्क अवीचार-यह दूसरा शुक्ल-ध्यान का भेद है
इसका नाम एकत्ववितर्क है क्योंकि इसमें एक ही योग का अवलम्बन लेकर एक ही द्रव्य का ध्यान किया जाता है अत: एक द्रव्य का अवलम्बन लेने से इसे एकत्व कहते हैं प्रथम शुक्लध्यान की तरह दूसरा भी सवितर्क है। यह ध्यान क्षीणमोह
नामक बारहवें गुणस्थानवी जीवों को होता है।" 3. सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति-सूक्ष्मकाययोग में स्थित केवली उस सूक्ष्म
भी काययोग को रोकने के लिए तीसरा शुक्लध्यान ध्याता है। यह ध्यान वितर्क और वीचार से रहित अवितर्क और अवीचार है। इसमें प्राण, अपान, श्वासोच्छ्वास का प्रचार, समस्त काय-योग, मनोयोग, वचन योग रूप हलन-चलन क्रिया का व्यापार नष्ट हो जाता है इसलिए वह अक्रिय है। इस ध्यान से सब कर्मो का आस्रव रुक जाता है अत: इसे निरुद्ध योग कहा है। इसके अनन्तर कोई ध्यान नहीं होता इससे इसे अपश्चिम कहा है तथा
यह परम शुक्लध्यान है। 4. व्युपरतक्रिया निवर्ति-काय-योग का निरोध करके अयोगकेवली
औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों का नाश करता हुआ अन्तिम शुक्लध्यान को ध्याता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल तक अतिनिर्मल उस ध्यान को करके शेष चार अघाति कर्मों का विनाश कर मोक्ष को प्राप्त होता है। अयोग केवली के उपान्त्यसमय में बासठ और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियां नष्ट हो जाती हैं।