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अनेकान्त / 54-1
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खारवेल का नाम लेकर हाथ धो लिए हैं। किंतु अगले ही पृष्ठ पर वसिष्ठ, नल, मान, माठर जैसे छोटे-छोटे राज्यों का उड़ीसा में होना पहिचान कर बताया है और यह लिखा है, " हर राज्य ने ब्राह्मणों को बुलाया था। अधिकांश राजा वैदिक यज्ञ करते थे। " यह है एक इतिहासकार का दृष्टिकोण । दीर्घजीवी मौर्य शासन के राजा जैन थे ऐसा लिखना वे न जाने किस कारण से भूल गए। अशोक को भी भांडारकर आदि विद्वानों ने जैन माना है। मौर्य वंश के सभी राजा जैन थे। ऐसा कथन इतिहास के साथ न्यायपूर्ण होता ।
9. दक्षिण भारत
श्री शर्मा ने दक्षिण भारत के सातवाहन और सुदूर दक्षिण के तीन राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु (प्राचीन नाम तमिलगम) और केरल में ब्राह्मण राजाओं का ही प्राधान्य, वैदिक यज्ञों का प्रचार आदि पर ही अधिक जोर दिया है। मौर्य शासन की समाप्ति (मौर्य राजा की हत्या उसके ब्राह्मण सेनापति ने की थी ) पर उनकी टिप्पणी है..." मौर्य साम्राज्य के खंडहर पर खड़े हुए कुछ नए राज्यों के शासक ब्राह्मण हुए। मध्य प्रदेश में और उससे पूर्व मौर्य साम्राज्य के अवशेषों पर शासन करने वाले शुंग और कण्व ब्राह्मण थे। इसी प्रकार दकन और आंध्र में चिरस्थायी राज्य स्थापित करने वाले सात वाहन भी अपने आपको ब्राह्मण मानते थे। इन ब्राह्मण राजाओं ने वैदिक यज्ञ किए जिनकी अशोक ने उपेक्षा की थी । "
इतिहास के ज्ञाता जानते हैं कि शुंग और कण्व वंश अल्पजीवी थे किंतु शर्माजी ने दीर्घजीवी मौर्ययुग के प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त के बारे में इतना भी नहीं लिखा कि वह जैनधर्म का अनुयायी था । इसका प्रमाण श्रीरंगपट्टन का शिलालेख है जो कि 600 ई. का है और इस पुस्तक की समय-सीमा में आता है।
आंध्र के सातवाहन वंश के एक राजा हाल ने महाराष्ट्री प्राकृत में गाथा सप्तशती लिखी है, उस पर जैन प्रभाव है। इस शासन में " प्राकृत भाषा का ही प्रचार था" (डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन) । प्राचीन जैन साहित्य में भी सातवाहन राजाओं के उल्लेख पाए जाते हैं। शायद श्री शर्मा का ध्यान इन तथ्यों की ओर नहीं गया। उन्होंने यह अवश्य लिखा है कि "उत्तर के कट्टर ब्राह्मण लोग आंध्रों को वर्णसंकर मान कर हीन समझते थे। " (पृ. 164)