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अनेकान्त / 54-2
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शरीर और वाणी भी उसी लक्ष्य की ओर लगते हैं वहां पर मानसिक, वाचिक और कायिक ये तीनों ध्यान एक साथ हो जाते हैं। " अर्थात् तीनों की एकता हो जाती है, स्थिरता हो जाती है।
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आचार्य जिनसेन ने ध्यान को ज्ञान की पर्याय कहा है उनका कहना है
यद्यपि ज्ञानपर्यायो ध्यानाख्यो ध्येयगोचरः । तथाप्येकाग्रसंदष्टो धत्ते बोधादि वान्यताम् ॥ 21/15 आ.पु.
अर्थात् यद्यपि ध्यान ज्ञान की ही पर्याय है और ध्यान करने योग्य पदार्थो को ही विषय करने वाला है तथापि एक जगह एकत्रित रूप से देखा जाने के कारण ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप व्यवहार को भी धारण कर लेता है।
सिद्धि की प्राप्ति हेतु विचारों का एकाग्र होना आवश्यक है यही कारण है कि भगवद्गीता', मनुस्मृति", रघुवंश" और अभिज्ञानशाकुन्तलम् 2 आदि में ज्ञान से ध्यान को विशिष्ट कहा गया है क्योंकि "स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति" अर्थात् ध्यान से मन स्थिर और शान्त हो जाता है, उसमें बुद्धि की स्फुरणा होती है।
वैदिक परम्परा में ज्ञान से ध्यान को विशिष्ट कहा है, किन्तु आदिपुराणकार तो ध्यान को ज्ञान की ही पर्याय स्वीकार करते हैं। साथ में उन्होंने ज्ञान की शुद्धि से ध्यान की शुद्धि भी कही है। 14 मन की चंचलता पर विजय बिना ध्यान के नहीं होती है।" यह सत्य है कि किसी भी एक विषय पर चित्त की एकाग्रता अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं हो सकती । " चित्त की एकाग्रता के फलस्वरूप चेतना के विराट् आलोक में चित्त विलीन हो जाता है अर्थात् ध्येय विषय में चित्त को स्थिर करना ही ध्यान है। 17
शुभ और अशुभ चिन्तवन के आश्रय से वह ध्यान प्रशस्त अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का स्मरण किया गया है। जो ध्यान शुभ परिणामों
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