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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
भामह की अलङ्कार-धारणा के इस विवेचन तथा भरत की अलङ्कार, लक्षण तथा गुण विषयक मान्यता के सन्दर्भ में उसके अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भरत के बाद भामह में जिन पैंतीस नवीन अलङ्कारों की गणना हुई है, उनमें से अधिकांश की उत्पत्ति भरत के मूल अलङ्कारों, लक्षणों तथा गुणों से हुई है। कुछ अलङ्कार भरत के किसी विशेष अलङ्कार के भेद-मात्र हैं। उनके दो अलङ्कारों को मिला कर भी भामह ने नवीन अलङ्कार की कल्पना कर ली है। कुछ अलङ्कार उनके विशेष लक्षणों से अभिन्न हैं तथा कुछ अलङ्कारों की उत्पत्ति एकाधिक लक्षणों के मिश्रण से हुई है । भरत के कुछ अलङ्कार तथा लक्षण के परस्पर योग से भी भामह के नवीन अलङ्कारों का आविर्भाव हुआ है। नाट्यशास्त्र के कुछ गुणों का भी नवीन अलङ्कारों की सृष्टि में योगदान है। कहीं एकाधिक गुणों के परस्पर मेल से तथा कहीं गुण का लक्षण के साथ योग से नवीन अलङ्कारों का निर्माण हुआ है। इसके अतिरिक्त भामह के कुछ अलङ्कार भरत के रस, भाव आदि से सम्बद्ध हैं। कुछ अलङ्कार अवश्य मौलिक हैं, जिनके स्वरूप की कल्पना भरत ने अलङ्कार, लक्षण तथा गुण के सन्दर्भ में नहीं की थी।
इस प्रकार उद्भव की दृष्टि से भामह के अलङ्कारों का निम्नलिखित दश वर्गों में विभाजन किया जा सकता है:
१. मूल अलङ्कार के रूपान्तरः-भामह के अनुप्रास, अनन्वय, उपमेयोपमा तथा उत्प्रक्षा भरत के मूल अलङ्कारों के आधार पर ही कल्पित हैं। अनुप्रास भरत के यमक का भेद-मात्र है । उत्प्रेक्षा कल्पितोपमा के आधार पर कल्पित है तथा अनन्वय एवं उपमेयोपमा उपमा के ही रूप-भेद हैं ।
२. एकाधिक अलङ्कारों के योग से उत्पन्न:-इस वर्ग में भामह के दो अलङ्कार आते हैं-उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव । उपमारूपक अलङ्कार में उपमा तथा रूपक अलङ्कारों का समन्वित रूप है। उत्प्रेक्षावयव में उत्प्रक्षा, रूपक तथा श्लिष्ट अलङ्कारों का समवाय है। इनमें से रूपक-धारणा भरत की है, उत्प्रेक्षा उन्हीं की कल्पितोपमा के आधार पर कल्पित है तथा श्लिष्ट भामह की अंशतः मौलिक धारणा है ।
३. भरत के लक्षण से समुद्भूतः-भामह के प्रेय तथा विरोध अलङ्कारों का मूल क्रमशः प्रोत्साहन लक्षण के पाठभेद प्रियोक्ति तथा उपपत्ति लक्षणों में है।