Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
चूर्णिकार 'अस्सिपडियाए' पाठान्तर मानकर इसका संस्कृत रूपान्तर 'अस्मिन् प्रतिज्ञाय' स्वीकार करके अर्थ करते हैं - 'अस्मिन् साधु एगं प्रतिज्ञाय प्रतीत्य वा'- किसी एक साधु के विषय में प्रतिज्ञा करके कि मैं इसी साधु को दूंगा, अथवा किसी एक साधु की अपेक्षा से। हमें पहला अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है।
तीन प्रकार का उद्देश्य- इन दोनों सूत्रों में तीन प्रकार के उद्देश्य से निष्पन्न आहार का प्रतिपादन है___ (१) किसी एक या अनेक साधर्मिक साधु या साध्वी के उद्देश्य से बनाया हुआ तथा क्रीत आदि तथाप्रकार का आहार।
(२) अनेक श्रमणादि को गिन-गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ। (३) अनेक श्रमणादि के उद्देश्य से बनाया हुआ। ये तीनों प्रकार के आहार आद्देशिक होने से २ दोषयुक्त हैं, इसलिए आग्राह्य हैं। 'साहम्मियं.... का अर्थ है साधर्मिक। अर्थात् जो आचार, विचार और वेष से समान हो। ३
'समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए'- का अर्थ है- श्रमण, माहन, अतिथि, दरिद्र और याचक। श्रमण पांच प्रकार के होते हैं (१) निर्ग्रन्थ - (जैन), (२) शाक्य (बौद्ध), (३) तापस, (४) गैरिक और (५) आजीवक (गोशालकमतीय)।
वृत्तिकार ने माहन का अर्थ 'ब्राह्मण' किया है, जो भोजन के समय उपस्थित हो जाता है, अतिथि - अभ्यागत या मेहमान। कृपण का अर्थ किया है - दरिद्र, दीन-हीन। वनीपक या बनीपक का अर्थ किया है- बन्दीजन- भाट, चारण आदि; परन्तु दशवैकालिकसूत्र की वृत्ति में वनीपक का अर्थ कृपण किया है, जबकि स्थानांग में इसका अर्थ याचक- भिखारी किया है, जो अपनी दीनता बताकर या दाता की प्रशंसा करके आहारादि प्राप्त करता है। कृपण (किविण) का
१. (क) आचा० टीका पत्रांक ३२५ (ख) चूर्णि मूल पाठ टिप्पण पृ० १०७ २. आचा० टीका पत्रांक ३२५ के आधार पर
आचा० टीका पत्रांक ३२५ स्थानांग वृत्ति के अनुसार वनीपक की व्याख्या इस प्रकार है - दूसरों के समक्ष अपनी दरिद्रता दिखाने से, या उनकी प्रशंसा करने से जो द्रव्य मिलता है, वह 'वनी' है और जो उस 'वनी' को पिये, ग्रहण करे, वह 'वनीपक' है। वनीपक के पाँच भेद हैं(१) अतिथि-वनीपक, (२) कृपण-वनीपक, (३) ब्राह्मण-वनीपक, (४) श्व- वनीपक, (५) श्रमण-वनीपक। अतिथि-भक्त के समक्ष दान की प्रशंसा करके दान लेने वाला 'अतिथि-वनीपक' है। वैसे ही कृपण-भक्त के समक्ष कृपण-दान की, ब्राह्मण, श्वान, श्रमण आदि के भक्त के समक्ष उनके दान की प्रशंसा करके दान चाहने वाला। श्वान- प्रशंसा का एक उदाहरण टीकाकार ने उद्धत किया है। श्व-वनीपक' श्वान-भक्त के समक्ष कहता है - केलासभवणा ए ए गुझगा आगया महिं ।
चरंति जक्खरूवेण पूयाऽपूया हिताऽहिता ॥ - ये कैलाश पर्वत पर रहने वाले यक्ष हैं । भूमि पर यक्ष के रूप में विचरण करते हैं।- स्थानांग ५/सू० २०० वृत्ति