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अनेकान्त / 54-1 202020
ग्रहण करता है यथा तपाया हुआ लोहे का गोला सर्वाग से जल को ग्रहण करता है।
कर्मत्व की अपेक्षा समस्त कर्मों को एक कहा जा सकता है, किन्तु द्रव्यकर्म और भावकर्म की अपेक्षा से उसके दो भेद हो जाते हैं, जो जिस पुद्गल पिण्ड को ग्रहण करता है, वह द्रव्यकर्म है और उसकी फलदायिनी शक्ति का नाम भावकर्म है । जीव के भावों का निमित्त पाकर 'कर्म' नामक सूक्ष्म जड़ द्रव्य जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित हो जाता है। नाना प्रकार के फल को देता है, उसी का निरूपण किया जा रहा है। । आगम में अनुभागबन्ध को 24 अनुयोग द्वारों का आलम्बन लेकर ओघ और आदेश प्रक्रिया अनुसार विस्तार से निबद्ध किया गया है। प्रथमतः संज्ञा अनुयोग द्वार में संज्ञा के दो भेद बतलाये गये हैं- ( 1 ) घातिसंज्ञा (2) स्थानसंज्ञा ।
जो आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, वीर्य दान, लाभ, भोग और उपभोग आदि अनुजीवी गुणों का घात करते हैं, उन्हें घातिकर्म कहते हैं। ये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार कर्म हैं तथा जो कर्म उक्त ज्ञान दर्शन आदि गुणों का घात करने में समर्थ नहीं हैं, उन्हें अघातिकर्म कहते हैं। इनके नाम वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र हैं ।
घातिया और अघातिया कर्मों पर विशेष विचार करने से पूर्व मूल कर्मप्रकृतियों के क्रम और उनकी संगति पर विचार कर लेना भी उचित है।
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं । आउगणामं गोदंत्तरायमिदि अट्ठ पयडीओ ॥ गो. कर्म.गा. 8
ज्ञानावरण. दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्म की मूल प्रकृतियां हैं।
मूल कर्म प्रकृतियां घातिकर्म और अघातिकर्म के रूप में विभक्त हैं किन्तु वेदनीय नामक अघातिकर्म को घातिकर्म के साथ रखना और अन्तराय नामक घातिकर्म को अघातिकर्म के साथ रखना साभिप्राय है। इसी पर विचार किया जा रहा है : वेदनीय कर्म की गणना मोहनीय कर्म से पूर्व घातियाकर्मों के साथ की गई किन्तु जीवविपाकी नाम और वेदनीय कर्मों को घातिया नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उनका कार्य अनात्मभूत
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