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अनेकान्त/54-1
पाया जाता है, वह द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है। जिसमें हड्डी के समान सघन होकर अतिकठिन फलदान शक्ति युक्त अनुभाग पाया जाता है, वह त्रिस्थानीय अनुभाग कहलाता है। जिसमें पाषाण के समान कठिनतम सघन फलदान शक्तियुक्त अनुभाग पाया जाता है, वह चतु:स्थानीय अनुभाग कहलाता है। आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कर्म प्रकृतियों की तरतमावस्था को लता, दारु अस्थि और शैल के उदाहरण द्वारा ही स्पष्ट किया है। अर्थात् ज्ञान को आच्छादित करने वाली प्रकृति मोहनीय और विघ्न की कारणभूतअन्तराय प्रकृति की शक्ति लता, दारु अस्थि और शैल के समान है, जिस प्रकार लता आदि में क्रमश: अधिक-अधिक कठोरता पाई जाती है, उसी प्रकार इन कर्म स्पर्द्धक-कर्मवर्गणा समूहों में अपने फल देने की शक्ति रूप अनुभाग क्रमशः अधिक अधि क पाया जाता है। इन लता, दारु, अस्थि और शैल में से लता भाग के सम्पूर्ण और दारु के बहुभाग स्पर्द्धक देशघाति हैं, क्योंकि ये स्पर्द्धक आत्मा के सम्पूर्ण गुणों का घात नहीं करते हैं। दारु के शेष स्पर्द्धक और अस्थि व शैल के सम्पूर्ण स्पर्द्धक सर्वघाति कहलाते हैं क्योंकि ये आत्मा के किसी भी गुण या गुणांश को उत्पन्न नहीं होने देते हैं। एक ही कर्म प्रकृति में देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकार के शक्त्यंश भी पाये जाते हैं जैसे जहाँ अवधिज्ञान का अंश भी प्रकट न हो, वहाँ अवविज्ञान के सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदय जानना चाहिए जहाँ अवधिज्ञान और अवधि ज्ञानावरण भी पाया जाता है, वहाँ अवधिज्ञानावरण के देशघाति शक्त्यंशों का उदय जानना। दोनों प्रकार के स्पर्धक केवल देशघाति कर्म प्रकृतियों में ही होते हैं। जो प्रकृतियां सर्वघातिनी हैं, उनके सभी स्पर्द्धक देशघाति होते हैं अर्थात् जो स्पर्द्धक त्रिस्थानिक और चतुः स्थानिक रसवाले होते हैं, वे देशघाति भी होते हैं और सर्वघाति भी होते हैं किन्तु एक स्थानिक रसवाले स्पर्द्धक देशघाति ही होते हैं।
आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने मूल कर्म प्रकृतियों में से मिथ्यात्व प्रकृति का वैशिष्ट्य बताते हुए कहा है-लता भाग से लेकर दारु के अनन्तवें भाग बिना शेष बहुभाग के अनन्त खण्ड करें, उनमें से एक खण्ड प्रमाण स्पर्द्धक भिनन ही जाति की सर्वघाति मिश्र प्रकृतिरूप हैं तथा शेष दारु के बहुभाग और अस्थि तथा शैलरूप स्पर्द्धक सर्वघाति मिथ्यात्वप्रकृति रूप जानना" आर्यिका 105 श्री आदिमती जी ने एक उदाहरण के माध्यम से इस विषय को स्पष्ट किया है : "माना कि दर्शनमोहनीयकर्म की