________________
अनेकान्त/54-1
31
माध्यम से वह जिस अर्थ को चाहे उस अर्थ को व्यक्त कर दे, इसलिए अर्थ निर्णय भी उसके अधीन होता है और संसार में चूँकि अर्थ रूप विषय अनंत हैं, इसलिए कविता कामिनी की भाषा के नवरस भी बड़े स्फुट बड़े स्पष्ट होते हैं और जब ये तीनों चीजें स्पष्टतया रचनाकार को प्राप्त हो रही हों तो रचना की भाषा को बाँधाने वाली जटिल से जटिल छंदों की व्यवस्था भी उसे बड़ी आसानी से लभ्य हो जाती है, क्योंकि रचनाकार छंदशास्त्र का विधिवत् अधिकारी तो होता ही है, इसीलिए बारहवें पर्व में कविवर जिनसेन ने ऐसे-ऐसे जटिल छंदों को प्रस्तुत किया है, जिससे लगता है मानों वे अलभ्य या कष्टलभ्य छंदों का शास्त्र ही रच रहे हों (निगूढार्थक्रियापादैः बिन्दुमात्राक्षरक्ष्युतैः। देव्यस्ता रञ्जयामासुः श्लोकैरन्यैश्च कैश्चन ||12/21311) इसके बाद भी यदि किसी रचनाकार से उत्तम कवितारूप भाषा का सर्जन नहीं होता तो आचार्य जिनसेन की मान्यतानुसार इससे बड़ी दरिद्रता और क्या होगी अर्थात् रचनाकार को उत्तम काव्यभाषामई रचना की गढ़ना चाहिए।
इस प्रकार कुल मिलाकर बात यह निकलकर आती है कि आचार्य जिनसेन के अनुसार काव्यभाषा प्रसाद आदि गुणों से युक्त, अलंकारों से सज्जित, नई उद्भावना रूप मूलभावनाओं से युक्त अर्थात् मौलिक, प्रतीकार्थव्यंजक सज्जनचित्तवल्लभ रूप अभिलक्षणों से युक्त होती है।
आदिपुराण की काव्यभाषा अधिकांशतः प्रसाद और माधुर्य गुणों से ओतप्रोत अलंकारमयी है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, अर्थान्तरन्यास और दृष्टान्त तो छंद-छंद में पग-पग पर देखने को मिल जाते हैं, पर परिसंख्या जैसे अलंकार भी कविवर से नहीं छूटते। इसलिए तो वे गन्धिला देश का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वहाँ के मनुष्यों की प्रीति पात्रदान आदि में ही थी, विषय वासनाओं में नहीं। उनकी शक्ति शील व्रत की रक्षा के लिए ही थी निर्बलों को पीडित करने के लिए नहीं और उनकी रुचि प्रोषधोपवास धारण करने में ही थी वारांगनाओं आदि विषय के साधनों में नहीं।
यत्र सत्पात्रदानेषु प्रीतिः पूजासु चाहताम्। शक्तिरात्यन्तिकी शीले प्रोषधे च रतिर्नृणाम्।4/57॥