________________
मैं देखा आतम रामा ।
रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरस ज्ञान गुण धामा । । (पद० ३८९)
(११)
रहस्यवाद की दूसरी अवस्था वह है, जब चारों ओर के पर- पदार्थों से अपना ममत्व हटाकर भव्यात्मा केवल शुद्धात्मा के दर्शन कर अपने को कृतकृत्य करना चाहता है। आत्मा के साथ अनन्त काल से लगी हुई कर्म - धूल को ज्ञान रूपी मेघवृष्टि से बहा देना चाहता है। इसी को कवि भूधरदास ने इस प्रकार व्यक्त किया हैनैननि को बान परी दरसन की ।
44
जिन मुखचन्द्र चकोर चित्त मुझ ऐसी प्रीति करी । । (पद० ११८) "नैन शान्त छवि देखे दृग । " ( पद० ३४५)
रहस्यवाद दो प्रकार का होता है । ( १ ) साधनात्मक रहस्यवाद और (२) भावनात्मक रहस्यवाद । जैन कवियों ने इन पदों में भावनात्मक रहस्यवाद को ही महत्ता देकर उसी का चित्रण किया है। उन्होंने विविध रूपकों के द्वारा आत्मा और परमात्मा की स्थिति को स्पष्ट किया है । कवि दौलतराम ने मन के द्वारा होली खेलने का कितना भावपूर्ण और मनोरम चित्र निम्नलिखित पद्य में उपस्थित किया है, जिसमें आत्मा और परमात्मा मिलकर एक हो जाते हैं
11
" मैरो मन ऐसो खेलत होरी । (पद० ५१५)
कविवर बुधजन ने होली के प्रसंग में रहस्यवाद की निराली छटा दर्शायी है। एक ओर हर्षित होकर आत्मा और दूसरी ओर सुबुद्धि रूपी नारी किस प्रकार होली खेलती है उनका अनुपम दृश्य प्रस्तुत पद में देखिए
"निजपुर में आज मची होरी | " ( पद० ५०८ )
कविवर बनारसी दास, भूधरदास, द्यानतराय, भागचन्द्र, कुन्जीलाल एवं न्यामत सिंह ने भी रूपकों के द्वारा रहस्यवाद की मर्मानुभूति व्यक्त है
रहस्यवाद की तीसरी अवस्था वह है, जिसमें भेद - विज्ञान की अनुभूति होते ही आत्मा अपने शुद्ध रूप में विचरण करने लगती है । मिथ्यात्म-रूपी ग्रीष्म ऋतु समाप्त हो जाती है और सहज आनन्दमय वर्षाऋतु का आगमन हो जाता है। अनुभवरूपी दामिनी अपने प्रकाश से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर देती है, सुमति - सुहागिन हर्षित हो उठती है । साधक का मन विहसित हो जाता है और आनन्दरूप चेतन स्वात्म - सुख में समाधित्थ हो जाता है । कवि कहता है
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International