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अनेकान्त/54-2
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धर्म्यध्यान के ध्येय विषयों पर विचार करते हुए कहा गया है कि द्रव्यध्येय और भावध्येय दोनों वस्तुतः आत्म तत्व की उपादेयता का ही ग्रहण कराते हैं। द्रव्यध्येय में अरहन्त या परमेष्ठी ग्रहण होते हैं। भाव ध्येय में स्वरूप रूप मात्र का ग्रहण किया गया है। यथार्थ भूत ध्येय के ग्रहण से ही ध्यान की सिद्धि होती है। आचार्य रामसेन ने कहा है कि जब ध्याता ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य करके ध्येय स्वरूप में प्रविष्ट होने से स्वयं उस रूप हो जाता है, तब वही उस प्रकार के ध्यान की कल्पना से रहित होता हुआ परमात्मा स्वरूप हो जाता है । "
धर्म्यध्यान कषाय सहित जीवों के ही होता है इस बात की पुष्टि करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी धवला पुस्तक 13 में कहते हैं कि असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत क्षपक और उपशमक अपूर्वकरण संयत क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिसंयत क्षपक और उपशामक एवं सूक्ष्मसाम्पराय संयत क्षपक और उपशामक जीवों के धर्म्यध्यान की प्रवृत्ति होती है ऐसा जिनेन्द्र देव का उपदेश है इससे जाना जाता है कि धर्म्यध्यान कषाय सहित जीवों के ही होता है।
कषाय सहित प्राणी के होने के कारण यह एक वस्तु (आत्मा) में स्तोक काल तक ही रहता है। स्तोक काल के विषय में वीरसेन स्वामी हेतु देते हैं कि कषाय सहित परिणाम का गर्भगृह के भीतर स्थित दीपक के समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं पाया जाता है। 12 आचार्य वीरसेन स्वामी शुभोपयोग, शुद्धोपयोग दोनों में ही धर्म्यध्यान स्वीकार करते हैं।
धर्म्यध्यान के फल पर विचार करते हुए कहा गया है कि - अक्षपक जीवों को देव पर्याय सम्बन्धी विपुल सुख मिलना और कर्मों की गुणश्रेणी निर्जरा होना फल है तथा क्षपक जीवों के तो असंख्यातगुण श्रेणी रूप से कर्म प्रदेशों की निर्जरा होना और शुभ कर्मो का उत्कृष्ट अनुभाग का होना धर्म्यध्यान का फल है। अट्ठाईस प्रकार की मोहनीय की सर्वोपशमना और मोहनीय का विनाश भी फल है 1 44
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