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अनेकान्त/54-2
स्वीकार किया है जिसकी समानता बृहद्रव्य संग्रह की टीका में उद्धृत ध्यान भेदों में भी है। इन ध्यानों के वर्णनीय विषयों के सम्बन्ध में कहा गया है
पिण्डस्थे स्वात्मचिन्तनं, पदस्थे मंत्रवाक्यस्थम्। रूपस्थे सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम्॥
पिण्डस्थ ध्यान में स्वात्मचिन्तन, पदस्थ में मंत्र वाक्यों का चिन्तवन, रूपस्थ में सर्वचिद्रूप अरहन्त स्वरूप का ध्यान और रूपातीत ध्यान में निरंजन निर्विकार सिद्धात्मा के स्वरूप का ध्यान करते हुए एकाग्रता को प्राप्त किया जाता है। ज्ञानार्णव, उपासकाध्ययन", ज्ञानसार आदि के अनुसार पिण्डस्थ ध्यान के अन्दर पार्थिवी धारणा, आग्नेयी धारणा, वायवी धारणा, वारूणी धारणा और तत्त्वरूपवती धारणा का वर्णन है। इनका ध्यान करने से स्वात्मरत संयमी पुरुष अनादिकालीन कर्मबन्धन को छिन्न करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है। संस्थान विचय सम्बन्धी ध्यान के इन भेदों का तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, भगवती आराधना, ध्यानशतक और आदिपुराण में उल्लेख भी नहीं किया गया है।
शुक्लध्यान
कषायों के उपशम या क्षय होने का नाम शुचिगुण है। आत्मा के इस शुचिगुण के सम्बन्ध से जो ध्यान होता है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं। वह शुक्ल और परम शुक्ल के भेद से दो प्रकार का है, उसमें प्रथम शुक्ल ध्यान छद्मस्थों में होता है अर्थात् श्रेणी आरोहण करने वाले उपशामक और क्षपक के साथ उपशांत मोह नामक गुणस्थानवर्ती साधक और क्षीण मोही जिन को होता है। द्वितीय परम शुक्ल ध्यान केवली भगवन्तों के पाया जाता है। प्रथम शुक्ल ध्यान के भी पृथक्त्ववितर्क वीचार और एकत्ववितर्क वीचार दो भेद हैं। परम शुक्ल ध्यान के सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती और समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति ये दो भेद होते हैं। यहां इतनी विशेषता है कि आदिपुराणकार श्रेणी से शुक्ल ध्यान स्वीकार करते हैं किन्तु धवलाकार SSSSSSSSOC2222222222