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अनेकान्त/54-2 SSSSSScccccccccc
-- जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीवों में निर्दय कहलाता है, ऐसे व्यक्ति में जो ध्यान होता है, वह रौद्र ध्यान है यह भी चार प्रकार का है। इसमें बांधने, जलाने, विदारण एवं मारणं ही चिन्ता में चित्त की स्थिरता होती है। हिंसा आदिक क्रियाओं में रौद्रध्यानी आनन्द मानता है। इसमें भौंह टेढ़ी मुख विकृत, पसीना, शरीर कम्पन और नेत्रों में रक्तता होना पाया जाता है। इसमें पाप प्रवृत्ति बढ़ती है अत: नरक गति का कारण है। देशव्रती भी इसके आश्रित हो जाते हैं। यह अत्यन्त अशुभ है। कृष्ण, नील, कापोत लेश्याओं वालों में मुख्यतः से होता है। इसके चार भेद हैं1. हिंसानन्द-त्रस या स्थावर जीवों का संक्लिष्ट परिणामों के वशीभूत होकर स्वयं घात करना या अन्य से कराना अथवा अन्य को करते देख प्रसन्न होना अथवा अन्य को प्राणी के वध, बन्धन, ताड़न मारण का नियोग मिला देना प्रथम रौद्रध्यान है यही आदिपुराण में वर्णित है। जीवों पर दया न करने वाला हिंसक व्यक्ति इस हिंसानन्द रौद्रध्यान के वश अपने आपका घात करता है, पीछे अन्य जीवों का घात करे या न करे। __ आचार्य जिनसेन ने तन्दुलमत्स्य को भावहिंसा से सातवें नरक जाने वाला कहा। अरविन्द विद्याधर को रुधिर से स्नान करने से रौद्रध्यान के फलस्वरूप नरक जाना पड़ा अत: इससे सदैव बचना चाहिए। 2. मृषानन्द-असत्य बोलकर लोगों को धोखा देने के लिए चिन्तन करना उसी में लीन होना मृषानन्द नाम का दूसरा रौद्रध्यान है। कठोर बोलना, आदि इसके बाह्य चिन्ह हैं।" 3. स्तेयानन्द-दूसरे के द्रव्य हरण करने अर्थात् चोरी करने में अपने चित्त को स्थिर कर आनन्द मानना तृतीय रोद्रध्यान है। 4. परिग्रहानन्द-क्रूर चित्त होकर आरम्भ परिग्रह रूप सामग्री का संग्रह करना अथवा अन्य के द्वारा परिग्रह के संचय को देखकर प्रसन्न होना चतुर्थ रौद्रध्यान है। गणधर देव ने इन रौद्रध्यानों का फल नरकगति के दु:ख प्राप्त होना बताया।"