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अलङ्कार-धारणा का विकास
[५५ नहीं है, विभिन्न अलङ्कारों के योग से उत्पन्न छटा का द्योतक है। भरत ने भूषण लक्षण में अनेक अलङ्कारों तथा अनेक गुणों के एकत्र निवेश की कल्पना की है। उसी धारणा से संसृष्टि अलङ्कार की कल्पना उत्प्रेरित जान पड़ती है। भाविक
भामह ने भाविक को प्रबन्धगत गुण कहा है; किन्तु अलङ्कारों में भाविक की गणना किये जाने से यह स्पष्ट है कि उन्होंने गुण शब्द का प्रयोग अलङ्कार के पर्याय के रूप में किया है। यह अलङ्कार वाक्यगत नहीं, प्रबन्धगत है । जिस प्रबन्ध में अतीत या भावी अर्थ का इस प्रकार वर्णन होता है कि वे प्रत्यक्ष-से हो उठते हैं, उसमें भाविक अलङ्कार माना गया है।' अर्थ-वर्णन की स्फुटता इसमें अपेक्षित है। भाविक को अलङ्कार मानना निर्धान्त नहीं है। अर्थ-वर्णन में कवि का यह कौशल कि वह भूत या भावी अर्थ को पाठक की कल्पना-दृष्टि के सामने प्रत्यक्ष कर दे, कविकर्म की सफलता के लिए आवश्यक शत है। भामह ने भाविक में विचित्र, उदात्त तथा अद्भुत अर्थों का स्पष्ट शब्दों में वर्णन वाञ्छनीय माना है। भरत ने उदारता गुण में अद्भुत, विचित्र तथा अनेक भाव संयुक्त अर्थ के वर्णन पर बल दिया है तथा अर्थव्यक्ति में स्पष्ट शब्दों में अर्थ का स्फुट वर्णन वाञ्छनीय माना है। इन्हीं गुणों की धारणा के साथ अप्रत्यक्ष अर्थ-वर्णन की धारणा को मिला कर भामह ने भाविक अलङ्कार की कल्पना कर ली है। इसके अलङ्कारत्व के सम्बन्ध में परवर्ती आचार्यों में मतैक्य नहीं है।
प्राशी
आशीः की ओर निर्देश करते हुए भामह ने कहा है कि कुछ लोग इसे भी अलङ्कार मानते हैं। १. अलङ्कारैगुणश्चैव बहुभिर्यदलङ कृतम् ।
भूषणैरिव विन्यस्तैस्तद्भूषणमिति स्मृतम् ॥-भरत, ना० शा०, १६,५ २. भाविकत्वमिति प्राहुः प्रबन्धविषयं गुणम् । __ प्रत्यक्षा इव दृश्यन्ते यत्रार्था भूतभाविनः ।
–भामह, काव्यालं० ३, ५३ ३. आशीरपि च केषाञ्चिदलङ्कारतया मता।
-वही, , ३, ५५ .