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अनेकान्त/54-1
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वाले सर्वघाति स्पर्द्धकों का अनुदय होना चाहिए और मतिज्ञानावरण के देशघाति स्पर्द्धकों का उदय होना चाहिए।
सर्वधातिकर्म प्रकृतियों के विषय में यह ज्ञातव्य है कि ये स्वमुख से क्षय को प्राप्त नहीं होती हैं। सर्वघाति द्रव्य देशघाति रूप बदलकर ही क्षय को प्राप्त होता है। एक उदाहरण के माध्यम से इस प्रकार से जाना जा सकता है कि नगर निगम की विशाल टंकी जल से भरी हुई है, किन्तु उससे सीधा पानी नहीं लिए जाने के कारण वह खाली नहीं होती है, उस टंकी से पानी पाइप के द्वारा उपभोक्ता के मकान तक पहुंचता है। मकान में लगे हुए जल मीटर से निकलकर रसोई या स्नानगृह में लगी हुई टोंटी से पानी उपभोक्ता व्यय करता है। पानी घर में लगी टोंटी से व्यय होता है और खाली नगर निगम की मुख्य टंकी होती है। इसी प्रकार सर्वघातिकर्म प्रकृतियों का द्रव्य देशघाति रूप परिवर्तित होकर देशघाति रूप से क्षय होता है और सर्वघाति प्रकृति शक्तिहीन होती जाती है। अनन्तर पूर्ण रूप से क्षय को प्राप्त हो जाती हैं।
धवल आदि आगम ग्रन्थों में सर्वघाति और देशघति प्रकतियों के विषय में शंका समाधान के माध्यम से बहुत अधिक ऊहा-पोह किया गया है। यहाँ एक ही प्रसंग लिया जा रहा है। शंका-केवलज्ञानावरणीय कर्म सर्वघाति या देशघाति हैं। सर्वघाति नहीं हो सकता है। क्योंकि केवलज्ञान का अभाव मान लेने पर जीव के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। देशघाति भी नहीं हो सकती है क्योंकि आगम सर्वघाति कहा जाने के कारण सूत्र का विरोध हो जाएगा। समाधान यह है-केवल ज्ञानावरण सर्वघाति प्रकृति ही है क्योंकि वह केवलज्ञान का नि:शेष आवरण करती है, फिर भी जीव का अभाव नहीं होता क्योंकि केवलज्ञान के अनावृत होने पर भी चार ज्ञानों का अस्तित्व उपलब्ध होता है।
मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघातिपने को सकारण सिद्ध किया गया है और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के भी सर्वघातिपने की सिद्धि की गई। सम्यक्त्व प्रकृति के देशघातिपने को बतलाया है। कसायपाहुड़, षटखण्डागम आदि आगम ग्रन्थों से विस्तारपूर्वक जानना श्रेयस्कर होगा।
उपर्युक्त प्रतिपादन सर्वघाति और देशघाति कर्म प्रकृतियों के स्वरूप और कार्य पर संक्षिप्त ही प्रकाश डालना है विशेष बोध हेतु करुणानुयोग का विपुल साहित्य उपलब्ध है।