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जब शय्यम्भव दीक्षित हुए तब उनकी पत्नी गर्भवती थी। ब्राह्मणवर्ग कहने लगा शय्यम्भव बहुत ही निष्ठुर व्यक्ति है जो अपनी युवती पत्नी का परित्याग कर साधु बन गया। स्त्रियां शय्यम्भव की पत्नी से पूछतीं—क्या तुम गर्भवती हो ? वह संकोच से 'मणयं' अर्थात् मणाक शब्द का प्रयोग करती। इस छोटे से उत्तर से परिवार वालों को संतोष हुआ। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम माता द्वारा उच्चरित 'मणयं' शब्द के आधार पर 'मनक' रखा गया। वह बहुत ही स्नेह से पुत्र मनक का पालन करने लगी। बालक आठ वर्ष का हुआ, उसने अपनी मां से पछ, मेरे पिता का नाम क्या है ? उसने सारा वृत्त सना दिया कि तेरे पिता जैन मुनि बने और वर्तमान में वे जैन संघ के आचार्य हैं। माता की अनुमति लेकर वह चम्पा पहुंचा। आचार्य शय्यम्भव ने अपने ही सदृश मनक की मुख-मुद्रा देखी तो अज्ञात स्नेह बरसाती नदी की तरह उमड़ पड़ा। बालक ने अपना परिचय देते हुए कहा मेरे पिता शय्यम्भव हैं, क्या आप उन्हें जानते हैं ? शय्यम्भव ने अपने पुत्र को पहचान लिया। मनक को आचार्य ने कहा मैं शय्यम्भव का अभिन्न (एक शरीरभूत) मित्र हूं। आचार्य के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर मनक आठ वर्ष की अवस्था में मुनि बना। आचार्य शय्यम्भव ने बालक मनक की हस्तरेखा देखी। उन्हें लगा—बालक का आयुष्य बहुत ही कम है। इसके लिए सभी शास्त्रों का अध्ययन करना संभव नहीं है। दशवैकालिक का रचना काल
अपश्चिम दशपूर्वी विशेष परिस्थिति में ही पूर्वो से आगम नि!हण का कार्य करते हैं। आचार्य शय्यम्भव चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने अल्पायुष्क मुनि मनक के लिए आत्म-प्रवाद से दशवैकालिकसूत्र का निर्वृहण किया।३५ छह मास व्यतीत हुए और मुनि मनक का स्वर्गवास हो गया। शय्यम्भव श्रुतधर तो थे पर वीतराग नहीं थे। पुत्रस्नेह उभर आया और उनकी आँखें मनक के मोह से गीली हो गईं। यशोभद्र प्रभृति मुनियों ने खिन्नता का कारण पूछा। आचार्य ने बताया कि मनक मेरा संसारपक्षी पुत्र था, उसके मोह ने मुझे कुछ विह्वल किया है। यह बात यदि पहले ज्ञात हो जाती तो आचार्यपुत्र समझ कर उससे कोई भी वैय्यावृत्य नहीं करवाता, वह सेवाधर्म के महान् लाभ से
-दशवै. हारि. वृत्ति, पत्रांक ११ (१)
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ५ -दशवै. हारि. वृत्ति, पत्रांक ११.(२)
–परिशिष्ट पर्व, सर्ग ५
३०. जया य सो पव्वइओ तया य तस्स गुठ्विणी महिला होत्था । ३१. अहो शय्यम्भवो भट्टो निष्ठुरेभ्योऽपि निष्ठुरः ।
स्वां प्रियां यौवनवीं सुशीलामपि योऽत्यजत् ॥ ५७॥ ३२. मायाए से भणिअ 'मणग' ति तम्हा मणओ से णामं कयंति । ३३. एवं च चिन्तयामासशय्यम्भवमहामुनिः ।
अत्यल्पायुरयं बालो भावी श्रुतधरः कथम् ॥ ८२॥ ३४. अपश्चिमो दशपूर्वी श्रुतसारं समुद्धरेत् ।
चतुर्दशपूर्वधरः पुनः केनापि हेतुना ॥ ८३॥ ३५. (क) सिद्धान्तसारमुद्धृत्याचार्यः शय्यम्भवस्तदा ।
दशवैकालिकं नाम श्रुतस्कन्धमुदाहरत् ॥ ८५॥ (ख) दशवैकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र १२ ३६. आणंद-अंसुपायं कासी सिजंभवा तहिं थेरा । जसभद्दस्स य पुच्छा कहणा अ विआलणा संघे ॥
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-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ५
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग ५
—दशवै. नियुक्ति ३७१