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अनेकान्त/54-2
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आदिपुगण में प्रतिपादित ध्यान के भेद-प्रभेद
- डॉ. श्रेयांस कुमार जैन जैन संस्कृति के समग्र स्वरूप का प्रतिपादक आदिपुराण जैन साहित्य में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। इसमें आचार्यवर्य श्री जिनसेन स्वामी ने युगप्रवर्तक देवाधिदेव प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव और प्रथम चक्रवर्ती भरत के जीवन चरित को विस्तार पूर्वक वर्णित किया है साथ में इन दोनों शलाका पुरुषों से सम्बन्धित अन्य महापुरुषों और सामान्य जनों के जीवन वृत्तान्त को अन्त:कथाओं सहित चित्रित किया है। वर्ण्य शलाका पुरुषों के काल की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत को दर्शाने वाला यह महापुराण ग्रन्थ महाभारत और रामायण के समान विविध तत्वों और तथ्यों रूपी रत्नों को धारण करने वाला महार्णव है क्योंकि इसमें उक्त ऐतिहासिक ग्रन्थों के समान इतिहास पुरुषों के जीवन वृत्त का प्रतिपादन किया गया है और आगम तथा अध्यात्म विषयक विषयों का गुम्फन भी सहजता से किया गया है इसलिए महाभारत और रामायण के समान ही संस्कृत वाङ्मय में इसका गौरवपूर्ण स्थान है।
प्रथमानुयोग सम्बन्धी इस ग्रन्थराज में करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के प्रतिपाद्य विषयों का निरूपण ग्रन्थ की गरिमा को श्रीवृद्धि करने वाला है। आगम और अध्यात्म सम्बन्धी विभिन्न विषयों का वर्णन तो इस पुराण ग्रन्थ के गौरव को लोक शिखर पर पहुंचाने वाला है। मोक्षमार्गियों के लिए अध्यात्म विषय ही अत्यधिक उपयोगी और उपादेयभूत होते हैं। इन्हीं कल्याणकारी अध्यात्म विषयों के अन्तर्गत ध्यान का प्ररूपण आत्मोत्थान के लिए परम सहकारी है अत: आदिपुराण में वर्णित ध्यान के भेद-प्रभेद को समझने का सम्यक् उपक्रम किया जा रहा है।