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अनेकान्त/54-1
__कितना गूढ़ विवेचन किया है बड़े सीधे शब्दों में आचार्य ने, लगता है मानों तत्त्वदर्शन की गाँठ ही खोल दी हो। उपर्यंकित प्रसंगों से हमें आदिपुराण की भाषा को काव्यभाषा के रूप में या शास्त्र भाषा के रूप में या रि किसी अन्य रूप में पूरी तरह मानने से पहले यह आवश्यक लगता है कि हम उन बिन्दुओं को भी तलाशें जिनके आधार पर आदिपुराण की पुराण्ता है; स्वयं आचार्य कहते हैं कि यह ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रचलित है, इसलिए पुराण कहलाता है और चूंकि महापुरुषों का वर्णन है और है उनका उपदेश इसलिए उसके पठन-पाठन से है यह महापुराण।
पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात्। महभिरुपदिष्टत्वात् महाश्रेयोऽनुशासनात्।।1/21॥ कविं पुराणमाश्रित्य प्रसृतत्वात् पुराणता। महत्त्वं स्वमहिम्नव तस्येत्यन्यैर्निरुच्यते॥1/22॥ महापुरुषसंबन्धि महाभ्युदयशासनम्। महापुराणमाम्नातमत एतन्महर्षिभिः॥23॥
बात इतनी ही नहीं, यह ग्रन्थ ऋषि प्रणीत होने के कारण आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने के कारण सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र, 'यहाँ ऐसा हुआ' ऐसी अनेक कथाओं के इसमें उपनिबद्ध होने के कारण यह 'इतिहास', 'इतिवृत्त' व 'ऐतिह्य' भी कहलाता है। वस्तुत: इतिहास 'यहाँ ऐसा हुआ' का चिट्ठा भर नहीं होता क्योंकि जो ऐसा होता है और चला जाता है, वह इतिहास का अंग नहीं बनता या बन पाता, इसका कारण यह कि वह सहसा हुआ होता है। इतिहास का अंग बनता है "ऐसा होता आया है" इसलिए इतिहास में "ऐसे हए" की निरन्तरता होती है, इसीलिए पुराण की भाषा एक हुई कहानी को नहीं कहती, वह कहती है/उपनिबद्ध करती है कहानियों की श्रृंखला को, आदिपुराण की भाषा भी ऐसे ही जीव के आत्मिक गुणों के विकास को संजोने वाली कहानियों की लम्बी सरणि है, एक छूटती है तो दूसरी सम्मुख है, इसीलिए इसकी भाषा छोड़ती भी है छुड़ाती भी है और जोड़ती भी है। यह छोड़ती है वह सूत्र जिससे आप आत्मसम्मुख हो सके, छुड़ाती है संसार के बंधन को और जोड़ती है प्रत्येक आत्मा को उसकी निष्कलंक अवस्था के मार्ग से।