________________
अनेकान्त / 54-2
cccccccoo
10000%
का अर्थ पीड़ा होता है अतः पीड़ा या दुःख संवेदनमय ध्यान को आर्त्तध्यान कहते हैं। 21 आर्त्तभावों से संक्लेशमय भावों (परिणामों) की परम्परा सतत रही है कर्तव्याकर्तव्य का विवेक न रहकर इस ध्यान वाला प्राणी कभी शान्ति और विश्राम को प्राप्त नहीं करता है आदिपुराण में आर्त्तध्यान के अन्तर्भेदों पर विचार किया गया है। वहां कहा गया है कि ऋत अर्थात् दुःख में हो वह पहला आर्त्तध्यान है जिसे चार भागों में विभक्त कर विशेष रूप से जाना जा सकता है इष्टवस्तु के न मिलने से, अनिष्ट वस्तु के मिलने से, निदान से, और पीड़ा आदि के निमित्त से । " किसी इष्टवस्तु के वियोग होने पर उनके संयोग के लिए बार-बार चिन्तवन करना सो प्रथम इष्टवियोगज नाम का आर्त्तध्यान है। किसी अनिष्ट वस्तु के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए निरन्तर चिन्तवन करना सो द्वितीय अनिष्ट संयोग नाम का आर्त्तध्यान है। आगामी काल सम्बन्धी भोगों की आकांक्षा में चित्त को तल्लीन करना तृतीय निदान नाम का आर्त्तध्यान है। इसकी विशेषता यह है कि यह ध्यान दूसरे की भोगोपभोग की सामग्री देखने से संक्लिष्ट चित्त वाले प्राणी के होता है। वेदना से पीड़ित प्राणी के द्वारा वेदना नष्ट करने के लिए चिन्तन करना या चित्त में लीन होना चतुर्थ वेदना जन्म नामक जन्म नामक आर्त्तध्यान है। 23 इनमें निदान नामक ध्यान को छोड़कर शेष तीन ध्यान मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानों तक जीवों के होते हैं। निदान पंचम देश विरत गुणस्थान वाले तक ही करते हैं। अशुभलेश्याओं के सद्भाव में ही यह ध्यान होता है, किन्तु पंचम और षष्ठ गुणस्थानों में जो आर्त्तध्यान संभव है वे शुभलेश्याओं के अवलम्बन से होते हैं। इसमें क्षायोपशमिकभाव की अवस्था रहती है। चारों गतियों में होता है । अन्तर्मुहूर्त इसका काल है 24 और अन्तर्मुहूर्त के बाद आलम्बन अवश्य बदल जाता है।
14
रौद्रध्यान- रुद्र-क्रूर परिणाम को कहते हैं आदिपुराण के शब्दों में
प्राणिनां रोदनात् रुद्रः क्रूरसत्वेषु निर्घृणः । पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ पर्व 21 श्लो 42
CCCCCCX