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अनेकान्त/54-1
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लगने लगता है कि आकाशगंगा के जल के समान स्वच्छ प्रभु के चरणों के नखों की किरणें जब उसके सिर पर पड़ रही हैं तो ऐसी लगती हैं मानों वे उसका सब ओर से अभिषेक ही कर रही हों। यह है भक्ति की पराकाष्ठा और उत्प्रेक्षा का भी अतुलनीय रूप कि भक्त इतना तक भूल जाता है कि प्रभु का अभिषेक करना उसकी दैनन्दिन क्रिया है, प्रभु की नहीं; इसीलिए तो उसे लगता है कि प्रभु की नख-किरण रूप आकाश-जलधारायें उसका अभिषेक करा रहीं हैं। यह है कवि जिनसेन की काव्यभाषा में व्यक्त भक्तिरस की पराकाष्ठा और उत्प्रेक्षा की उत्तम अभिव्यक्ति को लिए उनकी काव्यभाषा।
पुण्याभिषेकमभितः कुर्वनतीव शिरस्सु नः। व्योमगङ्गाम्बुसच्छाया युष्मत्पादनखांशवः।।2/5॥
इतना ही नहीं, भक्त आगे और कहता है कि हे भगवन्। जिस प्रकार सूर्य रात में निमीलित हुए कमलों को शीघ्र ही प्रबोधित/विकसित कर देता है उसी प्रकार आपने अज्ञान रूपी निद्रा में निमीलित/सोये हुए इस समस्त जगत् को प्रबोधित/जागृत कर दिया है। हृदय में जिस अज्ञानरूपी अंधकार को चन्द्रमा अपनी किरणों से छू तक नहीं सकता और सूर्य भी जिसका संस्पर्श तक नहीं कर सकता, उसे आप अपने वचन रूपी किरणों से अनायास ही नष्ट कर देते हैं। यह है प्रभु और सन्मार्गी प्रभुभक्त की यथार्थस्थिति। जो लोक के असंभव को संभव बना देती है, इसलिए है यथार्थ के साथ-साथ पारलौकिक भी।
त्वया जगदिदं कृत्स्नमविद्यामीलितेक्षणम्। सद्यः प्रबोधमानीतं भास्वतेवाब्जिनीवनम्।2/7॥ यन्नेन्दुकिरणैः स्पृष्टमनालीढं रवेः करैः। तत्त्वया हेलयोदस्तमन्तर्ध्वान्तं वचोंऽशुभिः।।2/8॥
बात इतनी ही नहीं, इस भक्ति रस से केवल भक्त ही बँधता हो बल्कि भज्य अर्थात् योगी भी बँधता है, इसीलिए तो अन्यत्र आचार्य की उक्ति है
भक्तिग्राह्या हि योगिनः।।2/83॥