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अनेकान्त/54-2
आर्ष-मार्ग लेखक-जवाहरलाल सिद्धान्त शास्त्री, भीण्डर (राज.) अनुमोदक-डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, सागर-जबलपुर
पं. नाथूलाल जी शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य इन्दौर
डॉ. चेतन प्रकाश पाटनी जोधपुर
पं. सागरमल जी विदिशा
डॉ. जय कुमार जी जैन मुजफ्फरनगर A. 'ऋषि प्रणीत शास्त्र' को आर्ष कहते हैं। अत: ऋषियों (आचार्यो-साधु
परमेष्ठियों) की वाणी को मुख्यता से प्रामाणिक मानने वाला मार्ग
आर्ष-मार्ग कहलाता है। B जिनेन्द्र देव वीतराग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी होते हैं। C. आत्मा तथा परमात्मा की शरण संसार नाश के अनन्य उपाय हैं। D. अनादि से जितने द्रव्य हैं उतने ही आज भी हैं। न घटा न बढ़ा। अत:
यह स्पष्ट है कि कोई किसी का कर्ता-हर्ता नहीं है। E. सब कुछ भाग्य और पुरुषार्थ के योग से ही होता है। F. वर्तमान काल के मुनिराज भी पूज्य हैं।' G. पंचम काल के अन्त तक भावलिंगी मुनि होंगे। । प्रत्येक कार्य दो कारणों से होता है-अंतरंग कारण तथा बहिरंग
कारण। 1. शुद्धोपयोग सातवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है, इसके पूर्व नहीं। J. व्यवहारनय झूठ नहीं होता।' K. अनेकान्त रूप समय के ज्ञाता पुरुष ऐसा विभाग नहीं करते कि 'यह
नय सच्चा है और यह नय झूठा है।" L. पुण्य और पाप कचित् समान हैं और कथंचित् असमान।'