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जनेकान्त/54-2 SOSocc८८८८OOD सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती
यहां क्रिया का अर्थ योग है और वह योग जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है। उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती है, जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है, वह सूक्ष्म क्रिया कहा जाता है और सूक्ष्मक्रिया होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। इसके स्वामी केवली हैं। वे केवलज्ञानी समुद्घात की विधि प्रकट करते हैं। समुद्घात के माध्यम से अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात भागों को नष्ट कर देते हैं और अशुभ कर्मों के अनुभाग के भी अनन्त भाग नष्ट करते हैं। अन्तर्मुहूर्त में योगरूपी आस्रव का निरोध करते हुए काय योग के आश्रय से वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म कहते हैं फिर काय योग को भी सूक्ष्म कर उसके आश्रय से होने वाले सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान के स्वामी केवली होते हैं।
समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति-जिसमें क्रिया-योग सम्यक् प्रकार से उच्छिन्न हो चुका है, वह समुच्छिन्न क्रिया हैं। समुच्छिन्न क्रिय होकर जो कर्म बन्ध से पूर्ण निवृत्त नहीं हुए हैं अर्थात् मुक्त नहीं हुए हैं वही समुच्छिन्न क्रिया निवर्ति ध्यान करने वाले हैं, उनका ध्यान ही व्युपरत क्रिया निवर्ति या समुच्छिन्न क्रिया निवर्ति कहलाता है जैसा कि आदिपुराणकार भी कहते हैं जिसके समस्त योगों का पूर्ण निरोध हो गया है ऐसे योगिराज प्रत्येक प्रकार आस्रव से रहित होकर समुच्छिन्न क्रिया निवर्ति नाम के चतुर्थ शुक्ल ध्यान को प्राप्त होते हैं।"
यह ध्यान भी अन्तर्मुहूर्त तक धारण किया जाता है। इसके स्वामी अयोग केवली चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में बहत्तर और अन्तिम समय में तेरह कर्म प्रकृतियों को विनष्ट कर मुक्ति प्राप्त करते हैं। परमसिद्धात्मा बनकर अक्षय अनन्त अमूर्तिक हो सिद्धालय में विराजमान होते हैं।
उक्त प्रकार के ध्यान के भेद-प्रभेदों का वर्णन किया। ध्यान सभी तपों का सार है। ध्यान का सर्वातिशायी महत्व इसलिए है क्योंकि इसके द्वारा ही कर्मो की निर्जरा होकर मुक्ति प्राप्त होती है।