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अनेकान्त/54-1
वैशाली के लिच्छवियों की न्याय प्रणाली की श्री शर्मा ने एक प्रकार से खिल्ली उड़ाई है। वे लिखते हैं “लिच्छवियों के गणराज्यों में एक के ऊपर एक सात न्यायपीठ होते थे जो एक ही मामले की सुनवाई बारी-बारी से सात बार करते थे। लेकिन यह अत्यधिक उत्तम होने के कारण अविश्वसनीय है।" इसके विपरीत श्री जायसवाल का मत है, "Liberty of the citizen was most jealously guarded A citizen could not be held guilty unless he was considered so by the Senapati, the Upraja and the Raja seperately and without dissent" (Hindu Polity, p 46) यह अतिरिक्त सावधानी उक्त सप्त व्यवस्था के अतिरिक्त थी। उसका सबसे उच्च निर्णायक गणतंत्र का अध्यक्ष होता था। आजकल भी तो प्रेसीडेंट को क्षमादान का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी है और उस पर अपनी टिप्पणी मंत्री ही भेजता है। 7. चंद्रगुप्त मौर्य दासी-पुत्र नहीं
श्री शर्मा ने अध्याय 14 को मौर्य युग नाम दिया है किंतु अन्य अध्यायों की भांति एक भी सहायक पुस्तक का नाम नहीं दिया है। अध्याय 23 में उन्होंने इतिहासकार श्री रामशंकर त्रिपाठी की पुस्तक का नाम दिया है। श्री त्रिपाठी की History of Ancient India भी उन्होंने देखी होगी। उसमें श्री त्रिपाठी ने इस बात का खण्डन किया है कि मुरा से मौर्य शब्द बना है। वास्तव में, नेपाल की तराई में पिप्पली गणतंत्र के क्षत्रिय मोरिय वंश में चंद्रगुप्त का जन्म हुआ था। इसलिए वे मौर्य कहलाए। ब्राह्मण परंपरा ने उन्हें निम्न उत्पत्ति का बतलाने के लिए यह कहानी गढ़ ली है ऐसा जान पड़ता है। इसी प्रकार इस परंपरा में जैन नंद राजाओं को भी शूद्र कहा गया है। कुछ इतिहासकार उसी को सच मान कर असत्य का साथ देते हैं। सम्राट् खारवेल के शिलालेख में स्पष्ट उल्लेख है कि नंद राजा कलिंगजिन की प्रतिमा उठा ले गया था, उसे वह वापस लाया है। स्पष्ट है कि नंद राजा जैन थे। श्री शर्मा ने तो खारवेल के शिलालेख के उल्लेख से ही परहेज किया है ऐसा जान पड़ता है। 8. जैन सम्राट् खारवेल के शिलालेख की अनदेखी
खारवेल का लगभग 2200 वर्ष प्राचीन शिलालेख भारत के पुरातात्विक इतिहास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वह आज भी विद्यमान है। श्री शर्मा ने उसका उल्लेख ही नहीं किया है। केवल पृ. 209 पर