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अनेकान्त/54-2 oooooooopeecapaci
महाभारत में एक श्लोक प्राप्त होने का उल्लेख मिलता है, जिसमें कहा गया है कि हे अर्जुन! अब तुम रथ पर आरोहण करो और गाण्डीव को धारण कर लो। समझो कि तुम पृथिवी को जीत चुके हो। क्योंकि सामने निर्ग्रन्थ गुरु विद्यमान हैं। _ 'आरोह रथं पार्थ गाण्डीवं चापि धारय। निर्जितां मेदिनीं मन्ये निर्ग्रन्थो गुरुरग्रतः॥
इससे स्पष्ट है कि महाभारत काल में जैन मुनि का अनन्त सम्मान था और उनका दर्शन शुभसूचक माना जाता था।
वेद ब्राह्मण, महाभारत के उल्लेखों के अतिरिक्त वैदिक पुराणों में ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन मिलता है। यह वर्णन जैन परम्परा में उपलब्ध वर्णन से अधिकांश समान है। श्रीमद्भागवत में तो उन्हें ईश्वर का आठवां अवतार कहकर प्रतिष्ठा दी गयी है। वहां यह भी कहा गया है कि ऋषभ के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ थे और उन्हीं के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया।
येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीत्, येनेदं वर्ष भारतमिति व्ययदिशन्ति। -पंचमस्कन्ध तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः। विख्यातवर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद्भुतम्॥ - एकादश स्कन्ध
भागवत के अतिरिक्त मार्कण्डेय पुराण, अग्निपुराण, वायुपुराण, कूर्मपुराण, गरुणपुराण, लिंगपुराण, वराहपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्दपुराण एवं ब्रह्माण्डपुराण में भी ऋषभदेव का वर्णन आया है। जो जैनधर्म की प्राचीनता के साथ-साथ उसकी महत्ता की अपरिहार्यता का भी सूचक है।
स्कन्दपुराण के प्रथमखण्ड में वर्णन आया है कि अपने पूर्वजन्म में वामन ने तप किया है। उस तपस्या के प्रभाव से शिव ने वामन को दर्शन दिये। वे शिव श्यामवर्ण दिगम्बर जैन पद्मासन से स्थित थे। वामन ने उनका नाम नेमिनाथ रखा। यह नेमिनाथ इस कलियुग में सर्वपापनाशक हैं। उनके दर्शन से कोटि यज्ञों का फल मिलता है। महाभारत के कुछ संस्करणों में एक श्लोक मिलता है -