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अनेकान्त/54-2 anoonceir ज्ञानार्णव से भी होता है। इन आचार्यों ने धर्म्यध्यान के अधिकारी मुख्य
और उपचार के भेद से अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती और प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनियों को माना है। आचार्य जिनसेन का कहना है कि अल्प श्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहिले पहिले धर्म्यध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि ही उत्तम ध्याता (स्वामी) है। साथ में यह भी कहा है कि सम्यग्दृष्टि, देशव्रती प्रमत्त संयत मुनि को भी धर्म्य ध्यान होता है। ____ आचार्य पूज्यपाद, अकलंकभट्ट, विद्यानंदी आदि आचार्यों ने चौथे गुणस्थान से अप्रमत्तगुणस्थान तक के प्राणियों को धर्म्य ध्यान का स्वामी कहा है। इन आचार्यो का अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत को उपचार से धर्म्यध्यान का स्वामी कहना है क्योंकि भक्ति गृहस्थ का धर्म्यध्यान है। उन्हें मोक्ष का साधन भूत धर्म्यध्यान न होकर धर्म भावना रूप (आज्ञाविचय अपार्यावचय) धर्म्यध्यान होता है। इन्हीं की अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि और देशव्रती को धर्म्यध्यान कहा गया है। गृहस्थावस्था में ध्यान की सिद्धि कदापि नहीं हो सकती हैं क्योंकि गृहस्थावस्था की आपदारूपी महान् कीचड़ में जिनकी बुद्धि फंसी हुई है तथा जो प्रचुरता से बढ़े हुए रागरूपी ज्वर के यंत्र से पीड़ित है और जो परिग्रह रूपी सर्प के विष की ज्वाला से मूछित हुए हैं वे गृहस्थजन विवेकरूपी मार्ग से चलते हुए स्खलित हो जाते हैं जैसा कि शुभचन्द्र आचार्य कहते हैं।
खपुष्पमथवाशृंगं खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गहाश्रमे।
आकाश के पुष्प और गधे के सींग नहीं होते। कदाचित् किसी देश व काल में इनके होने की प्रतीति हो सकती है परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी देश व काल में संभव नहीं है।
इस प्रकार सिद्धि रूप धर्म्यध्यान के अधिकारी तो अप्रमत्त मुनि हैं किन्तु भावना रूप धर्म ध्यान गृहस्थ-अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती और प्रमत्तसंयत मुनि को होता है।