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अभिमतानुसार दशवैकालिक आचार और गोचर की विधि का वर्णन करने वाला सूत्र है।५ ज्ञानभूषण के प्रशिष्य शुभचन्द्र के अभिमतानुसार दशवकालिक का विषय गोचरविधि और पिण्डविशुद्धि है।६ आचार्य श्रुतसागर के अनुसार इसे वृक्ष-कुसुम आदि का भेदकथक और यतियों के आचार का कथक कहा है। ___दशवैकालिक में आचार-गोचर के विश्लेषण के साथ ही जीव-विद्या, योग-विद्या जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी की गई है। यही कारण है कि इस आगम की रचना होने के पश्चात् अध्ययन-क्रम में भी आचार्यों ने परिवर्तन किया, जैसा कि हम पूर्व में लिख चुके हैं।
व्यवहारभाष्य के अनुसार अतीत काल में आचारांग के द्वितीय लोकविजय अध्ययन के ब्रह्मचर्य नामक पांचवें उद्देशक के आमगंध सूत्र को बिना जाने-पढ़े कोई भी श्रमण और श्रमणी पिण्डकल्पी अर्थात् भिक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं हो सकता था। जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तो उसके पिण्डैषणा नामक पांचवें अध्ययन को जानने व पढ़ने वाला पिण्डकल्पी होने लगा। यह वर्णन दशवैकालिक के महत्त्व को स्पष्ट रूप से उजागर करता
दशवैकालिक के रचनाकार का परिचय
प्रस्तुत आगम के कर्ता आचार्य शय्यम्भव हैं। वे राजगृह नगर के निवासी थे। वत्स गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म वीर निर्वाण ३६ (विक्रम पूर्व ४३४) में हुआ। वे वेद और वेदांग के विशिष्ट ज्ञाता थे। जैनशासन के प्रबल विरोधी थे, जैनधर्म के नाम से ही उनकी आंखों में अंगारे बरसते थे। जैनधर्म के प्रबल विरोधी प्रकाण्ड विद्वान शय्यम्भव को प्रतिबोध देने के लिए आचार्य प्रभव के आदेश से दो श्रमण शय्यम्भव के यज्ञवाट में गए और धर्मलाभ कहा। श्रमणों का घोर अपमान किया गया। उन्हें बाहर निकालने का उपक्रम किया गया। श्रमणों ने कहा-'अहो कष्टमहो कष्टं तत्त्वं विज्ञायते न हि' अहो ! खेद की बात है, तत्त्व नहीं जाना जा रहा। श्रमणों की बात शय्यम्भव के मस्तिष्क में टकराई पर उन्होंने सोचा—यह उपशान्त तपस्वी झूठ नहीं बोलते। हाथ में तलवार लेकर वह अपने अध्यापक के पास पहुंचे और बोले तत्त्व का स्वरूप बताओ, यदि नहीं बताओगे तो मैं तलवार से तुम्हारा शिरच्छेद कर दूंगा। लपलपाती तलवार को देखकर अध्यापक कांप उठा। उसने कहा—अर्हत् धर्म ही यथार्थ धर्म और तत्त्व है। शय्यम्भव अभिमानी होने पर भी सच्चे जिज्ञासु थे। वे आचार्य प्रभव के पास पहुंचे। उनकी पीयूषस्रावी वाणी से बोध प्राप्त कर दीक्षित हुए। आचार्य प्रभव के पास उन्होंने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और श्रुतधरपरम्परा में वे द्वितीय श्रुतधर हुए।
२५. दसवेयालियं आयार-गोयर-विहिं वण्णेइ ।
-षटखंडागम, सत्प्ररूंपणा १-१-१, पृ. ९७ २६. जदि गोचरस्स विहिं, पिंडविसुद्धिं च जं परूवेहि । दसवेआलियसुत्तं , दहकाला जत्थ संवुत्ता ॥
-अंगपण्णत्ती ३/२४ २७. वृक्षकुसुमादीनां दशानां भेदकथकं यतीनामाचारकथकं च दशवैकालिकम्। –तत्त्वार्थवृत्ति श्रुतसागरीया, पृ. ६७ २८. वितितमि बंभचेरे पंचम उद्देसे आमगंधम्मि । सुत्तमि पिंडकप्पो इह पुण पिंडेसणाए ओ ॥
–व्यवहारभाष्य, उ. ३, गा. १७५ तेण य सेजंभवेण दारमूले ठिएणं तं वयणं सुअं, ताहे सो विचिंतेइ-एए उक्संता तवस्सिणो असच्चं ण वयंति ।
-दशवै. हारि. वृत्ति, पत्रांक १०-११ [२२]