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अनेकान्त/54-2
जैन श्रमणाचार और ध्यान-विमर्श
__- डॉ. अशोक कुमार जैन भारतवर्ष धर्म प्रधान देश है। यहां पर वैदिक परम्परा एवं श्रमण-परम्परा का प्रवाह अविच्छन्न रूप से गतिमान है। दोनों ही परम्पराओं में विशाल वाङ्मय उपलब्ध है। श्रमण संस्कृति की चिन्तनधारा मूलत: आध्यात्मिक है। अध्यात्म में धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण संस्कृति का अन्तिम लक्ष्य है। जीवन का लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। यह सुख आत्म-स्वातंत्र्य में ही संभव है। कर्मबन्धनमुक्त संसारी जीव इसकी पहचान नहीं कर पाता वह इन्द्रियजन्य सुखों को वास्तविक सुख मान लेता है। श्रमण-संस्कृति व्यक्ति को इस भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निश्रेयस् के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है।
जैन श्रमण समता की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। जैन आचार का लक्षण समत्व प्राप्ति है और वह राग-द्वेष की निवृत्ति से ही संभव है। सूत्रकृतांग की शीलाङ्ककृत टीका' में लिखा है 'श्राम्यति तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणो वाच्यः। अर्थात् जो आत्मा की साधना के लिए श्रम करता है या तप-साधना से शरीर को खेद-खिन्न करता है वह श्रमण है। श्रमण शब्द स्वयं में महान् तपस्वी साधु का द्योतक है। वे बहिरंग और अन्तरंग तपों में निरत रहकर आत्मसाक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होते हैं। अन्तरंग तपों में ध्यान का शास्त्रों में अत्यन्त महत्व प्रतिपादित किया गया है। ___'ध्यै चिन्तायाम्' धातु से ध्यान शब्द निष्पन्न है तथा जिसका अर्थ होता है चिन्तन। एक विषय में चिन्तन का स्थिर करना ध्यान है। तत्वार्थसूत्र में लिखा है कि 'उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त तक होता है। अपराजितसूरि ने एक पदार्थ में ज्ञान सन्तति के निरोध को ध्यान कहा है। भगवती आराधना में ध्यान की सामग्री के विषय में कहा है कि बाह्य द्रव्य को