Book Title: Adhyatma Pad Parijat
Author(s): Kanchedilal Jain, Tarachand Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 22
________________ (९) " म्हांरे घर जिनधुनि ।। " ( पद० १८१ ) "आज मैं परम पदारथ पायो । अष्ट कर्म रिपु जोधा जीते शिव अकूंर जमायो । । " ( पद० १३५ ) कवि दौलतराम भी आत्मा का साक्षात्कार कर आनन्द से भर जाते हैं और उनके मुख से निम्न पंक्तियाँ निकल पड़ती है— "निरखत सुख पायो जिन मुख चन्द । चकवी कुमति विछुर अति बिलखे, आतम सुधा स्त्रवायो ।। " (पद०१३७) आत्मतत्त्व की प्राप्ति में प्रमुख साधन स्वानुभूति है। स्वानुभूति का प्रादुर्भाव होते ही कवि हर्ष के झूले में झूलने लगता है और अपनी अमरता का उद्घोष इस प्रकार करने लगता है " अब हम अमर भए न मरेंगे।" (पद० ४४०) में आध्यात्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिए कवि सुखसागर अपने अन्तस् गुनगुनाते हैं । उस कमनीय अनुभूति की अभिव्यक्ति अत्यन्त कोमल - कान्त - पदावलि में निम्न रूप में हुई है "परम रस है मेरे घर में ।। (पद० ४३६) प्रभुभक्ति रूपी अमृत-जल-प्रवाह सारी चेतना का प्रक्षालन कर देता है। वह अपने आराध्य के सन्निकट पहुँचकर उसका सान्निध्य प्राप्त कर शान्ति लाभ करता है— , "आतम जानो रे भाई । जैसी उज्ज्वल आरसी रे, तैसी आतम जोत । " (पद० ४०५ ) तब अन्तस्तल का रस उमड़ पड़ता है और वह अपनी सुध-बुध खोकर पूरी तरह से आत्म-भाव में निमग्न हो जाता है - "हम लागे आतमराम सो । विनासीक पुल की छाया कौन रमै धनवान सो ? (पद० ४०४) रहस्यात्मक-पद एक प्रसिद्ध आलोचक के अनुसार रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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