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अनेकान्त/54-2
आचार्य वीरसेन उपशांत कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुण स्थान तक के साधकों में शुक्ल ध्यान मानते हैं। पृथक्त्ववितर्कवीचार __ पृथक्त्व का अर्थ भेद है, वितर्क का अर्थ द्वादशांग श्रुत है वीचार का तात्पर्य अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति है। एक अर्थ से दूसरे अर्थ की प्राप्ति होना अर्थ संक्रान्ति है। एक व्यंजन से दूसरे व्यंजन में प्राप्त होकर स्थिर होना व्यंजन संक्रान्ति और एक योग से दूसरे योग में गमन होना योग संक्रान्ति है। इस प्रकार जिस ध्यान में वितर्क-श्रुत के पदों का पृथक्-पृथक् रूप से वीचार-संक्रमण होता रहे उसे पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान कहा जाता है।
उपशान्त कषाय वाला साधक या श्रेणी आरोहण करने वाला साधक शुक्ल लेश्या से युक्त रहता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल तक छह द्रव्य नौ पदार्थ विषयक चिन्तन करता है और उसी में स्थिर हो जाता है। अर्थ से अर्थान्तर का संक्रमण होने पर भी इस ध्यान का विनाश नहीं होता क्योंकि इससे चिन्तान्तर में गमन नहीं होता। यह दोनों श्रेणियों में होता है। एकत्ववितर्कवीचार ध्यान
यहां एक का भाव एकत्व है। वितर्क द्वादशांग को कहते हैं और अवीचार का अर्थ असंक्रान्ति है। अभेदरूप से वितर्क सम्बन्धी अर्थ व्यंजन और योगों का अवीचार (असंक्रान्ति) जिस ध्यान में होता है वह एकत्व वितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्ल ध्यान है। आदिपुराण में कहा है-जिस ध्यान में वितर्क के एकरूप होने के कारण वीचार नहीं होता अर्थात् जिसमें अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण नहीं होता उसे एकत्ववितर्कवीचार कहते हैं।
इस ध्यान का ध्याता शुक्ललेश्या वाला, मोह को नष्ट करने वाला, तीन योगों में से किसी एक योग का धारण करने वाला परमतपस्वी अमित तेजधारी महामुनि होता है। जो बारहवें गुणस्थान में पहुंचा हुआ होता है।