Book Title: Vividh Tirth Kalpa
Author(s): Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્રમ અહો શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર – સંવત ૨૦૬૬ (ઈ. ૨૦૧૦) . શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર - સંયોજક- બાબુલાલ સરેમલ શાહ્ हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमावाह - 04 (मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ (२हे.) २७५०५७२० પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને સેટ નં.-૨ ની ડી.વી.ડી.(DVD) બનાવી તેની યાદી या पुस्तठी वेबसाहट परथी पक्ष SIGनलोड करी सारी. પુસ્તકનું નામ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 055 056 विविध तीर्थ कल्प ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા 058 सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः 059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका 060 જૈન સંગીત રાગમાળા 061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) 062 व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय 063 चन्द्रप्रभा मकौमुदी 064 विवेक विलास पञ्चशती प्रबोध प्रबंध 065 066 सन्मतितत्त्वसोपानम् 067 068 | मोहराजापराजयम् क्रियाकोश 069 070 कालिकाचार्यकथासंग्रह 071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका जन्मसमुद्रजातक मेघमहोदय वर्षप्रबोध पहेशभाला होघट्टी टीडा गुर्भरानुवाह 072 073 074 075 076 077 संगीत नाट्य उपावली જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧ જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૨ ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય 078 079 शिल्प चिन्तामशि लाग-१ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १ 081 बृह६ शिल्पशास्त्र लाग-२ 082 बृह६ शिल्प शास्त्र लाग-3 083 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो लाग - १ 084 085 કલ્યાણ કારક विश्वलोचन कोश કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 086 087 5था रत्न प्रेश लाग-2 088 હસ્તસગ્રીવનમ્ એન્દ્રચતુર્વિશતિકા 089 સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 090 ભાષા सं सं शुभ. सं सं शु. सं सं सं सं/ ४. सं सं गु४. शुभ. शुभ. शुभ. शुभ. शुभ. शुभ. ४. शुभ. शुभ. शुभ. सं./हिं र्त्ता-टीडाडार-संचा शुभ. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. सं पू. चतुरविजयजी म.सा. श्री मोहनलाल बांठिया सं/हिं सं/गु४. श्री अंबालाल प्रेमचंद सं. सं/हिं सं/हिं शुभ. शुभ. सं. सं.. सं.. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. जिनविजयजी म.सा. पू. पूण्यविजयजी म.सा. श्री धर्मदत्तसूरि श्री धर्मदत्तसूरि श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी श्री रसिकलाल हीरालाल कापडीआ श्री सुदर्शनाचार्य पू. मेघविजयजी गणि श्री दामोदर गोविंदाचार्य पू. मृगेन्द्रविजयजी म. सा. पू. लब्धिसूरिजी म.सा. श्री वामाचरण भट्टाचार्य श्री भगवानदास जैन श्री भगवानदास जैन श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी श्री साराभाई नवाब श्री साराभाई नयाब श्री विद्या साराभाई नवाब श्री साराभाई नवाब श्री मनसुखलाल भुदरमल श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम श्री जगन्नाथ अंबाराम पू. कान्तिसागरजी श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री श्री नंदलाल शर्मा श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री बेचरदास जीवराज दोशी पू. मेघविजयजीगणि पूज. यशोविजयजी, पू, पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी પૃષ્ઠ 296 160 164 202 48 306 322 668 516 268 456 420 638 192 428 406 308 128 532 376 374 538 194 192 254 260 238 260 114 910 436 336 230 322 114 560 Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૫૬ વિવિધ તીર્થ કલ્પ : દ્રવ્યસહાયક : સંઘસ્થવિર પ.પૂ. બાપજી મ.સા.ના સમુદાયના પ્રવચનપ્રભાવક પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી નરરત્નસૂરિજી મ.સા. ના આજ્ઞાવર્તિની ૫.પૂ. સાધ્વીજી શ્રી જયવંતાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી આમોદ જૈન શ્વેતામ્બર મૂર્તિપૂજક સંઘ, આમોદ (જી. ભરૂચ)ના જ્ઞાનખાતાના ઉપજમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫ (મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૬ ઈ.સ. ૨૦૧૦ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला ॥ ॥ ग्रन्थाङ्क १०॥॥ A..... .. .. . . WITTER ISAIDALCANOJI SINGH ATTI VAN श्रीडावरी संघीय श्रीजिनप्रभसूरिविरचित विविधतीर्थकल्प Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध बहु उपयुक्त पुरातनवाङ्मय तथा नवीन संशोधनात्मक साहित्यप्रकाशिनी जैन ग्रन्थावलि । कलकत्तानिवासी वर्गीय श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी की पुण्यस्मृतिनिमिच तत्सुपुत्र श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघी द्वारा संस्थापित मुख्य सम्पादक जिन विजय अधिष्ठाता, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन सम्मान्य समासद-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पुना, और मुजरात साहित्यसभा अहमदाबाद भूत पूर्वीचार्य-गृजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद तथा अनेकानेक संस्कृत, प्राकृत, पाली, प्राचीन भूर्जर आदि ग्रंथ संशोधक और सम्पादक । ग्रन्थांक १० प्राप्तिस्थान संचालक, सिंघी जैन ग्रन्थमाला. शान्तिनिकेतन. (बंगाल) स्थापनाकड] सर्वाधिकार संरक्षित. [वि० सं० १९८६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरिविरचित विविध तीर्थकल्प fभन्न भिन्न पाठभेद और विशेषनामानुक्रम समन्वित मूल ग्रन्थ; सरल और सारगर्भित हिन्दी भाषान्तर; ऐतिहासिक और भौगोलिक वस्तु विवेचक अनेकानेक टिप्पनियों द्वारा सुविवेचित; तथा सुविस्तृत प्रस्तावना समलङ्कृत सम्पादक जिन विजय जैन वाङ्मयाध्यापक, विश्वभारती. शान्तिनिकेतन प्रथम भाग विविधपाठान्तर - विशेषनामानुक्रमादियुक्त मूलग्रन्थ वक्रमाब्द १९९० ] प्रकाशक अधिष्ठाता, सिंघी जैन ज्ञानपीठ. शान्तिनिकेतन. (बंगाल) प्रथमावृत्ति, एक सहस्र प्रतिः [ १९३४ क्रिष्टान्द Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAINA SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF MOST IMPORTANT CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE ETC. WORKS OF JAINA LITERATURE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD VERNACULAR LANGUAGES, AND STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS. FOUNDED BY SRIMAN BAHADUR SINGHJĨ SINGHĨ OF CALCUTTA Founded 1 IN MEMORY OF HIS LATE FATHER ŚRĪ DĀLCANDJĪ SINGHĨ. GENERAL EDITOR JINA VIJAYA ADHISṬHĀTĀ: SINGHĨ JAINA JÑĀNAPĪTHA, SANTINIKETAN. HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJRAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD; FORMERLY PRINCIPAL OF GUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; EDITOR OF MANY SANSKRIT, PRAKRIT, PALI, APABHRAMSHA, AND OLD GUJRATI WORKS. NUMBER 10 TO BE HAD FROM SANCĀLAKA, SINGHĨ JAINA GRANTHAMĀLĀ SANTINIKETAN. (BENGAL) All rights reserved [ 1931. A. D. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIVIDHA TIRTHA KALPA OF JINAPRABHA SŪRI CRITICALLY EDITED IN THE ORIGINAL SANSKRIT AND PRAKRIT WITH VARIANTS; HINDI TRANSLATION, NOTES AND ELABORATE INTRODUCTION ETC. BY JINA VIJAYA SINGHI PROFESSOR OF JAINA CULTURE AT VIS VABHĀRATĪ V. E. 1990 1 SANTINIKETAN. PART I TEXT IN SANSKRIT AND PRĀKRIT WITH VARIANTS, AND AN ALPHABETICAL INDEX OF ALL PROPER NAMES. C PUBLISHED BY THE ADHISTHĀTĀ, SINGHĪ JAINA JÑĀNAPĪTHA SANTINIKETAN. (BENGAL) First edition, One Thousand Copies. [ 1934 A. D. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ॥ Redmstestanslamteenkanatantanatrnatantanatarwatant- dantanslamudanti.inheadaministenstemstenuatemadeustainatantanelonelinatenatamataratanatariaternatauatanakamahestantlemstensteisatanistandardaratensteistemakemalenatest अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ।। निवसन्त्यनेके तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एवागतो यो हि कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः ।। कुशाग्रया स्वबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपाय॑ विपुलां लक्ष्मी जातो कोट्यधिपो हि सः॥ तस्य मन्नुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा । श्रीवहादुरसिंहाख्यः सद्गुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियांनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यदीपेन प्रदीप्तं यद्गृहाङ्गणम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ।। नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुवीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि यहवश्वास्य सन्ति स्वस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते । अन्यच्चसरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तचित्रं विदुषां खलु ।। न गर्यो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः । दृश्यतेऽस्य गृहे क्वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सज्जनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचारार्थ सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादी भूत्वाऽध्यक्षपदाङ्कितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ।। अथान्यदा प्रसङ्गेन खपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात्तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मया वरम् ।। विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदखमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्तिनिकेतने । सिंधीपदाङ्कितं जैनज्ञानपीठमतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयो विज्ञो तस्याधिष्ठातृसत्पदम् । खीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन शास्त्रोद्धाराभिलाषिणा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैर्योदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वज्जनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिर नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ portantratmakedaastavatmalratrNamakeoatamataonkanatarnatakimatmalnituatantanutton-tonstituterusterestruatemakeinstemat++tomstonutes t en a t Paw Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पसूचिः-सङ्ग्रहानुक्रमेण । १ शत्रुञ्जयतीर्थकल्प .... .... पृ० १।३३ प्रतिष्ठानपुरकल्प [२] .... .... .... ५९ २ रैवतकगिरिकल्पसंक्षेप .... .... ....... ६३४ प्रतिष्ठानपुराधिपतिसातवाहननृपचरित्र ६१ ३ उजयन्तस्तव .... ..... ७.३५ चम्पापुरीकल्प .... .... .... .... ६५ ४ उञ्जयन्तमहातीर्थकल्प .... ८,३६ पाटलिपुत्रनगरकल्प .... ..... .... ५ रैवतकगिरिकल्प ९.३७ श्रावस्तीनगरीकल्प .... .... ६ पार्श्वनाथकल्प .... ११.३८ वाराणसीनगरीकल्प .... .... -- स्तम्भनककल्प १३ ३९ महावीरगणधरकल्प ७ अहिच्छत्रानगरीकल्प .... १४.४० कोकावसतिपार्श्वनाथकल्प ८ अर्बुदाद्रिकल्प .... .... १५४१ कोटिशिलातीर्थकल्प .... .... ९ मथुरापुरीकल्प .... .... १७४२ वस्तुपाल-तेजःपालमबिकल्प .... १० अश्वावबोधतीर्थकल्प .... २०४३ ढीपुरीतीर्थकल्प .... .... .... ११ वैभारगिरिकल्प .... २२ ४४ ढींपुरीस्तव .... .... .... १२ कौशाम्बीनगरीकल्प .... २३ ४५ चतुरशीतिमहातीर्थनामसङ्ग्रहकल्प १३ अयोध्यानगरीकल्प २४ ४६ समवसरणरचनाकल्प .... .... १४ अपापापुरी [संक्षिप्त] कल्प २५ ४७ कुडुंगेश्वरनामेयदेवकल्प..... .... १५ कलिकुंड-कुकुटेश्वरकल्प .... २६ ४८ व्याघ्रीकल्प .... .... .... १६ हस्तिनापुरकल्प .... .... .... २७ ४९ अष्टापदगिरिकल्प [२] ..... .... .... १७ सत्यपुरतीर्थकल्प २८ ५० हस्तिनापुरतीर्थस्तवन .... .... १८ अष्टापदमहातीर्थकल्प [१] ३१५१ कन्यानयमहावीरकल्पपरिशेष .... १९ मिथिलातीर्थकल्प ३२ ५२ कुल्यपाकस्थऋषभदेवस्तुति .... २० रजवाहपुरकल्प .... ३३ ५३ आमरकुण्ड पद्मावतीदेवीकल्प .... २१ अपापाबृहत्कल्प ३४.५४ चतुर्विंशतिजिनकल्याणककल्प २२ कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प ४५५५ तीर्थकरातिशयविचार .... .... .... २३ प्रतिष्ठानपत्तनकल्प [१] ४७।५६ पञ्चकल्याणक स्तवन .... .... .... २४ नन्दीश्वरद्वीपकल्प .... .... ४८५७ कोल्लपाकमाणिक्यदेवतीर्थकल्प .... .... २५ काम्पिल्यपुरतीर्थकल्प .... ..... ५०/५८ श्रीपुर-अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्प .... .... १०२ २६ अणहिलपुरस्थितअरिष्ठनेमिकल्प। .... ५१ ५९ स्तम्भनककल्पशिलोञ्छ .... .... १०४ २७ शंखपुरपार्श्वकल्प ५२.६० फलवर्द्धिपार्श्वनाथकल्प ...... .... .... १०५ २८ नासिक्यपुरकल्प .... .... ५३ ६१ अम्बिकादेवीकल्प .... .... .... २९ हरिकंखीनगरस्थितपार्श्वनाथकल्प .... ५५ ६२ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारकल्प ..... .... १०८ ३० कपर्दियक्षकल्प .... ....... .... .... ५६ ६३ ग्रन्थसमाप्तिकथन । ३१ शुद्धदन्तीस्थितपार्श्वनाथकल्प .... .... ५७ A. D. P. प्रतिगतपुष्पिकालेख .... ११० ३२ अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्प ५७ A. सञ्ज्ञकादर्शप्रान्तस्थितकल्पानुक्रमणिका. 982353333892220844 १० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पसूचिः - अकाराद्यनुक्रमेण । १ अणहिलपुरस्थित अरिष्टनेमिकल्प २ अपापापुरी (संक्षिस) कल्प ३ अपापाबृहत्कल्प ४ अयोध्यानगरीकल्प ५ अर्बुदाद्रिकल्प ६ अवन्तिदेशस्थ अभिनन्दन ७ अश्वावबोधकल्प ८ अष्टापदमहातीर्थकल्प १ ९ अष्टापद गिरिकल्प २ कल्पांक पत्रांक [२६] .... ५१ ३३ नासिक्यपुरकल्प [१४].... २५ ३४ पाटलिपुत्र नगरकल्प [२१].. ३४ | ३५ पार्श्वनाथकल्प [१३].. २४ " स्तम्भनककल्प ” पुरकल्प २ [८].... १५ ३६ पञ्चकल्याणक स्तवन देवकल्प [३२].... ५७ ३७ पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारकल्प [१०].... २० ३८ प्रतिष्ठानपत्तनकल्प १ [१८].... ३१ ३९ [४९].... ९१ | ४० [७].... १४ [ ५३ ] .... ९८ ४१ फलवर्द्धिपार्श्वनाथकल्प [६१] ....१०७ ४२ मथुरापुरीकल्प [ ४ ]... ८ ४३ महावीरगणधरकल्प [३].... ७ ४४ मिथिलातीर्थकल्प पुराधिपतिसातवाहननृप 11 १० अहिच्छत्रानगरीकल्प ११ आमरकुंडपद्मावतीदेवीकल्प १२ अम्बिकादेवीकल्प १३ उज्जयन्तमहातीर्थकल्प १६ 19 १७ कपर्द्दियक्षकल्प १८ कलिकुंड - कुर्कुटेश्वरकल्प १४ उज्ञ्जयन्तस्तव १५ कन्यानयनीयमहावीर प्रतिमाकल्प [२२]....४५ ४५ रत्नवाहपुरकल्प ,, कल्पपरिशेष [५१] . ९५ ४६ रैवतकगिरिकल्प संक्षेप TROSARY २८ चम्पापुरीकल्प २९ ढींपुरतीर्थकल्प ३० ढींपुरीस्तव ३१ तीर्थकरातिशयविचार ३२ नन्दीश्वरद्वीपकल्प .... [३०]. ५६ ४७ (द्वितीय) [१५]... २६ ४८ वस्तुपाल- तेजःपालमंत्रिकल्प " १९ काम्पिल्यपुरतीर्थकल्प २० कुडुंगेश्वरनाभेयदेवकल्प २१ कुल्यपाकस्थऋषभदेवस्तुति २२ कोकावसति पार्श्वनाथकल्प २३ कोटिशिलातीर्थकल्प २४ कोल्लपाकमाणिक्यदेवतीर्थकल्प [ ५७ ]....१०१ [ २५ ].... ५० ४९ वाराणसी नगरीकल्प [ ४७ ]... ८८ | ५० वैभारगिरिकल्प [ ५२ ] .... ९७ ५१ व्याघ्रीकल्प [४०] .... ७७ ५२ शेखपुरपार्श्व कल्प [४१]... ७८ ५३ शत्रुञ्जय तीर्थकल्प २५ कौशाम्बीनगरीकल्प २६ चतुरशीतिमहातीर्थनामसङ्ग्रहकल्प[ ४५] २७ चतुर्विंशतिजिनकल्याणककल्प [ ५४ ] .... ९९ [१२] .... २३ ८६ [३५].... ६५ [ ४३ ] .... ८१ ५४ शुद्धदन्तीस्थित पार्श्वनाथ कल्प ५५ श्रावस्तीनगरीकल्प ५६ श्रीपुरअन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्प ५७ सत्यपुरतीर्थकल्प ५८ समवसरणरचनाकल्प ५९ स्तम्भनककल्पशिलोच्छ कल्पांक पत्रांक [२८].... ५३ [३६].... ६७ [६].... ११ १३ " [ ४४ ] .... ८४ ६० हरिकंखीनगर स्थितपार्श्वनाथकल्प [ ५५ ]... ९९ ६१ [२४].... ४८ / ६२ हस्तिनापुरकल्प तीर्थस्तवन [५६]....१०० [६२]....१०८ चरित्र [३४].... ६१ [६०]....१०५ [९].... १७ [३९].... ७५ [१९].... ३२ [२३].... ४७ [३३].... ५९ [२०].... ३३ [२].... ६ [].... ९ [४२].... ७९ [३८].... ७२ [११] ... २२ [४८ ].... ९० [२७].... ५२ [१].... १ [३१].... ५७ [३७].... ७० [ ५८ ] १०२ [१७].... २८ [४६].... ८७ [५९]....१०४ [२९] .... ५५ [१६].... २७ [ ५० ].... ९४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [विविध तीर्थकल्प म . * वनपालकलोलयमवावयाशाजबिडमिडकामावहितमलियाईगंयाईयायप्रिसिहायपिanaaaaRABASIRAL सामगदहणानावईशसामविण्यस्यामिडंचाजहानसलरवणियामरयाटपमाननायबामविपकमलदानापाया। नलरशतमायामागउबवालवामामला पिटाराबंदिशवरंनिजतरंदहणविसाउनलाईnahaरवमयावतजाव रमाणामारणसपदाणंरणामासापासमिशानिनवमाणmairmashaमाकादेविमायामादमकप्पा शिनाठायादबिछाववानाममदरियादिवाविमापनामाकादंसवानSIMARविताममहासईपयांबरनवश्यावि आसारमारमणकाजदावागाकरासंदरूबंधिविमानामावावादयांमााधननयमिठोविणकारवटामिरामप्पाणापा। विष्टाarwarसामनहावितादवमासमतीववसायानगवईवध्यार शादिशादरवण्यामधारनामवेणीमरक्षा REशवाणसवयवावरश्मरासिाशवमिवादस्यमामा पादिनप्रतिनियमावशिशिमाराममेडलखनालदार गावाकणानरासचंगायालयारमारामविवागम शारदेनियावाविग्यसाठशतायातमनायारादिनामाव। आणदामंनिछाशरूवादिमिडीयामपदवासिपिसायमा CE निममयवासेपठानिसकललामभयायनरक्रमिरा निावित्रामंतारामास्यवायमकलालदरिक्ष्यचाईसमनामायणाजवाठामिविशदिवाश्रमातवादविदिमाम सामतिालाछरपंवसरायाहमिहिमालकलच्छरशामिमायापरणामययोशवायसतिलोपाममियादान यवनमार्डबचियापानमा याहारणामतावावंछानोकोबादिबासंतापसकानिमयाममरणायामडनावमाडायलायबन्दावाविनियमामलानिलगि ब्राणियविरतपनियममबागवायखाकिपिछविमाक्वायजाकिरयविनिमायाबायनयातायाधजविसमाविणायछाया दि:सर्वकाल्यजरमानमजायजाकरजलापंच निशताव्याबकास्मिाकानीमळे शिवसकाविपदे उवातिषयमाममयकाहानशाधारण रहतांघियाकाकरमतरनावमाशालिनअमचूरयनियारकण्याकिशातयतिनानिमावीमातीर्णताडपम्ममास्यवशनासाम्प्रदशया विवादमारमहम्मादप्रनपतिकमाउलाखेशलाघाटमारनामसमनश्रीयामिनारामा निकायमानीननयजित्रितयाकल्पना 940 म PROMODI पनामरविवायलाNिDIBEमालायकन्यायaan Rana आवाटावर मालयतमानावयालय रियन कस्यापरवर कारaasalne ਸੀਬੀ ਵਸਦੇR . बिकल्पामpval) ग्रामदकलपाoयरमा श्रीममराकल्याशिवाय आप्रवारवानावालाnes ਲਈ ਤ ¤2 श्रीकाशाबाकलध्यमा मायायाधमाकल्याचा सीमापकालान्याशा श्राकतिककासपरकल्याणच्या प्रसादस्त्रिनाउरकल्यायं सवारशा मत्यरकाल्यारहरमा श्रामावसानलयायाधना निजायाधिविनामध्यान यावरणास्माकमाया माममिलानाभवाल्याच्यRDACA बाकत्याणिकराव३३७२२ बारममावानयारण्य सवामणवकलां माशिकारवनादबावकार्य कपाशाया पायाखानायकन्यमय यादहीमाशananel बागमनविलावायच्या किमानटावायच्या आकटिहानामावलमbule याकलिजावन्यस्मरणमा antaहानयत्रमाणा सावधालातजपालकमान मामलबादपाश्र्वनामवस्ययभार वारकत्वणी शवणयानाकन्यत्रsuaकामलायम कापिलाकल्यः-शन feaगामा वासनिमाया रिधानमिक खाताधमयदकलाः बासनप्रणवश्यश्यामायामा धारवचरका आमालावामानामनालाय भामाशाक्यका यसवराजखाकागामासानसन्धानNove क्विानकायबानियानस्ताप क्षारयामामार या सामाग्रीकल्यायamperti बादासाटासायावत वावर्दियककराया। मापदनामधाचा तापनश्यामागावयापा वादमायानामकला माननारनवमय -यासदासयाजम्यता श्रोग्रामनंदनवल्पयामा। श्रावनाण्यवारकाला । रखनीयकविविधामा बानिधानकमाJAAFIL बालापाकावमरवाय यनिस्तावाल्यायक्षमा यामरममाध्यमातनासनकालयामराम्यामाणिरिवरि ख कायमाटापटपोरयायत श्राचयाकलाम वाध्यमरउपद्मावनायक पपरवायाधइयाष्टवझस्लिाम छापालापरवाण्या STUns कलयाणकादिविधासमा निराकाष्टाविकार । पालामारायitsel 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सामावरमगारजालन्यानिनतमसरियाजिनमणिशम्याजिनामा विव्यावसाबनाममानिसकालयामधारयशनेतना कमाणाम | A Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [विविध तीर्थकल्प मामशाहारसारखधमलालटिमाटाविकमावलकाहणक्षमायाविनानखातययबासीगचामासस्यपरकमधीटिसिभिजी पायमाननापदिंडाळायंवधियाणमयमाणादितादाराकया विहिरमंडपातायुमायणतावालाश्यासलागण्यविनियानिनिया मिदिवसम्मति विवरायटिशिविष्यक्रमाारावालणकवलाहाणामाहारिमापनमवकिनकि एवासाकागसबइनसिंतश्रामतियोगदिवाससम्मादिक्षायानाचारमा मनास्त्रियायचरिनिनामंशासिामाकापावासनिनामकादि "महावास्सिामीकालगअडाचwasमासटपीसीटिवामानिसियभाममाशिवारमानाथमायाांशधारकालासिंग छापयतिलभारियाणपतिवडादिमियाजागासवसिदिमा नर्दिवानिसजानिगम क्रमाकनियमच्यालय सगावरकरवंदवानगीविडियवानमालयवाकरतिशतसवालिकामा स्वयम बाजार इदाजावाजक्षितम्रसीमामाटीnsh कसजागाउद्वादयानवायायmariमालयवयायकारावासाकति पुरबमापनयनामिनामानाSPEAरिवारजनाकियनागरवाजविवामियानाशाजता सर्वकाश नयमवियागदावामन्जलनिविणायबाया-बालालयस्याशिवजयानविकीमाशंकर 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Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन। ६१. विविध तीर्थकल्प श्रीजिनप्रभसूरि रचित कल्पप्रदीप-अथवा विशेषतया प्रसिद्ध विविध तीर्थकल्प-नामका यह ग्रन्थ "जैन साहित्यकी एक विशिष्ट वस्तु है । ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों प्रकारके विषयोंकी दृष्टिसे इस अन्धका बहुत कुछ महत्त्व है । जैन साहित्य-ही-में नहीं, समग्र भारतीय साहित्यमें भी इस प्रकारका कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं हुआ । यह ग्रन्थ, विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमें, जैन धर्मके जितने पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध प्रसिद्ध तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्धकी प्रायः एक प्रकारकी 'गाईड-बुक' है। इसमें वर्णित उन उन तीर्थों का संक्षिप्त रूपसे स्थानवर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी है। ६२. ग्रन्थकार आचार्य __ मन्थकार अपने समयके एक बड़े भारी विद्वान और प्रभावशाली जैन आचार्य थे । जिस तरह, विक्रमकी १७ वीं शताब्दीमें, मुगल सम्राट अकबर बादशाहके दरबार में जैन जगद्गुरु हीरविजय सूरिने शाही सन्मान प्राप्त किया था, उसी तरह जिनप्रभ सूरिने भी, १४ वीं शताब्दीमें तुघलक सुलतान महम्मद शाहके दरबारमें बड़ा गौरव प्राप्त किया था। भारतके मुसलमान बादशाहोंके दरबार में, जैन धर्मका महत्त्व बतलानेवाले और उसका गौरव बढानेवाले, शायद, सबसे पहले ये ही आचार्य हुए। इनकी प्रस्तुत रचनाके अवलोकनसे ज्ञात होता है, कि इतिहास और स्थल-भ्रमणसे इनको वडा प्रेम था । इन्होंने अपने जीवनमें भारतके बहुतसे भागोंमें परिभ्रमण किया था। गूजरात, राजपूताना, मालवा, मध्यप्रदेश, बराड, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंग, विहार, कोशल, अवध, युक्तप्रांत और पंजाब आदिके कई पुरातन और प्रसिद्ध स्थानोंकी उन्होंने यात्रा की थी। इस यात्राके समय, उस उस स्थानके बारेमें, जो जो साहित्यगत और परंपराश्रुत बातें उन्हें ज्ञात हुई उनको उन्होंने संक्षेपमें लिपिबद्ध कर लिया और इस तरह उस स्थान या तीर्थका एक कल्प बना दिया । और साथ-ही-में, ग्रन्थकारको संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंमें, गद्य और पद्य दोनों ही प्रकारसे, ग्रन्थरचना करनेका एकसा अभ्यास होनेके कारण, कभी कोई कल्प उन्होंने संस्कृत भाषामें लिख लिया तो कोई प्राकृतमें; और इसी तरह कभी किसी कल्पकी रचना गद्यमें कर ली तो किसीकी पद्यमें । किसी एक स्थानके बारेमें पहले एक छोटीसी रचना कर ली और फिर पीछेसे कुछ अधिक वृत्त ज्ञात हुआ, और वह लिपिबद्ध करने जैसा प्रतीत हुआ, तो उसके लिये परिशिष्टके तौर पर और एक कल्प या प्रकरण लिख लिया गया। इस प्रकार भिन्न भिन्न समयमें और भिन्न भिन्न स्थानोंमें, इन कल्पोंकी रचना होनेसे, इनमें किसी प्रकारका कोई क्रम नहीं रह सका। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन । ३. ग्रन्थरचनाकी कालावधि ग्रन्थकी इस प्रकार खण्डशः रचना होते रहनेके कारण सारे ही संग्रहके संपूर्ण होनेमें बहुत दीर्घ समय व्यतीत हुआ मालूम देता है । कमसे कम ३० से अधिक वर्ष जितना काल लगा हुआ होगा । क्यों कि, जिन कल्पोंमें रचनाका समय-सूचन करनेवाला संवत् आदिका उल्लेख है, उनमें सबसे पुराना संवत् १३६४ मिलता है जो वैभारगिरिकल्प [क० ११, पृ० २३ ] के अन्तमें दिया हुआ है। ग्रन्थकारका किया हुआ ग्रन्थकी समाप्तिका सूचक जो अन्तिमोल्लेख है, उसमें संवत् १३८९ का निर्देश है । इससे २५ वर्षोंके जितने कालका सूचन तो, स्वयं प्रन्थके इन दो उल्लेखोंसे ही ज्ञात हो जाता है; लेकिन वैभारगिरि कल्पके पहले भी कुछ कल्पोंकी रचना हो गई थी, और संवत् १३८९ के बाद भी कुछ और कल्प या कृति अवश्य बनी थी, जिसका कुछ स्पष्ट सूचन ग्रन्थगत अन्यान्य उल्लेखोंसे होता है । इसी कारणसे, प्रन्थ-समाप्ति-सूचक जो कथन है वह, किसी प्रतिमें तो कहीं मिलता है और किसी में कहीं। और यही कारण, प्रतियोंमें कल्पोंकी संख्याका न्यूनाधिकत्व होनेमें भी है। ६४. ग्रन्थगत विषय-विभाग ___ इस ग्रन्थमें, भिन्न भिन्न विषय या स्थानोंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सब मिला कर ६०-६१ कल्प या प्रकरण हैं । इनमें से, कोई ११-१२ तो स्तुति-स्तवनके रूपमें हैं, ६-७ चरित्र या कथाके रूपमें हैं, और शेष ४०-४१, न्यूनाधिकतया, स्थानवर्णनात्मक हैं । पुनः, इन स्थानवर्णनात्मक कल्पोंमेंसे, चतुरशीति महातीर्थनामसंग्रह जो कल्प [ क्रमांक ४५ ] है उसमें तो प्रायः सभी प्रसिद्ध और ज्ञात तीर्थस्थानोंका मात्र नामनिर्देश किया गया है। पार्श्वनाथकल्प [क्र० ६ ] में पार्श्वनाथके नामसे सम्बद्ध ऐसे कई स्थानोंका उल्लेख है । उज्जयन्त अर्थात् रैवतगिरिका वर्णन करने वाले भिन्न भिन्न ४ कल्प [ क्र.२-३-४-५7 हैं। स्तंभनक तीर्थ और कन्यानयमहावीर तीर्थके सम्बन्धमें दो दो कल्प हैं। इस प्रकार, अन्य विषय वाले तथा पुनरावृत्ति वाले जितने कल्प हैं उनको छोड कर, केवल स्थानोंकी दृष्टिसे विचार किया जाय तो, इस ग्रन्थमें कुल कोई ३७-३८ तीर्थ या तीर्थभूत स्थानोंका, कुछ इतिहास या स्थानपरिचय-गर्मित वर्णन दिया हुआ मिलता है। ६५. स्थानोंका प्रान्तीय विभाग यदि इन सब स्थानोंको प्रान्त या प्रदेशकी दृष्टिसे विभक्त किये जायं तो इनका पृथक्करण कुछ इस प्रकार होगागूजरात और काठियावाड राजपूताना और मालवा शQजयमहातीर्थ [क्र. १] अर्बुदाचलतीर्थ [क्र० ८] उज्जयन्त ( रैवतगिरि ) तीर्थ [क्र० २-३-४-५] सत्यपुरतीर्थ [क्र० १७ ] अश्वावबोधतीर्थ [क० १०] शुद्धदन्तीनगरी [ ऋ० ३१] स्तंभनकपुर [क्र. ६, ५९] फलवर्द्धितीर्थ [क्र० ६०] अणहिलपुरस्थित अरिष्टनेमि [क्र० २६] ढीपुरीतीर्थ | क्र०४३-४४१ 1 कोकावसति [क्र. ४०] कुडुंगेश्वरतीर्थ [क० ४७] शंखपुरतीर्थ [क्र. २७ ] अभिनंदनदेवतीर्थ [क्र० ३२] हरिकखीनगर [क्र० २९] अवध और बिहार युक्तप्रान्त और पंजाब वैभारगिरि [क्र. ११] अहिच्छत्रपुर [क्र० ७] पावा या अपापापुरी [क्र० २१, १४] हस्तिनापुर [क्र० १६, ५०] पाटलीपुत्र [क० ३६] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन । दिल्ली या दिल्ली [क्र० ५१] चंपापुरी [ऋ० ३५] मथुरा [क्र० ९] कोटिशिला [क० ४१] वाराणसी [क्र० ३८] कलिकुंडकुर्कुटेश्वर [क्र० १५] कौशांबी [ऋ० १२] मिथिला [क्र० १९] रत्नपुर [क्र. २०] कांपिल्यपुर [क० २५] अयोध्यापुरी [क्र० १३ ] श्रावस्तीनगरी [क्र. ३७] दक्षिण और बराड कर्णाटक और तेलंगण नासिक्यपुर [क्र० २८] कुल्यपाक माणिक्यदेव [क० ५२, ५७] प्रतिष्ठानपत्तन [ क्र. २३] आमरकुंड पद्मावती [क्र० ५३] अन्तरिक्षपार्श्वतीर्थ [क्र. ५८] कन्यानयमहावीर [क्र० २२, ५१] ६. विस्तृत विवेचन दूसरे भागमें __ ग्रन्थगत इन सब स्थानोंका विस्तृत परिचय, इतिहास और हिंदी भाषान्तर आदि दूसरे भागमें देनेका हमारा संकल्प है । ग्रन्थकारका विशेष परिचय भी वहीं दिया जायगा। अतः यहां पर अधिक लिखना अनावश्यक होगा। ६७. प्रतियोंका परिचय प्रस्तुत आवृत्तिके संशोधन और सम्पादन करने में हमने जिन पुरातन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया है उनका परिचय इस प्रकार है A प्रति-अहमदाबादके डेलाके नामसे प्रसिद्ध जैन उपाश्रयमें संरक्षित ग्रन्थ भाण्डारकी प्रति । पत्र संख्या ५८ । इस प्रतिमें सब कल्पोंका पूरा संग्रह है। कलिकुंड-कुर्कुटेश्वर नामका कल्प-प्रस्तुत आवृत्तिका क्रमांक १५दो दफह लिखा हुआ है। प्रतिकी लिखावट साधारण ढंगकी है और पाठ-शुद्धि भी प्रायः साधारण ही है। हमने जितनी प्रतियोंका संग्रह किया उनमें यह सबसे पुरानी है। विक्रम संवत १४६६ में यह लिखी गई है। इसके अंतमें जो पुष्पिका लेख है वह पृष्ट १३५ पर मुद्रित है । उससे ज्ञात होता है कि 'श्रीमालीवंशमें पैदा होनेवाले देवा व्यवहारी और उसकी पत्नी हासलदेवीके मांडण, पद्मसिंह और मालदेव नामके तीन पुत्रोंने अपने माता-पिताके श्रेयोऽर्थ इस ग्रंथकी यह प्रति लिखवाई।' इस प्रतिके अंतिम पृष्ठ पर अन्धगत सब कल्पोंकी सूचि भी लिखी हई है जो अन्य किसी प्रतिमें उपलब्ध नहीं होती। ____B प्रति-उक्त भाण्डारकी दूसरी प्रति, जिसकी पत्र संख्या ३८ है । इस प्रतिमें कुल २९ कल्प लिखे हुए मिलते हैं । प्रस्तुत आवृत्तिके क्रमांक १४. १९. २३. २५. २९. ३१ से ३३, और ३५ से ५८ तकके कल्प इसमें अनुपलब्ध हैं । ग्रन्थकी समाप्तिका सूचक जो कथन है वह भी इसमें अनुल्लिखित है । प्रतिकी लिखावट सुंदर है और पाठ भी कुछ अधिक शुद्ध है। अंतमें लिखने-लिखाने वालेका कोई निर्देश नहीं है । 'शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य || श्री। इतना ही उल्लेख किया हुआ है। इससे प्रतिके लिखे जाने के समयका कोई सूचन नहीं मिलता। पत्रोंकी स्थिति देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि प्रायः ४०० वर्ष जितनी पुरानी यह अवश्य होगी। ८ प्रति-इसी भाण्डागारमें की तीसरी प्रति । पत्र संख्या ४१ । इसमें कुल मिला कर ५२ कल्प लिखे हुए हैं। इसका प्रारंभ उजयंततीर्थकल्प-इस आवृत्तिके ४ थे कल्प-से होता है । पहले तीन कल्प इसमें बिल्कुल Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन । ही नहीं हैं । बीचमें, अपापाबृहत्कल्प, जो इस ग्रंथमें सबसे बडा कल्प है, वह भी नहीं है । तदुपरांत, चतुरशीति महातीर्थनामसंग्रहकल्प (क्रमांक ४५) और अष्टापदगिरिकल्प (क्रमांक ४९) भी इसमें सम्मीलित नहीं है । ग्रंथकारका किया हुआ ग्रंथ समाप्ति-सूचक जो कथन है, वह इस प्रतिमें, व्याघ्रीकल्प(क्रमांक ४८) के अन्तमें प्रति पत्र ३६ की प्रथम पृष्ठिपर-लिखा हुआ है। उसके बाद फिर हस्तिनापुर स्तवन आदि कल्प लिखे गये हैं (-द्रष्टव्य कोष्ठक) । इस प्रतिके कल्पकमसे, इस बातका कुछ आभास मिल सकता है कि यह ग्रंथ किस क्रमसे बना हुआ होगा। इसके अक्षर सुन्दर, और स्पष्ट है । पाठ भी बहुत कुछ शुद्ध है। अंतमें लिखने लिखाने वालेका कोई निर्देश नहीं है । सम्भवतः यह भी चार सौ वर्ष जितनी पुरानी होगी। D प्रति-उसी स्थानकी ४ थी प्रति । पत्र संख्या ४५ | अक्षर अच्छे और सुवाच्य हैं परंतु पाठ साधारण है । इसमें कोई ३२ प्रकरण लिखे हुए हैं । इसका प्रारंभ मथुराकल्प (क्रमांक ९) से, और अंत कोकावसतिपार्श्वनाथकल्प (क्रमांक ४०) से होता है । इस प्रकार इसमें आदिके ८ और अंतके २१ कल्प या प्रकरण नहीं हैं, अतः यह एक प्रकारका अपूर्ण संग्रह है। इस प्रतिमें भी लिखने-लिखाने वालेका कोई पुष्पिका लेख नहीं है। इससे यह नहीं ज्ञात हो सकता कि यह प्रति कब लिखी गई है। परंतु, इसके अंतमें जो ५ पद्योंका एक छोटासा प्रशस्ति-लेख, जो कि पीछेसे लिखा गया मालूम देता है, उससे इतना ज्ञात हो सकता है कि विक्रम संवत्की १७ वीं शताब्दीके शेप चरणके पहले यह कभी लिखी गई होगी । इस प्रशस्ति-लेखसे विदित होता है कि-अकबर बादशाहने जिनको जगद्गुरुका पद प्रदान किया उन आचार्य हीरविजय सूरिके शिष्य आचार्य विजयसेनके पट्टधर आचार्य विजयतिलक सूरिके समयमें, विजयसेन सूरि-ही-के शिष्य रामविजय विबुधने, जो हैमव्याकरण, काव्यप्रकाश आदि शास्त्रोंके निष्णात पंडित थे, इस प्रतिको उस ज्ञानभंडारमें स्थापित की, जिसमें पंदरह लाख पुस्तकें संगृहीत की गई थीं। __Pa प्रति-पूनाके भाण्डारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मन्दिरमें संरक्षित राजकीय-ग्रंथ-संग्रहकी ६२ पत्र वाली प्रति । यह प्रति संपूर्ण है और इसमें A प्रतिके समान ही सब कल्पोंका संग्रह है। सिर्फ पंचकल्याणकस्तवन (क्रमांक ५६) जो सोमसूरिकी कृति है, वह इसमें नहीं है। इस प्रकार इसमें कुल ५८ प्रकरण उपलब्ध हैं। कलिकुंड-कुर्कुटेश्वर नामका कल्प (क्रमांक १५) इसमें भी A प्रतिके समान दो दफह लिखा हुआ है। ग्रन्थसमाप्ति-सूचक कथन इसमें अष्टापदकल्प (क्रमांक ४९) के अन्तमें-पृष्ठ ५३ की दूसरी पूंठी पर-लिखा हुआ है । इसके बाद फिर हस्तिनापुरतीर्थस्तवन आदि प्रकरण लिखे हुए हैं । अन्तमें फिर कोई दूसरा निर्देश नहीं है । लिपिकारने "सं० १५२७ वर्षे आषाढ सदि ७ गुरौ सर्वत्र संख्या अलावा ग्रंथाग्रं ३६०२५ संख्या ॥ श्रीरस्तु । शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥" इस प्रकारका उल्लेख किया है जिससे यह प्रति कत्र लिखी गई इसका मात्र सूचन मिलता है। इसकी लिखावट अच्छी और स्पष्ट है । पाठ भी प्रायः बहुत कुछ शुद्ध मिलता है। ___P प्रति-यह प्रति भी पूनाके उक्त संग्रहकी है। इसकी पत्र संख्या ८५ है। इसमें आदिसे लेकर ५५ वें क्रमांक तक्रके प्रकरणोंका संग्रह है, और इसी क्रममें है । अन्तके ५ कल्प इसमें नहीं हैं। ग्रन्थ-समाप्ति-सूचक जो कथन है वह इसमें दो जगह लिखा हुआ मिलता है। एक तो Pa प्रतिकी तरह अष्टापदकल्प (क्रमांक ४९) के अंतमें-पत्र ७८ की द्वितीय पूंठी पर-और दूसरा अन्तिम पत्र पर, जहां कल्याणकस्तवन समाप्त . - --- - -..... --- --- -- ------.. __ + इन पंदरह लाख पुखकोंसे मतलब पंदरह लाख श्लोकका मालुम देता है न कि पंदरह लाख प्रतियों या पोथियोंका। रामविजय विवुधने अपने परिश्रमसे एक ऐसा ज्ञानभंडार स्थापित किया था जिसमें जितने ग्रंथ या प्रतियां थीं उनकी सब श्लोक संख्या, गिनने पर पंदरह लाख जितनी होती भी। शायद यह भंडार पाटणमें था। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन। होता है। प्रति है तो पुरातन; लेकिन अन्तमें समय इत्यादिका सूचक कोई उल्लेख न होनेसे निश्चयात्मक कुछ नहीं कहा जा सकता । यह प्रति बिल्कुल बेपर्वाईसे लिखी गई प्रतीत होती है । लिपिकार कोई नया सिखाऊ और अपठित मालूम देता है । उसको पुरानी लिपिका बहुत कम परिचय है। संस्कृत-प्राकृत भाषाका उसको किश्चित् भी ज्ञान नहीं है । भाषानभिज्ञताके कारण आकृतिसाम्यवाले अक्षरोंकी नकल करने में वह वारंवार गलती करता है और एक अक्षरकी जगह दूसरा अक्षर लिख डालता है । कहीं तीर्थराज के स्थान पर नीर्घराज लिख देता है तो कहीं तत्र की जगह तव या नव वना देता है । ५ वें प्रकरणका पहला पद पच्छिमदिसाए है जिसको उसने एत्थिमहिसाण लिखा है-प का ए, च्छि का त्थि, दि का हि और ए का ण में परिवर्तन कर ६ अक्षर वाले एक ही पदमें ४ अक्षर उसने बदल दिये हैं। कहीं द्रष्टव्यं की जगह द्रव्यं और गंतव्यं की जगह गव्यं लिख कर शब्दके बीचके अक्षर ही उड़ा देता है, तो कहीं अनुस्वारको आगे पीछे लिख कर एतं रचयां का एतरंचयां वना डालता है । किस अक्षरका कौन काना है और कौन मात्रा है इसका भी उसको ठीक ठीक खयाल नहीं रहता; इस लिये अचरजेकी जगह अवराज कर देता है और पात्रके बदले पत्रे लिख लेता है । इस तरह लिपिकर्ताके अज्ञानके कारण इस प्रतिका पाठ बहुत जगह भ्रष्ट हो गया है । हमने इसका उपयोग प्रायः वहीं किया है जहां और और प्रतियोंमें खास सन्देह उत्पन्न हुआ है। पंचकल्याणक स्तवन, जो सोमसूरिकी कृति है, A प्रतिके सिवा इसी प्रतिमें उपलब्ध है । उसका पाठ निश्चित करने में इसीका सहारा मिला। P प्रति-पूनावाले उसी संग्रहमेंकी एक तीसरी प्रति जिसकी पत्रसंख्या ३२ है । इस प्रतिमें कुल ४८ कल्प लिखे हुए हैं। इसमें पंचपरमेष्ठिनमस्कार नामका जो कल्प है वह ऊपरवाली और और प्रतियों में नहीं मिलता। यह कल्प इसमें चतुरशीति तीर्थनामसंग्रहकल्पके अन्तमें-पत्र २६ की पहली पूंठी पर लिखा हुआ है। हमने इसको परिशिष्टके रूपमें सबके अन्तमें रखा है । इसके सिवा इस संग्रहका जो क्रम है वह सब प्रतियोंसे भिन्न है । कई कल्प, अन्यान्य प्रतियों के हिसावसे, आगे-पीछे लिखे हुए हैं। उदाहरणके लिये, अन्य सब प्रतियोंमें उज्जयन्तस्तवका क्रमांक ३ रा है, इसमें उसका ५ वां है । इसके बाद ही अंबिकाकल्प लिखा हुआ है जो A B और Pa प्रतिमें सबके अन्तमें दिया हुआ है। अंबिकाकल्पके बाद कपर्दियक्षकल्प लिखा गया है जिसका क्रमांक अन्यान्य प्रतियोंके मुताबिक ३० वा है । अर्बुदकल्प जिसका क्रमांक अन्य संग्रहानुसार ८ वां है उसका इसमें ३८ वां है । इस प्रकार प्रायः बहुतसे कल्प इसमें आगे-पीछे लिखे हुए हैं। संपूर्ण तालिका कोष्टकमें दी गई है जिससे जिज्ञासु पाठक मिलान कर सकते हैं । वस्तुपाल-तेजःपालमन्त्रिकल्प (क्रमांक ४२) इसमें लिखा हुआ नहीं है लेकिन उसके स्थानपर, उस कल्पमें जो अन्तमें ३ श्लोक लिखे हुए हैं [ देखो पृष्ठ० ८०, पंक्ति १८-२०] वे इसमें दिये हुए हैं । अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्प अन्यान्य संग्रहों में प्राकृत भाषामें लिखा हुआ है, इसमें उसका संस्कृत रूपान्तर है। इसी तरह हरीकखीनगरस्थितपार्श्वनाथकल्प (क्रमांक २९) का भी इसमें संस्कृत भाषान्तर दिया हुआ है । इस कल्पके अन्तमें लिखा है कि इति श्री [हरि] कंखीनगरमंडनश्रीपार्श्वनाथकल्पा प्रभुश्रीजिनप्रभसूरिभिः कृतयो (?) प्राकृते । न वा. गुणक [ल? ] श श्रीराजगच्छीय संस्कृते मज्झधत्त (?) ! (पत्र १३, पूंठी २, पंक्ति १९–२०) इस अशुद्धिबहुल पंक्तिका तात्पर्यार्थ यह मालूम देता है, कि राजगच्छीय वा० (वाचक) गुणक [ल ] श नामके किसी पंडितने, जिनप्रभसूरिकृत प्राकृत कल्पको संकृतमें बनाया। इससे प्रतीत होता है कि उक्त अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्पको भी उसीने संस्कृतमें रूपान्तरित किया होगा। क्यों कि ये दोनों कल्प इस प्रतिमें एक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन । साथ लिखे हुए हैं । इस संग्रहमें १५. १६. १८. ३३. ३४. ४२. ४६. ५१ से ५६ तक-इस प्रकार १३ कल्प अनुपलब्ध हैं। यद्यपि इस प्रतिमें कल्पोंका क्रम, अन्य सब प्रतियोंसे भिन्न प्रकारका है; तथापि वह कुछ अधिक संगत मालूम देता है । गिरनार अर्थात् उज्जयंत अथवा रैवतक पर्वतसे संबंध रखनेवाले जो ४ कल्प प्रस्तुत ग्रन्थमें हैं, वे जिस क्रमसे इस प्रतिमें लिखे गये हैं वह क्रम अधिक ठीक लगता है । उन्हींके बाद इसमें अंबिकादेवीका कल्प है जिसका भी सम्बन्ध एक प्रकारसे रैवतक पर्वतके साथ होनेसे, उसका यह स्थान ठीक सम्बन्धयुक्त मालूम देता है । अम्बिकाकल्पके बाद ही जो कपर्दियक्षकल्प लिखा हुआ है वह भी उचित स्थानस्थित दिखाई दे रहा है । बल्कि इस कल्पके अन्तमें तो ग्रन्थकारका कथन भी इस बातको सूचित करता है कि उन्होंने अम्बादेवी और कपर्दियक्ष, इस कल्पयुगकी (देखो पृष्ठ ५६ का अन्तिम उल्लेख) एक साथ रचना की । ऐसा उल्लेख होने पर भी ये दोनों कल्प, और सब प्रतियोंमें क्यों भिन्न-क्रममें लिखे गये मिलते हैं इसका कोई कारण समझमें नहीं आता । उसमें भी अम्बिकाकल्प तो बिल्कुल ग्रन्थके अन्त में जा पडा है जिससे बहुतसी प्रतियों में तो वह अनुल्लिखित ही रह जाता है । इसी तरह क्रमांक २६ और ४० वाले कल्प इस प्रतिमें साथ साथ लिखे हुए मिलते हैं जो अधिक यथास्थित कहे जा सकते हैं । क्यों कि दोनोंका स्थान एक ही (पाटण) है। सबके अन्तमें कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्प (क्रमांक २२) रखा है और उसके अंतमें ग्रन्थसमाप्तिसूचक कथन दिया है-सो भी एक प्रकारसे सम्बन्धयुक्त दिखाई देता है। इस प्रतिमें जिन कल्पोंका संग्रह है उनके अवलोकनसे मालूम देता है कि प्रायः मुख्य मुख्य कल्प इसमें सब आगये हैं । जो इसमें संगृहीत नहीं है उनमें कलिकुंडकुकुटेश्वर (१५), हस्तिनापुर (१६), प्रतिष्ठानपुर (३३), सातवाहनचरित्र (३४), वस्तुपाल-तेजःपाल (४२), कन्यानयनीयपरिशेष (५१) और अमरकुंडपद्मावती (५३) नामके कल्प कुछ महत्त्वके हैं । बाकीके कल्प तो नाम मात्रके कल्प हैं। वास्तव में वे तो स्तुति-स्तोत्र हैं जिनका ग्रन्थगत उद्देश्यके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इससे यह ज्ञात होता है कि जिसने इस प्रतिको तैयार किया है उसने कुछ विचारपूर्वक प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नका कर्ता कौन है उसका कोई निर्णायक उल्लेख नहीं प्राप्त होता ! क्या जिस राजगच्छीय वाचक गुणकलश (?) ने उक्त दो कल्पोंका संस्कृत रूपांतर करनेका प्रयत्न किया है उसीने तो यह संग्रह इस क्रममें नहीं प्रथित किया हो । इस प्रति के अक्षर यद्यपि स्पष्ट और सुवाच्य हैं तथापि पाठशुद्धि कोई विशेष उल्लेखयोग्य नहीं है । हां, कहीं कहीं इसका पाठ, अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा अधिक उपयुक्त मिल जाता है जो सन्दिग्ध स्थानमें ठीक मददगार हो जाता है। __ प्रतिके अन्तमें जो पुष्पिकालेख है उससे विदित होता है कि संवत् १५६९ के आषाढ महिनेमें-सुदि १ सोमवार और पुनर्वसुनक्षत्रवाले दिनको-वैरिसिंहपुरके रहनेवाले श्रीमाली ज्ञातिके बहकटा गोत्रीय महं० जिणदत्तके पुत्र, महं. भाजाके पुत्र, महं. रायमल नामक श्रावकने इस ग्रन्थको लिखवा कर, खरतर गच्छके आचार्य श्रीजिनभद्र सूरिके शिष्य आचार्य श्रीजिनचंद्र सूरिके शिष्य आचार्य श्रीजिनेश्वर सूरिके शिष्य वाचक साधुकीर्ति गणीको समर्पित किया । यह पुष्पिकालेख अन्धान्तमें, पृष्ठ ११० पर, मुद्रित है। __P प्रति- उपर्युक्त स्थानमेंकी एक चौथी प्रति । इसकी पत्र संख्या २४ है । यह एक अपूर्ण संग्रह है । इसका प्रथम पत्र है उस पर ३० का क्रमांक लिखा हुआ है। ३० से लेकर ५३ तकके पने इसमें उपलब्ध हैं। इसका प्रारंभ चम्पापुरीकल्प (क्रमांक ३५) से होता है, और समापन कन्यानयनीयमहावीरमतिमाकल्प (क्र. २२) के साथ होता है । इसमें सब मिलाकर १६ कल्प लिखे हुए हैं और उनका क्रम इस प्रकार है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ चम्पापुरीकल्प २ पाटलीपुत्रपुरकल्प ३ वाणारसी नगरीकल्प प्रास्ताविक निवेदन ! ४ मन्त्रिद्वयकल्प, (मात्र ३ श्लोक ) ५ कुडुंगेश्वरनाभेयकल्प ६ अर्बुदकल्प ७ अभिनन्दनदेवकल्प ८ प्रतिष्ठानपुरकल्प (स्तोत्र ) ९ ढींपुरीस्तोत्र १० नन्दीश्वरकल्प ११ महावीरगणधरकल्प १२ चतुरशीति तीर्थनामसंग्रहकल्प १३ पंचपरमेष्ठिनमस्कारकल्प १४ रत्नवाहपुरकल्प १५ पावापुरीकल्प (बृहत् ) १६ कन्यानयनीय महावीरकल्प ७ इस क्रमके देखनेसे ज्ञात होता है कि, सिर्फ पहले कल्पको छोड़ कर, बाकी के १५ ही कल्प, ठीक उसी क्रममें लिखे हुए हैं, जिस तरह उपर्युल्लिखित P प्रतिमें लिखे हुए हैं । १ से २८ तकके पत्र अनुपलब्ध होनेसे, इस संग्रहमें कुल कितने कल्प होंगे और वे सब किस क्रममें होंगे, उसका कुछ निर्णय नहीं किया जा सकता और निश्चयात्मक रूपसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि यह संग्रह ठीक P संग्रह - ही का अनुसरण करनेवाला है । ग्रन्थसमाप्ति-सूचक कथन इसमें अन्तिम कल्पके अन्तमें लिखा हुआ है । लेकिन लिखावट और अक्षरोंके देखनेसे मालूम पडता है कि यह कल्प-जो दो पन्नों में है-पीछेसे लिख कर इस प्रतिमें मिलाया गया है । क्योंकि असल लिपिकर्ताने अपनी यह प्रति ५१ वें पत्र में समाप्त कर दी है और उसका सूचक पुष्पिकालेख भी अन्तमें इस तरह लिख दिया है- ॥ समाप्तः श्रीअपापाकल्पः | श्री दीपोत्सव कल्पच ॥ संवत् १५०५ वर्षे फागुणवदि ११ गुरौ । धूका नगरस्थाने वा० धर्मसुंदर गणिना ल(लि ) खितं ॥ इस प्रतिमें दो-तीन तरह की लिखावट दिखाई देती है; इससे मालूम होता है कि दो-तीन व्यक्तियोंने मिल कर इसे लिखा है । पाठशुद्धि साधारण है । E प्रति-पूना ही के उक्त संग्रहमेकी पांचवीं प्रति जिसमें केवल एक अपापाबृहत्कल्प (०२०) लिखा हुआ है। प्रति पुरातन और अच्छी है । लिखे जानेके समयका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन 'ऋषि भरमा - ऋषि मोकाके पढनेके लिये मुनि चांपाने पींडरवाडा ग्राम में इस प्रतिको लिखा' इतना पता अन्तिम पुष्पिका - लेखसे जरूर लगता है । १८. पाठभेद संग्रहकी पद्धति पाठभेदोंके संग्रह करनेकी हमारी जो पद्धति है उसका परिचय हमने प्रवन्धचिन्तामणिके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें कुछ दे दिया है। इस ग्रन्थ में भी हमने उसी पद्धतिका अनुसरण किया है । व्याकरण या शब्दके स्वरूपकी दृष्टिसे जो जो पाठ हमें शुद्ध मालूम देते हैं उन्हें हम पाठभेद के रूप में संगृहीत कर लेते हैं । लिपिकताओंकी अज्ञानता अथवा अनवधानताके कारण जो अगणित शब्द- अशुद्धियां जहां तहां प्रतियों में दृष्टिगोचर होती रहतीं हैं उन सबका संचय कर, ग्रन्थकी केवल पाद-टिप्पनियोंका कलेवर बढाना हम निरर्थक समझते हैं । १९. तीर्थकल्पकी प्रसिद्धि स्वर्गीय प्रोफेसर पी. पीटर्सनने, बम्बई इलाखेमें संस्कृत ग्रन्थोंका अन्वेषण कर उस विषयकी जो ६ रीपोर्ट पुस्तकें लिखीं, उनमेंकी ४ थी रीपोर्ट में, जिनप्रभसूरि रचित इस तीर्थकल्पका उन्होंने कुछ परिचय दिया और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन । कल्पोंकी नामावली प्रकाशित की* तबसे इतिहासान्वेषक विद्वानोंका लक्ष्य इस प्रन्धकी और आकर्षित हुआ। स्वर्गवासी शंकर पाण्डुरंग पण्डित एम्. ए. ने स्वसम्पादित गउडवहो नामक प्राकृत काव्य-ग्रन्थकी प्रस्तावनामें, तीर्थकल्पगत मथुराकल्पमेंसे आमराज और बप्पभट्टी सूरिके सम्बन्धका एक उल्लेख उद्धृत किया । तदनन्तर, प्रवर पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. जी. ब्युहरने, मथुराके जैन शिला-लेखोंका सम्पादन और विवेचन करते समय, इस ग्रन्थका सायन्त अवलोकन किया और उसीके सिलसिलेमें मथुराकल्पपर एक स्वतंत्र निबन्ध लिखकर, वह मूल कल्प, उसके अंग्रेजी भाषान्तरके साथ, विएना (आस्ट्रिया) से प्रकट होनेवाले प्राच्यविद्याविषयक राजकीय वृत्तपत्र ( जर्नल) में प्रकाशित किया। बादमें और भी कई विद्वानोंने इस ग्रन्थके ऐतिहासिक अवतरणोंका जहां तहां उल्लेखादि करके इसकी उपयोगिता तर्फ तज्ज्ञोंके मन में उत्सुकता उत्पन्न की। ६१०. प्रस्तुत प्रकाशन ___ कोई २० वर्ष पहले, जब हमने बडौदामें पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराजकी चरणसेवामें रहते हुए, विज्ञप्तित्रिवेणि आदि अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थोंका संशोधन-संपादन-प्रकाशनादिका कार्य शुरू किया, तभी, इस ग्रन्थको भी प्रकाशमें लानेके लिये हमारा प्रयत्न शुरू हुआ था। प्रवर्तकजी महाराजके शिष्यप्रवर और ग्रन्थसंशोधन-सम्पादनादिकार्य में अविरत परिश्रम करनेवाले तथा पाटण आदिके ज्ञानभाण्डारोंकी सुव्यवस्था करने में अथक उद्यम करनेवाले, यथार्थ जिननवचनोपासक, सुचतुर मुनिवर श्रीचतुरविजयजी महाराजके प्रयत्नसे, सुरतके श्रीमन्मुनिमोहनलालजी ज्ञानभंडारमेंसे इस ग्रन्थकी ताडपत्र पर लिखी हुई एक पुरातन प्रति, तथा बडौदा खंभायत आदिके भंडारोंमेंसे कुछ और प्रतियां भी प्राप्त की गई । इस प्रकार प्रतियां इकट्ठी होने पर, प्रेसके लिये, उन परसे कॉपी तैयार करनेका हम उपक्रम करना ही चाहते थे कि, उसी बीच में, पूनासे, प्रो. देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर, जो उन दिनोंमें आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इन्डिया वेस्टर्न सर्कलके सुप्रीन्टेन्डेन्ट थे, प्रसंगवश बडौदामें आये और जैन उपाश्रयमें हम लोगोंसे मिले । बातचीतमें उन्होंने कहा कि हम और जयपुरवाले पण्डित केदारनाथजी मिलकर तीर्थकल्पका संपादन करना चाहते हैं और कलकत्ताकी एशियाटिक सोसायटी द्वारा उसे प्रकाशित कराना चाहते हैं । अध्यापक भाण्डारकर जैसे समर्थ विद्वानके हाथसे इस ग्रन्थका सम्पादन होना जान सुन कर हमको बडा आनन्द हुआ और हमने अपना उक्त कार्य स्थगित कर दिया। इतना ही नहीं लेकिन, उनके अनुरोध करने पर, उनकी करवाई हुई जो प्रेसकॉपी थी उसे हमने और प्रवर्तकजी महाराजके विद्वान् प्रशिष्य पुण्यमूर्ति मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीने मिलकर, उक्त ताडपत्रकी प्रतिके साथ मिलान कर तथा पाठान्तरादि दे कर शुद्ध भी कर दिया। इसके कुछ वर्ष वाद, उक्त सोसायटी द्वारा, इस ग्रन्थका ९६ पृष्ठ जितना एक हिस्सा प्रकाशित हुआ जिसमें प्रस्तुत आवृत्ति के पृष्ठ ३० जितना भाग मुद्रित हुआ है । तदनन्तर, आज कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये, लेकिन उसके आगेका कोई हिस्सा अभी तक प्रकाशित नही हुआ; और न मालूम भविष्य में कव होगा। भाण्डारकर महाशय सम्पादित आवृत्तिका इस प्रकार अनिश्चित भविष्य देख कर, हमने अपने ढंगसे, इस ग्रन्थको, उसी पुराने संकल्पके अनुसार, तैयार कर, सिंघी जैन अन्धमालाके एक पुष्पके रूपमें, जिज्ञासु विद्वानोंके हाथ में समर्पित करना समुचित समझा है। * द्रष्टव्य-P. Peterson. A fourth Report of operations in search of sanskrit Mss. in the Bombay Circle, 1886-92. +देखो बॉम्बे संस्कृतसिरीझमें प्रकाशित गउवद्दो. Introduction. P. Clii. I G. BUALAR. A Legend of the Jaina Stūpa at Mathura.-Sitzungsberichte der phil.hist. Class der kais. Akademie der Wissenschaften Wien, 1897. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक निवेदन। ६११. तीर्थकल्पके समविषयक अन्य ग्रन्थ विस्तृत जैन इतिहासकी रचनाके लिये, जिन ग्रन्थोंमेंसे, विशिष्ट सामग्री प्राप्त हो सकती है उनमें (१) प्रभावकचरित्र, (२) प्रबन्धचिन्तामणि, (३) प्रबन्धकोष और (४) विविधतीर्थकल्प ये ४ अन्य मुख्य हैं । ये चारों ग्रन्थ परस्पर बहुत कुछ समान विषयक हैं और एक दूसरेकी पूर्ति करने वाले हैं। जैन धर्मके ऐतिहासिक प्रभावको प्रकट करनेवाली, प्राचीनकालीन प्रायः सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध व्यक्तियोंका थोडाबहुत परिचय इन ४ चारों ग्रन्थोंके संकलित अवलोकन और अनुसन्धान द्वारा हो सकता है । इस लिये हमने इन चारों ग्रन्थोंको एक साथ, एक ही रूपमें, एक ही आकारमें, और एक ही पद्धतिसे सम्पादित और विवेचित कर, इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करनेका आयोजन किया है। इनमेंसे प्रबन्धचिन्तामणिका, मूलग्रन्थात्मक पहला भाग, गत वर्षमें प्रकट हो चुका है और उसका सम्पूरक 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' नामका दूसरा भाग इस ग्रन्थके साथ ही प्रकट हो रहा है। प्रवन्धकोषका मूलग्रन्थात्मक प इसका सहगामी है। प्रभावकचरित्र अभी प्रेसमें है सो भी थोडे ही समयमें, अपने इन समवयस्कोंके साथ, विद्वानोंके करकमलोंमें इतस्ततः सञ्चरमाण दिखाई देगा । इन चारों ग्रन्थोंका, इस प्रकार शुद्धिसंस्कारपूर्वक मूलस्वरूपका अवतार-कार्य पूरा होने पर, फिर इनका वर्तमान राष्ट्रभाषा (हिन्दी) में द्वितीय अवतार होगा, जो ऐतिहासिक अन्वेषणवाले विवेचनादिसे अलंकृत और स्थानविशेषोंके चित्रादिसे विभूषित होगा। वैशाखी पूर्णिमाः संवत् १९९.। अनेकान्तविहार, भारतीनिवास । जिन विजय अहमदाबाद Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०. । कमांक A प्रतिगत कल्पानुक्रम १ शबूंजयतीर्थकल्प रक्तकगिरिकल्पसंक्षेप उज्जयन्तस्तव ४ | उजयन्तमहातीर्थकल्प रैवतकगिरिकल्प ६ पार्श्वनाथकल्प संभनककल्प अहिच्छत्रानगरीकल्प अर्बुदाद्रिकल्प मथुरापुरीकल्प अश्वावबोधकल्प ११ वैभारगिरिकल्प १२ | कौशाम्बीनगरीकल्प १३ | अयोध्यानगरीकल्प १४ । अपापापुरी [ संक्षिप्त ] कल्प १५ कलिकुण्ड कुर्कुटेश्वरकल्प १६ हस्तिनापुरकल्प १७ सयपुरतीर्थकल्प अष्टापदमहातीर्थकल्प (१) १९ मिथिलातीर्थकल्प रत्नवाहपुरकल्प अपापाबृहत्कल्प कन्यानयनीयम.प्र. कल्प प्रतिष्ठानपत्तनकल्प (स्तुति) नन्दीश्वरद्वीपकल्प काम्पिल्यपुरतीर्थकल्प अणहिलपुर-अरिष्टनेमिकल्प शंखपुरपार्श्वकल्प नासिक्यपुरकल्प हरिकंखीनगर पार्श्वकल्प ३० कपर्दियक्षकल्प ३१ शुद्धदन्ती पार्श्वकल्प ३२ अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनकल्प xxx xxx x......: भिन्न भिन्न प्रतियोंमें प्राप्त कल्पोंका क्रमनिदर्शक तुलनात्मक कोष्ठक Paप्रति. कल्पानुक्रम Pb प्रति. कल्पानुक्रम B प्रति. कल्पानुक्रम| Cप्रति.|D प्रति. P प्रतिगतकल्पानुक्रम शत्रुजयकल्प [१] रेवतगिरिकल्पसंक्षेप [२] उजयन्तमहातीर्थकल्प [४] रैवतगिरिकल्प [५] उजयन्तस्तव [३] अम्बिकादेवीकल्प [६१] कपर्दियक्षकल्प [३०] पार्श्वनाथकल्प [६] स्तंभनककल्प , अहिच्छत्राकल्प [.] मथुराकल्प [3] । अश्वावबोधकल[१०] वैभारगिरिकल्प [११] सत्यपुरकल्प [१७] कोलपाकमाणिक्यदेवकल्प [५] अणहिलपुर अरिष्टनेमिकल्प [२६] कोकावसतिपार्श्वकल्प [४०] शुद्धदन्तीपार्श्वकल्प [३१] शंखपुरपार्श्वकल्प [२७] श्रीपुरअन्तरिक्षपार्श्वकल्प [५८] हरिकंखीनगरपाचकल्प [२९] कोटिशिलातीर्थकल्प [१] चंपापुरीकल्प [३५] नासिक्यपुरीकल्प [२८] फलबाधिपार्श्वकल्प [६.] व्याघ्रीकल्प [४] अध्यापदकल्प [४९] हस्तिनापुरस्तवन [५.] अयोध्यानगरीकल्प [१३] अपापा [संक्षिप्त ] कल्प [१४] कौशाम्बी नगरी कल्प [१२] श्रावस्तीनगरीकल्प [३५] , ३२ मिथिलापुरीकल्प [१९] १८ .:: २२ २८ . :: Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ३४ ३५ ३९ ३७ ३८ ३९ ४० प्रतिष्ठानपुरकल्प प्र० सातवाहननुपचरित्र चम्पापुरीकल्प पालिक श्रावस्तीनगरीकन वाराणसी नगरीकल्प महावीर गणधरकल्प कोकास विपार्थकल्प कोटिशिलातीर्थंकल्प ४१ ४२ पाल-जापानमन्त्रिक ४३ ४४ ढिपुरीस्तव ४५ चतुरशीतितीनामसंग्रह ४६ समवसरण रचना कल्प ४७ कुलुंगेश्वरनामेव देवकल्प ४८ व्याधी कल्प ४९ ५० ५१ अदरक (२) हस्तिनापुर तीर्थवन कन्यानयम • कल्पपरिशेष कुल्य पाकऋषभस्तुवि आमरकुण्डपद्मावतीकल्प चतुर्विंशतिजनकल्याणक (1) ६० ६१ विपुरीतीर्थंकल्प ५२ ५३ ५४ ५५ अतिशयविचार | ५६ पचकल्याणक स्तवन ( २ ) ५७ देवकल्प ५८ श्रीपुर अन्तरिक्षपाल ५९ स्तम्भनककल्पलिन्छ फलन दिपार्श्वकल्य अम्बिकादेवीकल्प अन्थसमाप्तिसूचककथन " >> در 35 ا. 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सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीन नृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य रूप लावण्य- सुवाक्सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णां शौर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ सूनुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरति प्रियः । रणमल्ल इति ह्यन्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवी हंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिर्भैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । स चासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति श्रद्धास्पदं परम् ।। तेनाथाप्रति प्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात्तच्छिशोर्बाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्वं गृहादिकम् ॥ तथा च परिभ्रम्याथ देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविध भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न - नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैका ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्य गुम्फिताः ॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीय मनीषिणाम् || यस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात्स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठ इतिख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोचैर्नियुक्तो यो महात्मना । विद्वज्जनकृतला पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सँलग्न राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तः येन स्वराज्यपर्वणि ॥ क्रमात्तस्माद् विनिर्मुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्द्यकवीन्द्र श्रीरवीन्द्रनाथ भूषिते ॥ सिंघीपदयुतं जैनज्ञानपीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना || श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसज्ञके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृतात्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दखियं लोके जिनविजयभारती ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्याः क्षेत्रं वनं वापी कूपस्सरित् सरोवरम् । ग्राम-नगर- गिर्यादि सर्वं तीर्थमयं स्थितम् ॥ मेवाडाख्या प्रसिद्धा या स्वर्गादपि गरीयसी । जन्मभूमिर्मदीया सा मातृतुल्या प्रियंकरा ॥ तस्याः पुण्यपवित्रायाः सत्कीर्तिमूर्तिमन्दिरे । करोम्यहं कृतेरस्याः सद्भक्त्या वै समर्पणम् ॥ Page #30 --------------------------------------------------------------------------  Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरिविरचितः ॥विविधतीर्थकल्पः॥ Page #32 --------------------------------------------------------------------------  Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनप्रभसूरिविरचितः कल्प प्रदी पा पर ना मा ॥ विविधतीर्थकल्पः॥ ॥ ॐ नमोऽर्हद्भ्यः ॥ १. शत्रुञ्जयतीर्थकल्पः। देवः' श्रीपुण्डरीकाख्यभूभृच्छिखरशेखरम् । अलंकरिष्णुः प्रासादं श्रीनाभेयः श्रियेऽस्तु वः ॥ १ ॥ श्रीशत्रुञ्जयतीर्थस्य माहात्म्यमतिमुक्तकः । केवली यदुवाच प्राक् (ग्) नारदस्य ऋषेः पुरः ॥ २ ॥ तदहं लेशतो वक्ष्ये खपरस्मृतिहेतवे । श्रोतुमर्हन्ति भव्यास्तत् पापनाशनकाम्यया ॥ ३ ॥-युगलम् । शत्रुञ्जये पुण्डरीकस्तपोभृत् पञ्चकोटियुक् । चैव्या सिद्धस्ततः सोऽपि पुण्डरीक इति स्मृतः ॥ ४ ॥ सिद्धिक्षेत्र तीर्थराजो मरुदेवो भगीरथः । विमलाद्रिाहुबली सहस्रकमलस्तथा ॥ ५ ॥ 5 तालध्वजः कदम्बश्च शतपनो नगाधिराट् । अष्टोत्तरशतकूटः सहस्रपत्र इत्यपि ॥ ६॥ ढको लौहित्यः कपर्दिनिवासः सिद्धिशेखरः। शत्रुञ्जयस्तथा मुक्तिनिलयः सिद्धिपर्वतः ॥७॥ पुण्डरीकश्चेति नामधेयानामेकविंशतिः । गीयते तस्य तीर्थस्य कृता सुरनरपिभिः ॥ ८॥-कलापकम् । ढङ्कादयः पञ्च कूटास्तत्र सन्ति सदैवताः । रसकूपीरत्नखनिविवरौषधिराजिताः ॥ ९ ॥ ढङ्कः कदम्बो लौहित्यस्तालध्वज-कपर्दिनौ । पञ्चेति ते कालवशान्मिथ्याडम्भिरुरीकृताः ॥ १०॥ 10 अशीति योजनान्याचे द्वैतीयीके तु सप्ततिम् । षष्टिं तृतीये तुर्ये चारके पञ्चाशतं तथा ॥ ११ ॥ पञ्चमे द्वादशैतानि सप्तरली तथान्तिमे ! इत्याप्तैरवसर्पिण्यां विस्तारस्तस्य कीर्तितः ॥ १२ ॥-युग्मम् । पञ्चाशतं योजनानि मूलेऽस्य दश चोपरि । विस्तार उच्छ्यस्त्वष्टौ युगादीशे तपत्यभूत् ॥ १३ ॥ अस्मिन्वृषभसेनाद्या असंख्याः समवासरन् । तीर्थाधिराजाः सिद्धाश्चातीते काले महर्षयः ॥ १४ ॥ श्रीपद्मनाभप्रमुखा भाविनो जिननायकाः । अस्मिन् समवसर्तारः कीर्तिपावितविष्टपाः ॥ १५ ॥ 15 श्रीनाभेयादि-वीरान्ताः श्रीनेमीश्वरवर्जिताः । त्रयोविंशतिरहन्तः समवासार्पुरत्र च ॥ १६ ॥ हेमरूप्यादिजद्वाविंशत्यहत्प्रतिमान्वितम् । अङ्करलजनाभेयप्रतिमालङ्कृतं महत् ॥ १७ ॥ द्वाविंशतिक्षुल्लदेवकुलिकायुक्तमुच्चकैः । योजनप्रमितं रत्नमयमुत्पन्नकेवले' ॥ १८॥ आदीश्वरे श्रीभरतश्चक्री चैत्यमचीकरत् । एतस्यामवसर्पिण्या पूर्वमत्र पवित्रधीः ॥ १९ ॥-त्रिभिर्विशेषकम् । द्वाविंशतेर्जिनेन्द्राणां यथावं पादुकायुता । भात्यत्रायतनश्रेणी लेप्यनिर्मितबिम्बयुक् ॥ २० ॥ 20 अकारि चात्र समवसरणेन सहोच्चकैः । प्रासादो मरुदेवायाः श्रीबाहुबलिभूभुजा ।। २१ ॥ 1A देव। 2 B सतिमुत्तिकः। 3 B ऋषे । 4A सिद्ध । 5A B योजनानाये । 6A ते । 7 B केवलो। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे प्रथमोऽत्रावसर्पिण्यां गणमृत्, प्रथमार्हतः । प्रथमं प्रथमः सूनुः सिद्धः प्रथमचक्रिणः ॥ २२ ॥ अस्मिन् नमि-विनम्याख्यौ खेचरेन्द्रमहाऋषी । कोटिद्वय्या महर्षीणां सहितौ सिद्धिमीयतुः ॥ २३ ॥ सम्प्रापुरत्र द्रविड-वालिखिल्यादयो नृपाः । कोटीभिर्दशभिर्युक्ताः साधूनां परमं पदम् ॥ २४ ॥ जयरामादिराजर्षिकोटित्रयमिहागमत् । नारदादिमुनीनां च लक्षैकनवतिः शिवम् ॥ २५ ॥ 5 प्रद्युम्न-शाम्बप्रमुखाः कुमाराश्चात्र निर्वृतिम् । पराप्तवन्तः सार्द्राष्टकोटिसाधुसमन्विताः ॥ २६ ॥ मनुप्रमितलक्षादिसंख्याभिः श्रेणिभिस्तथा । असंख्याताभिः सर्वार्थसिद्धान्तरितमासदन् ॥ २७ ॥ पश्चाशत्कोटिलक्षाब्धीन् यावन्नाभेयवंशजाः । अत्रादित्ययशोमुख्याः सगरान्ताः शिवं नृपाः ।। २८ 1- युग्मम् । भरतस्यापत्याः पुत्रश्नीशैलक-शुकादयः । अत्र सिद्धा असंख्यातकोटाकोटिमिता यताः ॥ २९ ॥ मुनीनां कोटिविंशत्या कुन्त्या च सह निर्वृताः । कृतार्हस्पतिमोद्धारा अन ते पञ्च पाण्डवाः ॥ ३० ॥ 10 द्वितीयषोडशावत्राजित-शान्ती जिनेश्वरौ । वर्षारात्रचतुर्मासी तस्थतुः स्थितिदेशिनौ !! ३१ ॥ श्रीनेमिवचनाद् यात्रागतः सर्वरुजापहम् । नन्दिषेणगणेशोऽत्राजितशान्तिस्तवं व्यधात् ।। ३२ ।। पौरना असंख्या उद्धारा असंख्याः प्रतिमास्तथा । असंख्यानि च चैत्यानि महातीर्थेऽत्र जज्ञिरे ।। ३३ ॥ अर्चाः क्षुल्लतडागस्थास्तथा भरतकारिताः । गुहास्थाश्च नमन् भक्त्या स्यादत्रैकावतारभाक् ॥ ३४ ॥ संप्रतिर्विक्रमादित्यः सातवाहन-वाग्भटौ । पादलिप्ता-ऽऽम-दत्ताश्च तस्योद्धारकृतः स्मृताः ॥ ३५ ॥ 13 विदेहेष्वपि वास्तव्याः स्मरन्त्येनं सुदृष्टयः । इति श्रीकालिकाचार्यपुरः शक्रः किलाब्रवीत् ।। ३६ ॥ अत्र श्रीजावडेबिम्बोद्धारे जाते क्रमेण वै । अजितायतनस्थाने बभूवानुपमासरः ॥ ३७ ।। अत्र श्रीमरुदेवायाः श्रीशान्तेश्वोद्धरिष्यति । मेघघोषनृपः कल्किप्रपौत्रो भवने सुधीः ॥ ३८ ॥ अस्यापश्चिममुद्धारं राजा विमलवाहनः । श्रीदुष्पसहसूरीणामुपदेशाद्विधास्यति ॥ ३९ ॥ तीर्थोच्छेदेऽपि ऋषभकूटाख्योऽयं सुरार्चितः । यावत् पद्मनाभतीर्थ पूजायुक्तो भविष्यति ॥ ४० ॥ 20 प्रायः पापपरित्यक्तास्तिर्यञ्चोऽप्यत्र वासिनः । प्रयान्ति सुगति तीर्थमाहात्म्याद् विशदाशयाः ॥ ४१ ॥ सिंहामिजलधिव्यालभूपालविषयुद्धजम् । चौरारिमारिजं चास्य स्मृतेर्नश्येद्भयं नृणाम् ॥ ४२ ॥ भरतेशकृतेर्लेप्यमयस्याद्यजिनेशितुः। ध्यायन्नुत्सङ्गशय्यास्थं खं सर्वभयजिद्भवेत् ॥ ४३ ॥ उग्रेण तपसा ब्रह्मचर्येण च यदाप्नुयात् । शत्रुञ्जये तन्निवसन् प्रयतः पुण्यमभुते ॥ ४४ ॥ प्रदद्यात् 'कामिकाहारं तीथे कोटिव्ययेन यः । तत्पुण्यमेकोपवासेनामोति विमलाचले ॥ ४५ ॥ 25 भूर्भुवःस्वस्त्रये तीर्थ यत्किञ्चिन्नाम विद्यते । तत्सर्वमेव दृष्टं स्यात् पुण्डरीकेऽभिवन्दिते ॥ ४६॥ अत्राद्यापि विनारिष्टं सम्पातोऽरिष्टपक्षिणाम् । न जातु जायते सत्रागारभोज्येषु सत्खपि ॥ ४७ ।। भोज्यदानेऽत्र यात्रायै याते कोटिगुणं शुभम् । कृतयात्राय बलते तत्रानन्तगुणं पुनः ॥ ४८ ॥ प्रतिलाभयतः सङ्घमदृष्टे विमलाचले। कोटीगुणं भवेत् पुण्यं दृष्टेऽनन्तगुणं पुनः ॥ १९॥ केवलोत्पत्ति-निर्वाणे यत्राभूतां महात्मनाम् । तानि सर्वाणि तीर्थानि वन्दितानीह वन्दिते ॥ ५० ॥ 30 जन्म-निष्क्रमण-ज्ञानोत्पत्ति-मुक्तिगमोत्सवाः । वैयस्त्यात् कापि सामस्त्याजिनानां यत्र जज्ञिरे ॥ ५१ ।। अयोध्या-मिथिला-चम्पा-श्रावस्ती हस्तिनापुरे । कौशाम्बी-काशि-काकन्दी-काम्पिल्ये भद्रिलाभिधे ॥ ५२ ॥ 3 B °सदत् । 4 A यतः। 5 B चैत्यादि। 6 B भारत। 7 A नृपं । 1 A निवृत्तिम् । 2 A परापूर्वतः। 8A कासिका। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जयतीर्थकल्पः। रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डग्रामेऽप्यपापया । चन्द्रानना-सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे ॥ ५३ ॥ श्रीरैवतक-संमेत-वैभारा-ऽष्टापदाद्रिषु । यात्रयास्मिंस्तेषु यात्राफलाच्छतगुणं फलम् !! ५४ ॥-चतुर्भिः कलापकम् । पूजापुण्याच्छतगुणं पुण्यं बिम्बविधापने । चैत्येऽत्र सहस्रगुणं पालनेऽनन्तसगुणम् ॥ ५५ ॥ यः कारयेदस्य मौलौ प्रतिमां चैत्यवेश्म वा । भुक्त्वा भारतवर्षीः स वर्गश्रियमश्नुते ॥ ५६ ॥ नमस्कारसहितादितपांसि विदधन्नरः । उत्तरोत्तरतपसां पुण्डरीकस्मृतेर्लभेत् ॥ ५७ ॥ तीर्थमेतत्मरन्मर्त्यः करणत्रयशुद्धिमान् । षष्ठादिमासिकान्तानां तपसां फलमामुयात् ।। ५८ ।। अद्यापि पुण्डरीकाद्री कृत्वानशनमुत्तमम् । भूत्वा शीलविहीनोऽपि सुखेन स्वर्गमृच्छति ।। ५९ ।। छत्रचामरभृङ्गारध्वजस्थालप्रदानतः । विद्याधरो जायतेऽत्र चक्री स्याद्रथदानतः ॥ ६०॥ दशात्र पुष्पदामानि ददानो भावशुद्धितः । भुञ्जानोऽपि लभेतैव चतुर्थतपसः फलम् ॥ ६१ ॥ द्विगुणानि तु षष्ठस्याष्टमस्य त्रिगुणानि तु । चतुर्गुणानि दशमस्येति तानि ददत् पुनः ॥ ६२ ।। फलं भवेद्वादशस्य ददत् पञ्चगुणानि तु । तेषां यथोत्तरं वृद्ध्या फलवृद्धिरपि स्मृता ।। ६३ ।। पूजालपनमात्रेण यत् पुण्यं विमलाचले । नान्यतीर्थेषु तत् वर्णभूमिभूषणदानतः ॥ ६४ ॥ धूपोत्क्षेपणतः पक्षोपवासस्य लभेत् फलम् । कर्पूरपूजया चात्र मासक्षपणजं फलम् ॥ ६५॥ निर्दोषैरत्र भक्ताद्यैर्यः साधून प्रतिलाभयेत् । फलेन कार्तिकमासक्षपणस्य स युज्यते ॥ ६६ ॥ त्रिसन्ध्यं मन्त्रवाःसातो मासानाश्वान् मधूर्जयोः । नमोऽर्हन्यः पदं ध्यायन्निहार्जेत् तीर्थकृत्पदम् ॥ ६७ ।। पादलिप्तपुरे भातः प्रासादौ पार्श्व-वीरयोः । अधोभागे चास्य नेमिनाथस्यायतनं महत् ॥ ६८ ॥ तिस्रः कोटीस्त्रिलक्षोना व्ययित्वा वसु वाग्भटः । मन्त्रीश्वरो युगादीशप्रासादमुददीधरत् ॥ ६९ ।। दृष्टैव तीर्थप्रथमप्रवेशेऽत्रा दिमार्हतः । विशदा मूर्तिराधत्ते दृशोरमृतपारणम् ।। ७० ॥ अष्टोत्तरे वर्षशतेऽतीते श्रीविक्रमादिह । बहुद्रव्यव्ययाद् बिम्बं जावडिः स न्यवीविशत् ॥ ७१ ।। भाखरद्युतिमम्माणमणिशैलतटोत्थितम् । ज्योतीरसाख्यं यद्नं तत्तेन घटितं किल ॥ ७२ ।। मधुमत्यां पुरि श्रेष्ठी वास्तव्यो जावडिः पुरा । श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं श्रीवैरखामितोऽशृणोत् ।। ७३ ॥ गन्धोदकमात्ररुचिलेंप्यबिम्ब शुशोच सः । स्मृत्वा चक्रेश्वरी सैष मम्माणाद्रिखनीमगात् ।। ७४ ।। निर्माप्येहाश्मनी मूर्ति स्थमारोप्य चाचलत् । विमलादि सभार्योऽसौ पद्यया हृद्यया दिने ॥ ७५ ॥ ययौ यावन्तमध्वानं दिवा सप्रतिमो रथः । रात्रौ तावन्तमेवासौ पश्चाद् च्यावर्तताद्भुतम् ॥ ७६ ॥ खिन्नः कपर्दिनं स्मृत्वा दृष्ट्वा हेतुं च तद्विधौ । रथमार्गेऽपतत्तिर्यक् प्रयतः सह जायया ॥ ७७ ।। तत्साहसप्रसन्नेन दैवतेनाधिरोपितः । स्थः सबिम्बोऽद्रिशृङ्गे दुःसाधं सात्त्विकेषु किम् ॥ ७८ ।। मूलनायकमुत्थाप्य न्यस्ते बिम्बे तदाम्पदे । लेप्यबिम्बारटितेन पर्वतः खण्डशोऽदलत् ।। ७९ ।। तन्मुक्ताऽथ तडिच्छेष्ठिबिम्बेन करमर्दिता । सोपानानि च्छिद्रयन्ती निर्ययौ शैलदेशभित् ।। ८०॥ आरुह्य चैत्यशिखरं सकलत्रः प्रमोदतः । जावडिनेरिनर्ति स्म चञ्चद्रोमाञ्चकञ्चुकः ॥ ८१ ॥ अपतीर्थिकबोहित्थान्यब्देऽष्टादश आपतन् । तद्र्व्यव्ययतः श्रेष्ठी तन्त्र चके प्रभावनाम् ॥ ८२ ॥ इत्थं जावडिराद्याहत्-पुण्डरीक-कपर्दिनाम् । मूर्तीनिवेश्य सञ्जज्ञे खर्विमानातिथित्वभाक् ।। ८३ ॥ 20 25 30 1 B°वालातो। 2 A स प्रथमो; B दिवसे प्रथमे। 3A स भावनां । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे दक्षिणाङ्गे भगवतः पुण्डरीक इहादिमः । वामाङ्गे दीप्यते तस्य जावडिस्थापितोऽपरः ॥ ८४ ॥ इक्ष्वाकु-वृष्णिवंश्यानामसंख्याः कोटिकोटयः । अत्र सिद्धाः कोटिकोटीतिलकं सूचयत्यदः ॥ ८५ ॥ पाण्डवाः पञ्च कुन्ती च तन्माता च शिवं ययुः । इति शासति तीर्थेऽत्र पडेषां लेप्यमूर्तयः ॥ ८६ ॥ राजादनश्चैत्यशाखी श्रीसङ्घाद्भुतभाग्यतः । दुग्धं वर्षति पीयूषमिव चन्द्रकरोत्करः ॥ ८७ ॥ 5 व्याघ्रीमयूरप्रमुखास्तिर्यञ्चो भक्तमुक्तितः । सुरलोकमिह प्राप्ताः प्रणतादीशपादुकाः ।। ८८ ॥ वामे सत्यपुरस्यावतारो मूलजिनौकसः । दक्षिणे सकुनी-चैत्यपृष्ठे चाष्टापद[:] स्थितः ॥ ८९ ।। नन्दीश्वर-स्तम्भनकोजयन्तानामकृच्छ्रतः । भव्येषु पुण्यवृद्यर्थमवतारा इहासते ।। ९० ।। आत्तासिना विनमिना न मिना च निषेवितः । स्वर्गारोहणचैत्ये च श्रीनाभेयः प्रभासते ॥ ९१॥ तुझं शृङ्गं द्वितीयं च श्रेयांसः शान्ति-नेमिनौ । अन्येऽप्वृषभ-वीराद्या अस्यालकुर्वते जिनाः ।। ९२ ।। 10 मरुदेवां भगवती भवनत्र भवच्छिदम् । नमस्कृत्य कृती स्वस्थ मन्यते कृतकृत्यताम् ।। ९३॥ यक्षराजः कपद्दीह कल्पवृक्षः प्रणेमुषाम् । चित्रान् यात्रिकसहस्य विघ्नान् मईयति स्फुटम् ॥ ९४ ॥ श्रीनेम्यादेशतः कष्णो दिनान्यष्टावपोषितः । कपर्दियक्षमाराध्य पर्वतान्तर्गहान्तरे ॥ ९५॥ अद्यापि पूज्यं शक्रेण बिम्बत्रयमगोपयत् । अद्यापि श्रूयते तन्न किल शक्रसमागमः ॥ ९६ ॥-युग्मम् । पाण्डवस्थापितश्रीमदृषभोत्तरदिग्गता । सा गुहा विद्यतेऽद्यापि यावत् क्षुल्लतडागिका ॥ ९७ ॥ 15 यक्षस्यादेशतस्तत्र दृश्यन्ते प्रतिमाः किल । तत्रैवाजित-शान्तीशौ वर्षारात्रमवस्थितौ ।। ९८ ॥ तयोश्चैत्यद्वयं पूर्वाभिमुखं तत्र चाभवत् । निकषाजितचैत्यं च बभूवानुपमासरः ॥ ९९ ॥ मरुदेव्यन्तिके शान्तेश्चैत्यं शैत्यकरं दृशाम् । भवति स्म भयभ्रान्तिभिदुरं भव्यदेहिनाम् ॥ १०० ॥ श्रीशान्तिचैत्यस्य पुरो हस्तानां त्रिंशता पुनः । पुरुषैः सप्तभिरदः खानी द्वे वर्णरूप्ययोः ।। १०१ ॥ ततो हस्तशतं गत्या पूर्वद्वाराऽस्ति कूपिका । अधस्तादष्टभिहस्तैः श्रीसिद्धरसपूरिता ॥ १०२ ।। 20 श्रीपादलिप्ताचार्येण तीर्थोद्धारकृते किल । अस्ति संस्थापितं रसुवर्ण तत्समीपगम् ॥ १०३ ।। पूर्वस्यां वृषभबिम्बादधश्चर्षभकूटतः । धषि त्रिंशतिं (तं? ) गत्वोपवासांस्त्रीन् समाचरेत् ।। १०४ ॥ कृते बलिविधानादौ वैरोट्या खं प्रदर्शयेत् । तदाजयोद्धाट्य शिलां रात्रौ मध्ये प्रविश्यते ॥ १०५॥ तत्रोपवासतः सर्वाः संपद्यन्ते च सिद्धयः । तत्रर्षभार्चानमनाद्भवेदेकावतारभाक् ॥ १०६ ॥ पुरो धनुष्पञ्चशत्या आस्ते पाषाणकुण्डिका । ततः सप्त क्रमान् गत्वा कुर्याद्वलिविधिं बुधः ॥ १०७ ॥ 25 शिलोत्पाटनतस्तत्र कस्यचित् पुण्यशालिनः । उपवासद्वयेन स्यात् प्रत्यक्षा रसकूपिका ॥ १०८ ॥ कल्किपुत्रो धमेदत्तो भावी स परमार्हतः । दिने दिने जिनबिम्बं प्रतिष्ठाप्य च भोक्ष्यते ॥ १०९ ॥ स श्रीशत्रुञ्जयोद्धारं कर्ताथ जितशत्रुराट् । द्वात्रिंशद्वर्षराज्यश्रीभविष्यति तदात्मजः ॥ ११ ॥ तत्सूनुमघघोषाख्यः श्रीशान्ति-मरुदेवयोः । कपर्दियक्षस्यादेशाचैत्यमत्रोद्धरिप्यति ॥ १११ ॥ नन्दिः सूरिरथार्यश्च श्रीप्रभो माणिभद्रकः । यशोमित्रो धनमित्रस्तथा विकटधर्मकः ॥११२ ॥ 30 सुमङ्गलः सूरसेन इत्यस्योद्धारकारकाः ! अर्वाक(ग्) दुष्प्रसहादन्ते भावी विमलवाहनः ।। ११३ ॥ यात्रिकान् येऽस्य बाधन्ते द्रव्यं बायहरन्ति ये । पतन्ति नरके घोरे सान्वयास्तेऽहसां भरात् ॥ ११४ ॥ यात्रां पूजां द्रव्यरक्षां यात्रिकस्तोमसत्कृतिम् । कुर्वाणोऽत्र सगोत्रोऽपि वर्गलोके महीयते ॥ ११५॥ श्रीवस्तुपालोपज्ञानि पीथडादिकृतानि च । वक्ता पारं न यात्यत्र धर्मस्थानानि कीर्तयन् ।। ११६ ॥ दुःख(प)मासचिवान् म्लेच्छाद्भङ्ग संभाव्य भाविनम् । मन्त्रीशः श्रीवस्तुपालस्तेजःपालाग्रजः सुधीः ।। ११७ ॥ 1A ऽत्र 2 B पूर्वस्थामृषभ। 3 Bस्तेहसंभरात् । 4B पेथडा । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुजयतीर्थकल्पः । १२५ ॥ मम्माणोपलरत्नेन निर्माप्यात्यन्तनिर्मले' । न्यधाद्भुमिगृहे मूर्ती आद्यार्हत् पुण्डरीकयोः ॥ ११८ ॥ युग्मम् । ही ग्रहर्तु क्रियास्थान (१३६९) संख्ये विक्रमवत्सरे । जावडिस्थापितं बिम्बं ग्लेच्छैर्भनं कलेर्वशात् १९९ वैक्रमे वत्सरे चन्द्रयानीन्दु (१३७१) मिते सति । श्रीमूलनायकोद्धारं साधुः श्रीसमरो व्यधात् १२० तीर्थेऽत्र सङ्घपतयो ये बभूवुर्भवन्ति ये । ये भविष्यन्ति धन्यास्ते नन्द्यासुस्ते चिरं श्रिया ॥ १२१ ॥ कल्पप्राभृततः पूर्वं कृतः श्रीभद्रबाहुना । श्रीवज्रेण ततः पादलिप्ताचार्यैस्ततः परम् ॥ १२२ ॥ इतोऽप्युद्धृत्य संक्षेपात् प्रणीतः कामितप्रदः । श्रीशत्रुञ्जयकल्पोऽयं श्रीजिनमभसूरिभिः ॥ १२३ ॥ कल्पेऽस्मिन् वाचिते ध्याते व्याख्याते पठिते श्रुते । स्यात्तृतीयभवे सिद्धिर्भव्यानां भक्तिशालिनाम् ॥ १२४ ॥ श्रीशत्रुञ्ज शैलेश ! लेशतोऽपि गुणास्तव । कैर्व्यावर्णयितुं नाम पार्यन्ते विदुषे ( ० बुधै ?) रपि ॥ भवद्यात्रोपनम्राणां नृणां तीर्थानुभावतः । प्रायो मनः परिणामः शुभ एव प्रवर्द्धते ॥ १२६ ॥ त्वद्यात्राप्रचलत्सञ्चरथाश्वोष्ट्रनृपादजः । रेणुरङ्गे लगत् भव्यपुंसां पापं व्यपोहति ॥ १२७ ॥ यावान् कर्मक्षयोऽन्यत्र मासक्षपणतो भवेत् । नमस्कारसहितादेरपि तावान् कृतात्त्वयि ॥ १२८ ॥ श्रीनाभेयकृतावास ! वासवस्तुत्यवैभव ! । मनसा वचसा तन्वा सिद्धिक्षेत्र ! नमोऽस्तु ते ॥ १२९ ॥ त्वत्करूपमेतं निर्माय निर्मायमनसा मया । यदार्जि पुण्यं तेनास्तु विश्धं वास्तवसौख्यवत् ॥ पुस्तकन्यस्तमपि यः कल्पमेनं महिष्यति । न्यक्षेण काङ्क्षितास्तस्य सिद्धिमेप्यन्ति संपदः ॥ प्रारम्भेऽप्यस्य राजाधिराजः सङ्के प्रसन्नवान् । अतो राजप्रसादाख्यः कल्पोऽयं जयताचिरम् ॥ १३२ ॥ श्रीविक्रमाब्दे बाणाष्टविश्वेदेव (१३८५) मिते शितैौ । सप्तम्यां तपसः काव्यदिवसेऽयं समर्थितः ॥ १३३॥ १३० ॥ १३१ ॥ ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरिकृतः श्रीशत्रुञ्जयकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रन्थानं ० १३४, अक्षर १३ ॥ 1 A निर्मलं । 2 A ध्याने 1 5 10 15 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे २. रैवतकगिरिकल्पसंक्षेपः । सिरिनेमिजिणं सिरसा नमिउं रेक्यगिरीसकप्पंमि । सिरिवइरसीसभणिअं जहा य 'पालिन्तएणं च ॥ १ ॥ छत्तसिलाइ समीवे सिलासणे दिक्खं पडिवन्नो नेमी । सहसंबवणे केवलनाणं । लक्खारामे देखणा । अवलोअणे' उद्धसिहरे निवाणं । रेवयमेहलाए कण्हो तत्थ कल्लाणतिगं काऊण सुवन्नस्यणपडिमालंकिअं चेइ5 अतिगं जीवंतसामिणो, अंबादेवं च कारेइ । इंदो वि वज्रेण गिरिं कोरेऊण सुवन्नबलाणयं रुप्पमयं चेइअं रयणमया पडिमा पमाणवन्नोववेया सिहरे अंबारंगमंडवे 'अवलोणा सिहरं ( रे?) बलाणयमंडवे संबो एयाई कारेइ । सिद्धविणायगो पडिहारो तप्पडिरूवं* श्रीनेमिमुखात् निर्वाणस्थानं ज्ञात्वा निर्वाणादनन्तरं कण्हेण ठात्रिअं । तहा सत्त जायवा दामोयराणुरूवा । कालमेह १ मेहनाद २ गिरिविदारण ३ कपाट : सिंहनाद ५ खोडिक ६ रेवया ७ तित्रतवेणं कीडगेणं खित्तवाला उववन्ना । तत्थ य मेहनादो सम्मदिट्ठी नेमिपयभ10 तिजुत्तो चिट्ठइ । गिरिविदारणेण कंचणबलाणयंमि पंच उद्धारा विउबिआ । तत्थेगं, अंबापुरओ उत्तरदिसाए. सत्तहि असयकमेहिं गुहा; तत्थ य उववासतिगेणं बलिविहाणेणं सिलं उप्पाडिऊण मज्झे गिरिविदारणपडिमा । तत्थ य कमपण्णासं गए बलदेवेणं कारिअं सासयजिणपडिमारूवं नमिऊण उत्तरदिसाए पण्णासकमं वारीतिगं । पढमवारिआए कमसयतिगं गंतून गोदोहिआसणेणं पविसिऊण उपवासपंचगं भमररूवं दारुणं सत्तेणं उप्पाडिऊणं कमसत्ताओं अहोमुहं पविसिऊण बलाणयमंडवे इंदादेसेण धणयजक्खकारिअं अंबादेविं पूइऊण सुवण्णजालीए 15 ठायवं । तत्थ ठिएणं सिरिमूलनाहो नेमिजिर्णिदो वंदिअवो । बीअवारीए एगं पायं पूता सयंवरवावीए अहो कमचालीसं गमित्ता तत्थ णं मज्झवारीए कमसत्तसएहिं कूवो । तत्थ वरहंसठिअत्तेण इहावि मूलनायगो बन्देवो । तइअवारीए मूलदुवारपत्रेसो अंबाएसेण, न अन्नहा । एवं कंचणबलाणयमग्गो, तत्थ य अंबापुरओं हत्थवीसाए विवरं । तत्थ य अंबा एसेणं उपवासतिगेण सिलुग्धाडणेण हत्थवीसाए संपुडसत्तगं समुभायपंचगं अहो रसकूविआ अमावसाए अमावसाए उम्बडइ । तत्थ य उववासतिगं काऊण अंबारसेण पूयणेण बलिविहाणेणं' गिहियवं । तहा 20 यजुण्णकूडे ववासतिगं काऊण सरलमग्गेण बलिपूअणेणं सिद्धविणायगो उवलब्भइ । तत्थ य चिंतिया सिद्धी । दिणमेगं ठाएयत्रं । जइ तहा पच्चक्खो हवइ । तहा राथमईगुहाए कम सरणं गोदोहियाए रसकूविआ, कसिणचित्तयवल्ली, राईमईए पडिमा रयणमया, अंबा य; रुप्पमयाओं अणेगओसहीओ चिट्ठन्ति । तह छत्तसिला- घंटसिला - कोडिसिला सिलातिगं पण्णत्तं । छत्तसिलं मज्झं मज्झेणं कणयवल्ली । सहस्संबवणमज्झे रययसुवण्णमयचडवीस, लक्खारामे बाबत्तरी चडवीसजिणाण' गुहा पण्णत्ता । कालमेहम्स पुरओ 25 सुवन्नवालुआए नईए सट्टकमसंयतिगेण उत्तरदिसाए" गमिता गिरिगुहं पविसिऊण उदए न्हवणं काऊण ठिए उववासपओंएहिं दुवारमुग्वाडेइ । मज्झे पढमदुवारे सुवण्णखाणी, दुइअदुवारे रयणखाणी संघहेउं अंबाए विउविआ । तत्थ पण कण्हभंडारा । अण्णो दामोदरसमीवे। अंजणसिलाए अहोभागे रययसुवण्णधूली पुरिसवीसेहिं पण्णत्ता । तस्सत्थमणे" मंगल्यदेवदाली य संतु रससिद्धी । सिरिवइरोवक्खायं संघसमुद्धरणकजंमि ॥ १ ॥ काहं मज्झे गिहित्ता कोडिदिन्दुसंयोगे । घंटसिलाचुष्णयजोअणाओं अंजणसिद्धी ॥ २ ॥ || विजापाहुडुदेसाओ रेवयकप्पसंखेवो सम्मत्तो ॥ ॥ ग्रन्थाग्रं० ३८ ॥ 30 ६ 1 A पालत्तणं । 2 B अवलोयणं । 3B 'लोभण' । 7 B °विहारेणं । 8 A कंमसुएणं । 9 B 'जिणाण' नास्ति । 4 B तप्पडिरूप | 5 A. कंम । 10 A दिसीए । 11 B तस्सत्थमाणे 6 A वरिआए । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीउज्जयन्तस्तवः। 10 ३. श्रीउज्जयन्तस्तवः। नामभिः श्रीरैवतकोजयन्ताधैः 'प्रथामितम् । श्रीनेमिपावितं स्तौमि गिरिनारं' गिरीश्वरम् ॥ १ ॥ स्थाने देशः सुराष्ट्राख्यां बिभर्ति भुवनेप्वसौ ! यद्भूमिकामिनीभाले गिरिरेष विशेषकः ॥ २ ॥ शृङ्गारयन्ति खंगारदुर्ग श्रीऋषभादयः । श्रीपार्श्वस्तेजलपुरं भूषितैतदुपत्यकम् ॥ ३ ॥ योजनद्वयतुङ्गेऽस्य शृङ्गे जिनगृहावलिः । पुण्यराशिरिवाभाति शरच्चन्द्रांशुनिर्मला ॥ ४ ॥ सौवर्णदण्डकलशामलसारकशोभितम् । चारुचैत्यं चकास्त्यस्योपरि श्रीनेमिनः प्रभोः ॥ ५ ॥ श्रीशिवासूनुदेवस्य पादुकात्र निरीक्षिता । स्पृष्टाऽचिंता च शिष्टानां पापव्यूह व्यपोहति ॥ ६ ॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्य जरत्तृणमिव प्रभुः । बन्धून् विधूय च स्निग्धान् प्रपेदेऽत्र महाव्रतम् ॥ ७ ॥ अत्रैव केवलं देवः स एव प्रतिलब्धवान् । जगजनहितैषी स पर्यणैषीच निर्वृतिम् ।। ८ ॥ अत एवात्र कल्याणत्रयमन्दिरमादधे । श्रीवस्तुपालो मन्त्रीशश्चमत्कारितभव्यहृत् ॥ ९ ॥ जिनेन्द्रबिम्बपूर्णेन्द्रमण्डपस्था जना इह । श्रीनेमेर्मज्जनं कर्तुमिन्द्रा इव चकासति ॥ १०॥ गजेन्द्रपदनामास्य कुण्डं मण्डयते शिरः । सुधाविधैर्जलैः पूर्ण मानार्हलपनक्षमैः ॥ ११ ॥ शत्रुञ्जयावतारेऽत्र वस्तुपालेन कारिते । ऋषभ: पुण्डरीकोऽष्टापदो नन्दीश्वरस्तथा ॥ १२ ॥ सिंहयाना हेमवर्णा सिद्ध-वुद्धसुतान्विता ! कमामलुम्बिभृत्पाणिरत्राम्बा सङ्घविघ्नहृत् ॥ १३ ॥ श्रीनेमिपत्पझपूतमवलोकननामकम् । विलोकयन्तः शिखरं यान्ति भव्याः कृतार्थताम् ॥ १४ ॥ शाम्बो जाम्बवतीजातस्तुङ्गे शृङ्गेऽस्य कृष्णजः । प्रद्युम्नश्च महाद्युम्नस्तेपाते दुस्तपं तपः ॥ १५॥ नानाविधौषधिगणा जाज्वलन्त्यत्र रात्रिषु । किं च घण्टाक्षरच्छत्रशिलाः शालन्त उच्चकैः ॥ १६ ॥ सहस्राम्रवणं लक्षारामोऽन्येपि वनव्रजाः । मयूरकोकिलाभृङ्गीसङ्गीतिसुभगा इह ॥ १७ ॥ न स वृक्षो न सा वल्ली न तत्पुष्पं न तत्फलम् । नेक्ष्यते ऽत्राभियुक्तैर्यदित्यैतिह्यविदो विदः ॥ १८ ॥ राजीमती गहागर्भ कैर्न नामात्र वन्द्यते । स्थनेमिर्ययोन्मार्गात्सन्मार्गमयतारितः ॥१९॥ पूजास्वपनदानानि तपश्चात्र कृतानि वै । संपद्यन्ते मोक्षसौख्यहेतवो भव्यजन्मिनाम् ॥ २० ॥ दिग्भ्रमादपि" योऽत्राद्रौ काप्यमार्गेऽपि सञ्चरन् । सोऽपि पश्यति चैत्यस्था "जिनार्चाः स्तापितार्चिताः ॥ २१॥ काश्मीरागतरत्नेन कूष्माण्डयादेशतोऽत्र च । लेप्यबिम्बास्पदे न्यस्ता श्रीनेमेमूर्तिराश्मनी ॥ २२ ॥ नदीनिझरकुण्डानां खनीनां वीरुधामपि । विदांकरोत्वत्र संख्यां संख्यावानपि कः खलु ॥ २३ ॥ आसेचनकरूपाय" महातीर्थाय तायिने । चैत्यालङ्कृतशीर्षाय नमः श्रीरैवताद्रये ॥ २४ ॥ स्तुतो मयेति सूरीन्द्रवर्णितावृजिनप्रभ । गिरिनारस्तारहेमसिद्धि भूमिच्देऽस्तु वः ॥ २५ ॥ ॥ इति श्रीउज्जयन्तस्तयः ।। ॥ ग्रन्थानं २५ ॥ 20 25 1A प्रया। 2B नार- 1 B भुवनेऽप्यसौ। 4A स्तषगार। 5A पत्यका। 6A "तुझस्य । B7 भव्यकृत् । 8A नेक्षते। 9A तारिता। 10 A यैः। 11 ACभूमारपि। 12A जिना स्तर्पिता। 13 B आसवेनक। 14 C सिद्ध । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ४. उजयन्तमहातीर्थकल्पः। अस्थि सुरट्टाविसए उर्जितो नाम पचओ रम्मो । तम्सिहरे' आरुहिउं भत्तीए नमह नेमिजिणं ॥१॥ अंबाइअंच देविं न्हवणचणगंधधूवदीवेहिं । पूइअ कयप्पणामा ता जोअह जेण अस्थत्थी ॥२॥ गिरिसिहरकुहरकंदर निज्झरणकवाडविअडकूवेहिं । जोएह खत्तवायं जह भणियं पुत्वसूरीहिं ।। ३ ।। 5 कंदप्पदप्पकप्पण"कुगइविवणनेमिनाहस्स । निव्वाणसिलानामेण अस्थि भुवणंमि विक्खाया ॥ ४ ॥ तस्स य उत्तरपासे दसधणुहेहिं अहोमुहं विवरं । दारंमि तस्स लिङ्गं अवयाणे धणुह चत्तारि ॥ ५॥ तस्स पसुमुत्तगंधो अस्थि रसो पलसएण सयतंबं । विधेति कुणइ तारं ससिकुंदसमुज्जलं सहसा ॥ ६ !! पुबदिसाए धणुहंतरेसु तस्सेव अस्थि जा गवई । पाहाणमया दाहिणदिसागए बारसधणूहिं ।। ७ ॥ दिस्सइ अ तत्थ पयडो हिंगुलवण्णो अ दिव्वपवररसो ! विधेइ सबलोहे फरिसेणं अग्गिसंगेणं ॥ ८ ॥ 10 उचिंते अस्थि नई विहलानामेण पबई पडिमा । दावेइ अंगुलीए फरिसरसो पञ्चईदारं ॥९॥ सकावयार-उजिंतगिरिवरे तस्स उत्तरे पासे । सोवाणपंतिआए पारेवयवणिया पुढवी ॥ १० ॥ पंचगवेण बद्धा पिंडी धमिआ करेइ वरतारं । फेडइ दरिद्दवाहिं उत्तारइ दुक्खकतारं ॥ ११ ॥ सिहरे विसालसिंगे दीसंते पायकुट्टिमा जत्थ । तस्सासन्ने सिहरे कव्वडहढ पामहो तारं ॥ १२ ॥ उजिंतरेवयवणे तत्थ य सुद्दारवानरो अस्थि । सो वामकण्णछित्तो उग्घाडइ विवरवरदारं ॥ १३ ॥ 15 हत्थसएण पविठ्ठो दिक्खइ सोवण्णवण्णिआ रुक्खा । नीलरसेण सवंता सहस्सवेही रसो नृणं ॥ १४ ॥ तं गहिऊण निअत्तो हणुवंतं छिवइ वामपाएण । सो ढकई वरदारं जेण न जाणइ जणो कोवि ॥ १५ ॥ उर्जितसिहरउवार कोहंडिहरं खु नाम विक्खायं । अवरेण तस्स य सिला तदुभयपासेसु ऊसंतु ॥ १६ ॥ तं अयसितिल्लमीसं थंभइ पडिवायवंगिअं वंगं । दोगच्चवाहिहरणं परितुट्ठा अंबिआ जस्स ॥ १७ ।। वेगवई नाम नई मणसिलवण्णा य तत्थ पाहाणा 1 तो पिंडिधमिअसंते समसुद्धे होइ वरतारं ॥ १८॥ जेंते नाणसिला तस्स अहो कणयवण्णिआ पुढवी ! बोकडयमुत्त-पिंडी-खइरंगारे भवे हेमं ।।१९।। नाणसिलाकयपुढवी पिंडीवद्धा य पंचगवण । हृढपाए वसइ रसो सहस्सवेही हवइ हेमं ॥ २०॥ गिरिवरमासन्नठि आणीअंतिलविसारणं नाम । सिलबद्धगाढपांडे वेलक्खा तत्थ दम्माणं ॥ २१ ॥ सेणा नामेण नई सुवण्णतित्थंमि लड्डुअपहाणा । पडिवाएण य सुवं करति हेमं न संदेहो ॥ २२ ॥ बिल्लक्खयंमि नयरे मउहहरं अस्थि सेलगं दिवं । तस्स य म_मि ठिओ गणवइरसकुंडओँ उवार ॥२३॥. 25 उववासी कयपूओं गणवाओं चल्लिऊण पवररसो । षामाषेवी(?) अस्थि अ थंभइ वंगं न संदेहो ॥ २४ ॥ सहसासवं ति तित्थं करंजरुक्खेण मणहरं सम्मं । तत्थ य तुरयायारा पाहाणा तेसि दो भाया ॥२५॥ इक्को पारयमाओं पिट्ठो मुत्तेण अंधभूसाए । धमिओं करेइ तारं उत्तारइ दुक्खकंतारं ॥ २६ ॥ अवलोअणसिहरसिलाअवरेणं तत्थ वररसो सवइ । सुअपक्खसरिसवण्णो करेइ सुवं वरं हेमं ॥ २७ ॥ गिरिपज्जुन्नवयारे अंधिअआसमपयं च नामेण" । तत्थ वि पीआ पुहवी हिमवाए होइ वरहेमं ॥ २८ ॥ 30 नाणसिला उर्जिते तम्स य मूलंमि महिआ पीआ ! साहामिअलेवेणं छायासुकं कुणइ हेमं ॥ २९ ॥ उचिंतपढमसिहरे आरुहिरं दाहिणेन अवयरिउं । तिण्णि धणूसयमित्ते पूइकरं जं बिलं नाम ॥ ३०॥ उम्घाडिउं बिलं दिक्खिऊण निउणेन तत्थ गंतवं । दंडंतराणि बारस दिवरसो जंबुफलसरिसो ।। ३१ ॥ जउघोलिअंमि भंडे सहस्सभाएण विंधए तारे । हेमं करइ अवर्स हद॑तं सुंदरं सहसा ॥ ३२ ॥ 1 B तस्सिहार। 2 A कुंडू । 3 AC कापरण। 4C धम्मिआ। 50 रेखा। 6C वसंता। 70 तल। 8B करिति। 90°हरमि। 10Cनामेण । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रैवतकगिरिकल्पः। 5 कोहंडिभवणपुषेण उत्तरे जाव तावसा भूमी । दीसइ अ तत्थ पडिमा सेलमया वासुदेवस्स ॥ ३३ ॥ तस्सुत्तरेण दीसइ हत्येसु अ दससु पवईपडिमा । अवराहमुहरअंगुटिआई सा दावए विवरं ।। ३४ ॥ नवधणुहाई पविट्ठो दिक्खइ कूडाई दाहिणुतरओ । हरिआललक्खवण्णो सहस्सवेही रसो नूणं ॥ ३५ ॥ उर्जिते नाणसिला विक्खाया तत्थ अस्थि पाहाणं । ताणं उत्तरपासे दाहिणयअहोमुहो विवरो ॥ ३६ ॥ तस्स य दाहिणभाए दसधणुभूमीइ हिंगुलयवण्णो । अस्थि रसो सयवेही विंधइ सुखं न संदेहो ॥ ३७॥ उसहरिसहाइकूडे पाहाणा ताण संगमो अस्थि । गयवरलिंडाकिण्णा मझे फरिसेण ते वेही ॥ ३८ ॥ जिणभवणदाहिणेणं नउईधणुहेहिं भूमिजलुअयरी । तिरिमणुअरच विद्धा पडिवाए तंबए हेमं ॥ ३९॥ वेगवई नाम नई मणसिलवण्णा य तत्थ पाहाणा । सुबम्स पंचवेहं सर्वति धमिआ तयं सिग्धं ॥ ४० ॥ इय उज्जयन्तकप्पं अविअप्पं जो करे जिणभत्तो। पणामो सो पावइ इच्छि सुक्ख ॥ ४१ ॥ ॥ श्रीउज्जयन्तमहातीर्थकल्पः समाप्तः ॥ ५. रैवतकगिरिकल्पः। पच्छिमदिसाए सुरट्ठाविसए रेवयपञ्चयरायसिहरे सिरिनेमिनाहम्स भवणं उत्तुङ्गसिहरं अच्छइ । तत्थ किर पुश्विं भयवओ नेमिनाहास लिप्पमई पडिमा आसि । अन्नया उत्तरदिसाविभूसणकम्हीरदेसाओ अजिय-रयणनामाणो दुन्नि बंधवा संघाहिवई होऊण गिरिनारमागया । तेहिं रहसवसाओ घणधुसिणरससंपूरिअकलसेहिं ण्हवर्ण कयं । गलिआ लेयमई सिरिनेमिनाहपडिमा । तओ अईव अप्पाणं सोअंतेहिं तेहिं आहारो पच्चक्खाओ । इकवी-15 सउववासाणंतरं सयमागया भगवई अंबिआ देवी। उहाविओ संघाहिबई । तेण य देविं दवण जयजयसद्दो कओ। सओ भणिों देवीए-इमं बिंबं गिण्हसु परं पच्छा न पिच्छिम" । तओ अजिअसंघाहिवइणा" एगतंतुकड्डियं स्यणमयं सिरिनेमिविंबं कंचणवलाणए नीअं । पढमभवणस्स देहलीए आरोवित्ता अइहरिसभरनिब्मरेणं संघवइण पच्छाभागो दिट्ठो। ठिअं तत्थेव बिंबं निचलं । देवीए कुसुमवुट्टी कया । जयजयसद्दो अकओ। एयं च बिंबं वइसाहपुण्णिमाए अहिणवकारिअभवणे पच्छिमदिसामुहे ठवि संघवइणा । ण्हवणाइमसवं काउं अजिओ सबंधवो 20 निअदेसं पत्तो । कलिकाले कलुसचित्तं जणं जाणिऊण झलहलन्तमणिमयबिंबस्स कंती अंबिआदेवीए छाइआ । पुविं गुजरधराए जयसिंहदेवेणं" खंगाररायं हणित्ता सज्जणो दंडाहियो ठाविओ । तेण अ अहिणवं नेमि जिणिदभवणं एगारससयपंचासीए (१९८५) विक्कमरायवच्छरे काराविरं । मालवदेसमुहमंडणेणं साहुभावडेणं सोवणं आमलसारं कारिअं । चालुकचक्किसिरिकुमारपालनरिंदसंठविअसोरदृदंडाहिवेण सिरिसिरिमालकुलुब्भवेण" वारससयवीसे (१२२०) विक्रमसंवच्छरे पज्जा काराविआ। तब्भावणा 25 धवलेण अंतराले पवा भराविआ । पज्जाए चडतेहिं जणेहिं दाहिणदिसाए लक्खारामो दीसह । 1 Pc °आई। 2 Pa पाहाणा। 3 Pa लिंडाणि किणा। 4 Pa रित्त। 5 Pa तहबइ। GC सन्त्रस्स । 7 AB तझं। 1 Pa 'इत्युजयन्तकल्पः । इत्येव । 8 BPa-b संघवई। 9 Pa 'य' नास्ति; Pb न । 10 PaC पच्छिअयं । 11 Pa.b°संघवइणा। 12 Pb देवेण। 13 BPa चोलुक। 14 ACPb कुलब्भवेण । वि.क. २ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थ कल्पे अणहिलवाडपट्टणेय पोरवाडकुलमंडणा आसराय - कुमरदेवितणया गुज्जर धराहिवइसिरिवीरधवलरज्जधुरंधरा वत्धुपाल-तेजपालनामविज्जा दो भायरो मंतिवरा हुत्था । तत्थ तेजपालमंतिणा गिरिनारतले निअनामंकिअं तेजलपुरं पवरगढमढपवामंदिर आरामरम्मं निम्माविअं । तत्थ य जणयनामंकिअं आसरायविहारु ति पासनाहभवणं काराविअं । जणणीनामेणं च कुमरसरु त्ति सरोवरं निम्माविअं । तेजलपुरस्स 5 पुइदिसाए उग्गसेणगढं नाम दुगं जुगाइना हप्पमुहजिणमंदिररेहिल्लं विज्जइ । तस्स य तिण्णि नामधिज्जाई पसिद्धाई । तं जहा - उग्गसेणगढं ति वा, खंगारगढं ति वा, जुष्णदुग्गं ति वा । गढस्स बाहिं दाहिणदिसाए चउरिआ-बेई-लड्डुअओवरिआ पसुवाडयाई ठाणाई चिट्ठति । उत्तरदिसाए विसालथंभसालासोहिओ दसदसारमंडवो गिरिदुवारे य पंचमो हरी दामोअरो सुवण्णरेहानईपारे बट्टा | काल मेहसमीवे चिराणुवत्ता संघस्स बोलाविआ' तिजपालमंतिणा मिल्हाविआ कमेण उज्जयंतसेले । वत्थुपालमंतिणा सितुजा10 वयारभवणं अट्ठावय- संमे अमंडवो कबड्डजख मरुदेविपासाया य काराविआ' । तेजपालमंतिणा कल्लाणचयचेइअं कारिअं | इंदमंडवो अ देपालमंतिणा उद्धराविओ । एरावण-गयपय मुद्दा अलंकिअं गईदपयकुंडं अच्छइ । तत्थ अंगं पक्खालित्ता दुक्खाण जलंजलिं दिति जत्तागयलोआ । छत्तसिलाकडणीए सहस्संबवणारामो | जत्थ भगवओ जायवकुलपईवस्स सिवा-समुह विजयनंदणस्स दिक्खा-नाण-निवाणकल्लाणयाई' संजायाइं । गिरिसिहरे चडित्ता अंबिआदेवीए भवणं दीसइ । तत्तो अवलोअणसिहरं । तत्थ 15 ठिएहिं किर दसदिसाओ नेमिसामी अवलोइज्जइति । तओ पढमसिहरे संबकुमारो, बीसिहरे पण्णो । इत्थ पए ठाणे ठाणे चेइएसु रयण - सुवण्णमयजिणबिंबाई निच्चण्हवअचिआई दीसंति । सुवण्णमेयणी अ अगधाउरसभेइणी दिप्ती दीसइ । रत्तिं च दीवर व पज्जलतीओ ओसहीओ अवलोइज्जति । नाणाविहतरुवरवल्लिदलपुफफलाई पए पर उबलब्भंति । अणवरयपझरंतनिज्झरणाणं खलहलारावयमत्तकोइल भमरझंकारा य सुवंति ति । उज्जयंतमहातित्थकप्पसेसलवो इमो । जिणप्पहमुणिंदेहिं लिहिओ त्थ जहासु ॥ १ ॥ ॥ श्रीरैवतककल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रं० १६१, अक्षर २७ ॥ 20 १० IP वालाविया । एतदण्डान्तर्गता पंक्तिः पतिता C आदर्श । 2 A कलाणजाया Pa कहाणाई जायाई 3 Pa°लोइज्नर Pb °लोइज्जति । 4 Pb ° कोयल । + Pa इति श्री रैवतकरूपः । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपार्श्वनाथकल्पः । ६. श्रीपार्श्वनाथकल्पः। सुरअसुरखयरकिन्नरजोईसरविसरमहुअराकलिअं । तिहुअणकमलागेहं नमामि जिणचलणनीररुहं ॥ १ ॥ जं पुबमुणिगणेणं अविअप्पाणपकप्पमझंमि । सुरनरफणिपहुमहि कहि सिरिपासजिणचरिअं ॥ २ ॥ 'संकिण्णसस्थनिक्खित्तचित्तवित्तीण धम्मिअजणाण । तोसकए तं कप्पं भणामि पासस्स लेसेण ॥ ३ ॥ भवभमणभेयणत्थं भविआ भवदुक्खभारमरिअंगा । एयं समासओं पुण पभणिजंतं मए सुणह ॥ ४ ॥ विजया जया य कमठो पउमावइ-पासजक्रव-वहरुट्टा । धरणो विजादेवी सोलसऽहिट्टायगा जम्स ॥५ पडिमुप्पत्तिनियाणं कप्पे कलिअंपि नेह संकलिअं। एयस्स गोरवभया पढिहिइ न हु को इमं पच्छा ॥ ६ ॥ अह जलहिचुलुअमाणं करेइ तारयविमाणसंखं जो । पासजिणयडिममहिमं कहिउं न वि पारए सो वि ॥७॥ एसा पुराणपडिमा अणेगठाणेसु संठवेऊणं । खयरसुरनरवरेहिं महिआ उवसम्गसमणत्थं ।। ८॥ तह वि हु जणमणनिच्चलभावकए पाससामिपडिमाए । इंदाईकयमहिमं कित्तिअमेयाइ ता वुच्छं ॥ ९॥ 10 सुरअसुरवंदिअपए सिरिमुणिसुश्वयदिणेसरे इत्थ । “भारहसरंमि भविअणकमलाई बोहयंतमि ॥१०॥ चंपाइ पुरवरीए एसा सिरिपाससामिणो पडिमा । रयणायरोक्कंठे जोईसरवनिआ आसि ॥ ११ ॥ सकस्स कत्तिअभवे सयसंखाभिग्गहा गया सिद्धिं । एआए झाणाओ वयगणाणतरं तइया ॥ १२ ॥ सोहम्मवासवो तं पडिमामाहप्पमोहिणा मुणिउं । अंचइ तत्थेव ठिअं महाविभूईइ दिवाए ॥ १३ ॥ एवं वच्चइ कालो 'कयवयवासेहिं रामवणवासो । राहवपहावदसणहेउं लोआण हरिवयणा ॥ १४ ॥ 15 रयणजडियखयरसंजुअसुरजुअलेण च दंडगारपणे । सतुरयरहो अ पडिमा दिन्नेसा रामभद्दस्स ॥ १५ ॥ सगमासे नवदिअहे विदेहदुहिओवणीयकुसुमेहिं । भत्तिभरनिन्भरेणं महिआ रहुपुंगवण तया ॥ १६ ॥ रामस्स पबलकम्मयमलंघणिजं च वसणमोइण्णं । नाऊण सुरा भुज्जो" तं पडिमं निति तं ठाणं ॥ १७ ॥ पूअइ पुणो वि सको "पगिट्ठभत्तीइ दिवभोएहिं । एवं जा संपुण्णा एगारसवासलक्खा य ।। १८ ॥ तेणं कालेणं जउवंसे बलएव-कण्ह- जिणनाहा । अवइन्ना संपत्ता जुत्रणमह केसवो रजं ॥ १९ ॥ कण्हेण जरासंधस्स विग्गहे निअदलोवसग्गेलु । पुट्टो नेमी भयवं पचूहविणासणोवायं ॥ २० ॥ तत्तो आइसइ पहू-पुरिसत्तम ! मज्झ सिद्धिगमणाओ । सगसयपष्णासाहिअतेसीसहसेहिं वरिसाणं ॥२१॥ होही पासो अरिहा विविहाहिट्ठायगेहिं नयचलणो । जस्सच्चाण्हवणजलासित्ते लोए समइ असिवं ॥ २२॥ सामी ! संपइ कत्थवि तस्स जिणिंदस्स चिट्ठए पडिमा ? । इअ चकधरेणुत्ते तमिंदमहिअं कहइ नाहो ॥ २३ ॥ इअ जिण जणदणाणं अह सो मुणिउं मणोगयं भावं । मायलिसारहिसहिअं रहमेयं पडिममप्पेइ ॥ २४ ॥ 25 मुइओं मुररिउ पडिमं ण्हवेइ घणसारधणधणरसेहिं । पूइ परिमलबलामलचंदणचारुकुसुमेहिं ॥ २५ ॥ पच्छागयगदिन्नं सिन्नं सिंचेइ सामिसलिलेणं । जंतुवसग्गा विलयं विलयं जह जोगिचित्ताइं ॥ २६ ॥ बहुदुहवणं" निहणं पत्ते "पञ्चद्धचक्कवष्टिमि । जाओ जयजयरायो" जायवनिवनिबिडभडसिन्ने ॥ २७ ॥ तत्थेव विजयठाणे निम्माविअमहिणवं जिणाएसा । संखउरनयरजुत्तं ठविऊणं पासपहुबिवं ॥ २८॥ पडिममिमं संगिहिअ निअनयरमुवागयस्स कण्हस्स । भूवेहिं वासुदेवत्तणाभिसेऊसको विहिओ ॥ २९ ॥ 30 कपहनरिंदेण तओ मणिकंचणरयणरइअपासाए । सत्तयवाससआई संठाविअ पूइआ पडिमा ॥ ३० ॥ 1 Pb मईअं। 2 Pa-b सखित्त: A CP संकित्त। 3 Pa यस्स14 Pa कित्तियमित्ताई। 5 Pa भरह। 6 Pa कयवइ 7 Pa °खबरसंजुयलेण। 8 Pa°दिवसे। 9 Pa विना सर्वत्र 'तहा। 10 Pa पुजो। HA B P) पकिट्ट। 12 A. Pa सुररिउ; C सिरिरिउ । 13 B Pb हावइ। 14 Pa पूइइ; Pb पूई। 15 A वश । 16P पचढ़े। 17 BC'राओ। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ विविधतीर्थकल्पे जाए 'जायवजाईपलए देवाउ दारवइदाहे । सामिपहावा देवालयंमि न हु पावगो लम्गो ॥ ३१ ॥ सद्धिं 'पुरीइ तइया जलनिहिणा रुइरमंदिरसमेओ । लोललहरीकरेहिं नाहो नीरन्तरे नीओ ॥ ३२॥ तक्खयनागिंदेणं तइया रमणत्थमुरग रमणीहिं । तत्थागएण दिट्टा पहुपडिमा पावनिद्दलणी ॥ ३३ ॥ पमुइअमणेण तत्तो नायवहूविहिअनट्टकलहट्टं । महया महेण महिआ जावऽसिई वाससहसाई ॥ ३४ ॥ 5 वरुणो वरहरिअवई तयवसरे सायरं पलोअंतो । तक्खयपूइज्जतं पासइ तिहुअणपहुं पासं ॥ ३५ ॥ एसो सो गोसामी जो सुरनाहेण पूइओ पुदि । इम्हि मज्झवि जुज्जइ सहायणं सामिचलणाणं ॥ ३६ ॥ चिंतिअमत्थमहीणं पत्थिा सेवइ जिणेसमणवरयं । जा चउवच्छरसहसा ठिआ य अह तेण समएणं ॥ ३७ ॥ सिरिवद्धमाणजलए तिलए लोअस्स भरह खितमि । अविरलगोपूरेणं सिंचते भवसम्साई ॥ ३८ ॥ कंतिकलाकलुसीकयसुरपुरपउमाइ कतिनयरीए । बसइ सुहसत्थवाहो धणेसरो सत्थबाहुत्ति ॥ ३९ ॥ 10 सो अन्नया महिन्मो विणिग्गओ जाणवतजत्ताए । संजत्तिअवयजुत्तो सिंहलदीवंमि संपत्तो ॥ ४० ॥ तत्य विद्वप्पिअ पणगणमागच्छंतस्स तस्स वेगेण । पवहणथंभो सहसा जाओ जलरासिमझंमि ॥ ४१ ॥ विमणमणो जा चिंतइ पयडीहोऊण सासणसुरी ता । पदमावई पयंपइ-मा बीहसु वच्छ ! सुण वयणं ॥ ४२ ॥ वरुणविणिम्मिअमहिमो महिमोहमरट्टमदगो भद्द ! । इह नीरतले चिट्टइ पासजिणो नयसु सं ठाणं ॥ ४३ ॥ देवि ! कहं मह सत्ती जिणेसगहणे समुद्दजलमूला । एवं धणेसकहिए तो भासइ सासणादेवी ॥ ४४ ।। 15 पविस मह पुट्टिलग्गो कडसु पहुमाममुत्ततंतूहिं । आरोविअ पोअवरे सावय ! वय निअपुरि सुत्थो ॥ ४५ ॥ काऊण सबमेयं लोगत्तयनायगं गहेऊण । संजायहरिसपगरिसपुलइअगत्तो महासत्तो ॥ ४६॥ खणमित्तेण सठाणं समागओ परिसरे पडकुडीओ । रइआविअ जाव ठिओ एइ जणो सम्मुहो ताव ।। ४७ ।। मंधवगीइवाइअरवेण सूहवयनारिधवलेहिं । बहिरिअकहो नाहं दाणं दितो पवेसेइ ।। ४८ ॥ "रययामलसच्छायं पासायं कारिऊण कंतीए । विणिवेसिअ भुवणगुरुं निचं पूएइ भत्तीए ॥ १९ ॥ 20 कालंतरमावण्णे धणेसरे पउरनायरवरेहिं ! वाससहस्से पहुणो पूइज्जंतस्स वक्ते ॥ ५० ॥ देवाहिदेवमुर्ति परिअररहि तया" य कंतीए । मेलिअ रसस्स थंभणनिमित्तमागासमग्गेण ॥ ५१ ।। कलिअकलाकालत्तयपालित्तयगणहरोवएसाओं । नागजुणजोइंदौ" आणेही अप्पणो ठाणे ॥ ५२ ॥ जोइणि गए कयत्थे नत्थं मुत्तूण नाहमडवीए । रसथंभाओ होही थंभणयं नाम तित्थं ति ॥ ५३ ॥ उभिन्नवंसयालंतरटिओ सुरहिखीरण्हविअंगो । आकंठखिइनिमग्गो जणेण जक्खु ति कयनामो ॥ ५४ ॥ 25 अच्चिस्सइ तयवस्थो जिणनाहो पणसयाई वरिसाणं । तयणु धरणिंदनिम्मिअसन्निज्झो विइअसुअसारो ॥ ५५ ॥ सिरिअभयदेवसूरी दूरीकयदुहिअरोगसंघाओ । पयडं तित्थं काही अहीणमाहप्पदिप्पंतं ।। ५६ ॥ कंतीपुरीइ भयवं पुणो गमिस्सइ तओं अ जलहिंमि । बहुविहनयरेसु अ गडवगडुव महिमाइ दिप्पंतो ॥ ५७ ।। अह को तीआणागयपडिमाठाणाण साहणसमत्थो । जइवि हु सो सहसमुहो" हविज रसणासयसहस्सो ॥ ५८ ।। पावा-चंप-हावय-रेवय-संमेअ-विमलसेलेसु । कासी-नासिग-मिहिला-रायगिहिप्पमुहतित्थेसु ॥५९ 30 जत्ताइ पूअणेणं दागेणं" जं फलं हवइ जीवो । तं पासपडिमदंसणमित्तेणं पावए इत्थ ॥ ६ ॥ मासक्खमणस्स फलं वंदणबुद्धीइ पाससामिस्स । छम्मासिअस्स पावइ नयणपहगयाइ पडिमाए । ६१॥ निरवच्चो बहुतणओ धणहीणो धणयसंनिहो होइ । दोहग्गोवि हु सुहओ पहुदिट्टीए जणो" ट्ठिो ॥ ६२ ।। 1 Pb जायण°1 2 Pa सिद्धिपुरीओ। 3A.BPa नीरतरे। 4 P "मुरगय। 5A B Pa जावसिवाई। 6 P सुरलोगाहिवेण। 7 P सत्यवाहोत्थि। 8 P सूहवइ । 9P रइयाय'। 10 Pu तयाइ। 11 P जोगिंदो। 12 Pa गत्यगस्य । 13 C समुहो। 14 'दाणेणं' नास्ति CL 15 Pजणे जिहो । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपार्श्वनाथकल्पः । मुक्खत्तं कुकलतं कुजाइजम्मो कुरूव-दीणतं । अन्नभवे पुरिसाणं न हुंति पहुपडिमपणयाणं ॥ ६३ ॥ अडसहितित्थजत्ताकए भमइ कह वि मोहिओं लोऔं । तेहिं तोऽयंतगुणं फलमपिते जिणे पासे ॥ ६४ ॥ एगेण वि कुसुमेणं जो पडिमं महइ तिव्वभावो सो । भूवालिमउलिमउलिअचरणो चक्काहिवो होइ । ६५ ।। जे अट्ठविहं पूअं कुणंति पडिमाइ परमभत्तीए । तेसिं देविदाईपयाई करपंकयस्थाई* ॥ ६६ ॥ जो वरकिरीडकुंडलकेयूराईणि कुणइ देवस्स । तिहुअणमउडो होऊण सो लहुं लहइ सिवमुक्खं ।। ६७ ॥ तिहुअणचूडारयणं जणनयणामयसलागिगा एसा । जेहिं न दिट्ठा पडिमा निरत्ययं ताण मणुअत्तं ॥ ६८॥ सिरिसंघदास मुणिणा लहुकम्पो निम्मिओ अ पडिमाए । गुरुकप्पाओ अ मया संबंधलवेसमुद्धरिओ॥६९॥ जो पढइ सुणइ चिंतइ एयं कप्पं स कप्पवासीसु । नाहो होऊण भवे सत्तमए पावए सिद्धिं ॥ ७० ॥ गिहचेइमि जो पुण पुत्थयलिहि अंपि कप्पमच्चेइ । सो नारयतिरिएसे निअमा नो जाइ चिरबोही ।। ७१॥ हरिजलहिजलणगयगयचोरोरगगहनिवारियारिपेयाणं । वेयालसाइणीणं भयाई नासंति दिणि भणणे ॥७२॥ 10 भधाण पुन्नसोहा पाणीआइन्नहिअयठाण पि । कप्पो कप्पतरू इव विलसंतो बंछि देउ* ॥७३॥ जावय मेरुपईवो महिमल्लिअओं समुद्दजलतिल्लो । उज्जोअंतो चिट्ठद नरखित्तं ता जयउँ' कप्पो ॥ ७४ ।। ॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्य कल्पसंक्षेपः ॥ ५॥ दढवाहिविहुरिअंगा अणसणगहणत्थमाहविअसंघा । नवसुत्तकुक्कुडि विमोणाय भणिआ निसि सुरीए ॥ १॥ दीविअहत्थअसत्ती नवंगविवरणकहाचमुक्करिआ । थंभणयपासवंदणउवइटारोम्गविहिणो अ ॥ २ ॥ 15 संभाणयाउ चलिआ धवलक्क पुरा परं" चरणचारी । थंभणपुरंमि पत्ता सेहीतडजरपलासवणे ॥ ३ ॥ गोपयझरणुवलक्खिअ भुवि 'जयतिहुअण' थवद्धपञ्चक्खे । पासे पूरिअथवणा गोविअसकलंतवित्तदुगा ॥ ४ ॥ संघकराविअभवणे गयरोगा ठविअ पास पहुपडिमा । सिरिअभयदेवसूरी विजयंतु नवंगवित्तिकरा ॥ ५ ॥ जन्मानेऽपि" चतुःसहस्रशरदो देवालये योऽचिंतः खामी वासववासुदेववरुणैः खर्वाचिमध्ये ततः । कान्त्यामिभ्यधनेश्वरेण महता नागार्जुनेनाञ्चितः पायात् स्तम्भनके पुरे स भवतः श्रीपार्श्वनाथो जिनः ॥ ६ ॥ 20 ॥ इति श्रीस्तम्भनककल्पः ॥ मं० १०० (प्रत्यन्तरे १११) * एतत्तारकाविता गाथाः P आदर्श नोपलभ्यन्ते । 1 Pb °कयाई। 20 Pb केऊरा। 30 सिलागा। 4 Pb संघदाण। 5P थिरवेहो। 6 P दिश। 7 Pb जयइ। 1P इति श्रीपार्थकल्पः संक्षेपतः। षट्पद्यारिमका एषा स्तुतिनोपलभ्यते A आदर्श । 8Pa कुकडि 1 9AP चलिआउ। 10 AP पुरं। 11A B Pa-b यन्मार्गेऽपि । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ७. अहिच्छत्रानगरीकल्पः। तिहुअणभाणु ति जए पयर्ड नमिऊण पासजिणचंदं । अहिछत्ताए कप्पं जहासुअं किंपि जंपेमि ॥१॥ इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मज्झिमखंडे कुरुजंगलजणवए संखावई नाम नयरी रिद्धिसमिद्धा हुत्था । तत्थ भयवं पाससामी छउमत्थविहारेणं विहरंतो काउस्सग्गे ठिओ । पुबनिबद्धवरेण कमठासुरेण अविच्छि5 नधारापवाएहिं वरिसंतो अंबुहरो विउविओ। तेण सयले महिमंडले एगवण्णवीभूए आकंठमगंगं भगवंतं ओहिणा आभोएऊण पंचग्गिसाह्णुज्जयकमढमुणिआणाविअकट्ठखोडीअंतरडझंतसप्पभवउवयारं सुमरतेण धरणिंदेण नागराएण अम्गमहिसीहिं सह आंगतूण मणिरयणचिंचइअं सहस्ससंखफणामंडलछत्तं सामिणो उवरिं करेऊण हिट्टे कुंडलीकयभोगेण संगिव्हिअ सो उपसग्गो निवारिओ। तओ परं तीसे नयरीए अहिच्छत्त ति नामं संजायं । तत्थ पायारकारएहिं जहा जहा पुरओ ठिओ उरगरूवी धरणिंदो कुडिलगईए सप्पइ तहा तहा इट्टनिवेसो कओ । अन्ज वि तहेव पायार10 रयणा दीसइ । सिरिपाससामिणो चेइअं संघेण कारिअं। चेइआओ पुबदिसि अइमहुरपसन्नोदगाणि कमढजलहरुझिअजलपुन्नाणि सत्त कुंडाणि चिट्ठति । तज्जलेसु विहि अण्हाणाओ निंदूओ थिरवच्छाओ वंति । तेसिं कुंडाणं महिआए धाउवाइआ धाउसिद्धिं भणति । पाहाणलट्ठिमुदिअमुहा सिद्धरसकूविआ य इत्थ दीसइ । तत्थ मिच्छरायस्स अणेगे अग्गिदाणाईउम्घाडगोवकमा निष्फलीहूआ । तीसे पुरीए अंतो यहिं च पत्तेयं कूवाणं दीहिआणं च सवायं लक्खं अच्छई। महुरोदगाणं जत्तागयजणाणं पाससामिचेइए ण्हवणं कुणताणं अज वि कमढो खरपवणदुद्दि15 गवुट्टिगजिअविजुमाइ दरिसेइ । मूलचेइआओ नाइदूरे सिद्धवित्तंमि पाससामिणो धरणिंद-पउमाचईसेविअस्स चेइअं । पायारसमीवे सिरिनेमिमुत्तिसहिआ सिद्ध-बुद्धकलिआ अंबलंबिहत्था सिंहवाहणा अंबादेवी चिट्ठइ । ससिकरनिम्मलसलिलपडिपुन्ना उत्तराभिहाणा वावी । तत्थ मज्जणे कए तम्मट्टिआलेवे अ कुट्टीणं कुट्ठरोगोवसमो हवइ । धनंतरिकूवस्स य पिंजरवण्णाए मट्टिआए गुरुवएसा कंचणं उप्पज्जइ । बंभकुंडतडपरूढाए मंडुक्कवंभीए दलचुण्णेण एगवण्णगोखीरेण सम् पीएण पण्णामेहासंपण्णो नीरोगो किंनरसरो अ होइ । तत्थ य पाएणं उववणेस सबमहीरुहाणं 20 चंदया उबलभंति । ताणि ताणि अ कजाणि साहिति । तहा जयंती-नागमणी-सहदेवी-अपराजि आ-लक्खणा-तिवण्णी-नउली-सउली-सप्पक्खी-सुवण्णसिला-मोहणी-सामली-रविभत्तानिव्विसी-मोरसिहा-सहा-विसल्लापभिईओ महोसहीओ इत्थ वटुंति । लोइआणि अ अणेगाणि हरि-हरहिरण्णगन्भ-चंडिआभवण-बंभकुंडाईणि तित्थाणि। तहा एसा नयरी महातवस्सिस्स सुगिहीयनामधेअम्स कण्हरिसिणो जम्मभूमि त्ति । तप्पयपंकयपरागकणनिवाएण पवित्तीकया एयवत्थवस्स पाससामिस्स संभरणेणं आहि-वाहि25 सप्प-विस-हरि-करि-रण-चोर-जल-जलण-राय-दुट्ट गह-मारि-भूअ-पेअ-साइणिपमुहखुद्दोवद्दवा न पहवंति, भविआणं ति । _ 'विसेसओ सयलातिसयनिहाणं एसा पुरी।। इअ एस अहिच्छत्ताकप्पो उववण्णिओ समासेणं । सिरिजिणपहसूरीहिं पउमावइ-धरण-कमढपिओ ॥१॥ ॥ अहिच्छत्राकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रंथाl० ३६ ॥ 1 P धारेऊण। 2P विना सर्वत्र ‘पायारएहिं'। 3 C भवंति । 4 A थाउवाई । 5 Pa विवइ । 6 Pa साहति । 7 AC सप्परक्खी। 8 P विना नास्त्यन्यत्रेदं पदम्।।P आदर्श एवेदं वाक्यं दृश्यते। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बुदाद्रिकल्पः । ८. अर्बुदाद्रिकल्पः । T अर्हन्तौ प्रणिपत्याहं श्रीमन्ना भेय- नेमिनौ । महादेरर्बुदाख्यस्य कल्पं जल्पामि लेशतः ॥ १ ॥ देव्याः श्रीमातुरुत्पत्तिमादौ वक्ष्ये यथाश्रुतम् । तदधिष्ठानतो ह्येष प्रख्यातो भुवि पर्वतः ॥ २ ॥ श्रीरत्नमालनगरे राजाभूद् रत्नशेखरः । सोऽनपत्यतया दूनः ग्रैषीच्छाकुनिकान् बहिः ॥ ३ ॥ शिर[:]स्थां काष्ठभारिण्यास्ते दुर्गा दुर्गतस्त्रियाः । वीक्ष्य व्यजिज्ञपन् राज्ञे भाव्यस्यास्त्वत्पदे सुतः || ४ || राज्ञादिष्टा सगर्भैव सा हन्तुं तन्नरैर्निशि । गर्चे क्षिप्ता काय चिन्ताव्याजात्तस्माद्वहिर्निरेत् ॥ ५ ॥ साऽसूत सूनुं भयार्त्ता द्राक् च झाटान्तरेऽमुचत् । गर्त्तं चानीय तद्वृत्तानभिज्ञैस्तैरधाति सा ॥ ६ ॥ पुण्येरितार्थं स्तन्यं चापीपत्सन्ध्याद्वये मृगी । प्रवृद्धेऽस्मिंष्टकशाला महालक्ष्म्याः पुरोऽन्यदा ॥ ७ ॥ मृग्याश्चतुर्णां पादानामधो नूतननाणकम् । जातं श्रुत्वा शिशुरूपं लोके वार्ता व्यजृम्भत ॥ ८ ॥ नव्यो नृपोऽभूत्कोऽपीति श्रुत्वा प्रैषीद् भटान्नृपः । तद्वधायाथ तं दृष्ट्वा सायं ते पुरगोपुरे ॥ ९ ॥ बालहत्याभियाऽमुञ्चन् गोयूथस्यायतः पथि । तत्तथैव स्थितं भाग्यादेकस्तूक्षा पुरोऽभवत् ॥ १० ॥ तत्प्रेर्य स चतुष्पादान्तराले तं शिशुं न्यधात् । तच्छ्रुत्वा मन्त्रिवोधात्तं राजाऽमंस्तौरसं मुदा ॥ ११ ॥ श्रीपुञ्जाख्यः क्रमात्सोऽभूद् भूपस्तस्याऽभवत् सुता । श्रीमाता रूपसंपन्ना केवलं प्लवगानना || १२ || तद्वैराग्यान्निर्विषया जातु जातिस्मरा पितुः । न्यवेदयत् प्राग्भवं खं यदाऽऽसं वानरी पुरा ॥ १३ ॥ सञ्चरन्त्यर्बुदं शाखिशाखां तालुनि केनचित् । विद्धा मृत्यथ रुण्डं मे कुण्डेऽपतत्तरोरधः ॥ १४ ॥ तस्य कामिततीर्थस्य माहात्म्यान्नृतनुर्मम । मस्तकं तु तथैवास्तेऽद्याप्यतः कपिमुख्यहम् || १५ | श्रीपुञ्ज क्षेपयच्छी कुण्डे प्रेष्य निजान्नरान् । ततः सा नृमुखी जज्ञेऽतपस्यच्चार्बुदे गिरौ ॥ १६ ॥ व्योमगाम्यन्यदा योगी दृष्ट्वा तां रूपमोहितः । खादुत्तीर्यालपत् प्रेम्णा मां कथं वृणुषे शुभे ! ॥ १७ ॥ सोचेऽत्यगादाद्ययामो रात्रेस्तावदतः परम् । ताम्रचूडरुतादर्वाक् कथा चिद्विद्यया यदि ॥ १८ ॥ शैलेऽत्र कुरुषे हृद्याः पद्या द्वादश तर्हि मे । वरः स्या इति, चेटैः खैर्द्वियाम्याचीकरत्स ताः ॥ १९ ॥ खशक्त्या कुर्कुटरवे कृतके कारिते तया । निषिद्धोऽपि विवाहाय नास्थात्तत्कैतवं विदन् ॥ २० ॥ सरित्तीरेऽथ तं खखा कृतवीवाहसम्भृतिम् । सोचे त्रिशूलमुत्सृज्य वियोढुं संनिवेहि मे ॥ २१ ॥ तथा कृत्वोपागतस्य पदयोर्विकृतान् शुनः । नियोज्य साऽस्य शूलेन हृद्यस्तेन" वधं व्यधात् ॥ २२ ॥ इत्याजन्माखण्डशीला जन्म नीत्वा स्वराप सा । श्रीपुञ्जोऽशिखरं " तत्र तत्प्रासादमचीकरत् ॥ २३ ॥ षण्मासान्तेऽर्बुदाख्योऽस्याधोभागेऽद्रेश्चलत्यहिः । ततोऽद्रिकम्पस्तत्सर्वे " प्रासादाः शिखरं बिना ॥ २४ ॥ लौकिकास्त्वाहुः 'नन्दिवर्द्धन इत्यासीत् प्राक् शैलोऽयं हिमाद्रिजः । कालेनार्बुद नागाधिष्ठानात्वर्बुद इत्यभूत् ॥ २५ ॥ वसन्ति द्वादश ग्रामा अस्योपरि धनोद्धुराः । तपखिनो गोग्गलिका राष्ट्रिकाश्च सहस्रशः ॥ २६ ॥ न स वृक्षो न सा वल्ली न तत् पुष्पं न तत् फलम् । न स कन्दो न सा खानिर्या नैवात्र निरीक्ष्यते ॥ २७ ॥ प्रदीपवन्महौषध्यो जाज्वलन्त्यत्र रात्रिषु । सुरभीणि रसाढ्यानि वनानि द्विविधान्यपि ॥ २८ ॥ स्वच्छन्दोच्छलदच्छोम्मिंस्तीरद्रुकुसुमाञ्चिता । पिपासुक्कॢप्तानन्दाऽत्र भाति मन्दाकिनी धुनी ॥ २९ ॥ चकासत्यस्य शिखराण्युत्तुङ्गानि सहस्रशः । परिस्खलन्ति सूर्यस्य येषु रथ्या अपि क्षणम् ॥ ३० ॥ १५ 1 P व 2 Pa गर्भ । 8 C व्यजृम्भते । 4 Pa भव्यो । 5 A C गोयूथः । 6 A C तत्प्रेर्य च स । 7 P बिना सर्वत्र 'श्री पुजे' । + P मां वृणीषे कथं शुभे । 8 'पा' पतितः Pa Pb संवृतिम् । 10 P सा स्वशूलेनाहल वेष वधं । 11 P श्री पुजः शिखरे 12AB Pb ° सर्व 13 'धनो' पतितः C आदर्श 14 'वनानि' पतितः P | 5 10 15 20 25 30 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे चण्डाली-वज्रतैलेभकन्दाद्याः कन्दजातयः । दृश्यन्तेऽत्र प्रतिपदं तत्तत्कार्यप्रसाधिकाः ।। ३१ ।। प्रदेशाः पेशलाः कुण्डैस्तत्तदाश्चर्यकारिभिः । अस्य धातुखनीभिश्च निझरैश्चामृतोदकैः ॥ ३२ ॥ कोकूयिते कृतेऽत्रोचैर्द्राक् कोकूयितकुण्डतः । प्रादुर्भवति वाःपूरः कुर्वन् खलहलारवम् ॥ ३३ ॥ श्रीमाता-ऽचलेश्वरश्च वशिष्ठाश्रम एव च । अत्रामी लौकिकास्तीर्था मन्दाकिन्यादयोऽपि च !! ३४ ॥ 5 महादेरस्य नेतारः परमारनरेश्वराः । पुरी चन्द्रावती तेषां राजधानी निधिः श्रियाम् ॥ ३५ ॥ कलयन् विमलां वुद्धिं विमलो दण्डनायकः । चैत्यमत्रर्षभस्याधात् पैतलप्रतिमान्वितम् ॥ ३६॥ आराध्याम्बां भगवतीं पुत्रसंपदपस्पृहः । तीर्थस्थापनमभ्यर्थ्य चम्पकद्रुमसंनिधौ ॥ ३७॥ पुप्पसन्दामरुचिरं दृष्ट्वा गोमयगोमुखम् । तत्राग्रहीद् भुवं दण्डेट् श्रीमातुर्भवनान्तिके ।। ३८ ॥-युग्मम् । राजानकश्रीधान्धूके कुद्धं श्रीगूर्जरेश्वरम् । प्रसाद्य भत्त्या तं चित्रकूटादानाय्य तद्विरा ॥ ३९ ॥ 10 वैक्रमे बसुवस्वाशा (१०८८) मितेऽन्दे भूरिरैव्ययात् । सत्प्रासादं स विमलवसत्याई व्यधापयत् ॥४०॥ यात्रोपनम्रसंघस्यानिघ्नविनविधातनम् । कुरुतेऽत्राम्बिका देवी पूजिता बहुभिर्विधैः ॥ ४१॥ युगादिदेवचैत्यस्य पुरस्तादत्र चाश्मनः । एकरात्रेण घटितः शिल्पिना तुरगोत्तमः ॥ ४२ !! वैक्रमे वसुवस्वर्क (१२८८) मितेऽब्दे नेमिमन्दिरम् । निर्ममे लूणिगवसत्याह्वयं सचिवेन्दुना ॥ ४३ ॥ कषोपलमयं विम्ब श्रीतेजःपालमन्त्रिराट् । तत्र न्यास्थत् स्तम्भतीर्थे निष्पन्नं दृक्सुधाञ्जनम् ।। ४४ ॥ 15 मूर्तीः स्वपूर्ववंश्यानां हस्तिशालां च तत्र सः । न्यबीविशद्विशांपत्युः श्रीसोमस्य निदेशतः ॥ ४५ ॥ अहो ! शोभनदेवस्य सूत्रधारशिरोमणेः । तच्चैत्यरचनाशिल्पान्नाम लेभे यथार्थताम् ॥ ४६ ॥ वज्रात्रातः समुद्रेण मैनाकोऽस्यानुजो गिरेः । समुद्री त्रातौ त्वनेन दण्डेन्मन्त्रीश्वरौ भवात् ॥ ४७ ।। तीर्थद्वयेऽपि भनेऽस्मिन् दैवान्म्लेच्छैः प्रचक्रतुः । अस्योद्धारं द्वौ शकान्दे वहिवेदार्कसंमिते (१२४३) ॥४८॥ तत्रायतीर्थस्योद्ध" लल्लो महणसिंहभूः । पीथडस्त्वितरस्याभूध्यवहृचण्डसिंहजः ॥ ४९ ॥ 20 कुमारपालभूपालश्चौलुक्यकुलचन्द्रमाः । श्रीवीरचैत्यमस्योच्चैः शिखरे निरमीमपत् ॥ ५० ॥ तत्तत्कौतूहलाकीर्णं तत्तदौयधिबन्धुरम् । धन्याः पश्यन्त्यर्बुदाद्रिं नैकतीर्थपवित्रितम् ।। ५१ ॥ दृब्धः श्रोत्रसुधाकल्पः श्रीजिनप्रभसूरिभिः । श्रीमदर्बुदकल्पोऽयं चतुरैः परिचीयताम् ।। ५२ ॥ ॥ श्रीअर्बुदकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रन्थागं ५२ अक्षर १६ ॥ 1AC प्रासाद। + P श्रीअर्बुदाचलस्य कल्पः । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरापुरीकल्पः। ९. मथुरापुरीकल्पः। सचम-तेवीसइमे नमिऊण जिणेसरे जयसरपणे । भवियजणमंगलकरं महुराकप्पं पवक्खामि ॥ १ ॥ तित्थे सुपासनाहस्स बट्टमामि दुन्नि मुणिसीहा । 'धम्मरुइ-धम्मघोसा नामेणं आसि निस्संगा ॥ २ ॥ ते य छट्ठमदसमदुवालसमपक्खोववासमासिअदोमासिअतेमासिअचाउम्मासिअखमणाई कुणिन्ता भव्बें पडिबोहिंता कयावि महुराउरि विहरिआ । तया य महुरा बारहजोअणाई दीहा, नवजोअणाई वित्थिण्णा, पासट्ठिअज-5 उणाजलपक्खालियवरप्पायारविभूसिआ धवलहरदेउलवाविकूवाक्खरिणिजिणभवणहट्टोक्सोहिआ, पढंतविविहचाउविजविप्पसस्था हुत्था । तत्थ ते मुणिवरा अणेगतरुकुसुमफललयाइण्णे भूअरमणाभिहाणे उववणे उग्गहं अणुष्णविअ ठिआ वासारत्तं चउमासं कओवयासा । तेसिं सज्झायतवचरणपसमाइगुणेहिं आवज्जिया उबवणसामिणी कुबेरदेवया । तओ सा रत्तिं पयडीहोऊण भणइ-भयवं! तुम्ह गुणेहिं अईवाहं हिट्ठा । ता किं पि वरं वरेह' । ते भणंति-अम्हे निस्संगा न किं पि मग्गेमो । तओ धम्म सुणावित्ता अविस्यसाविआ सा तेहिं कया । अन्नया कत्तिअ-10 धवलट्ठमिरयणीए सिज्जायरि ति आपुच्छिया कुवेरा मुणिवरेहिं । जहा गाविए ! दढसम्मत्ताए जिणवंदणपूअणोवउत्चाए य होअवं । वट्टमाणजोगेण चउमासगं काउं अन्नगामे पारणत्थं विहरिस्सामो । तीए ससोगाए वुत्तं-भयवं ! इत्थेव उववणे कीस न सबकालं चिट्ठह । साहू भणंति समणाणं सउपाणं" ममरकुलाणं च गोउलाणं च । अणियाओ वसहीओ सारइयाणं च मेहाणं ॥ १ ॥ ति । तीए विणतं-जह एवं ता साहेह धम्मकजं, जहाऽहं संपाडेमि । अमोहं देवदंसणं ति । साहहिं वुत्तं-जह 15 ते अइनिब्बंधो ता संघसहिए अम्हे मेरुमि नेऊण चेहयाई वंदावेहि । तीए भणिअं-तुम्हे दो जणे अहं देवे तस्थ वंदावेमि । महरासंधे चालिए' मिच्छद्दिट्ठी देवा कयावि अंतराले विग्धं कुणंति । साहू भति-अम्हेहिं आगमबलेणं चेव मेरू दिट्ठो । जई" संघं नेउं न तुह सत्ती ता अलाहि अम्हे दुण्हं नत्थ गमणेणं । तओ विलक्खीहआए देवीए भणिअं-जइ एवं ता पडिमाहिं सोहिअं मेरुआगारं काउं दावेमि । तत्थ संघसहिआ तुम्हे देवे वंदह । साहूहिं" पडिवन्नं । तओ" तीए" देवीए कंचणघडिओ रवणचिंचईओ अणेगसुरपरिवरिओ तोरणझयमालालंकिओ 20 सिहोवरिछत्तत्तयसाली रतिं थूमो निम्माविओ मेहलातिगमंडिओ। इविकाए मेहलाए चाउदिसं पंचवण्णरयणमयाई बिंबाई । तत्थ मूलपडिमा सिरिसुपाससामिणो पइट्ठाविआ । पहाए लोआ विबुद्धा तं थूमं पिच्छति परुप्परं कलहंति अ । केई भणंति-वासुइलंछणो एस सयंभू देवो । अन्ने भणति*-सेससिजाठिओ नारायणो एस । एवं बंभ-धरणिंद-सूर-चंदाइसु विभासा । बुद्धा भणंति* न एस थूभो किंतु वुद्धंडउ"चि । तओ मज्झत्थपुरिसेहिं भणि-मा कलहेह । एस ताव देवनिम्मिओ ता सो चेव संसयं मंजिस्सइ त्ति । अप्पप्पणो देवं पडेसु लिहित्ता 25 निअगुट्ठीसमेआ अच्छह । जस्स देवो भविस्सइ तस्सेव इक्को पडो थकिस्सइ । अन्नेसिं पडे देवो चेव नासेहिइ । संघेगावि सुपाससामिपडो लिहिओ । तओ लेहिअनिअनिअदेवपडा सगुट्ठीआ पूअं काउं नवमीरत्तीए सबदरिसणिणो गायन्ता ठिआ । अद्धरत्ते उदंडपवणो तणसकरपत्थरजुत्तो पसरिओ । तेण सचे वि पड़ा तोडिता नीया । पलयगजिरवेण नहा दिसोदिसिं जण! । इक्को चेव सुपासपडो ठिओ। विम्हिआ लोआ । एस अरिहंतो देवो ति । सो पडो सयलपुरे भामिओ । पडजत्ता पवत्तिआ । तओ न्हवणं पारद्धं । पढमन्हवणकए कलहंता साक्या महल्लपुरिसेहिं 30 ____1 'धम्मरुई पतितः D आदर्श। 2C निसंग्गा। 3 Pa कुणन्ता। 4A भट्ठे। 5 एतद्वाक्यं पतितं C आदर्श । 6D नास्ति एष शब्दः। 7Pa चलिए। 8Pa सुरा। 9A. मेरं जाणामो; C D PC वन्दिते। 10 'जई' नास्ति A. आदर्श। 11 C साणं। 12 'तओ' नास्ति C DI 13 CD रतीए। एतत्पाठस्थाने Pa-b 'साहहिं पडिवने देवीए' एष पाठः। 14 Pa "बिवाई' नास्ति। * तारकान्तर्गता पंक्तिः Pa आदर्श न विद्यते। 15 A विजा। 16 CD बुद्धिंडउ। वि० के०३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ विविधतीर्थकल्पे 'गोलए नामगभेसु जस्स नाम पढमं कुमारीहस्थे एइ सो दरिदो ईसरो वा पढमं न्हवणं करेउ' - एवं दस मरयणीए ववत्था कया । तओ एगारसीए दुद्ध- दहि-घय- कुंकुम चंदणाईहिं कलससहस्सेहिं सङ्का न्हाविंसु पच्छन्नठि सुरा न्हाविंति । अज्जवि तहे व जत्ताए । आविंति । कमेण सत्रेहिं न्हवणे कए पुप्फ-धूव-वत्थ- महाधय- आहरणाई आरोविंति । साहूणं वत्थ-घय-गुलाईणि दिति । बारसिरतीए माला चडाविआ । एवं ते मुणिवरा देवे बंदिअ सयलसंघमाणंदिअ 5 चउमासं काउं अन्नत्थपारणं काऊण तित्थं पयासिअ धुअकम्मा कमेण सिद्धिं पत्ता । तत्य सिद्धखितं जायं । तओ मुणिविदुहिआ देवी निचं जिणचणरया अद्धपलिओवमं आउअं भुंजित्ता चविऊण माणुसतं पाविऊण उत्तमपयं पत्ता । तीए ठाणे जा जा उप्पज्जइ सा सा कुबेर ति भण्णइ । तीए परिरक्खिज्जंतो थूभो बहुं कालं' उभ्घाडओ ठिओ जायपाससामी उप्पण्णो । इत्थंतरे महुराए रण्णा लोभपरबसेण जणो हकारिऊण भणिओ-एयं कणयमणिनिम्मिअं थूभं कड्डिअ मह भंडारे विवह । तओ सारघडिअकुहाडेहिं जाव लोओ कट्टुणत्थं घाए पदिण्णे ताव कुहाड़ा 10 न लग्गंति । तेसिं चेव घायदायगाणं अंगेसु घाया लग्गंति । तओ राइणा अपत्तिअंतेण सयं चिअ घाओ दिण्णो । कुहाडेणं उच्छलिअ रण्णो सीसं छिन्नं । तओ देवयाए कुद्धाए पयडीहोऊण भणिआ जाणवया - रे पावा ! किमेयमादत्तं । जहा राया तहा तुम्हे वि मरिस्सह । तओ तेहिं भीएहिं धूवकडच्छुअहत्थेहिं देवया खामिआ । देवीए भणिअंजई जिणहरं अच्चेह ता उवसग्गाओ मुह । जो जिणपडिमं सिद्धालयं वा पूइस्सर तस्स घरं थिरं होही, अन्नहा पडिस्सइ । अओ चेव मंगलचेइ अपरूवणाए कप्पे छेयगंथे महुराभवणाई निदंसणीकयाई । पइवरिसं जिणपडो 15 पुरे भावोति । कुहाडयछट्टी य कायवा । जो इत्थ राया भवइ तेण जिणपडिमा पट्ठाविअ जिमिअत्रं, अन्ना न जीविहि त्ति । तं सवं देययावयणं तहेब काउमाढतं लोएहिं । अन्नया पाससामी केवलिविहारेण विहरंतो महुरं पत्तो । समोसरणे धम्मं साहइ । दूसमाणुभावं च भाविणं पयासेइ । तओ भगवंते अन्नत्थ विहरिए संघ हकारिअ भणिअं कुबेराए; जहा - आसन्ना दूसमा परूविआ सामिणा । लोओ राया य लोभग्घस्था' होहिन्ति । अहं च पमत्ता न य चिराउसा । तओ उग्घाडयं एयं थूभं सवकालं न सक्किस्सामि रक्खिउं । तओ संघाएसेण इट्टाहिं ढक्केमि । 20 तुम्हेहि वि बाहिरे पाससामी सेलमइओ पुजिअवो । जा य अम्ह बसणए । अन्नावि देवी होही सा अभितरे अं करिसइ । तओ बहुगुणं ति अणुमन्नि संघेण । देवीए तहे व कथं । तओ वीरनाहे सिद्धिं गए साहिएहिं तेरससएहिं वरसाणं बप्पहट्टिसूरी उप्पण्णी । तेण वि एयं तित्थं उद्धरिअं । पासजिणो पूआविओ । सासयपूअकरणत्थं काणणकूबकोट्टा' काराविआ । चउरासीई एणीओ दाविआओ । संघेण इट्टाओ खसंतीओ मुणिता पत्थरेहिं वेढाविओ उक्खिल्लाविउमादत्तो भो । देवयाए सुमिणंतरे वारिओ । न उघाडेयो एसु ति । तओ देव25 यावयणेणं न उम्घाडिओ, सुधडिअपत्थरेहिं परिवेदिओ अ । अज्जवि देवेहिं रक्खिज्जइ । बहुपडिमसहस्सेहिं देउले हिं आवासणिआपएसेहिं मणोहराए गंधउडीए चिल्लणिआ- अंबाई- अणेगखित्तपालाईहिं' अ संजुतं एवं जिणभवणं विरायइति । इत्थ नयरीए कण्हवासुदेवस्स भावितित्थंकरस्स जम्मो । अज्जमंगू आयरिअम्स जक्खभूअस्स इंडियनक्खस्स य चोरजीवस्स इत्थ देउलं चिट्ठर । 30 इत्थ पंच थलाई ! तं जहा-अक्कथले वीरथलं पउमस्थलं कुसत्थलं महाथलं । दुबालसवणाईं । तं जहा - लोहजंघवणं महुवणं बिल्लवणं तालवणं कुमुअवणं विंदावणं भंडीरवणं खरवर्णं कामिअवर्ण कोलवणं बहुलावणं महावणं । 0 एतचिहान्तर्गताः पयः पतिताः Pa आदर्शे । 1 B बहुकालं । 2D नास्ति । 3 Pa विनाऽन्यत्र 'मुंचह' । 4 'य' नास्ति A । 5 P& लोहग्गत्था । + एतदन्तर्गताः शब्दाः पतिताः D आदर्श 6 Pa अणुमन्निए । 7AD कुal; Pb.c ०कुड्डा । 8 A B अंबाइआखित्त । 9A खयर० । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 मथुरापुरीकल्पः। इत्थ पंच लोइअतित्थाई । तं जहा-विस्संतिअतित्थं असिकुंडतित्थं वेकुंततित्थं कालिंजरतित्थं चक्कतित्थं । सित्तुंजे रिसहं, गिरिनारे नेमि, भरुअच्छे मुणिसुव्वयं, मोढेरए वीरं, महुराए सुपास-पासे घडिआदुगन्भंतरे नमित्ता सोरहे ढुंढणं विहरित्ता गोवालगिरिंमि जो भुंजेइ तेण आमरायसेविअकमकमलेण सिरिबप्पहहिरिणा अट्ठसयछव्वीसे (८२६) विकमसंवच्छरे सिरिवीरविंबं महुराए ठावि। 5 इत्थ सिरिवीरवद्धमाणजीवेण विस्सभूइणा अपरिमिअबलत्तणकए नियाणं कयं । इत्थ जउणा वंकजउणराएण हयस्स दंडअणगारस्स केवले उप्पन्ने महिमत्थं इंदो आगओ। इत्थ जिअसत्तुनरिंदपुत्तो कालवेसिअमुणी अरिसरोगद्दिओ मुग्गिलगिरिमि सदेहे वि निप्पहो उवसम्गे अहिआसिसु । इत्थ संखरायरिसितवप्पहावं द8 सोमदेवदिओ गयउरे दिक्खं घेत्तूण सग्गं गंतूण कासीए हरि-10 एसबलरिसी देवपुज्जो जाओ। इत्य उप्पण्णा रायकन्ना निथुई नाम राहावेहिणो सुरिंददत्तस्स सयंवरा जाया । इत्थ कुबेरदत्ताए कुबेरसेणाजणणी कुबेरदत्तो अ भाया ओहिन्नाणेण नाउं अट्ठारसनत्तएहिं पडिबोहिया। इत्य अजमंगू सुअसागरपारगो इड्डिरससायगारवेहिं जक्खत्तमुवागम्म जीहापसारणेण साहूणं अप्पमायकरणत्थं पडिबोहमकासी । इत्थ कंबल-संबलनामाणो वसहपोआ जिणदाससंसग्गीए पडिबुद्धा नागकुमारा होऊण वीरवरस्स भगवओ नावारूढस्स उवस्सगं निवारिंसु । इत्य अनिआपुत्तो पुप्फचूलं पव्वाविअ संसारसायराओ उत्तारित्था । इत्थ इंददत्तो पुरोहिओ गवक्खडिओ मिच्छद्दिट्ठी अहोवच्चंतस्स साहुस्स मत्थयउवरिं पायं कुणंतो सडेण गुरुभत्तीए पयहीणो कओ। 20 इत्थ भूअघरे ठिआ निगोअवत्तव्यं नियाउपरिमाणं च पुच्छिअतुट्ठचित्तेण सक्केण अजरक्खिअसूरी वंदिआ। उवस्सयस्स अ अन्नओहुत्तं दारं कयं । इत्थ वत्थपूसमित्तो घयपूसमित्तो दुबलियापूसमित्तो अ लद्धिसंपन्ना विहरिआ । इत्थ दूसहदुन्भिक्खे दुवालसवारिसिए नियत्ते सयलसंघ मेलिअ आगमाणुओगो पवत्तिओ खंदिलायरिएण। इत्थ देवनिम्मिअथूभे पक्खक्खमणेण देवयं आराहिता जिणभदखमासमणेहिं उद्देहिआभक्खियपुत्थयपत्त-25 तणेण तुटूं भग्गं महानिसीहं संधि। इत्थ खवगस्स तवेणं तुट्ठा सासणदेवया तच्चणिअपरिग्गहिअं इमं तित्थं संघवयणाओ आरहंतयापत्तं अकासी। देवीए अइलोभपरवसं जणं नाउं सोवण्णिअं थूभं पच्छन्नं काउं इट्टमयं कयं । तओ बप्पहहिवयणाओ आमराएण उवरि सिलाकलावचिअं कारिअं । इत्थ संखराओ कलावई अपंचमजम्मे देवसीह-कणयसुंदरीनामाणो समणोवासया रज्जसिरि भुजित्था। 30 एवंविहाणं अणेगेर्सि संविहाणाणमेसा नयरी उत्पत्तिभूमी । इत्थ कुबेरा नरयाहणा अंबिआ य सीहवाहणा खित्तवालो असारमेअवाहणो तित्थस्स रक्वं कुणंति । 1 B सुपासो। 2A टुंठणं । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० विविधतीर्थ कल्पे इय एस महुरकप्पो जिण हसूरीहिं वणिओ किं पि । भविएहिं सइ पढिज्जड इह परलोइअसुहत्थीहिं ॥ १ ॥ भआिण पुण्णरिडी जा जायइ महुरतित्थजत्ताए । असि कप्पे निसुए सा जायइ अबहिअमणाणं || २ || ॥ श्रीमथुराकल्पः समाप्तः ॥ ॥ मं० ११३, अ० २९ ॥ १०. अश्वावबोधतीर्थकल्पः । नमिऊण सुब्वयजिणं परोवयारिकरसिअमसिअरुई । अस्सावबोहतित्थस्स कप्पमप्पं भणामि अहं ॥ १ ॥ सिरिमुणि सुव्वयसामी उप्पन्नकेवलो विहरंतो एगया पट्टाणपुराओ एगरयणीए सहिजोअणाणि लंबि पारद्धअस्समेहजपणेण जिअसत्तुराइमा निआसणतुरंगमं सबलक्खणसंपन्नं होमि मिच्छिओ । मा अट्टज्झाणाओ दुई जाहि ति पडिबोउं लाडदेसमंडणे नम्मयानईअलंकिए भरुअच्छनयरे कोरिंटवणं पत्तो । समवसरणे 10 गया लोआ बंदिउं । राया वि गयारूढो आगम्म भगवंतं पणमिओ । इत्यंतरे सो हरी सिच्छाए विहरंतो निउत्तपुरिसेहिं समं तत्थागओ सामिणो रूवमप्पाडरूवं पासिंतो निच्चलो संजाओ । सुआ य धम्मदेसणा तेण । भणिओ असे पुत्रभवो भगवया । जहा—पुत्रभवे इहेव जंबुद्दीवे दीवे' अवरविदेहे पुक्खलविजए चंपाए नयरीए सुरसिद्धो नाम राया अहमासि । मज्झ परममित्तं तुमं मइसारो नाम मंती हुत्था । अहं नंदणगुरुपायसूले दिक्खं पडिवज्जिय पत्तो पाणयकप्पे । तत्थ वीसं सागरोवमाइं आउं परिवालित्ता तओ चुओऽहं तित्थयरो जाओ । तुमं च 15 उवज्जिअनराऊ भारहे वासे पउमिणिसंडनयरे सागरदत्तो नाम सत्थवाहो अहेसि । मिच्छद्दिट्टी विणीओ अ | अन्नया तुमए कारिअं सिवाययणं । तप्पूयणत्थं च आरामो रोविओ । तावसो अ एगो तस्स चिंताकरणे निउत्तो । गुरुआएसेणं सबओवि किरिआओ. सच्चाविंतो तुमं कालं गमेसि । जिणधम्मनामएणं सावरणं तुज्झ जाया परमा मित्ती । तेण सद्धि एगया गओ तुमं साहसगासे । तेहिं देसणंतरे भणिअं जो कारवेइ पडिमं जिणाण अंगुट्टपत्रमित्तं पि । तिरिनरयगइदुवारे नूणं तेणम्गला दिन्ना ॥ १ ॥ 5 20 एवं सोऊण तुमे गिहमागंतूण कारिआ हेममई जिदिपडिमा । पइट्टाविऊण तिसंझं पूएउमादत्तो तं । अन्नदिअहे संपत्ते माहमासे लिंगपूरणपर्व आराहेडं तुमं सिवाययणं पत्तो । तओ जडाधारीहिं चिरसंचिअं घयं कुंभीओ उद्धरिअं लिंगपूरणत्थं । तत्थ लग्गाओ धयपिप्पीलियाओ जडिएहिं णिद्दयं पाएहिं मद्दिज्जमाणाओ दद्दणं सिरं धूपित्ता सोइउं लग्गो तुमं । अहो एएसिं दंसणीण वि निद्दयया । अम्हारिसा गिहिणो वराया कहं जीवदयं पालइस्संति । तओ निअचेलंचलेहिं ताओ पमज्जिउमारद्धो तुमं । तेहिं निव्भच्छिओ - रे धम्मसंकर ! कायर ! अरहंतपासंडीहिं तं विडं25 बिओ सित्ति । तओ सो सबधम्मविमुहो जाओ । परमकिविणो धम्मरसिअं लोअं हसंतो मायारंभेहिं तिरिआउअं बंधित्ता भवं भमिऊण जाओ तुमं रायवाहणं तुरंगमो । तुज्झ चेव पडिवोहणत्थं अम्हाणमित्यागमणं ति सामिणो वयणं सुच्चा तस्स जायं जाईसरणं । गहिआ य सम्मत्तमूला देसविरई । पच्चक्खायं सवित्तं । फालुअं तणं नीरं च गिण्हइ । छम्मासे निवाहिनियमो मरिऊण सोहम्मे " महडिओ सुरो जाओ । सो ओहिणा मुणिअपुत्रभयो सामिसमोस - राणे रयणमयं चे अमकासी । तत्थ सुव्वयसामिणो पडिमं अप्पाणं च अस्सरूवं ठाविअ गओ सुरालयं । तओ 30 अस्सावबोहतित्थं तं पसिद्धं । सो देवो जत्तिअसंघविग्वहरणेणं तित्थं पभाविंतो कालेण नरभवे सिज्झिहि । कालंतरेण सउलिआविहारु ति तं तित्थं पसिद्धं । कहं ? - इहेव जंबुद्दीवे सिंहलदीवे रयणासयदे से सिरिपुरनयरे चंदगुत्तो राया । तस्स चंदलेहा भारिआ । तीसे सतहं पुत्ताणं उवरि नरदत्ता 1 A नास्ति । 2 A महि० । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वावबोधतीर्थकल्पः । देवी आराहणेणं सुदंसणा नाम धूआ जाया । अहीअकलाविज्जा पत्ता जुबणं । अन्नया अत्थाणे पिउच्छंगगयाए तीसे धणेसरो' नाम नेगमो भरुअच्छाओ आगओ । विज्जपासहिअतिअडअगंधे वाणिएण छीयंतेणं 'नमो अरहंताणं' ति पढिअं । सोउं मुच्छिआ सा । कुट्टिओ अ वाणियओ । पत्तचेयण्णा य जाईसरणमुवगया एसा । दहूण धम्मबंधु ति मोइओ । रण्णा मुच्छाकारणं पुच्छिआए तीए भणिअं - जहाऽहं पुवभवे भरुअच्छे नम्मयातीरे कोरिंटवणे वडपायवे सउलिया आसि । पाउले अ सत्तरतं महावुट्टी जाया । अट्टमदिणे छुहाकिलंता पुरे भ्रमंती अहं वाहस्स घरंगणाओ आमिसं घित्तुं उड्डीणा । वडसाहानिविट्टा य अणुपयमागएण वाहेण सरेण विद्धा । मुहाओ पडिअं पलं सरं च गिण्हित्ता गओ सो सङ्घाणं । तत्थ करुणं रसंती उवत्तण-परित्राणपरा दिट्ठा एगेण सूरिणा । सित्ता य जलपत्तजलेणं । दिन्नो पंचनमुक्कारो । सद्दहिओ अ मए । मरिऊण अहं तुम्ह धूआ जाय त्ति । तओ सा विसयविरत्ता महानिबंधेण पिअरे आपुच्छिअ तेणेव संजत्तिएण सद्धिं पद्विआ वाहणाणं सत्तसएहिं भरुअच्छे । तत्थ पोअसयं * च वत्थाणं", पोअसयं दद्यनिचयाणं एवं चंदणागुरुदारुणं, धन्नजलिंषणाणं, नागाविह पक्कन्नफलाणं, पहरणाणं । एवं छसया 10 पोआणं । पण्णासं सत्थधराणं; पण्णासं पाहुडाणं । एवं सत्तसयवाहणजुत्ता पत्ता समुद्दतीरं । तओ रण्णा तं वाहणवूह * दट्टु सिंहलेसर अवक्खंदसंकिणा सज्जिआए सेणाए, पुरक्खोभनिवारणाय गंतुं पाहुडं च दाउ सुदंसणा आगमणेणं विनतो राया तेण संजचिएण । तओ सो पच्चोणीए निग्गओ । पाहुडं दाऊण पणमिओ कन्नाए । पवेसमहूसवो अ जाओ । दिट्टं तं चेइअं | विहिणा बंदिअं पृइयं च । तित्थोववासो अ कओ । रण्णा दिण्णे पासाए ठिआ । रायणा य अट्ठ वेलालाई असया गामाणं, अट्ठसया वप्पाणं, असया पुराणं दिण्णा । एगदिणे अ जित्तिअं भूमिं तुरंगमो संचर 5 तित्तिआ पुवदिसाए, जित्तिअं च हत्थी जाइ तत्तिआ पच्छिमाए दिण्णा । उवरोहेण सबं पडिवन्नं । अन्नया तस्सेवायरिअस पासे निayaभवं पुच्छइ । जहा भयवं ! केण कम्मुणा अहं सउलिआ जाया । कहं च तेण वाहेण अहं नियति ? | आयरिएहिं भणिअं - भद्दे ! वेयडुपबए उत्तरसेडीए सुरम्मा नाम नयरी । तत्थ विज्जाहरिंदो संखो नाम राया । तस्स विजयामिहाणा तुमं धूआ आसि । अन्नया दाहिणसेदीए महिसगामे वच्चंतीए तुम नईतडे कुक्कुडसप्पो दिट्ठो | सो य रोसवसेणं तए मारिओ । तत्थ नइए तीरे जिणाययणं दद्दूण वंदिअं भयवओ बिंबं 20 परम' भत्तिपरबसाए तुमए । जाओ परमाणंदो । तओ चेईयाओ बाहिं निग्गच्छंतीए तुमए दिट्टा एगा पहपरिस्समखिन्ना साहुणी । तीए पाए वंदित्ता धम्मवाहिआ अज्जाए तुमं । तुमए त्रितीसे विस्सामणाईहिं सुस्स्सा कया । चिरं गिहमागया । कालेण कालधम्मं पन्ना अट्टज्झाणपरा इह कोटियवणे सउणी जाया तुमं । सो अ कुक्कुडसप्पो मरिऊण वाहो संजाओ । तेण पुनवेरेणं सउणीभवे तुमं बाणेणं पहया । पुत्रभवकयाए जिणभत्तीए गिलाणसुस्सूसाए अ अंते बोहिं पत्ता सि तुमं । संपयं पि कुणसु जिणप्पणीअं दाणाइधम्मं ति । एवं गुरूणं वयणं सुच्चा सर्व 25 तं दबं सत्तखित्तीय विच्चे । चेइयस्स उद्धारं कारेइ । चउवीसं च देवकुलियाओ पोसहसाला- दाणसाला - अज्झयणसालाओ कारेइ' । अओ तं तित्थं पुत्रभवनामेणं सउलिआविहारु ति भण्णइ | अंते य संलेहणं दव-भावभेयभिन्नं काउं कयाणसणा वइसाहसुद्धपंचमीए ईसाणं देवलोगं पत्ता । सिरिमुव्वयसामिसिद्धिगमणाणंतरं इक्कारसेहिं लबखेहिं चुलसीइसहस्सेहिं चउसय सत्तरेहिं च वासाणं अईएहिं विकमाइ बसवच्छरो पयट्टो । जीवंतसुब्वयसामिअविक्खाए पुण एगारसलक्खेहिं अट्ठावीसूण पंचणवइसहस्सेहिं च वासाणं विक्कमो भावी । एसा सउलिआवि - 30 हारस्स उप्पत्ती | २१ लोइअतित्थाणि अणेगाणि भरुअच्छे वहति । कमेण उदयणपुत्तेण बाहडदेवेण सित्तुजपासायउद्धारे कारिए तदणुजेण अंबडेण पिउणो पुण्णत्थं सउलिआ विहारस्स उद्धारो कारिओ । मिच्छद्दिडीए सिंघवादेवीए 1. A धणंघरो । 2 A कोरंट० । 3 नास्ति D आदर्शे । 4 A. 1 5 'परम' नास्ति B1 7 A करेइ । 6 नास्ति B Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ विविधतीर्थकल्पे अंडषस्स पासायसिहरे नच्चतस्स उयसग्गो कओ । सो अ निवारिओ विज्जाबलेण सिरिहेमचंद्सूरीहिं । अस्सावबोहतित्थस्स एस कप्पो समासओ रइओ । सिरिजिणपहसूरीहिं भविएहिं पढिजउ तिकालं ॥ १॥ ॥ अश्वावबोधतीर्थकल्पः समाप्तः॥ ॥ ग्रं० ८२, अ० २०॥ ११. वैभारगिरिकल्पः। अथ वैभारकल्पोऽयं स्तवरूपेण तन्यते । संक्षिप्तरुचितोषाय श्रीजिनप्रभसूरिभिः ॥ १॥ बभार वैभारगिरेर्गुणप्राग्भारवर्णने । निर्भरं भारता' बुद्धिं भारती तत्र के वयम् ॥ २ ॥ तीर्थभक्त्या तरलितास्तथापि व्यापिभिर्गुणैः । राजन्तं तीर्थराजं तं स्तुमः किंचिजडा अपि ॥ ३ ॥ अत्र दारिद्यविद्राविरूपिका रसकूपिका । तप्त-शीताम्बुकुण्डानि कुर्युः कस्य न कौतुकम् ।। ४ ।। 10 त्रिकूट-खण्डिकादीनि शृङ्गाण्यस्य चकासति । निःशेषकरणग्रामस्यावनानि वनानि च ॥ ५ ॥ ओषध्यो विविधव्याधिविध्वंसादिगुणोर्जिताः । नद्यो हृद्योदकाश्चात्र सरखत्यादयोऽनघाः ॥ ६ ॥ बहुधा लौकिकं तीर्थ मगधा-लोचनादिकम् । यत्र चैत्येषु बिम्बानि ध्वस्तडिम्बानि चाहताम् ॥ ७ ॥ मेरूद्यानचतुष्कस्य पुष्पसंख्यां विदन्ति ये । अमुष्मिन् सर्वतीर्थानां विदांकुर्वन्तु ते मितम् ।। ८ ।। श्रीशालिभद्र-धन्यर्षी इह तप्तशिलोपरि । दृष्टौ कृततनूत्सर्गों पुंसां पापमपोहतः ॥ ९ ॥ 15 श्वापदाः सिंह-शार्दूल-भालूक-गवलादयः । न जातु तीर्थमाहात्म्यादिह कुर्वन्त्युपप्लयम् ॥ १० ॥ प्रतिदेशं विलोक्यन्ते विहाराश्चात्र सौगताः । आरुदैनं च निर्वाणं प्रापुस्ते ते महर्षयः ॥ ११ ॥ रौहिणेयादिवीराणां प्राग् निवासतया श्रुताः । निचाय्यन्ते तमस्काण्ड दुर्विगाहा गुहा इह ॥ १२ ॥ उपत्यकायामस्याद्रेर्भाति राजगृहं पुरम् । क्षितिप्रतिष्ठादिनामान्यन्वभूद्यत्तदा तदा ॥ १३ ॥ क्षितिप्रतिष्ठ-चणकपुर-र्षभपुराभिधम् । कुशाग्रपुरसंज्ञं च क्रमाद्राजगृहाइयम् ॥ १४ ॥ 20 अत्र चासीद्गुणसि(शि)लं चैत्यं शैत्यकरं दृशाम् । श्रीवीरो यत्र समवससार गणशः प्रभुः ॥ १५॥ प्राकारं यत्र मेतार्यः शातकौम्भमचीकरत । सुरेण प्राच्यसुहृदा मणींश्चाजीहदच्छगम् ॥ १६॥ शालिभद्रादयोऽनेके महेभ्या यत्र जझिरे । जगच्चमत्कारकरी येषां श्रीर्नोगशालिनी ।। १७ ॥ सहस्राः किल षड्त्रिंशद्यत्रासन वणिजां गृहाः । तत्र चार्धाः सौगतानां मध्ये चाहतसंज्ञिनाम् ॥ १८ ॥ यस्य प्रासादपङ्कीनां श्रियः प्रेक्ष्यातिशायिनीः । त्यक्तमाना विमानाख्यामापुर्मन्ये सुरालयाः ॥ १९ ॥ 25 जगन्मित्रं यत्र मित्रः सुमित्रान्वयपङ्कजे । अश्वावबोधनियूंढवतोऽभूत् सुव्रतो जिनः ॥ २० ॥ यन्न श्रीमान् जरासन्धः श्रेणिका कूणिकोऽभयः। मेघ-हल्ल-विहल्लाः श्रीनन्दिषेणोऽपि चाभवन् ॥२१॥ जम्बूस्वामि-कृतपुण्य-शय्यंभवपुरस्सराः । जजुर्यतीश्वरा यत्र नन्दाद्याश्च पतिव्रताः ॥ २२ ॥ यत्र श्रीमन्महावीरस्यैकादश गणाधिपाः । पादपोपगमान् मासं सिद्धायासं समासदन् ॥ २३ ॥ एकादशो गणधरः श्रीवीरस्य गणेशितुः । प्रभासो नाम पावित्र्यं यस्य चक्रे खजन्मना ॥ २४ ॥ 80 नालन्दालंकृते यत्र वर्षारात्रांश्चतुर्दश । अवतस्थे प्रभुरिस्तत्कथं नास्तु पावनम् ॥ २५ ॥ यस्यां नैकानि तीर्थानि नालन्दा नायनश्रियाम् । भव्यानां जनितानन्दा नालन्दा नः पुनातु सा ॥ २६ ॥ 1B भरता; A भारती! 2C A तमस्काण्ड० । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोशाम्बीनगरीकल्पः। मेघनादः स्फुरन्नादः शात्रवाणां रणागणे । क्षेत्रपालापणीः कामान् कांस्कान् पुंसां पिपर्ति न ॥ २७ ॥ श्रीगौतमस्यायतनं कल्याणस्तूपसंनिधौ । दृष्टमात्रमपि प्रीतिं पुष्णाति प्रणतात्मनाम् ॥ २९॥ वर्षे सिद्धा सरवद्रसशिखिकुमिते (१३६४) वैक्रमे तीर्थमौले. सेवाहेवाकिनां श्रीर्वितर सुरतरो ! देवतासेवितस्य । वैभारक्षोणिमर्तुर्गुणगणभणनव्यापृता भक्तियुक्तैः सूक्तिजैनप्रभीयं मृदुविशदपदाऽधीयतां धीरधीभिः ॥ २७ ॥ ॥श्रीवैभारगिरिमहातीर्थकल्पः॥ ॥ ० ३१, अ० २ ॥ १२. कोशाम्बीनगरीकल्पः। वच्छाजणवए कोसंबी नाम नयरी' ! जत्थ चन्द-सूरा सविमाणा सिरिवद्धमाणं नमंसिउं समागया । तत्थ 10 तदुजोएण वेलं अयाणंती' अजा मिगावई समोसरणे पच्छा ठिआ । चंदाइच्चेसु सट्टाणं गएसु अजचंदणाइसाहुणीसु कयावस्सयासु पडिस्सयं हवमागया। अज्ञचंदणाए उवालद्धा निआवराहं समिती पायपडिया चेव केवलं संपत्ता । जत्थ य उज्जेणीओ पुरिसपरंपराणीयइट्टयाहिं पजोअरण्णा मियावईअज्झोववण्णेन दुग्गं कारिअं अज्ज वि चिट्टइ। जत्थ य मिगावईकुक्खिसंभवो गंधववेयनिउणो सयाणीअपुत्तो उदयणो वच्छाहियो अहेसि। 15 जत्थ चेइएसुं पिक्खगजणनयणअमयंजणरूवाओ जिनपडिमाओ। जत्थ य कालिंदीजललहरिआलिंगिज्जमाणाणि वणाणि । जत्थ पोसबहुलपडिवयपडिवन्नाभिग्गहस्स सिरिमहावीरस्स चंदणबालाए पंचदिवसूणछम्मासेहिं सुप्पकोणद्विअकुमासेहिं पारणं कारियं । वसुहारा य अद्धतेरसकोडिपमाणा देवेहिं वुढा । अओ चेव वसुहार त्ति गामो नयरीसंनिहिओ पसिद्धो वसइ । पंचदिवाणि अ पाउठभूआणि । इत्तु च्चिअ तहिणाओ पहुडि जिट्टसुद्धदसमीए सामि-20 पारणदिणे तित्थन्हाणदाणाई आयारा तत्थ अज वि लोए पयस॒ति । जत्थ य पउमप्पहसामिणो चवण-जम्मण-दिक्ख-नाणकल्लाणगाइं संवुत्ताई। जत्थ य सिणिद्धच्छाया कोसंबतरुणो महापमाणा दीसंति । जत्थ य पउमप्पहचेइए पारणकारावणदसाभिसंधिघडिआ चंदनयालामुत्ती दीसइ । जत्थ अज्ज वि तंमि चेव चेइए पइदिणं पसंतमुत्ती सीहो आगंतूण भगवओ भत्तिं करेइ । 25 सा कोसंबीनयरी जिणजम्मपवित्तिआ महातित्थं । अम्हाणं देउ सिवं युवंती जिणप्पहसूरीहिं ॥ ॥ इति कोशाम्बीनगरीकल्पः॥ ॥ ग्रं० १८, अ० २१ ॥ 1 B नगरी। 2 B अजाणती। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ 10 विविधतीर्थकरुपे १३. अयोध्यानगरीकल्पः। अउज्झाए एगढिआई जहा-अउज्झा अवज्झा कोसला विणीया साकेयं इक्खागुभूमी रामपुरी कोसल ति। एसा सिरिउसभ-अजिअ-अभिनंदण-सुमइ-अणंतजिणाण तहा नवमस्स सिरिवीरगणहरम्स अयलभाउणो जम्मभूमी । रहुवंसुब्भवाणं दसरह-राम-भरहाईणं च रजट्टाणं । विमल5 वाहणाइसत्तकुलगरा इत्थ उप्पन्ना। उसभसामिणो रज्जाभिसेए मिहुणगेहिं भिसिणीपत्तेहिं उदयं धित्तुं पाएसु छूढं । तओ साहुविणीया पुरिस त्ति भणिभं सक्केण । तओ विणीय त्ति सा नयरी रूढा । ___जत्थ य महासईए सीयाए अप्पाणं सोहंतीए निअसीलबलेण अग्गी जलपूरीकओ । सो अ जलपूरो नयारें बोलिंतो निअमाहप्पेण तीए चेव रक्खिओ। जा य अड्डभरहवसुहागोलस्स मज्झभूआ सया, नवजोअणवित्थिण्णा बारसजोअणदीहा य । जत्य चक्केसरी रयणमयायणट्टिअपडिमा संघविग्धं हरेइ, गोमुहजक्खो अ। जत्थ घग्घरदहो सरऊनईए समं मिलित्ता सग्गदुवारं ति पसिद्धिमावन्नो । जीए उत्तरदिसाए बारसहिं जोअणेहिं अट्ठावयनगवरो जत्थ भगवं आइगरो सिद्धो । जत्थ य भरहेसरेण सीहनिसिजाययणं तिकोसुच्चं कारिअं । निय-नियवण्णपमाणसंठाणजुत्ताणि अ चउवीसजिणाण बिंबाई 15 ठावियाई । तत्थ पुबदारे उसभ-अजिआणं; दाहिणबारे संभवाईणं चउण्हं; पच्छिमदुवारे सुपासाईणं अट्ठण्हं; उत्तरदुवारे धम्माईणं दसण्हं; थूभसयं च भाउआणं तेणेव कारि। जीए नयरीए वत्थवा जणा अद्यावयउवच्चयासु कीलिंसु । जओ अ सेरीसयपुरे नवंगवित्तिकारसाहासमुन्भवेहिं सिरिदेविंदसूरीहिं चत्वारि महाबिंबाई दिवसत्तीए गयणमग्गेण आणीआई। 30 जत्थ अन्ज वि नाभिरायस्स मंदिरं । जत्थ य पासनाहवाडिया सीयाकुंडं सहस्सधारं च । पायारटिओ अ मत्तगयंद जक्खो । अज्ज वि जस्स अग्गे करिणो न संचरंति, संचरंति वा ता मरंति । गोपयराईणि अ अणेगाणि य लोइअतित्थाणि वति । एसा पुरी अउज्झा सरऊजलसिच्च माणगढभित्ती । जिणसमयसत्ततित्थीजत्तपवित्तिअजणा जयइ ।। १ ।। कहं पुण देविंदसूरीहिं चत्तारि बिंबाणि अउज्झापुराओ आणीयाणि त्ति भण्णइ-सेरीसयनयरे विह25 रंता आराहिअपउमावइ-धरणिंदा छत्तावल्लीयसिरिदेविंदसूरिणो उक्कुरुडिअपाए ठाणे काउस्सम्ग करिसु । एवं बहुवार करिते ते दद्दूण सावएहिं पुच्छिअं–भयवं ! को विसेसो इत्थ काउस्सागकरणे ? । सूरीहिं भणियं-इत्य पहाणफलही चिट्ठइ, जीसे पासनाहपडिमा कीरइ; सा य सन्निहियपाडिहेरा हवइ । तओ सावयययणेणं पउमावईआराहणत्थं उववासतिगं कयं गुरुणा । आगया भगवई । तीए आइटै । जहा-सोपारए अन्धो सुत्तहारो चिट्टइ । सो जइ इस्थ आगच्छइ अट्ठमभत्तं च करेइ, सूरिए अत्थमिए फलहि घडेउमाढवइ, अणुदिए पडिपुण्णं संपाडेइ, 30 तओ निप्पज्जइ । तओ सावएहिं तदाह्मणत्थं सोपारए पुरिसा पट्ठविआ । सो आगओ । तहेव घा धरिणिन्दधारिआ निप्पन्ना पडिमा । घडिन्तस्स मुत्तहारस्स पडिमाए हिअए मसो पाउ भूओ । तमुविक्खिऊण उत्तरकाओ घडिओ। पुणो समारितेण मसो दिवो । टकिआ वाहिआ । रुहिरं निस्सरिउमारद्धं । तओ सूरिहिं भणिअं-किमयं तुमए कयं ? । एयमि मसे अच्छन्ते एसा पडिमा अईवअब्भुअहेऊ सप्पभावा हुन्ता । तओ अङ्गु - 1 'जिणाण' नास्ति C2CD मइंद। 3CD जलाभिसिञ्चः। 4C.प्पए। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अपापापुरी सेक्षिप्त कल्पः । द्वेणं चंपिउं थंभिअं रुहिरं । एवं तीसे पडिमाए निप्पन्नाए चउवीस अन्ना'णि विबाणि खाणीहितो आणित्ता ठाविआणि । तओ दिवसत्तीए अवज्झापुराओ तिन्नि महात्रिवाणि रत्तीए गयणमग्गेण आणीयाणि । चउत्थे वि आणिजमाणे विहाया रयणी । तओ धारासेणय ग्गामे खित्तमझे बिंब ठिअं। रण्णा सिरिकुमारपालेण चालुक्कचकवइणा चउत्थं बिंब कारिता ठवि। एवं सेरीसे महप्पभावो पासनाहो अज्जवि संघेण पूइज्जइ । मिच्छा वि उवद्दवं काउं न पारेति । ऊसुअघडिअत्तेण न तहा सलावण्णा अवयया दीसति । तम्मि अ गामे तं विंबं अववि 5 चेईहरे पूइज्जइ त्ति ॥ ॥ श्री अयोध्यापुरीकल्पः समाप्तः॥ !! पं० ४४, अ० ९॥ १४. अपापापुरी[संक्षिप्त ]कल्पः । सिद्धार्थोक्त्या वनान्ते खरकसुभिषजाभ्यञ्जनद्रोणिभाजः, शल्ये निष्कि(प्कृ?)प्यमाणे श्रुतियुगविवराचीनपीडार्दितस्य । 10 यस्या अभ्यर्णभागेऽन्तिमजिनमुकुटस्योद्यदाश्चर्यमुच्च-श्चञ्चच्चीत्काररावस्फुटित'गिरिदरी दृश्यतेऽद्यापि पूरः॥ १ ॥ चक्रे तीर्थप्रवृत्तिं चरमजिनपतिर्यत्र वैशाखशुक्कै कादश्यामेत्य रात्रौ वनमनु महसेनाढ्यं जृम्भिकातः ।। सच्छानास्तत्र चैकादशगणपतयो दीक्षिता गौतमाद्या, जग्रन्थुादशाङ्गीं भवजलधितरी ते निषद्यात्रयेण ॥ २ ॥ यस्यां श्रीवर्धमानो व्यहमनशनद्देशनावृष्टिमन्त्यां, कृत्वा श्रीहस्तिपालाभिधधरणिभुजोऽधिष्ठितः शुल्कशालाम् । खातावूर्जस्य दर्श शिवमसमसुखश्रीनिशान्तं निशान्ते, प्रापत्पापास्तपापान विरचयतु जनान् सा पुरीणां धुरीणा ॥ ३ ।। 15 नागा अद्यापि यस्यां प्रतिकृतिनिलया दर्शयन्ति प्रभावं, निस्तैले नीरपूर्णे ज्वलति गृहमणिः कौशिके यन्निशासु । भूयिष्ठाश्चर्यभूमिश्वरमजिनवरस्तूपरम्यखरूपा, साऽपापा मध्यमादिर्भवतु वरपुरी भूतये यात्रिकेभ्यः ॥ ४ ॥ ॥ इति श्रीअपापाकल्पः॥ ॥ अं० १०, अ० २१ ॥ मादर्श नोपलभ्यते 10 चउहिस! १-१ एतदकान्तर्गता पंक्तिः पतिता C आदर्श। 2 A °सेगेय°1A एष कल्पः । वि. क.४ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे १५. कलिकुण्ड-कुर्कुटेश्वरकल्पः। अंगजणबए करकंडुनिवपालिज्जमाणाए चंपानयरीए नाइदूरे कायंवरी नाम अडवी हुत्था । तथा कली नाम पचओ । तस्स अहोभूमीए कुंडं नाम सरवरं । तत्थ जूहाहिवई महिहरो नाम हत्यी हुत्था । अन्नया छउमत्थविहारेणं विहरतो पाससामी कलिकुंडसमीवदेसे काउसग्गेण ठिओ । सो य जूहनाहो पहुं पिक्खंतो जाइ5 सरो जाओ चिंतेइ अ-जहाहं विदेहेसु हेमंधरो नाम वामणो अहेसि । जुवाणा विडा य में उवहसंति । तओ वेरग्गेण नमिरसाहस्स साहिणो साहाए उब्बंधिउं मरिउकामो अहं दिट्ठो मुप्पइएसड्डण । पुट्ठो अ कारणं । मए जहट्टिए वुत्ते तेणाहं सुगुरुपासे नीओ । गाहिओ सम्मत्तं । अंते कयाणसणेण नियाणं मए कयं ! जहा, भवंतरे उच्चोहं हुज त्ति । मरिऊण हत्थी जाओस् इह वणे । तओ इमं भगवंतं पज्जुवासामि ति चिंतिम तत्तो चेव सरवराओ पित्तुं सरसकमले तेहिं जिणं पूएइ । परिवालिअपुबगहिअसम्मत्तो अणसणं काउं महिड्डिओ वंतरो जाओ । एयमच्चभूअं 10 चारेहिंतो सोचा करकंडुराया तत्थागओ । न दिट्ठो सामी । राया अईव अप्पाणं निंदेइ । धन्नो सो हत्थी जेण भयवं पूहओ । अहं तु अधन्नो ति । एवं सोअंतस्स तस्स पुरओ धरणिंदप्पभावेण नवहत्यपमाणा पडिमा पाउब्भूआ। तओ तुट्टो राया 'जय जय' ति भणतो पणमइ पूअइ अ । चेइअं च तत्थ' कारेइ । तत्थ तिसंझं पुप्फामिसथुइपूर्वा पिक्खणयं च करितेण रन्ना कलिकुंडतित्थं पयासि । तत्थ सो हत्थिवंतरो सन्निझं करेइ, पच्चए य पूरेइ । नवजंतीपमुहर्जताणि कलिकुंडमंते य छकम्मकरे पयासेइ । जहा गामवासी जणो गामु ति भण्णइ, तहा कलि15 कुंडनिवासी जिणो वि कलिकुंडो । एसा कलिकुंडस्स उप्पत्ती ॥ पुद्धिं पाससामी छउमत्थो रायउरीए काउस्सग्गे ठिओ । तत्थ वाहकेलीए जंतम्स तन्नयरसामिणो ईसररण्णो वाणजुणनामो बंदी भयवंतं पिच्छिऊण गुणकित्तणं करेइ । एस देवो आससेणनिवपुत्तो जिणु त्ति । तं सोउं राया गयाओ उत्तरित्ता पहुं पासंतो मुच्छिओ। पत्तचेयण्णो य पुट्टो मंतिणा पुन्वभवे कहेइ । जहाहं चारुदत्तो होऊण पुबजम्मे वसंतपुरे पुरोहिअपुत्तो दत्तो आसि । कुट्ठाइरोगपीडिओ अ गंगाए निवडतो चारणरिसिणा 20 बोहिओ अहिंसाई पंचवए पालेमि, इंदिए अ सोसेमि, कसाए य जिणेमि । अन्नया चेईहरमागओ जियपडिमं पणमंतो दिट्टो पुक्खलिसावएणं । तेण पुट्ठो गुणसागरमुणी-भयवं! एयस्स चेहयागमणे दोसो न वा ? । मुणिणा भणिअं-दूरओ देवं पणमंतस्स को दोसो । अन्ज वि एसो कुक्कुडो भविस्सइ ति । तं सोऊण खेथं कुणंतो पुणरवि गुरुणा संबोहिओहं-तुमं जाईसरो अणसणेण मरिउं रायउरीए ईसरो नाम राया होहिसि त्ति । तओहं तुट्ठो तं सर्व अणुभवित्ता कमेण राया जाओ । पहुं पिक्खिअ जायं मे जाइसरणं ति । एवं मंतिस्स कहिता भगवंतं पण25 मिअ तत्थ संगीअं कारेइ । पहुम्मि अन्नत्थ विहरिए तत्थ रण्णा पासाओ कारिओ । विंबं च पइट्टावि। कुकुडवरेण ईसररणा कारियं ति कुकडेसर नाम तित्थं रूढं । सो य राया कमेण खीणकम्मो सिज्झिहि त्ति । एसा कुकुडेसरस्स उप्पत्ती ॥ कलिकुंड-कुक्कुडेसरतित्थदुगस्सेस वण्णिओ कप्पो । सिरिजिणपहसूरीहिं भविआणं कुणउ कल्लाणं ॥१॥ ॥ इति कलिकुंड-कुर्कुटेश्वरकल्पः ॥ ॥ अं० ३५, अ० १॥ 30 एतत्तारकचिहान्तर्गतं प्रकरण A आदर्श नोपलब्धम् । + एतचिहान्तर्गता पंक्तिः पतिता D आदर्श । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिनापुरकरूपः । १६. हस्तिनापुरकल्पः । सिरिसंति कुंथु - अर-मल्लिसामिणो गयउरट्टिए नमिउं । पभणामि हस्थिणा उरतित्थस्स समासओ कप्पं ॥१॥ सिरिआइतित्थेसरस्स दोणि पुत्ता भरहेसर - बाहुबलिनामाणो आसि । भरहस्स सहोयरा अट्टाणउई कुमारा । तत्थ भयवया पत्रयंतेण भरहो निअपए अहिसित्तो । बाहुबलिनो तक्खसिला दिण्णा । एवं सेसाण वि तेसु तेसु देसेसुं रज्जाहूं दिण्णाई | अंगकुमारनामेणं अंगदेसो जाओ । कुरुनामेणं कुरुखित्तं पसिद्धं । 5 एवं वंग- कलिंग - सूरसेण-अवंतिमाइसु विभासा । कुरूनरिंदरस पुतो हत्थी नाम राया हुत्था । तेण हत्थणाउरं निबेसिअं । तत्थ भागीरही महानई पवित्तवारिपूरा परिवहइ । तत्थ सिरिसंति कुंथु - अरनाहा जहासंखं सोलसम-सत्तरसम-द्वारसमा जिणिंदा जाया । पंचम-छट्ट-सत्तमा य कमेण चकवट्टी होउं छखंड भरहवा सरिद्धिं भुंजिंसु । दिक्खाग्रहणं केवलनाणं च तेसिं तत्थेव संजायं । २७ तत्थेव संवच्छरमणसिओ भयवं उसभसामी बाहुबलिन अस्स सिज्जंसकुमरस्स तिहुअणगुरुदंसण- 10 जायजाईसरणजाणिअदाणविहिणो गेहे अक्खयतइयादिणे इक्खुरसेणं पढमपारणयमकासी । तत्थ पंचदिवाई पाउन्भूआई । मसामि अ तत्थेव नयरे समोसढो । तत्थ विहुकुमारो महरिसी तवसत्तीए विउबिअलक्खजोअणप्पमाणसरीरो तिहिं परहिं अकंततेलको नमुई सासित्था । तत्थ पुरे सणकुमार महापउम- सुभूम-परसुरामाइमहापुरिसा उप्पण्णा | तत्थ पंच पांडवा उत्तमपुरिसा चरमसरीरा, दुज्जोहणपमुहा य महाबलनिवा अणेगे समुप्पण्णा । तत्थ सत्तकोडिसुवण्णाहिबई गंगदत्त सिट्ठी, तहा सोहम्मिदस्त जीवो रायाभिओगेणं परिवाथगस्स परिवेसणं काउं वेरग्गेण नेगमसहस्सपरिवुडो कत्तिय सेट्ठी सिरिमुणिसुव्वयसामिममीवे निक्खतो । तत्थ महानयरे संति-कुंधु-अर-मल्लिजिणाणं चेइयाइं मणहराई, अंबादेवीए य देउलं आसि । 15 एवमणेग अच्छा रिअसहस्सनिहाणे तत्थ महातित्थे जे जिणसासणभभावणं कुणंति विहिपुत्रं जत्तामसवं निम्मवंति 20 ते कइयभवम्हहिं धुअकम्मकिलेसा सिद्धिमुवगच्छंति चि ॥ श्रीगजाह्वयतीर्थस्य कल्पः खल्पतरोऽप्ययम् । सतां सङ्कल्पसम्पूर्ती धत्तां कल्पद्रुकल्पताम् || २ || ॥ इति श्रीहस्तिनापुरतीर्थकल्पः समाप्तः ॥ ॥ अं० २४, अ० ११॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे १७. सत्यपुरतीर्थकल्पः । पण मिय सिरिवीर जिणं देवं सिरिबंभसंतिकयसेवं । सञ्च्चउरतित्थकप्पं जहासुअं किं पि जंपेमि ॥ १ ॥ सिरिकन्नउज्जनरवइकारिअजिणभवणि देवदारुमए । तेरसवच्छरसइए वीरजिणो जयउ सच्चउरे || २ || २८ I हेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मरुमंडले सचउरं नाम नगरं । तत्थ नाहडरायकारिअं सिरि5 जज्जिग सूरिगणहरपइट्ठियं पित्तलामयं सिरिवीरबिंब चेईहरे अच्छइ । कहं नाहडराएण तं कारिअं ति तस्स उप्पत्ति भष्णइ–पुर्बि नङ्गुलमंडल'मंडण मंडोवरनयरस्स सामिं रायाणं बलवंतेहिं 'दाइएहिं मारिऊण तं नयरं अहिट्ठिअं । तस्स रण्णो महादेवी आवन्नसत्ता पलाइत्ता बंभाणपुरं पत्ता । तत्थ य सयललक्खणसंपन्न दारयं पसूआ । तओ नयओ बाहिं एत्थ रुक्खे तं बालयं झोलिआगयं ठावित्ता सयं तप्पासदेसे ठिया किंचि कम्मं काउमादत्ता । तत्थ थ दिवजोगेण समागया सिरिजज्जिगसूरिणो । तरुच्छायं अपराचत्तमाणिं दद्रूण 'एस पुण्णवंतो भावि' त्ति कलिऊण चिरं 10 अवलोइंता अच्छिआ । तीए रायपत्तीए आगंतूण भणिआ सूरिणो भवयं ! किं एस दारओ कुलक्खणी कुलक्खयकारो दीसह ? | सूरीहिं वृत्तं - भद्दे ! एस महापुरिसो भविस्सइ । ता सवपयत्तेण पाणिज्जो । तओ सा अणुकंपाए चेहरचिन्ताकरणे निउत्ता गुरूहिं । सो अ दारओ कयनाहडनामो गुरुमुहाओ पंचपरमिट्टिनमुकारं सिक्खिओ । सो अ चवलत्तेण गहिअधणुसरो अक्खयपट्ट्यस्स उवरिं आगच्छंते मूसए अमूढलक्खो मारेइ । तओ सावएहिं चेईहराओ निकालिओ जणाणं गावीओ रक्खेइ । अन्नया केणावि जोगिणा पुरबाहिरे भमंतेण सो दिट्टो । बत्तीस लक्खणधरो ति 15 विन्नाओ' । तज तेण सुवण्णपुरिससाहणत्थं तमणुगच्छंतेण तस्स मायरं अणुण्णविय तत्थेव ठिई कया । तओ अवसरे तेण जोगिणा भणिओ नाहडो - जत्थ गावीरक्खणाई कुणंतो रचदुद्धं कुलिसतरुं पाससि तत्थ चिन्हं काऊण मर्म कहिज्जासि । बालेण तह त्ति पडिवनं । अन्नया दिवजोएण तं दद्दूण आणाविअं जोगिणो । दोवि गया तत्थ । तओ जहुत्तविहाणेण अरिंग पज्जालिऊण तं रतच्छीरं तत्थ पक्खिवित्ता जोगिंमि पयाहिणं दिते नाहडेणावि पयक्खिणी - कओ अग्गी । कहिंचि जोगिणो दुट्ठचित्तवित्तिं नाऊण रायपुत्त्रेण सुमरिओ पंचनमुकारो । तप्पभावेण जोगी अप्पह20 वंतो उक्खिविअ जलणे खित्तो नाहडेण । जाओ सुवण्णपुरिसो । तओ चितिअं तेण - अहो मंतस्स माहप्पं । कह तु तेसिं गुरूणं एयस्स दायगाणं पचुवयरिस्सामि चि- आगंतुं पणया गुरुणो । सवं च तं सरूवं विण्णत्तं, किच्चं च आइसह त्ति भणिए, गुरुवयणाओ उत्तुंगाई चरवीसं येईयाई कारिआई । कमेण पत्तो पउरं रज्जसिरिं । सेन्नसंभारेण गंतुं गहिअ॑ पेइअं सद्वाणं । अन्नया विन्नत्ता सिरिजज्जिगसूरिणो तेण, जहा - भगवं ! तं किंचि कज्जं आइसह, जेण तुम्हाणं मज्झ य कित्ती चिरकालं पसरइ ति । तओ गुरूहिं घेणू चउहिं धणेहिं जत्थ खीरं झरइ तं भूमिं अभुदय25 करं नाऊण तं ठाणं दंसिअं रण्णो । तेणं गुरुआएसेणं सच्चउरे वीरमुक्खाओ छबाससएहिं महंतं कारिअं अमंलिहसिहरं चेइअं । तत्थ पट्टाविआ पित्तलमई सिरिमहावीरपडिमा जज्जिगसूरीहिं । जया पट्टाकरणत्थं आयरिआ पट्टि तथा अंतराले एगम्मि उत्तमलागे वहमाणे नाहड' रायपुत्रपुरिसस्स विंझरायस्स आसारूढस्स मुक्तीए पट्ठा कया । बीयम्मि लग्गे गविसेसाओ मयणमइ व महीए जायाए संखनामचिल्लएण गुरुआएसओ दंडघाएण कुवओ कओ | अवि संखकूवओ भण्णइ । सो अ अष्णया सुक्को वि वइसाहपुण्णिमाए पाणीएण भरिज्जइ । तईए 80 लग्गे वीरसामी पट्ठओ । जम्मि अलग्गे वीरस्त पट्टा कया तम्मि चैव लग्गे दुग्गासूअगामे वयणपगाय दुण्णि वीरपडिमाओ साहु सावयहत्थ पेसिअवासेहिं पइट्ठिआओ । तं च वीरपडिमं निचमच्चेइ राया । एवं नाहडराएणं तं बिंबं कारिअं । 1 'मंडल' नास्ति A आदर्शे । 2 B दाएहिं । 3 A विनासिओ; C विनिसिओ; Pb विन्नसिओ 4 ACP नायड Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यपुरतीर्थकल्पः । २९ तं च बंभसंतिजक्खेण सन्निहिअपाडिहेरेण अहोनिसिं पज्जुवासिज्जइ । सो अ पुबिं धणदेवसिट्टिणो । वसो आसि । तेण वेगवईए नईए पंचसयसगडभरो कडिओ । सो तुट्ठो । तओ सिट्ठिणा चारिजलाइहेउं वेयणं दाऊण व माणगामवासिलोयाणं समप्पिओ । ते य गामिल्ल्या गहियरित्या तस्स बसहस्स चिंतं पि न कुणंति । तओ सो अकामनिज्जराए मरिऊण वंतरेसु सूलपाणी नाम जक्खो जाओ । विभंगनाणं परंजिअ विष्णाय पुवजम्मइयरो तम्म गामे बद्धमच्छरो मारिं विउ । तओ अद्दण्णो गामो हाउं कयबलिकम्मो धुअकडच्छु अहत्थो 5 भणइ - जस्स देवस्स दाणवरस वा अम्हेहिं किंपि अवरद्धं सो मरिसेउ ति । तओ तेण जक्त्रेण पुत्रभववसहस्स तो कहिओ । तस्सेव वसहस्स अट्टिपुंजोवरिं देउलं लोएहिं कयं । तस्स पडिमा कारिआ । इंदसम्मो देवच्चओ ठविओ । तओ सो वमाणगामो अहिअगामु चि पसिद्धो । जायं सिवं । कमेणं दूइज्जंतगतावसासमाओ भयवं वद्धमाणसामी छउमत्थविहारेणं विहरंतो वासारते तत्थ गामे पत्तो । गाममणुन्नविअ तत्थेव देवउले रयणीए काउसग्गे ठिओ । तेण मिच्छद्दिङ्किणा सुरेण भीमट्टहास - हत्थि - पिसाय - नागरूवेहिं उवसग्गित्ता सिर-कन्न - नासा - दंत- नह-च्छि - 10 पिट्टि - वियणाओ विउबियाओ' । सवत्थ भयवंत मक्खोभं नाऊण सो उवसंतो गीय-नट्ट थुइमाईहिं पज्जुवासेइ । तप्पभि तस्स जक्खस्स भसंति ति नाम रूढं । सो य सच्चउर - वीरचेईए पइट्ठाविसेसेण निवसर । इओ अ गुज्जरधराए पच्छिमभागे वलहि त्ति नयरी रिद्धिसमिद्धा । तत्थ सिलाइच्चो नाम राया । तेण य रयणजडिअकंकसीलुद्धेण रंकओ नाम सिट्टी पराभूओ । सो अ कुविओ तविग्गहणत्थं गज्जणवइहम्मीरस्स पभूअं धणं दाऊण तस्स महंतं सेनं आणे । तम्मि अवसरे वलहीओ चंदष्पहसामिपडिमा अंबा - खित्तवालजुता 15 अहिट्ठायगबलेण गयणपहेण देवपट्टणं गया । रहाहिरूढा य देवयाबलेण वीरनाहपडिमा अट्टिवत्तीए संचरंती आसोपुणिमा सिरिमाल पुरमागया । अण्णे वि साइसया देवा जहोचियं ठाणं गया । पुरदेवयाए य सिरिवद्धमाणसूरीणं उप्पाओ जाणाविओ - जत्थ भिक्खालद्धं खीरं रुहिरं होऊण पुणो खीरं होहिइ तत्थ साहूहिं ठायवं ति । तेण य सित्रेण विकमाओ अट्ठहिं सएहिं पणयालेहिं ( ८४५ ) वरिसाणं गएहिं चलहिं भंजिऊण सो राया मारिओ । गओ सठाणं हम्मीरो । 20 तओ अन्नया, अन्नो गज्जणवई गुज्जरं भंजित्ता तओ वलंतो पत्तो सच्चउरे दससयइक्कासीए (१०८१ ) विकमवरिसे मिच्छराओ । दिट्टं तत्थ मणोहरं वीरभवणं । पविट्ठा हण हण त्ति भणिरा मिलक्खुणो । तओ गयवरे जुत्ता' वीरसामी ताणिओ । समित्तं पि न चलिओ सट्टाणाओ । तओ बहल्लेसु जुत्तिएसु पुवभवरागेण बंभसंतिणा अंगुलचउकं चालिओ । सयं हक्कंते वि गज्जणवइम्मि निचली होउं ठिओ जगनाहो । जाओ विलक्खो मिलक्खुनाहो । तओ घणघाहिं ताडिओ सामी । लम्गंति घाया ओरोहसुंदरीणं । तओ स्वग्ग पहारेसु विहलीभूएस मच्छरेण तुरुक्केहिं 25 वीरस्स अंगुली कट्टि । तं गहिऊण य ते पट्टिआ । तओ लग्गा पज्जलिउं तुरयाणं पुच्छा । लभ्गा य यलिउ मिच्छाणं मुच्छा । तओ तुरए छड्डित्ता' पायचारिणो चेव पयट्टा, धस ति धरणीए पडिआ । रहमाणं सुमरंता विलवंता दीणा खीणसबबला नहंगणे अदिवाणीए भणिआ एवं वीरस्स अंगुलिं आणित्ता तुम्हे जीवसंसए पडिआ । तओ गज्जणा हिवई बिम्हअमणो सीसं धुणंतो सिलारे आइसइ । जहा एयमंगुलिं वलिऊण तत्थेव ठावेह | तभ भीएहिं तेहिं पच्चाणीया । सा लग्गा य' झड चि सामिणो करे । तमच्छेरं पिच्छिअ पुणो वि सच्चरं पइ सउणं पि न 30 मगति तुरुक्का । तुट्ठो चउविहो वि समणसंघो । वीरभवणे पूआ-महिमा- गीय-नट्ट-वाइत्त-दविणदाणेहिं पभावणं करेइ । 1 अन्नया बहुम्मि काले वोलीणे मालवि चयनरिंदो गुज्जरवरं भंजिऊण सच्चउरसीमाए पहुतो । तओ 4. एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता C आदर्श | 1 ABP वियवि । 2 P जोत्तित्ता । 3 P निचलो । 4 ओरोहतुरुक्कतरुणी ं । 5 लग्गए । 6 C चलिडं । 7 A छंडित्ता । 8 'य' नास्ति P 9P चिय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकरपे बंभसंतिणा पउरं सिन्नं विउविऊण भंजिओ तस्स बलं । तस्स ल्हासआवासेसु उट्टिओ वजग्गी । मालवाहिवई कोसकुट्ठागाराई 'छड्डिअ पणट्ठो कागणास । __ अह अन्नया तेरहसय-अडयाले (१३४८) विकमसंवच्छरे पबलेणं कप्फर दलेणं देसम्मि भजंते, नयरगामेसु पलाणेसु, जिणभवणदुवारेसु दक्किएसु, जोअणचउकमज्झे बंभसंतिमाहप्पेणं अणायगहिरसरतंबक चक्कं वजंतं 5 सोऊण सिरिसारंगदेवमहारायसेणाआगमणं संकिऊण भग्गं मुग्गलबलं । सचउरसीमा वि न चंपिआ। अह तेरसय-छप्पन्ने विकमवरिसे (१३५६) अल्लावदीणसुरताणस्स कणिट्ठो भाया 'उलूखाननामधिज्जो दिल्लीपुराओ मंतिमाहवपेरिओ गुज्जरधरं पट्टिओ । चित्तकूडाहिवइ समरसीहेणं दंडं दाउं मेवाडदेसो तया रक्खिओ । तओ हम्मीरजुवराओ वग्गडदेस मुहडासयाई नयराणि य भंजिअ आसा वल्लीए पत्तो । कपणदेवराया' अनट्ठो। सोमनाहं च घणघाएण मंजित्ता गड्डए रोविऊण ढिल्लीए पेसेइ । पुणो 10 वामणथलीए गंतुं मंडलिकराणयं दंडित्ता सोरटे निअआणं पयट्टावित्ता आसावल्लीए आवासिओ । मढमंदिरदेउलाईणि पज्जालेइ । कमेण सत्तसयदेसे संपत्तो । तओ सञ्चउरे तहेव अणाहयतंबक्केसु वज्जतेसु मिच्छदलं पलाणं । एवं अणेगाणि अवदाणाणि पुहवीमंडले सचउरवीरनाहस्स पायडाणि सुवति । __ अह अलंघणिज्जा भविअन्त्य ति दूसमकालविलसिएण केलिप्पिया वंतरा हवंति । गोमंस-रुहिरछंटिए अ भवणे दूरीहवंति देवयाओ त्ति । असन्निहिए पमत्ते अहिट्ठायगे बंभसंतिजक्खम्मि अल्लावदीणराएण सो चेव अणप्प-1 15 माहप्पो भयवं वीरसामी तेरसय-सत्तसट्टे (१३६७) विकमाइचवच्छरे ढिल्लिए आणित्ता आसायणाभायणं कओ। कालंतरेण पुणरवि पडिमंतरे पायडपभावो पूआरिहो भविस्सइ ॥ सचउरकप्पमेयं निच्चं वायंतु महिमअपमेयं । वंछिअफलसिद्धिकए सिरिजिणपहसूरिणो भवा ! ॥ ३ ॥ ॥ इति श्रीसत्यपुरकल्पः समाप्तः॥ ॥ ग्रं० १६१, अ० ३ ॥ - 1 Pछडिऊण। 2A बप्फर; C कष्फर। 3C उल्लूखान14P °सानाभिहाणो। 5CD पइटिओ। 6 'तया' नास्ति P1 TA BC 'राओ। 1-1 एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता भादर्श । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टापदमहातीर्थकल्पः । १८. अष्टापदमहातीर्थकल्पः । [ श्रीधर्मघोषसूरिकृतः । ] धर्मकीर्तिऋषभो विद्यानन्दाश्रितः पवित्रितवान् । देवेन्द्रवन्दितो यः स जयत्यष्टापद गिरीशः ॥ १ ॥ यस्मिन्नष्टापदभूदष्टापद मुख्यदोषलक्षहरः । अष्टापदाभ 'ऋषभः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २ ॥ ऋषभसुता नवनवतिर्बाहुबलिप्रभृतयः प्रवरयतयः । यस्मिन्नभजन्नमृतं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ३ ॥ अयुजन्निर्वृतियोगं वियोगभीरव इव प्रभोः समकम् । यत्रर्षिदशसहस्राः स जयत्यष्टापदगिरीशः || ४ || यत्राष्टपुत्रपुत्रा युगपद्वृषभेण ' नवनवतिपुत्राः । समयैकेन शिवमगुः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ५ ॥ रत्नत्रयमिव मूर्तं स्तूपत्रितयं चितित्रयस्थाने । यत्रास्थापयदिन्द्रः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ६ ॥ सिद्धायतनप्रतिमं सिंह्निषद्येति यत्र सुचतुर्द्धा । भरतोऽरचयच्चैत्यं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ७ ॥ यत्र विराजति चैत्यं योजनदीर्घं तदर्धपृथुमानम् । क्रोशत्रयोचमुचैः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ८ ॥ यत्र भ्रातृप्रतिमा "व्यधाच्चतुर्विंशति' जिनप्रतिमाः । भरतः सात्मप्रतिमाः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ९ ॥ *स्वस्वाकृतिमितिवर्णाङ्कवर्णितान् वर्तमानजिनबिम्बान् । भरतो वर्णितवानिह स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १० ॥ सप्रतिमान्नवनवतिं बन्धुस्तूपांस्तथार्हतस्तूपम् । यत्रारचयच्चकी स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ११ ॥ भरतेन मोहसिंहं हन्तुमिवाष्टापदः कृताष्ट्रपदः । शुशुभेऽष्टयोजनो यः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १२ ॥ यस्मिन्ननेककोट्यो महर्षयो भरतचक्रवर्त्याद्याः । सिद्धिं साधितवन्तः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १३ ॥ सगरसुताभे सर्वार्थ-शिवगतीन् भरतराजवंशर्षीन् । यत्र सुबुद्धिरकथयत्स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १४ ॥ परिखासागरमकरन्त सागराः सागराशया यत्र । परितो रक्षति कृतये स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १५ ॥ क्षालयितुमिव खैनो जैनो' यो गंगयाश्रितः परितः । सन्ततमुल्लोलकरैः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १६ ॥ यत्र जिनतिलकदानाद् दयमन्त्यपि " कृतानुरूपफलम् । भालखभावतिलकं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १७ ॥ यमकूप|रे कोपात् क्षिपन्नलं बालिनांहिणाऽऽक्रम्य । आरावि रावणोऽरं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १८ ॥ भुजतया जिनमहल्लङ्केन्द्रोऽवाप यत्र धरणेन्द्रात् । विजयामोघां शक्तिं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १९ ॥ "चतुरश्चतुरोऽष्टदश द्वौ चापाच्यादिदिक्षु जिनबिम्बान् । यत्रावन्दत " गणभृत् स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २० ॥ अचलेऽत्रोदयमचलं खशक्तिवन्दितजिनो जनो" लभते । वीरोऽवर्णयदिति यं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २१ ॥ प्रभुभणितपुण्डरीकाध्ययनाध्ययनात् सुरोऽत्र दशमोऽभूत् । दशपूर्वि पुण्डरीकः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २२ ॥ यत्र " स्तुतजिननाथोऽदीक्षित तापसशतानि पञ्चदश । श्रीगौतम गणनाथः स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २३ ॥ इत्यष्टापदपर्वत इव योऽष्टापदमयश्चिरस्थायी । व्यावर्णि महातीर्थं स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २४ ॥ ॥ इति श्रीअष्टापद महातीर्थकल्पः समाप्तः । कृतिरियं श्रीधर्मघोषसूरीणाम् ॥ ॥ ग्रं० ३०, अ० २२ ॥ 1C Pb कीर्तिषभो । 2 C Pa "पदा ऋषभः । 6 B न्यधाच। 7 BC Pa चतुर्विंशतिं । 8 C वस्त्रा । 12 B गुणभृत् । 13 B Pb जिनो। 14 C स्तुजिन | 3 Pb योग्यं । 9 Pa जैनं । ३१ 4 Pb पदृषमेण । 5 Pa त्रयोर्द्धमुचैः । 10A B क्षतानु । 11 C चतुश्चतुरो । 5 10 15 20 25 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकर १९. मिथिलातीर्थकल्पः । सिरिमल्लि-नमिजिणाणं पयपउनं पणमिण सुरपणयं । मिहिला महापुरीए कप्पं जंपेमि लेसेणं ॥ १ ॥ इहेब भारदे वासे पुग्वदेसे विदेहा नाम जणवओ, संपइ काले तीरहुत्तिदेसो त्ति भण्णइ । जत्थ पहगेहं महुरमंजुलफलभारोणयाणि कयलीवगाणि दीसंति । 'पहिया य 'चिविडयाणि दुद्धसिद्धाणि पायसं च भुंजंति । 5पए पए वावीकूवतलाय नईओ अ महुरोदगा, पागयजणा वि सक्कयभासविसारया अणेगसत्थपसत्थभई निउणा य जणा । तत्थ रिद्धित्थमिअसमिद्धा मिहिला नाम नयरी हुत्था । संपयं जगइ त्ति पसिद्धा । एयाए नाद्ददूरे जणयमहारायस्स भाउणो कणयस्स निवासद्वाणं कणइपुरं वइ । ३२ तत्थ मिहिलानामनयरीए कुंभराय - पभावई संभवस्स भगवओ मल्लिनाहस्स इत्थीतित्थयरस्स, नमिजिणस्स य विजयनिव वप्पादेवीनंदणस्स चवण- जम्मण- दिक्खा केवलनाणकल्लाणयाई जायाई । इत्थ अट्टमस्स सिरिवीरगणहरस्स अकंपिअस्स जम्मो । 10 इत्थ जुगबाहु-मयणरेहाणं पुतो नमी नाम महाराया वलयसवइयरेण पत्तेयबुद्धो सोहम्मिन्दपरिक्खि अवेरग्गनिच्छओ संवुत्तो । इत्थेव लच्छीहरे चेईए अजमहागिरिसीसो कोडिन्नगुत्तो आसमित्तो सिरिवीरनिवाणाओ वीसुत्तरे वाससयदुगे (२२०) वोलीणे अणुष्पवायपुत्रे 'निउणियं नाम वत्युं पढंतो विपडियनो सामुच्छेइयादिहिं' पवतिऊण 15 पावयणियथेरेहिं अगंतवायजुत्तीहिं निवारिज्जमाणो वि चउत्थो निन्हवो जाओ । सिरिमहावीरसामिपय पंकयपवित्तिअजलाओ बाणगंगा-गंडईनईओ मिलिता एवं नयरिं पवित्तयंति । इत्थ चरमतित्थरो वासारते अवट्टिओ । इत्य जणयसुआए महासईए जम्मभूमिठाणे महल्लो वडविडवी पसिद्धो । इत्थ सिरिराम -सीयाणं वीवाहद्वाणं साकल्लकुंडं ति लोगे रूढं । पायाललिंगाइणि य लोइयतित्थाणि 20 अणेगाणि चिद्वंति । _इत्थ य मल्लिनाचेईए वइरुहादेवी कुबेरजक्खो अ, नमिजिणचेईए गंधारीदेवी भिउडी - जक्खो अ, आराहयजणाणं विग्धे अवहरंति ति । महिला पमणं सुगंति वायंति जिणपहठिआ जे । तेसिं खिवेइ कंठे वरमालं मुत्तिसिरिमहिला ॥ २ ॥ ॥ इति श्रीमिथिलातीर्थकल्पः ॥ ॥ ग्रं० ३४, अ० १८ ॥ 25 1 Pa पिहिया । 2 PC विविड | 3D तलाव 4D दया । 5PC 'अ' स्थाने 'भज्झत्थि । GP नेउणियं । 7 C दिहं । + B श्री मिथिलापुरी महातीर्थंकल्पः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रलवाहपुरकल्पः। ३३ २०. रत्नवाहपुरकल्पः । श्रीधर्मनाथमानम्य रत्नवाहपुरे स्थितम् । तस्यैव पुररत्नस्य कल्पं किञ्चिद्रवीम्यहम् ॥ १ ॥ अस्तीहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे कोशलेषु जनपदे नानाजातीयोच्चैस्तरशाखिशाखावहलदलकुसुमफलच्छन्नताच्छादितधर्मघृणिकरगहनवनमण्डितं शीतलविमलबहलजलनिर्झरघर्घर नदबन्धुरं रत्नवाहं नाम पुरम् । तत्र चेक्ष्वाककुलप्रदीपः कनत्कनककान्तकायकान्तिः कुलिशलान्छितपञ्चचत्वारिंशच्चापोच्छ्रायकायः पञ्चदशस्तीर्थपतिर्विज-5 यविमानादवतीर्य श्रीभानुनरेन्द्रवेश्मनि सुव्रतादेवीकुक्षौ तनयतयाऽवततार । क्रमेण गुरुवितीर्णधर्मनामधेयो जनन-निष्क्रमण-केवलज्ञानानि तत्रैव समाससाद । निवृत्तश्च संमेतशिखरिशिखरे । तस्मिन्नेव च पुरे जननयनजनितशैत्यं श्रीधर्मनाथचैत्यं नागकुमारदेवाधिष्ठितं कालेन निर्वृत्तम् । तत्र च नगरे कुम्भकार एकः स्खशिल्पच्छेक आसीत् । तस्य तनयस्तरुणिमानमधिगत्य क्रीडादुर्ललिततया तन्त्र रामणीयकशालिनि चैत्ये गृहादागत्य खैरं धूतादि तत्तत्नीडाविधाभिश्चिक्रीड । तत्रैको नागकुमारः केलिप्रियतया 10 कृतमानुषतनुस्तेन कुम्भकारदारकेण साधू प्रत्यहं प्रववृते क्रीडितुम् । तत्पित्रा च स पुत्रः कुलक्रमागतकुलालकाण्यनिमिमाणः प्रतिदिनं दुर्वाभिरुपालेभे । न च तद्वचनमसौ प्रत्यपादि । ततः पित्रा गादं प्रहत्य अलादपि स्वकर्माणि मृत्खननानयनादीनि कारयितुमुपक्रान्तः । अन्तरमवलोक्य पुनस्तत्र चैत्ये गत्वाऽन्तराऽन्तरा तथैव तेन नागकुमारेण साकं खेलितुं नमः । पृष्टश्च नागामरेण-किं कारणं पूर्ववन्निरन्तरं न क्रीडितुमायासि ? । तेनोक्तम्-जनकः कुप्यति मह्यम् । खकर्मनिर्माणमन्तरेण कथमिव जठरपिठरविवरपूरणमुपपद्यत इति । तदाकर्ण्य हकर्णकुमारो वाचमुवाच-15 यद्येवं तर्हि क्रीडान्ते भूपीठे विलुठ्य भविष्याम्यहमहिः, मत्पुच्छं चतुरङ्गुलमात्रं लोहेन मृत्खननोपकरणेन छित्वा त्वया ग्राह्यम् । तच्च चारुचामीकरमयं भविष्यति । तेन हेम्ना तब कुटुम्बस्य वृत्तिनिवीहो भविष्यतीति सौहृदात्तेनाभिहिते स तथैव प्रतिदिवसं कर्तुं प्रवृत्तः । पितुश्च तत्कनकमर्पयति स्म; न च रहस्यमभिदत् । अन्यदाऽतिनिर्बन्धं विधाय पृच्छति सति पितरि भयाद्यथावस्थितमचकथत् । ततः सस्मितेन विस्मितेन च जगदे जनकेन-रे मूर्ख ! 'चतुरङ्गुलमात्रमेव किमिति छिदन्नसि । बहुतरे हि छिन्ने भूरितरं भूरि भवन्ति । तेन भणितम्-तात ! नातः समतिरिक्त-20 महं छेत्तुमुत्सहे, परमसुहृदैवतवचनातिकमप्रसङ्गात् । ततस्तजनकेन लोभसंक्षोभाकुलितमनसा तसिंस्तनये क्रीडार्थ तञ्चैत्यमुपेयुषि प्रच्छन्नमनु वजे । यावत्प्रक्रीड्य धरणिपीठे विलुट्य स पन्नगतामापन्नस्तावत् कुम्भकारेण बिलं प्रविशतस्तस्य वपुरर्द्ध कुद्दालिकया चिच्छेदे । ततः कोपाटोपात्तेन नागकुमारेण-रे पापिष्ठ ! रहस्यभेदं करोषीत्यतिगाढं निर्भर्त्य स दारको दंष्ट्रासम्पुटेन दष्ट्वा व्यापादितः, पिता च ! रोषप्रकर्षात्सकलान्यपि कुलालकुलानि कालकवलितानि कृतानि । ततः प्रभृति च न कश्चन चक्रजीवनजातीयस्तत्र रत्नवाहपुरेऽद्यापि निवसतीति । कौलालभाण्डानि स्थाना-25 न्तरादेव नयति जनता ! तत्र च तथैव नागमूर्तिपरिवारिता श्रीधर्मनाथप्रतिमाऽद्यापि सम्यग्दृष्टियात्रिकजनैरनेकविधिप्रभावप्रभावनापुरःसरं पूज्यते । अद्यापि च परसमयिनो 'धर्मराज' इति व्यपदिश्य कदाचिदवर्षति वर्षासु जलधरे क्षीरघटसहभगवन्तं स्नपयन्ति; सम्पद्यते च तत्क्षणाद्विशिष्टा मेघवृष्टिः । कन्दर्पा शासनदेवी किन्नरश्च शासनयक्षः श्रीधर्मनाथपादपद्मसेवाहेवाकचञ्चरीकाणामनर्थप्रतिघातमर्थप्राप्तिं चात्र सूत्रयतीति । इति श्रीरत्नवाहस्य श्रीजिनप्रभसूरिभिः । कल्पः कृतो रत्नपुरपुराख्यस्य यथाश्नुतम् ॥ २ ॥ 30 ॥ इति श्रीधर्मनाथजन्मभूमिरत्नपुर तीर्थकल्पः॥ ॥ ० ३२, अ०२३ ॥ IB प्रणिपादि । 00 एतचिहान्तर्गतः पाठः परित्यक्तः A आदर्श । 2 P विहायान्यत्र 'चतुरङ्गुलमन्यचतुर"। 3 ABPa-b न छिनत्सि 1 4 B भूरितरे। 5 Pa रनवाहपुरमहातीर्थ । 6A विहाय नास्त्यन्यत्र एषाऽक्षरसंख्या। वि.क.५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૐ विविधतीर्थकल्प २१. अपापाबृहत्कल्पः । पणमिअ वीरं वुच्छं' तस्सेव य सिद्धिगमपविचाए । पावापुरीइ कप्पं दीवमहुप्पत्ति पडिबद्धं ॥ १ ॥ गउडे पाडलिपुरे संपइराया तिखंडभरहवई । अज्जसुहत्धिगणहरं पुच्छइ पणओ परमसड्डी' ॥ २ ॥ दीवालि अपव्यमणं लोए लोउत्तरे अ गउरविअं । भयवं ! कह संभूअं ?, अह भणइ गुरू- निव ! सुणसु ॥ ३ ॥ 5 ९१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणो भगवं महावीरो पाणयकप्पट्ठिए पुप्फुत्तर विमाणे वीससागरोत्रमाई आउं परिवालित्ता, तओ चुओ समाणो तिष्णाणोबगओ इमीसे ओसप्पिणी तिसु' अरएसु वइक्कंतेसु अद्धनवमासाहिअपंचहत्तरीवासावसेसे चउत्थे अरए आसादसुद्धच्छट्टीए उत्तरफग्गुणीरिक्खे माहणकुंडम्गामे नयरे उसभदत्तमाणभारिआए देवाणंदाए कुच्छिसि सीह-गय-वसहाइच उद्दसमहासुमिणसंसइओ अवइन्नो । तत्थ बासीइदिणा तरं सकाइद्वेण हरिणेग मेसिणा आसोअबहुलतेरसीए तम्मि चेव रिक्खे खत्तियकुंडग्गामे नयरे सिद्धत्थ10 रण्णो देवीए तिसलाए गब्भविणिमयं काउं गब्भम्मि साहरिओ । माऊए सिणेहं नाउं सत्तममासे 'अम्मापिअरेहिं जीवंतेहिं नाहं समणो होहं' ति गहिअभिग्गहो, नवण्हं मासाणं अद्धट्टमाण इंदियाणं अंते चित्तसिअतेरसी अद्धरत्ते तम्मि चेव रिक्खे जाओ । अम्मापिऊहिं कयबद्ध माणनामो मेरुकंप- सुरखव्वण- इंदवायरणपयणपयड अवदाणो भुत्तभोगो, अम्मापिऊहिं देवत्तएहिं तीसं वासाई अगारवासे वसित्ता, संवच्छरिअं दाणं दाउँ, चंद पहाए सिबियाए एगागी एगदेवदूतेण मग्गसिरकसिणदसमीए तम्मि चैव रिक्खे छट्टेणं, अवरण्हे णायसंडवणे 15 निक्खंतो । वीर्यादिणे बहल विप्पेणं पायसेण पाराविओ । पंचदिव्वाई पाउब्भूआई । तो बारसवासाई तेरसपक्खे 8 अ नर-सुर-तिरियकओवसग्गे सहित्ता, उसी च तवं चरिता जंभियगामे उज्जुवालिआतीरे गोदोहिआसणेणं छट्टभत्तेणं तम्मि चेव रिक्खे वइसाहसुद्धदसमीए पहरतिगे केवलनाणं पत्तो । इक्कारसीए अ मज्झिमपावाए मह सेणवणे तिथं पट्टि । इंदभूइप्पमुहा गणहरा दिक्खिआ सपरिवारा । वयदिणाओ अ भयवओ बायालीसं चासाचउम्मासीओ जायाओ । तं जहा एगा अद्विअगामे, तिष्णि चंपा पिट्टीचंपासु, दुवालस वेसाली20 वाणिअम्गामेसु, चउद्दस नालंदा - रायगिहेसु, छ मिहिलाए, दो भहिआए, एगा आलभिया, एग पणिअभूमीए, एगा सावत्थीए । चरिमा पुण मज्झिमपावाए हत्थिसालरणो अभुजमाण सुकसालाए आसि । तत्थ आउसे जाणतो सामी सोलसपहराई देसणं करे | २. तस्थ चंदिमागओ पुष्णपालो राया अट्टहं सदिद्वाणं सुमिणाणं फलं पुच्छेइ । भयवं वागरेइ । ते अ इमे - पढमो ताव चलपासाए गया चिट्ठति । तेसु पडतेसु चेते न र्णिति, के वि गिंता वि तहा निग्गच्छंति, जह" -25 तप्पडणाओ विणस्संति । एयस्स सुमिणस्स फलं एवं दूसमगिहवासा चलपासायत्थाणीआ । संपयाणं सिणेहाणं निवासाणं च अधिरताओ । हं भो ! दुस्समाए दुप्पजीवी इच्चाइवयणाओ गया धम्मत्थी सावया । इयरपरसमयगिहस्थेहिंतो पाहाणतणेण ते अ गिहवासाए पडिहंति देसभंगाईहिं, तह वि निग्गंतुं न " इच्छिस्संति । वयगहणेणं जे वि णीहिंति ते वि अविहिनिग्गमणेणं । तओ ते विणिस्तिस्संति । गिहिसंकिलेसमझे आगया भग्गपरिणामा भविस्संति । विरला य सुसाहुणो होऊण आगमाणुसारेणं गिहिसं किलेसाई मज्झे आगए वि अवगणिऊण कुलीणत्तणेण निब30 हिस्संति त्ति पढम" सुवित्थ ॥ १ ॥ बीओ पुण इमो - बहवो वानरा तेर्सि मज्जे जूहाहिवइणो । ते अमिज्झेणं अप्पाणं विलिंपति, अन्ने विअ । तओ लोगो हसइ । ते भणति न एअमसुई गोसीसचंदणं खु एयं । विरला पुण वानरा य न लिंपति । ते अलित्तेहिं खिंसिज्जंति चि । एयस्स फलं पुण इमं - वानरत्थाणीआ गच्छिलगा । अप्पमत्तत्तेण चलपरिणामत्तेणं च । जूहाहिवई IP वोच्छं । 2 B सहो । 3 C सुणे 7 A चंपाए । 8ABD चंपासुं। 9 C क 4B 'समणी' नाखि । 5 A, B तीएसु; D तिसुए । 6A भाऊण 10AB तह 11 नास्ति 'न' । 12 A सुमिण' । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपापाबृहत्कल्पः । गच्छाहिवई आयरियाइयो । असुइविलेवणं तु तेर्सि आहाकम्माइसावजसेवणं । अन्नविलिंपणं च' अन्नेसि वि। तकारणलोगहसणं च, तेसिं अणुचिअपवित्तीए य वयणहीला ! ते भणिस्संति न एयं गरहियं, किं तु धम्मंगमेयं । विरला तदणुरोहेणावि न सावजे पयट्टिहिंति । ते य तेहिं खिसिजिहिंति, जहा-एए अवगीया, अकिंचिकरा य त्ति बीइअसुविणत्यो ॥२॥ तईओ पुण इमो-सच्छायखीरतरूणं हिढे बहवे सीहपोअगा पसंतरूवा चिट्ठति । ते य लोएहिं पसंसिर्जति । अहिगम्मति अ बब्बूलाणं च हिढे सुणग ति । फलं तु एयस्सेमं-खीरतरुत्थाणीयाणि साहूणं विहरणपाउग्गाणि खित्ताणि सावया वा साहूणं भत्तिबहुमाणवंता धम्मोवम्गहदाणपस सुसाहुरक्खणपरा य । ते य रुधिहिंति बहुगा सीहपोयगा निययावासि पासत्थोसन्नाई संकिलिट्ठत्तणओ अन्नेसिं 'गसणाओ अ । ते अप्पाणं जणरंजणत्थं पसंतं दरिसिहिति । तहाविहकोउहल्लिअलोगेहिं पसंसिजिहिंति अहिगम्मिस्संति अ तश्वयणकरणाओ । तत्थ य कयाइ केई धम्मसद्भुगा वेहारुग परिहारुगा' वा दूइति । ते अ तेसिं तब्भावियाणं च सुणगाइइ पडिहासिस्संति । अभिक्षण' सुद्धध-10 म्मकहणेणं भसंति त्ति । जेसु कुलेसु दूइज्जति ते बब्बूलसमा पडिहासिस्संति अवण्णाए । दूसमबसेण धम्मगच्छा सीहपोअगा इव भविस्सति ॥ ३ ॥ चउत्थो पुण एवं–के वि कागा वावीए तडे "तिसाए अभिभूआ मायासरं दटुं तत्थ गंतुं पयट्टा । केण वि निसिद्धा-न एयं जलं ति । ते असद्दहंता तत्थ गया विणट्ठा य त्ति । फलं तु इमं वावीत्थाणीआ सुसाहुसंतई । अइगंभीरा सुभाविअस्था उस्सगाववायकुसला । अगहिलगहिलो राया इइ "नाएण कालोचिअधम्मनिरया अणिस्सिओ- 15 वस्सिया । तत्थ कागसमा अइवंकजडा अणेगकलंकोवहया धम्मत्थी । ते अजयधम्म सद्धाए अभिभूआ | मायासरप्पाया पुण पुव्युत्तविवरीया धम्मचारिणो अईब कट्टाणुट्टाणनिरया वि अपरिणयत्ताओ अणुवायपयट्टत्ताओ अ कम्मबंधहेउणो । ते दटुं मूढधम्मिया तत्थ गच्छिहिंति त्ति केण वि गीयत्थेण ते भण्णिहिति" जहा न एस धम्ममग्गो, किंतु तदाभासोयं । तहावि ते असद्दहंता केइ" जाहिति विणिस्सिहिंति अ संसारे पडणेणं ! जे पुण तेसिं वयणेणं वाहिति ते अमूढधम्मसागा भविस्संति ति ॥४॥ पंचमो इमो-अणेगसावय गणाउले विसमे वणमझे सीहो मओ चिट्ठइ । न य तं को वि सिगालाई विणासेइ । कालेणं तत्थ मयसीहकडेवरे" कीडगा उप्पण्णा । तेहिं तं भक्खिों दटुं ते सियालाई उवद्दवंति त्ति । फलं तु-सीहो पवयणं परवाइमयदुद्धरिसत्ताओ। वणं पविरलसुपरिक्खगधम्मिअजणं भारहवासं। सावयगणा परतित्थिआई पवयणपञ्चणीआ । तेहि एवं मन्नंति-एयं पश्यणमम्हाणं पूआसक्कारदाणाई उच्छेअगरं । तो जहातहा फिट्टउ त्ति । विसमं अमज्झत्थजणसंकुलं । तं च पश्यणं मयं अइसयववगमेणं निप्पभावं भविस्सइ । तहावि पचणीया भएण न तं उवद्दवि-25 हंति । किर इत्थ परुप्परं संगई अस्थि सुट्टियत्तं च त्ति । कालदोसेणं तत्थ कीडगप्पाया पवयणनिद्धंधसमयंतरीयाई उप्यज्जिहिंति, ते य परुप्परं निंदणभंडणाई हिं सासणलाघवं जणिहिंति । तं दर्दू ते पञ्चणीया वि एएसि परुप्परं पि न मेलु ति धुवं निरइसेसमेयं पि त्ति निब्भयत्तेणं उबद्दविस्संति पवयणं ।। ५॥ छट्ठो पुण इमो-पउमागरा सरोवरगाई अपउमा गद्दमगजुआ वा । पउमा पुण उक्कुरुडियाए ते वि विरला न तहा रमणिज्ज त्ति । फलं तु-पउमागरस्थाणीयाणि धम्मखित्ताई सुकुलाई वा । तेसु न पउमाई धम्मपडिवत्तिरूवाई । 30 1A C नास्ति 'च'। 2 A B Pe नियावासि1 3 BCP संकिछत्तण 1 4 Pe गमणा। 5 P °समृगा; C सट्टगा। 6 B Pa-c बेहारुगा। 7 P नास्ति पारेहारुगा। 8 P इज्जति । । दण्डान्तर्गता पंक्तिः पतिता A प्रती। 9AC नास्ति 'बबूलसमा'; Pa-c बबूल ति। एतदन्तर्गतः पाठः नास्ति Pa प्रतौ। 10 E तेसि । 11 A रायाइ नाएण; Pइय ना। 12 C धम्मत्था। 13A धम्म। 14 B भणिहिति। 150 केय 1 16 ABP सावया । 17 B कलेवरे । 18 A BD जण। 19 Bएहि। 20A B एवं। 21 CE बुच्छेय। 22 Pc सरोवरमाईओ। 23 P रमणिज्ज । 20 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकरूपे साहु-सावयसंघा' वा । जे वि धम्मं पडिवज्जिहिंति ते वि कुसीलसंसम्गीए लुलिअ परिणामा भविस्संति । 'उक्कुरुडिया पच्चंतवित्ता नीयकुलाई वा तेसिं धम्मो पयट्टिस्सइ । ते वि अड्डाणुप्पत्तिदोसाओ लोएणं खिंसिज्जमाणा ईसाइदोसदुतेण न सकज्जं साहिस्संति त्ति ॥ ६ ॥ ३६ सतमो इमो को विकरिसगो 'दुबियो दढघुणक्खयाई पारोह अजुग्गाई बीयाई सम्मं बीआई मन्नतो किणित्ता 5 य खित्तेसु ऊसराइसु पयरइ । तम्मज्झे' समागयं विरलं सुद्धबीयं अवणेइ सुखित्तं परिहरइ ति । एयरस फलं इमं - करिसगत्थाणीया दाण-धम्मरुई । ते य° दुबियड्डा जाणगं मन्ना अप्पा उग्गाणि वि संघभत्ताइदाणाणि पाउरगाणि मन्नता; ताणि वि अपत्सु दाहिंति । इत्थ चउमंगी । एगो सुद्धो अप्पाउग्गमज्झे किंचि सुद्धं देयं भवइ तं अवणेहिंति । सुपत्तं वा समागयं परिहरिस्सति । एरिसाणि दाणाणि दायमा ग्राह्गा य भविस्संति । अन्नहा वा वक्खाणं- अबीया असाहुणो ते वि साहुबुद्धीए दुबियड्डा गिहिस्संति । अठाणेसु अविहीए अ ठाविस्संति। जहा दुबियड्डो कोइ करिसओ 10 अवीयाणि वि बीयाणि, बीयाणि वि अबीयाणि मन्नतो तहा ठवेइ तत्थ वा ठवेइ, जहा जत्थ य 'कीडगाइणा खज्जंति, 'चोप्पडाइणा या विणस्संति । अन्नहा वा परोहस्स अपलाणि भवंति । एवं अयाणगधम्मसद्धिआ पचाणि वि अविहिअबहुमाण- अभत्तिमाईहिं तहा करिस्संति जहा पुन्नपसवं' अक्खमाई होहिंति ॥ ७ ॥ अमो अ एसो - पासायसिहरे खीरोदभरिआ सुत्ताइ अलंकिय' गीवा कलसा चिट्ठति । अन्ने य भूमीए बोडा उगालसयकलिआ । कालेण ते सुहकलसा नियठाणाओ चलिआ बोडयघडाणं उवरिं पडिया वे विभग्ग चि । फलं 15 तु - कलसत्थाणीया सुसाहुणो । पुवं उम्गविहारेण विहरंता पुज्जा होऊण कालाइदोसओ नियसं जमठाणाओ टलिया उसन्नीभूया सीयलविहारिणो पायं भविस्संति । इयरे पुण पासत्थाई भूमिट्टिया " चेव" भूमिरयउगालप्पायअसं जमाणसयकलिया बोडघडप्पाया निसन्नपरिणामा चेव होहिंति । ते य सुसाहुणो टलता अन्नविहारखित्ताभावाओ " बोडघड"कप्पाणं पासत्थाईणं उवरि पीडं करिस्संति । ते य सखित्तअकमणेणं पीडिया संता निद्धंधसत्तेण सुदुयरं तेर्सि संकिलेसा य होहिंति । तो परुप्परं विवायं कुणता वेवि संजमाओ भंसिस्संति । इक्के तवगारविया अन्ने सिढिला सधम्मकिरियासु । मच्छरवसेण दुण्णि वि होहिंति अपुट्टधम्माणो ॥ ४ ॥ केइ पुण अगहिलगहिलराय " अक्खाणगविहीए कालाइदोसे वि अप्पाणं निव्वाहइस्संति । तं च अक्खाणयमेवं पनवंति पुब्वायरिया -पुत्रिं किर पुहवीपुरीए पुण्णो नाम राया । तस्स मंती सुबुद्धी नाम । अन्नया लोग देवो नाम नेमित्तिओ आगओ । सोय सुबुद्धिमंतिणा आगमेसिकालं पुट्ठो | तेण भणिअं - मासाणंतरं इत्थ जलहरो वरिसिस्सइ । तस्स जलं जो पाहिइ, सो सबो वि गहग्घत्थो भविस्सइ । कित्तिए वि काले गए सुवुट्टी भविस्सइ । तज्जलपाणेण पुणो 25 जणा सुत्थी भविस्संति । तओ मंतिणा तं राइणो विन्नतं । रन्नावि पडहम्पोसणेण वारिसंगहत्थं जणो आइट्ठो । जणेणावि तस्संगहो कओ । मासेण वुट्टो मेहो । तं च संगहिअं नीरं कालेण निविअं । लोएहिं नवोदगं चेव पाउमादत्तं । तओ गहिलीभूआ सत्रे लोआ सामंताई अ गायंति नच्चंति सिच्छाए विचिते" । केवलं राया अमो अ संगहिअं नलं न निट्टियं ति ते चेव सुत्था चिति । तओ सामंताईहिं विसरिसचिट्ठे राय- अमचे निरिक्खिऊण परुप्परं मंतियं; जहा -- गहिल्लो राया मंती य । एए अम्हाहिंतो विसरिसायारा; तओ एए अवसारिऊण अवरे " अप्पतु90 लायारे रायाणं मंतिणं च ठाविसामो । मंती उण तेसिं मंतं नाऊण राइणो विष्णवे । रण्णा वुतं -कहमेपहुंतो अप्पा रक्खि अबो ! | विंदं हिं नरिंद्रतुलं हवइ । मंतिणा भणिअं - महाराय ! अगहिलेहिं पि अम्हेहिं गहिल्लीहोऊण हाय, न अन्ना मुक्खो । तओ कित्तिमगहिलीहोउं ते रायामश्वा तेसिं मज्झे नियसंपयं रक्खंता चिट्ठति । तओ ते 20 । IE संघो । 2 B लुभि 3 BE उक्करु । 4 B नास्ति 'न' । 0 एतदन्तर्गतः पाठः पतितः P प्रतौ । 5 Pe मज्झे । 6 Pc मीडगा । 7 P चुप्पडा । 8P C पसव° । 9 B C अलंकियं । 10-11 C नास्त्येतच्छदद्वयम् 1 12 P भावओ 13 E ° घडे । 14PCE अगहिवराय । 15 P विचिति । 16 अप्पउला । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 अपापाबृहत्कल्पः । सामंताई तुट्ठा । अहो ! रायामच्चा वि अम्ह सरिसा संजाय त्ति उवाएण तेण तेहिं अप्पा रक्खिओ । तओ कालंतरेण सुहवुट्टी जाया । नवोदगे पीए सबे लोगा पगइमावन्ना सुस्था संवुत्ता । एवं दूसमकाले गीयत्था कुलिंगीहिं सह सरिसीहोऊण वटुंता अप्पणो समयं भाविणं पडिवालिंता अप्पाणं निबाहइसति । एवं भाविदूसमविलसिअसूयगाणं अट्ठण्हं सुमिणाणं फलं सामिमुहाओ सोऊण पुण्णपालनरिंदो पवइओ सिवं गओ। ३. एयं च दूसमासमयविलसि लोइआवि कलिकालयवएसेणं पण्णविति; जहा-पुधि किर दावरजुगउप्पन्नणं रण्णा जहडिलेणं रायवाडिआगएणं कत्थ वि पएसे वच्छिआए हिढे एगा गावी थणपाणं कुणंती दिट्ठा । तं च अच्छेरयं दट्ठण राइणा दियवरा पुट्ठा-किमेयं ति ? । तेहि भणिअं-देव! आगामिणो कलिजुगस्स सूयगमेयं । इमस्स अब्भुअस्स फलमिणं-कलिजुगे अम्मापिअरो कण्णयं कस्स वि रिद्धिसंपन्नस्स दाउं तं उवजीविस्संति, ततो दविणगहणाइणा । तओ अग्गओहुत्तं पस्थिएण पत्थिवेण सलिलवीसालियबालुयाए रज्जुओ वलंता के वि दिट्ठा । खणमित्रेण ताओ 10 रज्जुओ वायायव संजोएण मुसुमूरिआ । तओ महीवइणा पुच्छिएहिं भणिअं दिएहि-महाराय ! एयस्स फलं, जं दविणं किच्छवित्तीए लोया विढरसंति, तं कलिजुगंमि चोरम्गिरायदंडदाइएहिं विणिस्सिहइ । पुणरवि अग्गओ चलिएणं धम्मपुत्तेणं दिटुं आवाहाओ पलट्टियं जलं कूवे पडतं । तत्य वि वुत्तं माहणेहि-देव | जं दवं पयाओ असि-मसि-किसि-वाणिज्जाई हिं उवजिहिंति तं स रायउले गच्छिहि त्ति । अन्नजुगेसु किर रायाणो नियदत्वं दाऊणं लोयं सुडिअं अकरिंसु । पुणो पुरओ वच्चंतेणं निवइया रायचंपयतरू अ समीतरू' अ एगमि पएसे दिवा । तत्थ समीपायवस्स 15 वेइआबंधमंडणगंधमल्लाइपूआ गीयनट्टमहिमा य जणेण कीरमाणी पलोइआ । इअरस्स तरुणो छत्तायारस्स वि ममहिअकुसुमसमिद्धस्स वि वत्तं पि को वि नवि पुच्छइ त्ति । तस्स फलं वक्खाणियं विप्पेहिं; जहा-गुणवंताणं महप्पाणं सज्जणाणं न पूआ भविस्सइ, न य रिद्धी । पाएणं निग्गुणट्टाणं पावाणं खलाणं पूआ सकारो इड्डी अ कलिजुगे भविस्सइ । मुजों पुरो पट्टिएणं राइणा दिट्ठा एगा सिला सुहुमच्छिद्दबद्धवालग्ग आलंबणेणं अंतरिक्खडिआ। तत्थ वि पुढेहिं सिहं सुत्तकंठेहिं; जहा-महाभाग ! कलिकाले सिलातुल्लं पावं विउलं भविस्सइ । वालग्गसरिसो धम्मो पयट्टिही । परं तित्ति-20 यस्स वि धम्मस्स माहप्पेणं कंचि कालं नित्थरिस्सइ लोओ। तम्मि वि तुट्टे सवं बुडिस्सइ । दूसमाए' पुबसूरिहिं पि लोइयाविक्खाए कलिजुगमाप्पमित्थं साहियं'कूवा वाहाजीवण-तरुफलयह-गाविवच्छधावणया । लोहविवज्ज(च)यकलिमल-सप्पगरुडपूअपूआ य ॥१॥ हत्थंगुलिदुग घट्टण-गय-गद्दभ-सगड-वालसिलधरणं । "एमाई आहरणा" लोयंमि वि कालदोसेणं ॥ २॥ जयघरकलहकुलेयरमेराअणुसुद्धधम्म पुढविठिई । वालुगवकारंभो एमाई आइसद्देण ॥ ३ ॥ 25 कलिअवयारे किल निजिएसु चउसुंपि पंडवेसु तहा । भाइवहाइकहाए जामिगजोगंमि कलिणाओ ॥१॥ तत्तो जुहिडिलेणं जियंमि ठइयंमि दाइए तंमि । एमाई अटुत्तरसएण सिट्ठा नियठिइ ति ॥ ५ ॥ एयासि गाहाणं अत्थो-कूवेण आवाहो उवजीविस्सइ । राया कूवत्थाणीओ, सबेसिं बंभ-खत्तिअ-वइस-सुदाणं भरणीयत्तणेण आवाहतुल्लाणं, कलिजुगदोसाओ अत्थम्गहणं करिस्सइ ॥१॥ तहा तरूणं फलनिमित्तो वहो छेओ भविस्सइ । फलतुल्लो पुत्तो तरुतुल्लस्स पिउणो वहम्पायं उद्देगं धणपत्तलेहणाइणा 30 उप्पाइस्सइ ॥ २॥ वच्छियातुल्लाए कण्णाए विक्कयाइणा गोतुल्ला जगणी धावणतुलं उवजीवणं करिस्सइ ॥ ३ ॥ 1BC वायाइव। 2 BC धम्मपुत्तिण। 3 BCP आहावाओ; E आहावा याओ। 4 पतितमेतत्पदं C भादशैं। 5C भुजो। 60 छिड़वालग्ग17ACE दूसमसूसमाए; PD Pc दूसमदूसमाए। 8CDP कूआ । 6E °दूग। 10P इयमाई। 11 BCE आहारणा; D आहाराण। 12 F°सुधम्म । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे लोहमई कडाही तिस्सा विचासो सुगंधितिल्लघयपागउचिआए कलिमलस्स पिसियाइणो पागो हविस्सइ । सजाइवग्गपरिहारेण अनालबद्धेसु परजणेसु अस्थदाणं भविस्सइ ति भावो ॥ ४ ॥ सप्पसरिसेसु निद्दएस धम्मवज्झेसु दाणाइसक्कारो, गरुडप्पाएसु पुज्जेसु धम्मचारिसु अपूया य भविस्सइ ।। ५ ॥ हत्थस्स अंगुलिदुगेण घट्टणं ठवणं भविस्सइ । हत्थ तुल्लस्स पिउणो अंगुलिदुगतुल्लेहिं बहुपुत्तेहिं जयघर करणाओ 5 घट्टणं नाम लोओ भविस्सइ ॥ ६॥ गयवोढवं सगडं गद्दभवोढवं भविस्सइ । गयत्थाणीएसु उच्चाकुलेसु मज्जायसगडवाहणोचिएसु कलहों नायलो वा भविस्सइ । इयरेसु नीयकुलेसु गद्दभत्थाणीएसु मेरा नीई भविस्सइ ।। ७ ।। ___ वालबद्धा सिला धरिस्सइ ठाइस्सइ, अणुंमि सुहुमयरे बालप्पाए सुद्धधम्मे सत्थाणुसारिणि', सिलातुल्लाए पुढवीए तन्निवासिलोअस्स ठिई निवर्ण भविस्सइ ॥ ८॥ 10 जहा वालुआए वको तया गहिउँ न तीरइ, एवं आरंभाओ वि वाणिज्ज-किसि-सेवाई आओ विसिटुं पयासाणुरूत्रं फलं न पाविस्सइ ॥ ९॥ सेसगाहादुगत्थो कहाणय'गम्मो । तं चेम-किल पंच पंडवा दुजोहण-दूसासणाइभाउयसए कपण-गां. गेय-दोणायरिएसु अ संगामसीसे निहए, सुचिरं रजं परिवालिअ, कलिजुगपवेसकाले महापहं पट्टिआ कत्थ वि वणुद्देसे पत्ता । तओ रत्तीए जुहिट्ठिलेण भीमाइणो पइपहरं पाहरीअत्ते निरूविआ। तत्तो सुत्तेसु धम्मपुत्ताइसु 15 पुरिसरूवं काउं कली भीममुवट्टिओ; अहिक्खित्तो य तेण भीमो-रे भाउअ-गुरु-पिआमहाइणो मारित्ता संपइ धम्मत्थं पट्टिओ तुम, ता केरिसो तुह धम्मो ? । तओ भीमो कुद्धो तेण सह जुझिउमारद्धो । जहा जहा भीमो जुज्झइ तहा तहा कली वड्डइ । तओ निजिओ कलिणा भीमो । एवं बीयजामे अज्जुणो, तइअ-चउत्थजामेसु नकुलसहदेवा तेण अहिक्खित्ता, रुद्वा निजिया य । तओ सावसेसाए निसाए उट्टिए जुहिडिले जुज्झिउं दुको कली। तओ खंतीए चेव निजिओ कली रणा संको'ने सरावमझे ठविओ । पभाए य भीमाइणं दंसिओ-एस जो जेण तुम्हे 20 निजिआ । एवमाईणं दिटुंताणं अद्रुत्तरसएण महाभारहे वासेसिणा कलिट्ठिई दसिय ति । अलं पसंगेण । ६४. तओ गोअमसामी जाणगपुच्छं पुच्छेइ-भयवं ! तुम्ह निव्वाणाणंतरं किं किं भविस्सइ ? । पहुणा भणियं-गोयम ! मम मुक्खगयस्स तिहिं यासेहिं अद्धनवमेहिं अ मासेहिं पंचमअरओ दूसमा लग्गिस्सह । मह मुक्खगमणाओ वासाणं चउसठ्ठीए अपच्छिमकेवली जंबूसामी सिद्धं गमिही । तेण समं मणपज्जवनाणं, परमोही, पुलायलद्धी, आहारगसरीरं, खेवगसेढी, उवसामगसेढी, जिणकॅप्पो, परिहारविसुद्धि-सुहुमसंपराय-अहसायचारित्ताणि, 25 केवलनाणं, सिद्धिंगैमणं च त्ति दुवालसठाणाई भारहेवासे "वुच्छिजिहिंति ।। अजसुहम्मप्पमुहा होहिंति जुगप्पहाण आयरिया । दुप्पसहो जा सूरी चउरहिआ" दोण्णि अ सहस्सा ॥१॥ सत्चरिसमहिए वाससए गए थूलभदंमि सग्गट्टिए चरमाणि चत्तारि पुवाण, समचउरंसं संठाणं, वरिसहनारायं संघयणं, महापाणज्झाणं च "वुच्छिजिहिइ । वासपंचसएहिं अज्जवयरे दसमं पुवं, संघयणचउक्कं च अवगच्छिही। 80 महमुक्खगमणाओ पालय-नंद चंदगुत्ताइराईसु वोलीणेसु चउसयसत्तरेहिं विक्कमाइचो राया होही । तत्थ सट्टी वरिसाणं पालगन्स रज्जं; पणपण्णं सयं नंदाणं; अट्ठोत्तरं सयं मोरियवंसाणं; तीसं पूसमित्तस्स; सट्ठी 1E नास्त्येतत्पदम् । 2C जयगघर। 8 P काहलो। 4 A BE°वुढा । 5C सारिण। 6P B D तिनि । 7 BCD कहणाय। 8 B°भावु, CE °भाउ°19 BCE जुहिट्ठलेण। 10 BPa नास्ति पदमिदम् ; E हृणिः । 11 P संकोदों। 12 Pa नेअं; P नास्ति । 18 B सो; P भो; Pa सोम । 14 B उच्छिजि। 15E चउरसहिआ। 16 Bउच्छि। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपापानृहत्कल्पः । ३९ बलमित्त भाणु मित्ताणं; चालीसं नरवाहणस्स; तेरस गद्दभिल्लास; 'चचारि सगस्त । तओ विक्रमाइचो । सो साहिअसुवण्णपुरिसो पुहविं अरिणं कार्ड नियं संवच्छरं पवत्तेही । तह गद्दभिल्लरजस्स० हेयगो कालगायरिओ होही । तेवण्णचउसएहिं गुणसयकलिओ सुअपरतो ॥ १ ॥ दूसमाए वड्डूमाणीए नयराणि गामभूआणि होहिंति । मसाणरूवा गामा; जमदंडसमा रायाणो; दासप्पाया कुडुंबिणो; लंचगहणपरा निओगिणो; सामिदोहिणो भिच्चा ; कालरत्तितुल्लाओ सासूओ; सप्पिणितुलाओ बहूओ; निल्लज्जया - 5 कडक्खपिक्खिआई हिं सिक्खि अवेसाचरियाओ कुलंगणाओ; सच्छंदचारिणो पुता य सीसा य; अकालवासिणो कालअवासि य मेहा; सुहिआ रिद्धिसम्माणभायणं च दुज्जणा; दुहिआ अवमाणपतं अप्पिडिया य सज्जणा; परचक्कडमरदुब्भिक्खदुक्खिआ देसा; खुद्द सत्तबहुला मेइणी; असज्झायपरा अत्थलुद्धा य विप्पा, गुरुकुलवासचाइणो मंदधम्मा कसायकलुसिअमणा 'समणा; अप्पबला सम्मद्दिट्टिणो 'सुनरा; ते चैव पउरबला मिच्छद्दिट्टिणो होहिंति । देवा न दाहिंति दरिसणं । न तहा फुरंतपहावा विज्जामंता य' । ओसहीणं गोरस - कप्पूर-सकराइदषाणं च रस- वण्ण-गंधहाणी 110 नराणं बल - मेहा-आऊणि हाइस्संति । मासकप्पाइपाओग्गाणि वित्ताणि न भविस्संति । पिडिमारूवो सावयधम्मो बुच्छिज्जिहि । । आयरिया वि सीसाणं सम्मं सुखं न दाहिंति । कलहकरा डमरकरा असमाहिकरा अनिव्वुइकरा य । होहिंति इत्थ समणा दससु वि क्खितेसु सयराह ॥ १ ॥ ववहारमंतर्तताइएसु निश्च्चज्जयाण य मुणीणं । गलिहिंति आगमत्था अणत्थलद्वाण तद्दियहं ॥ २ ॥ उबगरणवत्थपत्ताइयाण बसहीण सङ्ख्याणं च । जुज्झिस्संति करणं जह नरवइणो कुटुंबीणं ॥ ३ ॥ किंबहुणा । बहवे मुंडा अप्पे समणा होर्हिति । पुत्रायरियपरंपरागयं सामायारिमुत्तूण नियगमइविगप्पियं सामायारिं सम्मं चारितं ति क्खाविंता तहा विहं मुद्धजणं मोहंमि पाडिता उस्सुतभासिणो अप्पथुई परनिंदापरायणा य केई होर्हिति । बलवंता मिच्छनिया अप्पबला हिंदुअनिया भविस्संति । J 15 १५. जाव एगूणवीसाए सप्सु चउदसाहिएसु वरिसेसु चइक्कंतेसु चउदससयचोआले विकमवरिसे पाडलिपुत्ते नगरे चित्तसुद्ध मीए अद्धरते विट्ठिकरणे मयरलम्गे वहमाणे जसस्स मयंतरे " मगदणभिधाणस्स गिछे 20 जसदेवीए उपरे चंडालकुले कविरायस्स जम्भो हविस्सइ । एगे एवमाहंसु - ० एतदन्तर्गतः पाठः पतितः B आदर्श । 1 PE कुटंबिणो । 2 E बिना नास्त्यन्यत्रैतत्पदम् । 3P दुहिआ। 4 P दुक्ख° । 5 पवितं E प्रतौ। 6 BCE सुरनरा | 7 'य' नास्ति APC + एतद्वाक्यं नास्ति E आदर्शे । 8 D सुराहं । 9 D तद्दिया । 10 P मगदश; D मगदरारा; Pa मगद | 11 B बत्तीस मे । * अत्रान्तरे E सञ्ज्ञके आदर्श निम्नलिखिता गाथा अधिका लभ्यन्ते [ पंच ] य मासा पंच य चासा छचैव हुँति वाससया । परिनिव्वुअल्स अरहओ तो उप्पन्नो सगो राया ॥ १ पत्तोपंत कुलमि य चित्ते सुदिट्ठमी दिवसंमि । रोद्दोवगए चंदे बिट्ठीकरणे रविस्सुदए । २ अम्मोदगए सूरे सजिच्छरे विण्देवयगए य । सुके भोमेण इए चंदेण हुए सुरगुरुंनि ॥ ३ ससिसूरत्थमर्णमि य समागमे ति ( त ?) त्थ एगपक्खमि । सत्तरिसयचक्कपमद्दए अधूमधूमए अ केमि ॥ ४ तइआ पडणं भवणस्स जम्मनयराई रामकन्हाणं । घोरं जगक्त्रयकरं पडिबोददिणे य विणस्य ॥ ५ इति दित्थ (त्यो ) ग्गालियसिद्धांते । अट्ठवीसाए मासेहिं होही चंडालकुलमि कक्किनियो । वीराओ इगुणवीसं सएहिं वरिसाण अट्ठवीसाए । पंचमासेहिं * होही चंडालकुलमि कक्किनियो । I तस्स तिन्नि नामाणि भविस्संति । तं जहा रुद्दो, कक्की, चउम्मुहो अ । तस्स जम्मे महुराए राममहुमहणभवणं कत्थवि गूढं चिह्माणं तं पडिस्सह । दुब्भिक्खडमररोगेहिं च जणो पीडिज्जिहिइ । अट्ठारसमे रिसे कचिअप कक्किणो रज्जाभिसेओ भविस्सइ । जगमुहाओ नाउं नंदरायस्स सुवण्णं थूभपंचगाओ सो 25 गिहिस्सइ | चम्मयनाणयं पवत्तिस्सइ । दुट्टे पालिस्सइ, सिट्टे य निग्गहिस्सइ । पुहविं साहित्ता छत्तीसइमे" वरिसे तिखं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विविधतीर्थकल्पे डमरहाहिवई भविस्सइ । सघऔ खणित्ता खणित्ता निहाणाणि गिहिस्सइ । तस्स भंडारे नवनवइसुवण्णकोडिकोडीओ, चउद्दससहस्सा गयाणं, सत्तासीइ लक्खा आसाणं, पंचकोडीओ पाइकाणं हिंदुअतुरुक्ककाफराणं । तस्सेव एगच्छत्वं रजं । दविणत्थं रायमग्गं खाणितस्स पाहाणमई लवणदेवी नाम गावी पयडीहोऊण गोयरचरियागए साहुणो सिंगेहिं घट्टिस्सइ । तेहिं पाडिवयायरियस्स कहिए, इत्थ पुरे जलोवसग्गो धणियं होहि ति तेहिं आइसिसति । तओ के वि 5 साहुणो अन्नत्थ विहरिस्सति । के वि वसहीपडिबंधाइणा अहिंति तम्गणत्थं । पयडीभविस्संति सत्तरसाहवुट्टीए सवत्थ निहाणाणि । तओ गंगाए पुरं समग्गं पि पलाविज्जिही । राया संधो अ* उत्तरदिसिट्टियं महल्लत्यलं आरुहिम छुट्टिस्संति । राया तत्थेव नवं नगरं निवेसिस्सइ । सन् विपासंडा तेण दंडिज्जिहिंति । साहूणं सगासाओ भिक्खाछलंसं मग्गंतो काउस्सग्गाहू असासणदेवयाए निवारिजिही । पंचासं वरिसाइं सुभिक्खं । दम्मेण कणाणं दोणो लब्भिहिइ । एवं निकंटयं रज्जमुव जित्ता छासीइमे वरिसे पुणो सबपासंडे दंडित्ता सवं लोअं निद्धणं काउं भिक्खाछटुंसं साहूहितो 10 मग्गेहिइ । ते अं अदिते कारागारे खिविस्सइ । तओ पाडिवयायरियपमुहो संघो सासणदेविं मणे काउं काउस्सम्गे ठाही । तीए वि विबोहिओ जाव न पण्णप्पिहइ, तओ आसणकंपेण नाउं माहणरूवो सक्को आगमिस्सइ । जया तस्स वि वयणं न पडिवज्जिहिइ तया" सकेण चवेडाए आहओ मरिउं नरए गमिस्सइ । तओ तस्स पुत्तं धम्मदत्तं नाम रज्जे ठविस्सइ । संघस्स सुत्थयं आइसिय सट्टाणं सको गमिही । दत्तो य राया बावत्तरिवासाऊ पइदिणं जिणचेइयमंडियं महिं काही; लोगं च सुहिअं काहि त्ति । दत्तस्स पुत्तो जियसत्त । तस्स वि"य मेहघोसो। 15 कक्किअणंतरं महानिसीहं न वट्टिम्सइ । दोवाससहस्सठिइणो" भासरासिम्गहस्स पीडाए नियत्ताए य देवावि दंसणं दाहिति । विज्जा मंता य अप्पेण वि जावेण पहावं दंसिसति । ओहिन्नाण-जाइसरणाई भावा" य किंचि पयट्टिस्संति । तदणंतरं एगूणवीससहस्साई जाव जिणधम्मो वहिस्सई" । दूसमपजते बारस“वारिसिओ पवइय-दुहत्थूसियतणू दसवेयालिआगमधरो अद्भुट्टसिलोगप्पमाणगणहरमंतजावी छट्टउक्किद्रुतवो दुप्पसहो नाम आयरिओ चरमजुगप्पहाणो अट्टवासाइ सामण्णं पालित्ता वीसवरिसाऊ अट्ठमभत्तेणं कयाणसणो सोहम्मे कप्पे पलिओवमाऊ सुरो एगावयारो उप्प20 जिहिह । दुप्पसहो सूरी, फरगुसिरी अज्जा, नाइलो सावओ, सच्चसिरी साविया-एस अपच्छिमो संघो पुषण्हे भारहे वासे अस्थमेहिइ । मज्झण्हे विमलवाहणो राया, सुमुहो मंती । अवरण्हे अम्गी । एवं च धम्म-रायनीइ-पागाईणं वुच्छेओ होहिह" 1 एवं पंचमो अरओ दूसमा सम्पुण्णा ।। ६. तओ "दूसम-दूसमाए छट्टे अरए पयट्टे "पलयवाया वाइम्सति । वरिसिम्सति विसजलहरा । तवस्सइ बारसाइच्चसमो सूरो। अइसीयं मुंचिस्सइ चंदो। गिंगा-सिंधूभयतडेसु वेयड्ढमूले बाहत्तरीए बिलेसु छक्खंडभरहवासियो 25 नरतिरिआ वसिस्संति । वेयगुआरओ पुधावरतडेसु गंगाए नवनव विलाई । एवं वेयड्डपरओ वि । एवं छत्तीस। एमेव "सिंधूए वि छत्तीसं ! एगते बावत्तरि बिलाई । रहपहमित्त पवाहाणं गंगा-सिंधूणं जले उप्पण्णे मच्छाई ते बिलवासिणो रति कढिरसंति । दिवा तावभएण निग्गंतुमक्खमा । सूरकिरणपक्के ते रयणीए खाहिति । ओसहि-रुक्ख-गामनगर-जलासय-पक्चयाईण वेयड्ढउसभकूडवज* निवेसट्टाणं पि न दीसिहिइ । छवासइत्थीओ गभं धारिस्सति । सोलसवासाओ नारीओ, बीसवासाओ नरा पुत्त-पपुत्ते दिच्छंति । हत्थसमूसिआ काला कुरुवा उग्गकसाया नग्गा पायं 30 नरयगामी बिलवासिणो एगवीसं वरिससहस्साइं" भविस्संति । एवं छट्टे अरए ओसप्पिणीए समत्ते, उस्सप्पिणीए 1B D Pa हिंदुव। 2 PE धारणिय; Pa ध...णियं । 3 P पलाविही। 4 नास्ति DJ 5 Pa नव । 6 B वारि। 7 B P D नास्ति 'अ'। एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता P आदर्शे। 8 Pa नास्ति 'वि'। 9 Ph. पीडाए संघस्स। 10GPa सुत्थणं। 11 Pa चिय; D चय। 12 BP Pa ठिदणा। 13 Pa भावाई। 14 P बहिस्सए। 15 B वारतिओ। 16 ) पागाणं। 17 P होहि ति। 18-19 एतस्पदद्वयं नास्ति P प्रतौ। 20 E नास्ति 'दूसम'। 21 B अरए य पायवावा । एतदन्तर्गतं वर्णनं नास्ति P आदर्श। 22P गंगासिंधूए। 23 B रहमित्त; P रहपमित्त। 24 'व' नास्ति P1 25 B P दच्छति। 26 B पाय; P पर्य। 27 B D Pa एगवीससहस्साई । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपापाबृहत्कल्पः । ४१ वि' पढमे अरए एसा चैव वत्तत्रया । तंमि वोलीणे वीयारयपारं मे सत्ताहं सत्ताहं पंच मेहा भारहे वासे वासिस्संति कमेणं । तं जहा-पढमो पुक्खरावत्तो तावं निघावेहिई' । बीओ खीरोदो धन्नकारी । तईओ 'ओओ नेहकारओ । arret अमओओ ओसहीकरो । पंचमो रसोदओ भूमीए रससंजणणो । ते य बिल्वासिणो पइसमयं चमाणसरीराऊ पुढविं' सुहं दट्ठूण बिलेहिंतो निस्सरिस्सति । धन्नं फलाई भुंजंता मंसाहारं निवारइस्संति* । तओ मज्झदेसे सत्त कुलगरा भविस्संति । तत्थ पढमो विमलवाहणो । बिईओ सुदामो । तईओ 5 संगओ । चत् सुपासो । पंचमो दत्तो । छट्टो सुमुहो। सत्तमो संमुची । जाइसरणेणं विमलवाहणो नगराइनिवेसं काही । अग्गिमि उप्पन्ने अन्नपागं सिप्पाई कलाओ लोगववहारं च सवं पवत्तेही । तओ इगुणनवइपक्खसमब्भहिए उस्सप्पणी अरयदुगे व कंते पुंडवद्धणदेसे सयद्दारे पुरे संमुइनरवइगो भद्दाए देवीए चउद्दसमहासुमिणसूइओ सेणियरायजीयो रयणप्पभाए लोलुबुद्धयपत्थडाओ चुलसीई वाससहस्साई आउं पालित्ता उव्वट्टो समाणो कुच्छिसि पुत्तताए उववज्जिहिद्द' । वण्णप्पमाण- लंछण-आऊणि गब्भावहारवज्जं पंचकल्लाणयाणं मास तिहि नक्खत्ताईणि य जहा 10 मम तहेव भविस्संति । नवरं नाणं पउमनाहो, देवसेणो, विमलवाहणो अ । तओ बीयतित्थयरों सुपासजीव सुरदेवो ! तईओ उदाइजीवो सुपासो | चउत्थो पोहिलजीवो सयंपभो । पंचमो दढाऊजीवो सव्वाणुभूई । छडो कतिअजीवो देवस्सुओ । सत्तमो संखजीवो दओ । अट्टमी आनंदजीवो पेढालो । नवमो सुनंदजीवो पोहिलो | दसमो सयगजीवो सयकित्ती । एगारसमो देवइजीवो मुणिसुब्वओ | बारसो कण्हजीवो अममो । तेरसमो सञ्चाइजीवो निक्कसाओ । चउद्दसो बलदेवजीवो निप्पुलाओ | 15 पण्णरसो खुलसाजीवो निम्ममो । सोलसमो रोहिणिजीवो चित्तगुत्तो । केई पुण भति-कक्किपुतो दत्तनामो, पण्णरस-तिउत्तरे विक्कमवरिसे, सेतुजे उद्धारं कारित्ता जिणभवणमंडिअं च वसुहं काउं अज्जियतित्थयरनामो सग्गं तुं चित्तत्तो नाम जिणवरो होहि त्ति । इत्थ य बहुसुअसंमयं पमाणं । सत्तरसो रेवइजीवो समाही । अट्ठारसो सयालि जीवो संवसे । एगूणवीसो' दीवायणजीवो जसोहरो । बीसइमो कण्णजीवो विजओ । एगसोनारयजीव मल्लो | बाबीसइमो अंबडजीवो देवो । तेवीसइमो अमरजीवो अनंतवीरिओ । चउ-20 वीसमो "सायबुद्धजीवों" भद्दकरो । अंतरालाई पच्छाणुपुबीए जहा वट्टमाणजिणाणं भाविचकवट्टिणो दुवालस होहिंति । तं जहा दीहदंतो, गूढदंतो, सुद्धदंतो, सिरिचंदो, सिरिभूई, सिरिसोमो, पउमो, नायगो, महापडमी, विमलो, अमलवाहणो, अरिट्ठो अ । नव भाविवासुदेवा । तं जहा - नंदी, नंदिमित्तो, सुंदरबाई, महाबाहूं, अइबलो, महाबली, बैलो, दुबिंदू, तिविहूं अ । नव भाविपडिवासुदेवा । जहा - -तिलओ, लोहजंघा, वज्जजंधो, कैंसरी, बैली, पहराओ, अपराजिंओ, "भीमो, 25 सुग्गीओ | नव भाविबलदेवा । जहा जयंती, अजिओ, धम्मो, सुप्प भो, सुदंसणी, आनंदी, नंदणी, पडमी, संकरिसणी य । इगसट्टी सलागापुरिसा उस्सप्पिणीए तईए अरए भविस्संति । अपच्छिमजिण-चक्कवट्टिणो दुण्णि चउत्थे अरए होहिंति । तओ दस मतंगाई कप्परुक्खा उप्पज्जिहिंति । अट्ठारसकोडाकोडीओ सागरोवमाणं निरन्तरं जुगलवम्मो भविस्सइ । उस्सप्पिणी अवसप्पिणीकालचक्काणि अनंतसो तीअद्धाउ अनंतगुणाणि भार वासे होहिंति । एवमाइ अन्नं पि भविस्सकाले सरूवं बागरिता " कम्मि वि गामे देवसम्मविप्पस्स बोहणत्थं 30 गोअमसामी पट्टविओ भगवया, जहा - एअस्स पेमबंधो झिज्जइ । तओ तीसं वासाई अगारवासे वसित्ता, पक्खा I 14 1 B नास्ति 'दि' । 2 P निवावे | 3 B घओ । 5 P उबवण्णो । 6 BD Pa नक्खत्ताणि । 7 P तित्थंकरो। 11 P 'जीवो' नास्ति । 12 P सोमो । 13 DE कम्मवि 1 वि० क०६ 4P पुहविसु । * एतद्वाक्यं नविद्यते P Pa आदर्श 8P सयाल 9D वीसइमो 10P Pc साइ° । 14 P Pe आदर्श एवेदं पदं प्राप्यते । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ विविधतीर्थकल्पे हिअ सङ्घबारसवासे छउमत्थो, तीसं वासाइं तेरसपक्खोणाई केवली विहरित्ता, *बावत्तरिवासाई सवाउयं पालित्ता* कत्तिअअमावसाए राईए चरमजामद्धे चंदे दुचे संवच्छरे, पीइवद्धणे मासे, नंदिवद्धणे पक्खे, देवाणंदाए रयणीए, उवसमे दिणे, नागे करणे, सबट्ठसिद्धे मुहुत्ते, साइनक्खत्ते, कययजंकासको सामी सक्केणं विन्नत्तो-भयवं ! दो वाससहस्सठिई भासरासी नाम तीसइमो गहो अइखुद्दप्पा तुम्ह जम्मनक्ख संकेतो संपयं । ता मुहुत्तं पडिक्खह जहा तस्स 5 मुहं वंचिअं भवइ । अन्नहा तुम्ह चिअ तित्थस्स पीडा चिरं होहिं ति । भयवया भणिअं-भो देवराय ! अम्हे पुहर्षि छत्तं मेरुं च दंडं काउं एगहेलाए सयंभुरमणसमुदं च तरिउ, लोअंच अलोए खिविउ समत्था, न उण आउकम्म यड्डेउं वा हासेउं वा समत्था । जओ' अवस्सं भाविभावाणं नत्थि वइक्कमो । तओ दोवाससहस्से जाव अवस्संभाविणी तित्थस्स पीड त्ति । सामी अ पंचावणं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पंचावण्णं च पावफलविवागाई विभावइत्ताः छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागरिता, पहाणं नाम अज्झयण विभावमाणो सेलेसीमुवगम्म कयजोगनिरोहो सिद्धाणंतपं. 10 चगो एगागी सिद्धि संपत्तो। अणंतनाणं, अणंतदसणं, अणंतं सम्मत्तं, अणतो आणंदो अणतं विरियं च त्ति पंचाणंतगं । ___ तया य अणुद्धरीकुंथूणं उप्पत्ति दर्दू, अजप्पमिइं संजमे दुराराहए भविस्सइ ति समणा समणीओ बहवे भत्तं पच्चक्खिसु । अन्नं च कासी कोसलगा नव मल्लई नवलिच्छई अट्ठारस गणरायाणो अमावसाए पोसहोववासं पारिता गए भावुज्जोए बुज्जोअं करिस्सामो त्ति परिभाविय रयणमयदीवेहिं उज्जोअमकासि । कालकमेण अग्गिदीवेहिं सो जाओ। 15 एवं दीवालिआ जाया । देवेहिं देवीहिं य आगच्छंत-गच्छंतेहिं सा रयणी उज्जोअमई कोलाहलसंकुला य जाया । भगवओ य सरीरं देवेहिं सकारियं । भासरासिपीडापडिघायत्थं देव-माणुस-गवाईणं नीराजणा जणेहिं कया । तेण किर मेराइयाणं पवित्ती जाया । गोअमसामी पुण तं दिशं पडिबोहिता जाव भयवओ यंदणत्थं पञ्चागच्छइ, ताव देवाणं संलावे सुणेइ, जहा- भययं कालगओ ति । सुष्टुअरं अधिइं पगओ। अहो ममंमि भत्ते वि सामिणो निन्नेहया, जमहं अंतसमए वि समीचे न ठाविओ। कहं वा वीअरागाणं सिणेहु त्ति नायसुअंमि वुच्छिन्नपेमबंधणो तक्खणं चेव केवली 20 जाओ। सक्केणं कत्तिअसद्धपाडिवयगोसग्गे केवलिमहिमा कया । भययं सहस्सदलकणयपंकए निवेसिओ पप्पयर काउं अट्ठमंगलाई पुरओ आलिहियाई । देसणा य सुआ। अओ चेव पाडिवए महूसवो अन वि जयंमि पयत्तइ । सूरिमंतो अ गोअमसामिपणीओ, तओ तस्साराहगा गोअमकेवलुप्पत्तिदिवसु ति तंमि दिणे समवसरणे अक्खन्हवणाइपूअं सूरिणो करिति । सावया य भयवंते अस्थमिए सुअनाणं चेव सबविहीसु पहाणं ति सुअनाणं पूअंति । नंदियद्धणनरिंदो सामिणो जिट्ठभाया भयवंतं सिद्धिगयं सुच्चा अईव सोगं कुणंतो पाडिवए कओक्वासो कत्तिअसु25 द्धबीआए संबोहिता निअघरे आमंतित्ता सुदंसणाए भगिणीए भोइओ ! तंबोलवत्थाइ दिणं । तप्पिभिई भाइबीयापर्व रूढं । एवं दीवूसवट्टिई संजाया । जे अ दीयमहे चउद्दसि-अमावसासु कोडीसहिअमुववासं काउं अट्टप्पयारपूआए सुअनाणं पूइत्ता, पंचाससहस्स परिवार सिरिगोअमसामि सुवण्णकमले ठिअं झाइत्ता, पइजिणं पंचाससहस्साई तंदुलाणं, एगते बारसलक्खाई चउवीसपट्टयपुरओ ढोइत्ता, तदुवरि अखंडदीवयं बोहिता, गोअमं आराहिंति, ते परमपयसुहलच्छि पावंति ति । दीवूसव30 अमावसाए नंदीसरतवं आढविज्जा । तंमि दिणे नंदीसरपडपूआएवं उववासं काउं, परिसं सत्तवरिसाणि वा जाव अमावसासु उववासो काउं, वीरकलाणयअमावसाए उज्जमणं कुज्जा ! तत्थ नंदीसरयायणजिणालए सक्का न्हवणाइपूअं काऊण नंदीसरपडपुरओ वा दप्पणसंकेतजिणबिंबेसु न्हवणाई काउं बावण्णवत्थूणि अ पक्कन्नभेया, नारंग-जंबीर-कयलीफलाईणि, नालिएराई पूगाई पत्ताणि, उच्छुलट्ठीओ, खजुरमुद्दियावरिसोलयउत्तत्तिआवायमाईणि खीरिमाई थालाई *एतदतिं वाक्यं P Pc आदर्श एव लभ्यते। 1 P पुन्वे । 2 P संवत्सरे। 3 D नन्नहा! 4 B D Pa तओ। 5 P गणहार। 6 B D नास्ति '५'17 B D Pa. सकारिन । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपापाबृहत्कल्पः। दीवया इच्चाइ । कंचुलियाओ बावणं तंबोलाइदाणपुर्व सावियाणं दिजा । अण्णे य दीवूसवं विणावि अमावसाए नंदीसरतवं आढविति ति । __ अह पुणरवि अजसुहत्थीणं संपइ महाराओ पुच्छिसु-भयवं ! इत्थ दीवालिआपबंमि विसेसओ घराण मंडणं अन्न-वस्थाईणं विसिटाणं परिभोगो, अन्नोन्नजोहाराइकरणं, जणाणं केण कारणेण दीसइ ? | तत्थ इमं पञ्चुत्तरं अजसुहत्थिरिणो पन्नविंसु । जहा-पुत्विं उजेणीए पुरीए उज्जाणे सिरिमुणिसुब्वयसामिसीसो सुब्वयाय-5 रिओ समोसढो । तस्स वंदणत्थं गओ सिरिधम्मराया। नमुचिमंती वि तत्थ गओ। सूरीहिं समं विवायं कुणतो खलरोण पराजिओ । गओ रणा समं नियगेहं । निसाए मुणिणो हतं कअिखरगो गओ उज्जाणं । देवयाए भिओ। गोसे विम्हिएण रणा खामित्ता मोइओ । लजिओ नट्ठो गओ हथिणाउरे । तत्थ पउमुत्तरो राया । जाला तस्स देवी । तीसे दो पुत्ता-विण्हुकुमारो, महापउमो । जिट्टे अणिच्छंते महापउभस्स जुवरायपयं पिउणा दिन्नं । नमुई तस्स मंती जाओ । तेण सीहरहो रणे विजिओ' । महापउभो तुट्टो । वरं पदिण्णे तेण नासी-10 कओ वरो । एगया जालादेवीए अरहंतरहो कारिओ। तीसे सवत्तीए लच्छीए मिच्छद्दिट्टीए पुण बंभरहो । पढमं रहकडणे दुण्ह वि देवीणं विवाए दोवि रहा राणहा वारिया । माऊए अवमागं दटुं महापउमो देसंतरं गओ । कमेण मयणावलिं परिणित्ता साहियच्छक्खंडभारहो गयउरनागओ। पिउणा रज्जं दिण्णं । विण्हुकुमारेण समं पउमुत्तरो सुव्वयायरियपायमूले दिक्खं गिहित्ता सिवं पत्तो । दिण्हुकुमारस्स य सहि वाससयाई तवं कुणंतस्स अणेगाओ लद्धीओ समुप्पण्णाओ ! महापउमो चक्की जिणभवणमंडियं महिं काउं रहजत्ताओ कारित्ता पूएइ 15 माऊए मणोरहे । नमुचिणा चक्कीनासीकयवरेण जण्णकरणत्थं रज मम्गिओ। तेण सच्चसंधेण तस्स रज्जं दाउं ठियमंतेउरे । सुव्वयायरिया य विहरंता तया हत्यिणाउरे वासाचउमासयं ठिआ। आगया सबे पासंडिणो अहिणवनिवं दहूं, न सुत्र्यायरिया । तओ कुद्धो नमुई भणेइ-मम' भूमीए तुम्हेहिं सत्तदिणोवरि न ठायवं, अन्नहा मारेमि; जो मं द8 तुम्हे नागया । तओ सूरीहिं संघ पुच्छित्ता एगो साहू गयणगामिविजाए संपन्नो आइट्ठो मेरुचूलिआठियस्स विण्डकुमारस्स आणयणत्थं । तेण विन्नत्तं -भंते ! मम गंतुं सत्ति अत्थि, न उण आगंतुं । गुरुहिं वुत्तं-सो चेव तुमं 20 'आणेहि चि । तओ सो पत्तो मेरुचूलं वंदिऊण विन्नतं सवं सरूवं महरिसिणो । तक्खणं चेव उप्पइओ सहागंतुयसाहुणा नह्यलं । आगओ गयउरं राउलं च । नमुइवज्जेहिं राईहिं सबेहिं वंदिओ । उवलक्खिओ अ नमुई । पन्नविओ वि जाहे ठाउं न देइ साहूणं, ताहे विण्हुणा पयतिगपमामा भूमी मग्गिया । तेण दिण्णा, भणिअं च-जो बाहिं पयतिगाओ दिट्ठो तं मारेहामि । तो वेउधियलद्धीए लक्खजोअणपमाणदेहो जाओ विण्हुरिसी किरीडकुंडल-गया-चक्क-धणूई धारितो। तस्स पण्हीपहारेण कंपियं भूगोलं । खुहिआ सागरा । फुकारेहिं नद्या खेयरा । उप्पहेण 25 पयट्टाओ नईओ ! धुम्मिया उड्डुगणा । डुल्लिआ कुलगिरी । पुवावरसमुद्देसुं दोपाए निसित्ता, तइअं कम नमुचिणो मत्थए दाऊण ठिओ महप्पा । तओ इंदण ओहिणा नाऊण पट्ठवियाओ सुरंगणाओ कण्णजावे ठाउं महुरसरेण खंतिउवएसगन्भगीयाणि गायति । चक्वट्टिपमुहा य विनायवइयरा पसायणत्थं पाए पमदिति । तओ उवसंतो पगइमावण्णो महरिसी । खामिओ चक्कवट्टिणा संघेण य । विण्हुकुमाराओ चक्किणा पमोचाविओ किवाए नमुई। तया य वासाणं चउत्थमासस्स पक्खसंधिदिणं आसि । तंमि उम्पाए उवसंते लोएहिं पुणज्जायं व अप्पाणं मन्नमाणेहिं अन्नोन्न-30 जोहारा कया । विसिट्ठयरमंडणभोअणच्छायणतंबोलाइपरिभोगा पवत्तिआ । तप्पभिई एयंमि दिवसे पइवरिसं ते चेव ववहारा पयट्टि िजति । विण्हुकुमारो अ कालेणं केवली होऊण सिद्धो, महापउमचक्कवट्टी य त्ति । दसपुधिस्स मुहाओ एवं सोऊण संपइनरिंदो । आसि जिणपूअरओ बिसेसओ पबदियहेसु ॥ १॥ --- --- ----- --- ---- एतद्वाक्यमनुपलभ्यं B आदर्श। 1 Dमन नम। 2 BP आणेह ति। 3 Bठाई। 4D पयसिग। 5BDPa य मोआविओ। 6 BDPaवरिस्सं । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विविधतीर्थकल्पे मज्झिमपावाए पुर्वि अपावापुरि त्ति नामं आसि । सक्केणं पावापुरि ति नामं कयं । जेण इत्थ महावीरसामी कालगओ। इत्येव य पुरीए यइसाहसुद्धइक्कारसीदिवसे जंभिअगामाओ रतिं बारसजोअणाणि आगंतूण पुबण्हदेसकाले महासेणवणे भगवया गोअमाई गणहरा खं(पं? )डिअगणपरिवुडा दिक्खिआ प्पमुइया । गणानुन्नाया तेसिं दिण्णा । 5 तेहिं च निसिज्जातिगेण उप्पाय-विगम-धुवयालक्खणं पयतिगं लखूण सामिसगासाओ तक्खणं दुवालसंगी विरइया । इत्येव य नयरीए भयवओ कण्णेहिंतो सिद्धत्थवाणिअउवक्कमेण खरयविज्जेण' कडसलाया उद्धरिया । तदुद्धरणे य पवेयणावसेण भयवया चिक्काररवो मुक्को । तेण पञ्चासण्णपचओ दुहा जाओ । अज्ज वि तत्थ' अंतरालसंधिमम्गो दीसह। तहा इत्थेव पुरीए कत्तियअमावसारयणीए भयवओ निवागट्टाणे मिच्छद्दिट्ठीहिं सिरिवीरथूभट्टाणठाविअनागमं10 डवे अज वि चाउवण्णियलोआ जत्तामहूसवं करिति । तीए चेव एगरत्तीए देवयाणुभावेणं कूवायड्डिअजलपुण्णमल्लियाए दीवो पज्जलई तिल्लं विणा। पुव्युत्ता य अत्था भयवया इत्थेव नयरे वक्खाणिया । इत्येव य भगवं संपत्तो सिद्धिं । इचाइ अच्चब्भुअभूअसंविहाणठाणं पावापुरीमहातित्थं ।। इय पावापुरीकप्पो दीवमहुप्पत्तिभणणरमणिज्जो । जिणपहसूरीहिं कओ ठिएहिं सिरिदेवगिरिनयरे ॥ १॥ 15 तेरहसत्तासीए विकमवरिसंमि भद्दवयबहुले । पूसक्कबारसीए समथिओ एस सस्थिकरो ॥ २॥ ॥ समाप्तोऽयं श्रीअपापाबृहत्कल्पो दीपोत्सवकल्पो वा ।। ॥ ग्रं० ४१६, अ० ७॥ 1 BD Pac विजेसु। 2 BD Pa तत्थ अंतत्य । 3 BD Pa-b पचलति । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्पः । २२. कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्पः । पणमिय अमियगुणगणं' सुरगिरिधीरं जिणं महावीरं । कण्णाणयपुरठिअतप्पडिमाकप्पं किमवि वुच्छं ॥ १ ॥ __चोलदेसावयंसे कण्णाणयनयरे विक्रमपुरवस्थञ्चपहुजिणवइसरिचुल्लपिउसाहुमाणदेव काराविया' बारहसयतित्तीसे विक्कमवरिसे (१२३३) आसाढसुद्धदसमीगुरुदिवसे सिरिजिणवइसूरीहिं अम्हेच्चय पुवायरिएहिं पइट्ठिया मम्माणसेलसमुग्गयजोईसरोवलघडिया तेवीसपत्वपरिमाणा नहसुत्तिलग्गणे वि घंट व सदं । कुणंती सिरिमहावीरपडिमा सुमिणयाएसेण अनकवालाभिहाणपुढविघाउ विसेससंफासेणं सन्निहियपाडिहेरा सावयसंघेण चिरं पूइया । जाब बारहसयअडयाले (१२४८) विकमाइनसंवच्छरे चाहुयाणकुलपईवे सिरिपुहविरायनरिंदे सुरत्ताण साहवदीणेण निणं नीए रज्जपहाणेण परमसावरण सिडिरामदेवेण सावयसंघस्स लेहो पेसिओ, जहा-तुरुकरजं संजायं । सिरिमहावीरपडिमा पच्छन्नं धारियबा । तओ सावएहिं दाहिमकुलमंडणकयंवासमंडलियनामंकिए कयंवासस्थले विडलबालुआपूरे ठाविया । [ताव तत्थ टिया ] जाय तेरह-10 सयइक्कारसे (१३११) विकमवरिसे संजाए अइदारुणे दुभिक्खे अणिवहंतो जोजओ नाम" सुत्तहारो जीवियानिमित्तं सुभिक्खदेसं पइ सकुटुंयो" चलिओ कण्णाणयाओ। पढमपयाणयं थोवं कायचं ति कलिऊण *कर्यवासत्थले चेव तं रयणि वुत्थो । अड्डरत्ते देवयाए तस्स सुमिणं दिग्णं, जहा-इत्थ तुम जत्थ सुत्तोसि तस्स हिढे भगवओ महावीरस्स पडिमा एत्तिएसु हत्थेसु चिट्टइ । तुमए वि देसंतरे न गंतवं । भविस्सइ इत्येव ते निबाहु त्ति । तेण ससंभमं पडिबुद्धेण तं ठाणं पुत्ताई हिं खणाविरं । जाव दिट्ठा सा पडिमा । तओ हिह"तुट्टेण नयरं गंतूण 15 सावयसंघस्स निवेइयं । सावएहिं महूसवपुरस्सरं परमेसरो पवेसिऊण ठाविओ चेईहरे । पूइज्जए तिक्कालं । अणेगवारं तुरुक्कउबद्दवाओ मुक्को । तम्स य सुत्तहारस्स सावएहिं वित्तिनिवाहो कारिओ । पडिमाए परिगरो य गवेसिओ तेहिं न लद्धो। कत्थवि थलपरिसरे चिट्टइ । तत्थ य पसस्थिसंवच्छराइ लिहिअं संभाविज्जइ । अन्नया "हवणे संद भयवओ सरीरे पसेओ पसरंतो दिट्टो । लूहिज्जमाणो वि जाव न विस्मइ ताव नायं सड्ढेहिं वियड्डेहिं जहा को वि उवद्दवो अवस्सं इत्थ होही । जाय पभाए जट्टअरायउत्ताणं धाडी समागया । नयरं सबओ विद्धत्थं । एवं पायडयमावो 20 सामी तावपूईओ जाव तेरहसयपंचासीओ (१३८५) संवच्छरो | तम्मि वरिसे आगएणं आसीनयरसिकदारेणं' 1 अलविअवंससं जाएणं घोरपरिणामेणं सावया साहणो अचंदीए काउंविडंबिया सिरिपासनाहबिच सेलमयं भग्गं । सा पुण सिरिमहावीरपडिमा अखंडिआचेव सगडमारोवित्ता दिल्लीपुरमाणेऊण"तुगुलकाबादट्ठिअसुरत्ताणभंडारे ठाविया । सिरिसुरत्ताणो किरि आगओ संतो जं आइसिहिइ तं करिस्सामु त्ति ठिया पन्नरसमासे तुरुक्कबंदीए । जाव समागओ कालक्कमेण देवगिरिनयराओ जोगिणिपुरं सिरिमहम्मदसुरत्ताणो । 25 अन्नया बहिया जणवयविहारं विहरित्ता संपत्ता" दिल्लीसाहापुरे खरयरगच्छालंकारसिरिजिणसिंहसूरिपट्टपइटिया सिरिजिणप्पहरिणो । कमेण महारासयभाए पंडिअगुट्ठीए पथुआए, को नाम विसिट्टयरो पंडिओ ति रायराएण पुढे जोइसिअधाराधरेण तेसिं गुणत्थुई पारद्धा । तओ महाराएणं तं चैव पेसिअ सबहुमाणं आणाविआ पोससुद्धबीयाए संझाए सूरिणो । भिडिओ तेहिं महारायाहिराओ। अच्चासन्ने उक्वेसिअ कुसलाइवत्तं पुच्छिअ आयण्णिओ अहिणवकवआसीवाओ । चिरं अद्धरत्तं जाव एगंते गुट्ठी कया । तत्थेव रत्तिं च सावित्ता पभाए पुणो 30 1 D°मणं । 2 P साहुदेव । 3 BC Pa काराविय: D कारावि। 4 A B जोईरसो। 5 P सुमिणायासेण । 6 B °धातु.17 P पच्छला। 8P धारे। 9 D दाडिम10 B °वासस्थलिए। 1P आदर्श एवैतद्वाक्यं दृश्यते । 11 P विना नास्यन्यत्र । 12P सकुडं। 13 B D Pa कइंवास। 14P हट्ट। 15P पदवणेण। 16P विहायान्यत्र न दृश्यते इदं पदम् । 0.0 एतदन्तर्गतः पाठः पतितः D प्रती। 17 P एतत्पदं नास्ति। 18 P लूवि (दि?) यवंसजाएण। 19 B C D Pa तुगलाबाद। 20 P जणवयं विहरित्ता। 21 P नास्ति । 22P पुट्ठो। 23 P सूरिणा। 24 P रत्तिं वसित्ता। -- Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ विविधतीर्थकल्प आइया । संतुटेणं महानारदेणं गोसहस्सं दविणजाय पहाणमुज्जाणं वत्थसयं कंबलसयं अगुरुचंदणकप्पूराइगंधदबाई च दाउमाढत्ताणि । तओ गुरुहिं-साइणं एयं न कप्पइ ति संबोहिऊण महारायं पडिसिद्धं सवं वत्थु । पुणो रायाहिरायस्स मा अप्पत्ति होहि ति किंचि कंबल-वत्थागरुमाइ अंगीकयं रायाभिओगेणं । तओ नाणादेसंतरागयपंडिएहिं सह वायगोटैि कारवित्ता मयगलहत्थिजुअलं आणाविअं । एगम्मि गुरुणो अन्नम्मि य सिरिजिणदेवायरिया आरोवित्ता 5 वजंतीसु अट्ठसु सुरत्ताणिअमयण मेरीसु, पूरिजमाणेसु जमलसंखेसु, घुम्मतेलु मुअंगमद्दलकंसालढोल्लाइसद्देसु, पढ़तेसु भट्टघट्टेसु चाउवण्णसमेया चउविहसंघसंजुत्ता य सूरिणो पोसहसालं पट्टविया । सावएहिं पवेसमहूसवो विहिओ । दिण्णाई महादाणाई । पुणो पातसाहिणा समप्पिरं सयल सेअंबरदसणउवद्दवरवखणखमं फुरमाणं । पेसिआ चउद्दिसिं गुरुहिं तस्स पडिच्छंदया । जाया सासणुन्नई । अन्नया मग्गिों सूरीहिं सिरिसत्तुंजय-गिरिनार-फलवद्धीपमुहतित्था रक्खणत्थं फुरमाणं । दिन्नं तक्षणं चेव सबभोमेणं । पेसिअं तं तित्थेलु । मोझ्या गुरुवयणाणंतरमेव अणेगे बंदिणो 10 रायाहिराएण । पुणरवि सोमवारदिवसे गुरुणो पत्ता राय उलं वरिसंते जलहरे । भिट्टिओ सुरत्ताणो । कद्दमखरंटिअपाया गुरूणं लुहाविया महाराएण मलिककाफूर पासाओ पवरसिचयखंडेण । तओ आसीवाए दिण्णे वण्णणाकबे वक्खाणिए अईव चमकरिअचित्तो जाओ महानरिंदो । अवसरं नाऊण मगिया सबसरुवकहणपुर्व भगवओ महावीरस्स पडिमा । दिण्णा य ताओ ताओ सुकुमारगोट्ठीओ काऊण एगच्छत्तवसुहाहिवइणा । आणाविया तुगुलकाबादकोसाओ । तओ असूअगाणं मलिक्काणं खंधे दाऊग सयलसभासमक्वं अप्पणो अग्गे आणाविअ दणं च समप्पिआ गुरूणं । तओ 15 महूसयपभावणापुत्वं सुक्खासणष्टुिआ पवेसिआ सयलसंघेण मलिकताजदीनसराईए चेईए य ठाविआ । गुरूहिं वासक्खेवो कओ । पूइज्जइ महापूआहिं । तओ महारायस्स आएसेणं सिरिजिणदेवसूरिणो अप्पपनरसमे दिल्लीमंडले ठावित्ता पट्ठिा कमेण गुरुणो मरहट्ठमंडले । दिण्णा रायाहिराएण साययसंघसहिआणं गुरूणं वसहकरहतुरयगुलइणी सुक्खासणाइसामग्गी । अंतरालनगरेसु पभावणं कुणता पए पए संवेहिं सम्माणिज्जमाणा अपुवतित्थाई नमसंता सूरिणो कमेण पत्ता देव20 गिरिनगरं । संघेण पवेसमहूसयो कओ, संधपूआ य जाया। पइट्ठाणपुरे य जीवंतसामि-मुणिसुन्वयपडिमा । संघवइजगसीह-साहण-मल्लदेवप्पमुहसंघसहिएहिं जत्ता कया । पच्छा दिल्लीए विजयकडए जिणदेवसूरीहिं दिट्ठो महाराओ । विष्णो बहुमाणो । एगा च सराई दिण्या । सुरत्ताणसराइ त्ति तीसे नाम ठविअं । तत्थ चत्वारि सयाइं सावयकुलाणं निवासत्थं आइटाणि । तत्थ काराविआ पोसहसाला कलिकालचक्कट्टिणा चेईयं च । ठाविओ तत्थ सो चेव देवो सिरिमहावीरो । पूअंति तिकालं महरिहपूआपयारेहिं भगवंतं परतित्थिया सेयंवरभत्ता 25 दियंवरभत्ता य साचया । दद्रूण सिरिमहम्मदसाहिकयं सासणुन्नई । एवं पंचमकालं पि चउत्थमेव कालं कलिंति जणा ॥१॥ विंबं पडियडिंबं वीरजिणेसस्स धुअकिलेसस्स । आचंदसूरिअमिणं मणनयणाणंदणं जयइ ॥ २॥ कण्णाणयपुरसंतिअदेवमहावीरपडिमकप्पोयं । लिहिओ मुणीसरेणं जिणसिंह मुणिंदसीसेणं ॥ ३ ॥ ॥ इति कन्यानयनीयमहावीरप्रतिमाकल्पः ।। ॥अं० ७७, अ० १५॥ 30 IPदिणे। 2A B मल्लिक; P मलिककापूर; Pa मलिककापूर। 3 BC Pa जिणसंघ' । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठानपत्तनकल्पः । २३. प्रतिष्ठानपत्तन कल्पः [१] । जीयाज्जैत्रं पत्तनं पूतमेतद्गोदावर्याः श्रीप्रतिष्ठानसम् रत्नापीडं श्रीमहाराष्ट्रलक्ष्म्या रम्यं हम्यैनेंत्रशैत्यैश्च चैत्यैः ॥ १ ॥ अष्टषष्टिकका अत्र तीर्था द्वापञ्चाशज्जज्ञिरे चात्र वीराः । पृथ्वीशानां न प्रवेशोत्र वीरक्षेत्रत्वेन प्रौढतेजोरवीणाम् ॥ २ ॥ निश्यतीत्य' पुटभेदनतोऽस्मात् षष्टियोजनमितं किल वर्त्म | बोधनाय भृगुकच्छमगच्छद्वाजिनो जिनपतिः कमठाङ्कः ॥ ३ ॥ अन्वितन्त्रिनवतेर्नवशत्या अत्ययेऽत्र शरदां जिनमोक्षात् । कालको व्यधित वार्षिकमाये : पर्व भाद्रपद शुक्लचतुर्थ्याम् ॥ ४ ॥ तत्तदायतनपङ्क्विीक्षणादत्र मुञ्चति जनो विचक्षणः । तत्क्षणात्सुर विमानधोरणि श्रीविलोकविषयं कुतूहलम् ॥ ५ ॥ 'शातवाहनपुरस्सरा नृपाश्चित्रकारिचरिता इहाभवन् । दैवतैर्बहुविधैरधिष्ठिते चात्र सत्रसदनान्यनेकशः ॥ ६ ॥ कपिला त्रेय बृहस्पति - पञ्चाला इह महीभृदुपरोधात् । न्यस्तस्वचतुर्लक्षग्रन्थार्थं श्लोकमेकमप्रथयन् ॥ ७ ॥ स चायं श्लोक: जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः, पञ्चालः स्त्रीषु मार्दवम् ॥ ८ ॥ इह जयति शोरमृतच्छटा सुदृभ्यर्हिणां पयोदघटा । जीवत्स्वामिप्रतिमा श्रीमन्मुनिसुव्रतस्य लेप्यमयी ॥ ९ ॥ वर्षाणामेकादशलक्षाप्यष्टायुतानि सार्धानि । अष्टौ शतानि षट्पञ्चाशानीत्यजनि कालोऽस्याः ॥ १० ॥ इह सुव्रतजिनचैत्ये यात्रामासूत्र्य विहितविविधमहाम् । भव्याश्चिन्वन्त्यैहिकपारत्रिकशर्मसम्पत्तीः ॥ ११ ॥ प्रासादेऽत्र श्रीजिनराजां चारु चकासति लेप्यमयानि । बिम्बान्यप्रतिबिम्बरुचीनि प्रीतिस्फीतिं वदति जनानाम् ॥ १२ ॥ अम्बादेवी क्षेत्राधिपतिर्यक्षाधिपतिश्चापि कपर्दी | एते चैत्यं समधिवसन्तः श्रीसङ्घस्य अन्त्युपसर्गान् ॥ १३ ॥ अत्र चैत्यश्रियः शेखरं सुव्रतः प्राणिगोपकारेकबद्धत्रतः । वन्द्यमानक्रमः स्वर्गिवर्गैर्मुदा संपनीपद्यतां श्रेयसे वः सदा ॥ १४ ॥ श्रीप्रतिष्ठानतीर्थस्य श्रीजिनप्रभसूरयः । कल्पमेतं विरचयां बभूवुर्भूतये सताम् ॥ १४ ॥ ॥ श्रीमतिष्ठानपत्तनकल्पः ॥ ॥ ग्रं० १९, अ० १५ ॥ 1 P विधायान्यत्र 'निश्यतीति' । 2 P विनाऽन्यत्र 'मितः'। 3 P सात° । ४७ 5 10 15 20 25 30 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे २४. नन्दीश्वरद्वीपकल्पः। आराध्य श्रीजिनाधीशान् सुराधीशार्चितक्रमान् । कल्पं नन्दीश्वरद्वीपस्याचक्षे विश्वपावनम् ॥ १ ॥ अस्ति नन्दीश्वरो नाम्नाऽष्टमो द्वीपो घुसन्निभः । तत्परिक्षेपिणा नन्दीश्वरेणाम्भोधिना युतः ॥ २ ॥ एतद्वलयविष्कम्भे लक्षाशीतिश्चतुर्युता । योजनानां त्रिषष्टिश्च कोट्यः कोटिशतं तथा ॥ ३ ॥ 5 असौ 'विविधविन्यासोद्यानवान् देवभोगभूः । जिनेन्द्रपूजासंसक्तसुरसम्पातसुन्दरः ॥ ४ ॥ अस्य मध्यप्रदेशे तु क्रमात्पूर्वादिदिक्षु च । अञ्जनवर्णाश्चत्वारस्तिष्ठन्त्यञ्जनपर्वताः ॥ ५॥ दशयोजनसहस्रातिरिक्तविस्तृतास्तले । सहस्रयोजनाश्चोवं क्षुद्रमेरूच्छ्याश्च ते ॥ ६ ॥ तत्र प्राग्देवरमणो नित्योद्योतश्च दक्षिणः । स्वयंप्रभः प्रतीच्यस्त रमणीय उदकस्थितः ॥ ७ ॥ शतयोजनायतानि तद विस्तृतानि च । द्विसप्ततियोजनोच्चान्यर्हचैत्यानि तेषु च ।। ८ ॥ 10 पृथग्द्वाराणि चत्वार्युच्चानि षोडशयोजनीम् । प्रवेशे योजनान्यष्ट विस्तारेऽप्यष्ट तेषु तु ॥ ९॥ तानि देवासुरनागसुपर्णानां दिवौकसाम् । समाश्रयास्तेषामेव नामभिर्विश्रुतानि च ॥१०॥ षोडशयोजनायामाम्तावन्मात्राश्च विस्तृतौ । अष्टयोजनकोत्सेधास्तन्मध्ये मणिपीठिकाः ॥ ११ ॥ सर्वरत्नमया देवच्छन्दकाः पीठिकोपरि । पीठिकाभ्योऽधिका यामोच्छ्यभाजश्च तेषु तु ॥ १२ ॥ ऋषभा वर्धमाना च तथा चन्द्राननापि च । वारिषेणा चेति नाम्ना पर्यङ्कासनसंस्थिताः ॥ १३ ॥ 15 रत्नमय्यो युताः स्वखपरिवारेण हारिणा । शाश्वताहत्यतिमाः प्रत्येकमष्टोत्तरं शतम् ।। १४ !! द्वे द्वे नागयक्षभूतकुण्डभृत्प्रतिमे पृथक् । प्रतिमानां पृष्ठतस्तु छत्रभृत्पतिमैकका ॥ १५ ॥ तेषु धूपघटीदामघण्टाऽष्टमङ्गलध्वजाः । छत्रतोरणच यः पटलान्यासनानि च ॥ १६ ॥ षोडशपूर्णकलशादीन्यलकरणानि च । सुवर्णरुचिररजोवालुकास्तत्र भूमयः ॥ १७ ॥ आयतनप्रमाणेन रुचिरा मुखमण्डपाः । प्रेक्षार्थमण्डपा अक्षवाटका मणिपीठिकाः ॥ १८ ॥ 20 रम्याश्च स्तूपप्रतिमाश्चैत्यवृक्षाश्च सुन्दराः । इन्द्रध्वजाः पुष्करिण्यो दिव्याः सन्ति यथाक्रमम् ॥ १९॥ प्रतिमाः षोडश चतुरस्तूपेषु सर्वतः । शतं चतुर्विंशमेवं ताः साष्टशततद्युताः ॥ २० ॥ प्रत्येकमञ्जनाद्रीणां ककुप्सु चतसृष्वपि । गते लक्षे योजनानां निर्मत्स्यखच्छवारयः ॥ २१ ॥ सहस्रयोजनोत्सेधा विष्कंभे लक्षयोजनाः । पुष्करिण्यः सन्ति तासां क्रमान्नामानि षोडश ॥ २२ ॥ नन्दिषेणा चामोधा च गोस्तूपाथ सुदर्शना । तथा नन्दोत्तरा नन्दा सुनन्दा नन्दिवर्द्धना ॥ २३ ॥ 25 भद्रा विशाला कुमुदा पुण्डरीकिणिका तथा । विजया वैजयन्ती च जयन्ती चापराजिता ॥ २४ ॥ प्रत्येकमासां योजनं पञ्चशत्याः परत्र च । योजनानां पञ्चशती यावद्विस्तारभाजि तु ॥ २५ ॥ लक्षयोजनदीर्घाणि महोद्यानानि तानि तु । अशोकसप्तच्छदकचम्पकचूतसङ्ख्या ॥ २६ ॥ मध्ये पुष्करिणीनां च स्फाटिकाः पत्यमूर्तयः । ललामवेद्युद्यानादिचिह्ना दधिमुखाद्रयः ॥ २७ ॥ चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः सहस्रं चावगाहिनः । सहस्राणि दशाधस्तादुपरिष्टाच विस्तृताः ॥ २८ ॥ 80 अन्तरे पुष्करिणीनां द्वौ द्वौ रतिकराचलौ । ततो भवन्ति द्वात्रिंशदेते रतिकराचलाः ॥ २९ ॥ शैलेषु दधिमुखेषु तथा रतिकरादिषु । शाश्वतान्यहचैत्यानि सन्त्यजनगिरिप्विव ॥ ३० ॥ चत्वारो द्वीपविदिक्षु तथा रतिकराचलाः । दशयोजनसहस्रायामविष्कम्भशालिनः ॥ ३१ ॥ योजनानां सहस्रं तु यावदुच्छ्यशोभिताः । सर्वरत्नमया दिव्या झलाकारधारिणः ॥ ३२ ॥ 1B तया। 2 P विचित्र 130 प्राच्यो। 4 B°न्यायतनानि । 5 B तदढ़ें। 6 Bsभ्याधिका17A मैकिका। 8 B वाटिका। 9 B क्रमानि । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दीश्वरद्वीपकल्पः । ३९ ॥ ४० ॥ तत्र द्वयो रतिकराचलयोर्दक्षिणस्थयोः । शक्रस्येशानस्य पुनरुत्तरस्थितयोः पृथक् ॥ ३३ ॥ अष्टानां महादेवीनां राजधान्योऽष्टदिक्षु ताः । लक्षाबाधा लक्षमाना जिनायतनभूषिताः ॥ ३४ ॥ सुजाता सौमनसा चार्चिर्माली च प्रभाकरा । पद्मा शिवा शुच्यञ्जने चूता चूतायतंसिका ॥ ३५ ॥ गोस्तूपा - सुदर्शने अप्यमलाप्सरसौ तथा । रोहिणी नवमी चाथ रत्ना रत्नोच्चयापि च ॥ ३६ ॥ सर्वरत्नरत्नसञ्चया (?) वसुर्वसुमित्रिका | वसुभागापि च वसुन्धरा नन्दोत्तरे अपि ॥ ३७ ॥ नन्दोत्तरकुरुर्देवकुरुः कृष्णा ततोऽपि च । कृष्णराजी रामारामरक्षिताः प्राक्क्रमादमूः ॥ ३८ ॥ सर्वर्द्धयस्तासु देवाः कुर्वते सपरिच्छदाः । चैत्येष्वष्टाहिकाः' पुण्यतिथिषु' श्रीमदर्हताम् ॥ प्राच्येऽञ्जनगिरौ शक्रः कुरुतेऽष्टाहिकोत्सवम् । प्रतिमानां शाश्वतीनां चतुद्वारे जिनालये ॥ तस्य चाद्रेश्चतुर्दिक्स्थमहावापीविवर्त्तिषु । स्फाटिकेषु दधिमुखपर्वतेषु चतुर्ष्वपि ॥ ४१ ॥ चैत्येष्वर्हत्प्रतिमानां शाश्वतीनां यथाविधि । चत्वारः शक्रदिक्पालाः कुर्वतेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ ४२ ॥ ईशानेन्द्रस्त्वौत्तर हेऽञ्जना विदधाति तम् । तल्लोकपालास्तद्वापीदध्यास्याद्विषु कुर्वते ॥ ४३ ॥ चमरेन्द्रो दाक्षिणात्येऽञ्जनाद्रावुत्सवं सृजेत् । तद्वाप्यन्तर्दधिमुखेष्वस्य दिक्पतयः पुनः ॥ ४४ ॥ पश्चिमेऽञ्जनले तु बलीन्द्रः कुरुते महम् । सद्दिकूपालास्तु तद्वाप्यन्तर्भाग्दधिमुखाद्रिषु ॥ ४५ ॥ वर्षं दीपदिनारब्धानुपवासान् कुहूतिथौ । कुर्वन्नन्दीश्वरोपास्त्यै श्रायसी श्रियमार्जयेत् ॥ ४६ ॥ भक्त्या चैत्यानि वन्दारुतत्स्तोत्रस्तुतिपाठभाकू । नन्दीश्वरमुपासीनोऽनुपयहस्तरेत्तराम् ॥ ४७ ॥ प्रायः पूर्वाचार्य‘प्रथितैरेवायमादितः श्लोकैः । श्रीनन्दीश्वरकल्पो लिखित इति श्रीजिनप्रभाचार्यैः ॥ ४८ ॥ ॥ इति श्रीनन्दीश्वरकल्पः ॥ ॥ मं० ४९, अ० १० ॥ ४९ 1 B C °कििाः । 2 B पुण्यनिधिषु । 3 B विवर्षिषुः C वचर्चिषु; Pa विचर्चिषु। 4 B पाठकान् । 5 B कथिते । वि० क० ७ 5 10 15 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे २५, काम्पिल्यपुरतीर्थकल्पः । गंगामूलट्ठिअसिरिविमलजिणाययणमणहरसिरिस्स । कित्तेमि समासेणं कंपिल्लपुरस्स कप्पमहं ॥ १ ॥ अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे दक्षिणभारहखंडे पुवादिसाए पंचाला नाम जणवओ । तत्थ गंगानाममहानईतरंगभंगिपक्खालिज्जमाणपायारभितिअं कंपिल्लपुरं नाम नयरं । तत्थ तेरसमो तित्ययरो विमलनामा इक्खा5 गुकुलपईवकयवम्मनरिंदनंदणो सोमादेवीकुच्छिसिप्पिमुत्ताहलोवमो वराहलंछणो जच्चकणयवण्णो उप्पण्णो । तत्थ तस्सेव भगवओ चवण-जम्मण-रज्जाभिसेअ-दिक्खा-केवलनाणलक्खणाइं पंचकल्लागाइं जायाई । इत्तुचिअ' तत्थ पएसे पंचकल्लाणयं नाम नयरं रूढं । जत्थ यं तस्सेव भगवओ सूअरलंछणत्तणं पड्डुच्च देवेहि महिमा कया तत्थ य सूअरखित्तं पसिद्धिमुवगयं । तत्थेव नयरे दसमो चक्कवट्टी हरिसेणो नाम संजाओ । तहा दुवालसमो सवभोमो बंभदत्तनामा तत्थेव 10 समुप्पण्णो। तहा वीरजिणनिबाणाओ दोहिं सएहिं वीसाए समहिएहिं वरिसाणं मिहिलाए नयरीए लच्छीहरे चेईए महागिरीणं आयरियाणं कोडिन्नो नाम सीसो, तस्स आसमित्तो नाम सीसो अणुप्पवायपुचे नेउपिायक्थुम्मि छिन्नच्छेयणयवत्तवयाए आलावगं पढंतो विप्पडिवन्नो चतुत्यो निण्हवो जाओ । समुच्छेइयदिहि परूविन्तो एयं कंपिल्लपुरमागओ ! तत्थ खंडक्खा नाम समणोवासगा । ते अ सुंकपाला तेहिं भएण उववत्तीहिय पडिबोहिओ । 15 इत्थ संजयो नाम राया हुत्था । सो अ पारद्धीए गओ केसरुजाणे मिए हए' पासितो तत्थ गद्दभालिं अणगारं पासित्ता संविग्गो पबइत्ता सुगई पत्तो । इत्थेय नयरे गागली कुमारो पिट्टीचंपाहिवसाल-महासालाणं भाइणिज्जो पिढर-जसवईणं पुत्तो आसि । सो अ तेहिं माउलेहिं इतो नयराओ आहवित्ता पिढीचंपारज्जे अहिसित्तो । तेहिं च गोअमसामिपासे दिक्खा गहिआ । कालकमेणं गागलीवि अम्मापिउसहिओ गोअमसामिपासे जिणदिक्खं पडिवन्नो, सिद्धो अ। 20 इत्येव नयरे दिवमउडरयणपडिबिंबिअमुहत्तणपसिद्धेण नामधिज्जेण दुमुहो नाम नरवई कोमुईमहूसवे इंदके___उं अलंकिअविभूसिरं महाजणजणियइडिसक्कारं दटुं, दिगंतरे तं चेव भूमीए पडिअं पाएहिं विलुप्पमाणं अणाढाइज्जमाणं" दळूण इढेि अणिड्डेि समुपेहिऊण पत्तेयबुद्धो जाओ। इत्थैव पुरे दोवई महासई दुवयनरिंदधुआ पंचण्हं पंडवाणं सयंवरमकासी । इत्थेव पुरे धम्मरुई नारिंदो अंगुलिज्जगरयणुक्खेडिअजिणिंदबिंबनमंसणदोसुब्भावणेणं पिसुणेहिं कोविएण 25 कासीसरेण विग्गहिओ वेसमणेण धम्मप्पभावेणं सबलवाहणं परचकं "गगणमग्गेणं कासीए नेउं नित्यारिओ। तस्सेव सम्माणभायणं जाओ। ___ इच्चाइअणेगसंविहाणगरयणनिहाणं एवं नयरं महातित्थं । इत्थ तित्थजत्ताकरणेणं भविअलोआ जिणसासणप्पभावणं कुणंता अजिंति "इहलोअपरलोइअसुहाई, तित्थयरनामगुत्तं च । पिल्लिअ कुकम्मरिउणो कंपिल्लपुरस्स पवरतित्यस्स । कप्पं पढंतु असढा इय भणइ जिणप्पहो सूरी ॥१॥ ॥ श्रीकाम्पिल्यपुरकल्पः॥ ॥ ग्रं० ३३, अ०७॥ 30 1 Pa इत्यचिअ। 2 'य' नास्ति Pa CTP तस्सीसो। 4 P नेउणिय; C नेउलिय'। 5 P खंडरक्सा । 6 Pa संजमो। 7Pa हो। 8B भाणिजो। 9B नास्ति पदमेतत् । 10 ACगमणD गमगण। 11 इहलोइ. असुहाझ्यसुहाइ। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणहिलपुरस्थितअरिष्टनेमिकल्यः । २६. अणहिलपुरस्थितअरिष्टनेमिकल्पः । पणमिअ अरिट्ठनेमिं अणहिलपुरपट्टणावयंसस्स। बंभाणगच्छनिस्सिअअरिट्टनेमिस्स कित्तिमो कप्पं ॥१॥ पुचि किर सिरिकपणउज्जनयरे जक्खो नाम महिड्विसंपन्नो नेगमो हुत्या । सो अण्णया वणिजकने महया बइल्लसत्येणं कयाणगाणि गहिऊण कपणउज्जपडिबद्धं कन्नवज्जा हिवयुआए महणिगाए कंचुलिआसंबंधे दिण्णं गुजरदेसं पइ पट्टिओ आवासिओ अ कमेण लक्खारामे सरस्सईनईतडे । पुर्वि अणहिल्लवाडयपट्टणनिवे-5 सट्ठाणं किर तं आसि । तत्थ सत्थं निवेसित्ता अच्छंतस्स तम्स नेगमस्स पत्तो वासारत्तो । वरिसिउं पवत्ता जलहरा । अन्नया भद्दवयमासे सो बइल्लसत्थों सबो वि कत्थ वि गओ । को वि न जाणइ । सश्वत्थ गवेसाविओ वि न लद्धो । तओ सबस्सनासे इच अचंतचिंताउरस्स तस्स रत्तीए आगया सुमिणम्मि भगवई अंबादेवी । भणिअं च तीए-वच्छ ! जग्गसि सुवसि वा ? । जवखेण वुत्तं-अम्मो ! कओ मे निद्दा । जस्स बइल्लसत्थो सबस्सभूओ विप्पणट्ठो । देवीए साहिअं-भद्द ! एयम्मि लक्खारामे अंविलियाथुडस्स हिढे पडिमातिगं वइ । पुरिसतिगं खणावित्ता तं गहेयत्वं ! 10 एगा पडिमा सिरिअरिट्ठनेमिसामिणो, अवरा सिरिपासनाहस्स, अन्ना य अंबियादेवीए । जक्क्षण घागरियं-भयवइ ! अंबिलियाथुडाणं बाहुल्ले सो पएसो नाम कहं नायबो ? । देवीए जंपि-धाउमयं मंडलं पुप्फपयर च जत्थ पाससि तं चेव ठाणं पडिमातिगस्स जाणिज्जासि । तम्मि पडिमातिगे पयडीकए पूइ जंते अ तुज्झ बइल्ला सयमेव आगच्छिहिति । पहाए तेण उट्ठेऊण वलिविहाणपुवं तहा कए पयडीहूआओ तिण्णिवि पडिमाओ । पूइयाओ विहिपुवं । खणमित्तेण अतकिअमेव आगया बइल्ला। संतुट्टो नेगमो । कमेण कारिओ तत्थ पासाओ । ठावियाओ15 पडिमाओ। ___ अन्नया अइच्छिए वासारते अग्गहारगामाओ अट्ठारससयपट्टसालियघरअलंकियाओ बंभाणगच्छमंडणा सिरिजसोभद्दसूरिणो खंभाइत्तनयरोवरि विहरंता तत्थ आगया । लोगेहिं विन्नवि-भयवं ! तित्थं उल्लंघिउं गंतुं न कप्पइ पुरओ । तओ" तेहिं सूरीहिं तत्थ ताओ नमंसिआओ पडिमाओ ! मग्गसिरपुण्णिमाए धयारोवो महूसवपुर्व कओ। अन्ज वि पइवरिसं तम्मि चेव दिणे धयारोवो कीरइ । सो य धयारोवमहूसवो विक्कमाइचाओ पंचसु 20 सएसु दुत्तरेसु वरिसाणं (५०२ ) अइकंतेसु संवुत्तो। तओ अट्ठसएसु दुउत्तरेसु (८०२ ) विक्कमवासेसु अणहिल्लगोवालपरिक्खिअपएसे लक्खारामट्ठाणे पट्टणं चाउक्कड वंसमुत्ताहलेण वणरायराइणा निवेसि । तत्थ वर्णराय-जोगराय-क्खेमरायभूअर्ड चेयरसीह-यणाइच्च-सामंतसीहनामाणो सत्त चाउक्कडवंसरायाणो जाया । तो तत्थेव पुरे चालुकसे मूलराय-चामुण्डराय-वल्लभराय-दुल्लहराय -भीमदेव-कण्ण-जयसिंहदेव-कुमारपालदे-25 व-अजयंदेव-बालमूलराय-भीमदेवाभिहाणा एगारस नरिंदा । तओ वाघेलाअन्नए लूणप्पसाय-वीरेधवल-वीसलदेव-अज्जुणदेव-सारंगदेव-कण्णदेवा नरिंदा संजाया । तत्तो" अल्लावदीणाइसुरत्ताणाणं गुजरधरित्तीए आणा पयट्टा । सो अ अरिट्टनेमिसामी कोहंडीकयपाडिहेरो अन्ज वि तहेव पूइज्जइ त्ति । अरिष्टनेमिकल्पोऽयं लिखितः श्रेयसेऽस्तु वः । मुखात्पुराविदां श्रुत्वा श्रीजिनप्रभसूरिभिः ॥ १॥ ॥ इति अरिष्टनेमिकल्पः॥ ॥ मं० ३३ ॥ 30 1P पडिबुद्ध। 2 P कमउज्जा। 3P मयाणिगाए। 4 Pa देसे। 5Pa पहिओ। 6P पवित्तिया । 7 C Pa बयल। 8 P जक्खेणुत्तं। 9 B C Pa भययं । 10 P जंपियं देवीए। 11B नास्ति 'तो'। 12 Bचाउकडा 13Cक्यरसी। 14 Paनास्ति एतनाम। 15 तओ। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे २७. शंखपुरपार्श्वकल्पः । पुधिं किर नबमो पडिवासुदेवो जरासंधो रायगिहाओ नयराओ समग्गसिन्नसंभारेण नवमस्स वासुदेवस्स कण्हस्स विग्गहत्थं पच्छिमदिसं चलिओ । कण्हो वि समग्गसामग्गीए बारवईओ निग्गंतूण सम्मुहं तस्सागओ विसयसीमाए । तत्थ भयवयारिट्टनेमिणा पंचजण्णो संखो पूरिओ तत्थ संखेसरं नाम नयरं निविटं । तओ 5 संखस्स निनाएण खुभिएण जरासंधेण जरामिहाणं कुलदेवयं आराहित्ता विउविया विण्हुणो बले जरा । तए खाससासरोगेहि य पीडियं नियसिन्नं ददु आउलीहूअचिचेण केसवेण पुट्ठो भयवं अरिट्टनेमिसामी-भयवं ! कहं मह सिन्नं निरुवद्दवं होही?; कहं च मज्झ जयसिरी करयलट्ठिआ भविस्सइ ? । तओ भयवया ओहिनाणेणं आभोएऊण अइ8, जहा-पायाले पन्नगेहिं पूज्जमाणा भविस्सस्सारिहओ पासस्स पडिमा चिट्ठइ । तंजानियदेवयावसरे तुम यूएसि तया ते निरुवद्दवं च जयसिरी य होहिंति । तं सोऊण विण्हुणा सत्तमासे तिन्नि दिवसे य, मयंतरे दिणतिगं चेव, 10 आहाररहिएण विहिणा आराहिओ पिन्नगाहिराओं। कमेण पञ्चक्खीहूओ वासुगी नागराओ । तओ हरिणा भत्तिबहुमागपुत्वं मग्गिया सा पडिमा । अप्पिया य नागराएण । तओ महूसवपुचं आणिचा नियदेवयावसरे ठविआ । पूएउमाढत्तो तिक्कालं विहिणा। तओ तीए ण्हवणोदगेणं अहिसिने सयलसिन्ने, नियत्तेसु जरारोगसोगाइविग्धेसु सम्त्थीहूअं विण्हुणों' सिन्नं । कमेण पराजिओ जरासिंधू । लोहासुर-गयासुर चाणासुराइणो अनिजिआ । तप्पभिई धरणिंद-पउमावइसन्निशेणं सयलविग्यावहारिणी सयलऋद्धिजणणी य सा पडिमा संजाया । ठविआ 15 तत्थेव संखपुरे । कालंतरेण पच्छन्नीहूआ । कमेण संखकूवंतरे पयडीहूआ । अज्ज जाव चेईहरे सयलसंघेण पूइज्जइ, पूरेइ य अणेगविहे पच्चए । तुरुक्करायाणो वि तत्थ महिमं करिति । संखपुर डिअमुत्ती कामियतित्थं जिणेसरो पासो । तस्सेस मए कप्पो लिहिओ गीयाणुसारेण ॥ १॥ *संखेश्वराधीश्वरपार्श्वनाथः कल्याणकल्पद्रुम एष देवः । भव्यात्मनां सन्ततमेव लक्ष्मी [देहेऽपि ] गेहेऽपि च संविदध्यात् ॥ २॥ ॥ श्रीशंखपुरकल्पः॥ ॥ ग्रं० २२, अ० २५ ॥ 1Pa.Cजरासिंघो। 2 B दिटुं। 3A BCपूइज्जमाणे। 4 'तं जह' नास्ति CIt एतदन्तर्गतपाठस्थाने P प्रती 'कमेण पचवखीहोऊण नागराएण भणिय-किं सुमरणकारण ? ।' एतादृशः पाठः प्राप्यते। 5 B नास्ति पदमेतत् । एतदन्तर्गता पंक्तिीपलभ्यते P प्रतौ। 6P सावच्छि। 7P वासुदेवस्स। 8 Pa नास्ति 'गयासुर'। 9 B°पुरि *P प्रतावे. वेदं पद्यं दृश्यते। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नासिक्यपुस्कल्पः । २८. नासिक्यपुरकल्पः । चंदप्पहजिशचंदं बंदिअ दिअभवभयं भणिस्सामि । नासिअकलिमलनिवहं नासिकपुरस्स कप्पमहं ॥ १ ॥ नासिकपुरतित्थस्स उप्पत्तिं बंभणाई परतित्थिया एवं वणंति--पुचि किर नारयरिसिणा एगया भयवं कमलासणो पुट्ठो-पुण्णभूमिट्ठाणं कत्थ त्ति ? । कमलासणेणं भणियं जत्थेव इमं मज्झ पउमं पडिहिइ, तं चेव पवित्तं भूमिट्टाणं ति । अन्नया विरंचिणा तं पउमं मुक्कं । पडिअं मरहट्ठजणवयभूमीए अरुणा-वरुणा-गंगाहिं महानईहिं भूसियाए नाणाविह्वणस्सइमणहराए देवभूमिप्पायाए । तत्थ पउमासणेण पउमपुरं ति नगरं निवेसिअं । तत्थ कयजुगे जण्णो आढत्तो पियामहेणं । मिलिआ सुरा सवे । असुरा य हक्कारिजंता वि नागया सुरभएणं । ते भणंति-जइ भययं चंदप्पहसामी अंतरे आगच्छइ, ता अम्हे वीसस्था आगच्छामो । तओ चमक्किअचित्तो चउवयणो जत्थ सामी विहरइ तत्थ गंतूण पणमिऊण य जोडिअकरसंपुडो विण्णवेइ-भयवं! तत्थागच्छह, जहा मज्झ कज्जं सिज्झइ । सामिणा भणि-मह पडिरूवेणावि तं सिज्झिस्सइ । तओ बंभाणेणं चंदकंतमणिमयं बिंब 10 सोहम्मिदाओ चित्तूण तत्थाणीयं । आगया दाणवा । पारद्धो जण्णमहो सिद्धो अ । तत्थ कारिओ चंदप्पहविहारो पयावइणा । पुरदुवारे य सिरिसुंदरो' सुरो ठाविओ नयररक्खणभारे । एवं ताव पढमजुगे पउमपुरं ति तित्थं पसिद्धं । तेयाजुगे य दासरही रामो सीया-लक्खणसंजुओ पिउआणाए वणवासं गओ । गोअमगंगातीरे पंचवडीआसमे चिरं वणाहारेण ठिओ । इत्थंतरे रावणभइणी सुप्पणहा तत्थ पत्ता । रामं दद्रुण अज्झोववण्णा पत्थिती रामेण पडिसिद्धा । लक्खणमुवट्ठिआ । तेण तीए नासिया छिण्णा । तत्थ नासिकपुरं जायं । कमेण सीआ 15 रावणेण हरिया । राहवेण जुद्धे वावाइओ रावणो। बिभीसणस्स दि लंकारजं । तओ नियनयरिं पइ वलंतेणं रामेण चंदप्पहसामिणो भवणं उद्धरिअं । एस रामुद्धारो । एवं नासिकपुरे संजाए; कालंतरे पुण्णभूमि नाउं आगओ मिहिलाहिंतो तत्थ जणयराओ । तेण य तत्थ दस जण्णा कारिया । जणयट्ठाणं ति तं नयरं रूढं । अन्नया देवजाणी नाम सुक्कस्स महग्गहस्स धूआ जणयहाणपुरे कीलंती दंडयराएणं दिवा । स्ववइ चि बलामोडीए भग्गं तीसे सीलबयं । तस्स सरूवं उपलब्भ सुक्कमहगाहेणं रोसबसेणं सावो दिण्णो। एयं नयरं दंडयराय-20 सहिअं सत्तदिवसमंतरे छाररासी भविस्सइ ति ! तं च नारयरिसिणा नायं, दंडयरायस्स कहि । तं च सोऊण भीओ दंडयराया सयलं जणं सह आणेउं चंदप्पहसामिणं सरणं पवन्नो, छुट्टो । तप्पमिई जणथाणं ति तस्स नयरस्स पसिद्धं नामधिज्जं । एवं परतिस्थिआवि जस्स तित्थस्स माहप्पं उववणिति तस्स आरहंतलोआ कहं नोववण्णिहिति । __इत्थंतरे दावरजुगे पंडरायपत्तीए कुंतीदेवीए पढमपुत्ते जुहिहिले संजाए चंदप्पहसामिणो पासायं 25 जिण्णं दद्दूण उद्धारो काराविओ; सहत्थेणं बिल्लरुक्खो अ तत्थ वाविओ । तत्थ कुंतीविहारु त्ति नाम विक्खायं । इओ य दीवायणरिसिणा बारवईए दवाए उवक्खीणप्याए जायवयंसे वजकुमारो नाम जायवखत्तिओ आसि । तस्स गब्भवई भज्जा । सा बारवईए डज्झमाणीए बहुभत्तिपुवं दीवायणरिसिं मुक्कलाविता चंदप्पहसामिणं चेव सरणमागया ! पुण्णे समये पुण्णवंतं पुत्तं तत्थेव पसूआ। दहप्पहारि ति से नामं कयं । सो अ अइकंतबालभावो संपत्तजुबणो जाओ महारहो । इक्कंगेणावि सुहडलक्खेणं समं जुद्धं काउं समत्थो । अन्नया तत्थ चोरेहिं गावीओ 30 हरिआओ। ताओ सबाओ वि इक्केण दढप्पहारिणा चोरे निजिणिऊण वालिआओ । तओ तं अइपयंडपरक्कम पासिऊण चंभणाइनयरलोएण तस्स तलारपयं दिण्णं । निम्गहिआ तेण चोरचरडाइणो । जाओ सो कमेण महाराया 1B किरि। 2P विहायान्यत्र 'सुरदुवारे'। 3 B सुरसुंदरो। 4 P विहायान्यत्र 'पुरे'। 5B पत्थिती; P पच्छिती। 6 P कराविया। 7 P नास्ति 'च'। 8 P जणट्ठाण। 9 छिन्नं । 10 POकुंता । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ विविषतीर्थकल्पे तत्थेव नयरे । जायववंसस्स बीयं तत्थ 'उद्धरियं ति सवहुमाणं चंद्रप्पहसामिणो तेण भवणमुद्धरियं । एवं तइअजुगे उद्धारो । एवं अगे उद्धारा जुगतिगे वि तस्स संजाया । संपयं कलिकाले सिरिसंतिसूरीहिं उद्धारो काराविओं । पुत्रिं किर कल्लाणकडए नयरे परमड्डी नाम राया रज्जं करेइ । तेण जिणभत्तेण तत्थ पासाए चंदकतमणिर्विनं सोऊण चितिअं - अहमेयं बिंबं नियधरे आणिऊण 5 देवयावसरे पूइस्सामि त्ति । तओ कहंचि तत्रइयरं नाउं नासिक्कनयर लोएण तंत्रमयसंपुङमज्ज्ञे तं बिंबं निक्खिविय तदुवरि लेवो दिन्नो । जाया लेवमई पडिमा । तओ राइणा' जिणमंदिरमागएण तं बिंबं न दिहं । पुच्छिओ लोगो । तेण जहट्टिए विनते रणा चिंतियं -कहं एयं लेवपडिमं भिंदित्ता मूलबिंबं कड्डेमि ति । तओ नरिंदेण तस्स भवणस्स उद्धार काउं चउवीस गामा देवरस दिन्ना । जं तेसु दविणमुप्पज्जइ तेण देवाहिदेवो पुइज्जइ । तओ कित्तिए वि कालंतरगए आसन्नवत्तितंबयदेवाहिट्टियमहादुग्गबं भगिरिठिओ वाइओ' नाम महल्लयखत्तियजाई चरडो आसि । तेण सो पासाओ 10 पाडिओ । तं सोऊण पल्लीवालवंसावयंससाहुई सरपुत्तमाणिक्कपुत्त्रेण नाऊ कुक्खिसरोवररायहंसेण साहुकुमारसीहेण परमसाबण पासाओ पुण गवो कारिओ । सफलीकयं नायागयं नियवित्तं । उत्तारिओ अप्पा 'भवसमुद्दाओ । एवमणेगउद्धारसारं नासिक्कमहातित्थं अज्ज वि जत्तामहसवकरणेण आराहिंति चाउद्दिसाओ आगंतून संघा, प्रभावित कलिकालदप्पनिन्नासणं भयवओ सासणं ति । नासिक पुरस्स इमं कप्पं पोराणपरमतित्थस्स । वायंतपदंताणं संपज्जइ वंछिआ रिद्धी ॥ १ ॥ 15 किंचि परसमइयमुहा ससमयपुराविउमुहाओ तह सोउं । सिरिजिणपहसूरीहिं लिहिओ नासिकपुरकप्पो ॥ २ ॥ ॥ इति श्रीनासिक्यपुरकल्पः ॥ ॥ मं० ५९, अ० २७ ॥ 1 P उचरियं । 2 P कारिओ । 3 P जणपत्तेण । 4 P रणा । 5BC एवं 6P नास्ति । 7 P पाइओ । 8 P 'भव' नास्ति । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकंखीनगरस्थितपार्श्वनाथकल्पः । २९. हरिकंखीनगरस्थितपार्थनाथकल्पः । पणमिअ पासजिणेसं हरिकंखीनयरचेइयनिविटुं । तस्सेव कप्पमप्पं भणामि निदलिअकलिदप्पं ॥ १ ॥ ___ गुज्जरधराए हरिकंखीनामो अभिरामो गामो अच्छइ । तत्थ जिणभवणे उत्तुंगसिहरे सन्निहिअपाडिहेरा सिरिपासनाहपडिमा विविहपूआहिं पूइज्जइ भविअजणेणं तिकालं । अन्नया चालकवंसपईवसिरिभीमदेवरजे तुरुक्कमंडलाओ आगएण सबलवाहणेण अतनुबुक्काभिहाणेग' सल्लारेण अणहिलवाडयपट्टणगढं भंजित्ता 5 वलंतेण दिटुं हरिकंखीगामे तं चेईयं । मज्झे पविसित्ता भग्गा पासनाहपडिमा । तओ गाम उवद्दवित्ता चलिओ सवाणं पह सल्लारो । पुणो वसिओ गामो। समागया गुट्ठिअसावया । भगवंतं भग्गंग निरुवित्ता परुप्परं भणिउं पवत्ताअहो ! भगवओ महामाहप्पस्सावि कहं नाम भंगो विहिओ चिलाएहिं ! कस्थ पुण सा भगवओ तारिसी कला गय त्ति । तओ तेसिं पसुत्ताणं सुमिणे आइट्टमहिट्ठायगसुरेहिं, जहा-एयाए पडिमाए खंडाणि सबाणि एगट्ठी काऊण गब्भहरे ठाचिचा, दुवारं कवाडरुद्ध काउं, तालयं दाऊण, छम्मासं जाव पडियालेयवं । तओ परं दुवारमुग्घाडिय पडिमा निरि-10 क्खियचा संपुण्णंगोवंगा । गोट्टिएहिं भोग काऊण तहेव कयं; जाव पंचमासा वोलीणा । छट्ठस्स पारंभे ऊसुगी होऊण गोट्ठिएहिं बारमुग्धाडियं । जाव दिट्टा भगवओ सपुण्णंगुवंगकप्पा; केवलं ठाणे ठाणे मसनिवहपूरिआ । तओ तत्तमवियारित्ता तेहिं आहूओ सुत्तधारो । तेण टंकिआए मसा छिंदिउमारद्धा; जाव नीसरिअं मसेहिंतो रुहिरं । तओ भीया गुडिआ । पूआभोगाइएहिं पसाएउमारद्धा । तओ रत्तीए सुमिणे आइट्ठमहिद्वायगेहिं; जहा न सोहणं कयं तुम्हेहिं । जओ अपुण्णाए वि छम्मासीए दुआरमुग्धाडियं । पुणो वि टंकिआ वाहाविआ । संपयं पि ढकेह मह दुवारं; जाव 15 चरमो मासो समय्पइ । तेहिं तहेव विहिए, छम्मासाणंतरं उग्घाडिअंमि दारे दिट्ठा पाससामिस्स पडिमा निरुवयअखंडअंगुवंगा । केवलं नहसुत्तीसु अंगुढे य मणागं तुच्छ। । पहिहा य गुडिआ ! पुर्व व पूइउं पवत्ता । आगच्छंति चाउद्दिसाओ संघा । करिति जत्तामहूसवं । एवं चमुक्कारकारी माहप्पनिही सिरिपासनाहो। इय हरिकखीनयरे परिट्ठिअस्साससेणतणयस्स । सिरिजिणपहसूरीहिं कप्पो विहिओ समासेणं ॥ १ ॥ ॥ इति हरिकंखीनगरकृतवसतेः श्रीपार्श्वनाथस्य कल्पः॥ 20 ॥ अं० २५॥ 1 B Pa"भिहाणसल्लारेण । 2C नमुकार । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्प ३०. कपर्दियक्षकल्पः । सिरिसत्तुंजयसिहरे परिटिअं पणमिऊण रिसहजिणं । तस्सेवयस्स वुच्छं कवन्डिजक्स्वस्स कप्पमहं ॥ १ ॥ __ अस्थि वालकजणवए पालित्ताणयं नाम नयरं । तत्थ कवड्डिनामधिजो गाममहत्तरो । सो अ मज्जमंसमहुजीवघायअलिअवयणपरधणहरणपररमणीरमणाइपावट्टाणपसत्तचित्तो 'अणहीनामियाए अणुरूवचिट्ठिआए भज्जाए 5 सह विसए उवभुंजतो गमेइ कालं । अन्नया तस्स मंचयट्ठियस्स साहुजुअलं घरे पत्तं । तेणावि दिद्धिपणाम काउं विन्न जोडियकरेणं-भयवं! किमित्थागमणकारणं तुम्हाणं ? । अम्ह घरे दुद्ध-दहि-धय-तक्काइ य पउरमस्थि; जेण कजं तं आइसह । साहुहिं भणिअं-न अम्हे भिक्खट्टमागया किंतु अम्ह गुरुगो सपरिवारा सितुजजत्ताए आगया । संपयं पुण वासारत्तो पत्तो; साहूणं विहरिरं न कप्पइ । अओ तुम्ह पासे उवस्सयं मग्गेउमागया, जत्थ सूरिणो सपरिवारा चिट्ठति ! मयहरेण विन्नत्त--दिष्णो मए उक्स्सओ । आगच्छंतु सूरिणो, चिटुंतु अहासुहं । केवलं अम्हाणं पावनिरयाणं 10 धम्मोवएसो न दायधो त्ति । साहूहिँ भणिअं-एवं होउ ति । तओ आगया गुरुणो । ठिया वासाचउम्मासि । कुणंति संतयं सज्झायं; सोसंति छट्ठट्ठमाईहिं नियतणुं । कमेण अइकंते वासारत्ते पारणए मुक्कलाविति मयहरं गुरुणो । सो तेसिं सचपइण्णतणओ परितुट्ठो नियनयरसीमसंधि जाव वोलाविउं पट्टिओ । पत्ताए सीमसंघीए सूरीहिं जंपिअं-भो मेहर ! तए अम्हाणं उवस्सयदाणाइणा बहुउक्यारो कओ । अओ संपइ किंचि धम्मोवएस देमो, तेण पञ्चुवयारो कओ हवइ । मेहरेण भणियं-नियमो न ताव मह निबहइ; किंचि मंतक्खरं उवइसह । तओ सूरिहिं अणुकंपाए पंच15 परमिट्ठिनवकारमहामंतो सिक्खाविओ जलजलणथंभणाइपभावो अ तस्स उववण्णिओ । पुणो गुरूहिँ भणिअं-पइदिअहं सित्तुजदिसाए होऊण तुमए पणामो कायबो । मेहरेण तह ति पडिवजिऊण गुरुणो पणमिऊण नियघरे आगयं । सूरिणो अन्नत्थ विहरिआ । कमेण तं पंचपरमिट्टिमंतं जवितो नियमं च निबाहिंतो कालं अइबाहेइ । अन्नया नियघरिणीए कलह काऊण गेहाओ नीसारिओ । आरुहिउं लगो सित्तुजगिरिसिहरं । जाव मजमरियं भायणं करे धरिचा वडरुक्खच्छायाए मजपाणं करिउकामो उपविट्ठो, ताव गिज्झमुहकुहरट्टियअहिगरलबिंदू मज्जमायणे पडिओ 20 दिट्ठो । तं दट्टण विरत्तमणो मजं निअमेइ । भवविरत्तो अ अणसणं काऊण तक्खणं आइजिणिंदचलणकमलं नवकारं च संभरंतो सुहज्झाणेण मरणं संपत्तो । तित्थमाहप्पेणं नवकारप्पभावेणं च कड्डिजक्खो उप्पन्नो । ओहिनाणेण पुश्वभवं संभरिअ आइजिणिंदं अच्चेइ । सा य तस्स रोहिणी तबइयरं सुणित्ता तत्थ आगंतूण अप्पाणं भणसणं करिता जिणिंदं सुमरंती कालधम्ममुवगया । जाया तस्सेव करिवरतेण वाहणं । कवड्डिजक्खस्स चउसु भुअदंडेसु कमेण पासंकुस-दविणवासणिआ-बीयपूराइ चिट्ठति । पुणो सो ओहिणा आभोएऊण पुवभवगुरूणं 25 पायमूले पत्तो । वंदित्ता जोडिअकरयलो विन्नवेइ-भयवं! तुम्ह पसाएण एरिसा मए रिद्धी लद्धा । संपयं मह किंचि किञ्चमाइसह । गुरुणा जंपियं-इत्य तित्थे निच्चं तुभए ठाएयचं; तिकालं जुगाइनाहो अंचिअधो; जतागयभविअजणाणं मणवंछिअफलं पूरेयवं; सयलसंधस्स विग्धा. अवहरिअबा । तओ गुरूणं पाए वंदिअ तह त्ति पडिवजिअ गओ जक्खाहिवो विमलगिरिसिहरं । करेइ जहा गुरूवइह। इअ अंबादेवीए कवड्डिजक्खस्स जक्खरायस्स । लिहिअमिणं कप्पजुगं जिणपहसूरीहिं वुड्ढवयणाओ ॥१॥ ॥ इति कपर्दियक्षकल्पः॥ ॥ ० ४२॥ 30 1P अणिही। 2P "जुगलं। 3A 'पत्तो नास्ति। 4 P तत्थ। 50मुकलयांविति। 6AB मज्जपाणे । 7P पत्तो। 8P समुप्पन्नो। 9P मुणिता। 10 P रिद्धी मए पाविया । 11 P अचियव्यो। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवन्तिदेशस्थ अभिनन्दनदेवकल्पः। ३१. शुद्धदन्तीस्थितपार्श्वनाथकल्पः । पुचि किर अवज्झाए नयरीए दसरहनंदणो सिरिपउमाभिहाणो अट्ठमो बलदेवो परमसम्मद्दिट्टी अणेगसो दिपच्चयं अणेगविग्यावहारिणिं अणागयजिणिंदस्स सिरिपासनाहस्स रयणमइं पडिमं नियदेवयावसरे चिरकालं पूइत्था । कालकमेण पुवदेसे 'पउमागरा अपउमा' इच्चाइ नाएण धम्मपवित्तिं दूसमसमए तुच्छयरिं भाविणं नाऊग अहि. टायगदेवयाहिं गयणमग्गेण सत्तसयदेसे सुद्धदंतीनयरे आणेऊणं भूमिहरए धारिया सा ! कालविसमत्तं 3 जाणित्ता रयणमयत्तमवणेऊण पाहाणमई य सा पडिमा विहिया । बहुतरकालाइक्कमे सोधतिवालगच्छे विमलसूरिणो नाम आयरिया अहेसिं । तेसिं रत्तीए सुमिणे आएसो जाओ। जहा-इत्थ सिरिपासपडिमा अमुगपएसे भूमिहरट्टिआ चिट्टइ । तं कड्ढेऊण पूआवेहि त्ति । तओ तेहिं सावयसंघस्स आइलैं । तेण भूमिहराओ बाहिं नीणिया सा पडिमा । चेईहरं च कारिकं । ठविया तत्थ । पूइउमाढत्ता तिकालं । कालवसेण उबसीभूआए नयरीए एगया अहिट्ठायगाणं पमत्तत्तणेण तत्थ पसंगागयतुरुक्केहि भगक्ओ पासनाहस्स पडिमा दिट्ठा । अणज्जचरिएहिं मत्थयं 10 उत्तारित्ता धरणीए पाडियं ते गया। तओ छालीए चारितेण तत्थागएण एगेण अयावालेणं तं देवस्स मत्थयं भूमीए पडिअं दर्दू, बहु सोइत्ता, सामिसरीरस्स उवरि चडावियं । लागं च सलसंधिरहियं । तं देवयाणुभावेण अन्ज वि तहेब चिट्ठइ पूआरूढं च । इय शुद्धदंतिनयरद्वियस्स सिरिपासनाहदेवस्स । सिरिजिणपहसूरीहिं जहासुअं वण्णिओ कप्पो ॥ १॥ ॥ इति दन्तिदन्तच्छेदशुद्धयशसः श्रीशुद्धदन्तीपार्श्वनाथ[स्य कल्पः॥ 15 ॥ अं० १८ ॥ ३२. अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्पः । अवन्तिषु प्रसिद्धस्य सिद्धस्येद्धतरायतेः । अभिनन्दनदेवस्य कल्पं जल्पामि लेशतः ॥ १ ॥ इह किलेक्ष्वाकुवंशमुक्तामणेः श्रीसंवरराजसूनोः सिद्धार्थाकुक्षिसरसीराजहंसस्य कपिलाञ्छनस्य चामीकररुचेः खजन्मपवित्रितश्रीकोसलापुरस्य सार्द्धधनुःशतत्रितयोच्छ्रायकायस्य चतुर्थतीर्थेश्वरस्य श्रीमदभिनन्दनदेवस्य 20 चैत्यं मालवदेशान्तर्वर्तिमंगलपुरप्रत्यासन्नायां महाटवीगतायां 'मेदपल्यामासीत् । तस्यां च विचित्रपापकर्मनिर्माणकर्मठतायामजातनिर्वेदा मेदाः प्रतिवसन्ति स्म । अन्यदा तुच्छग्लेच्छसैन्येन तत्रापत्य ममं तजिनायतनम् । नवखण्डीकृतं च प्रमद्वरतयाऽधिष्ठायकानां कलिकालदुर्ललितानामकलनीयतया च प्रतिहतप्रणतजनडिम्बमपि तश्चैत्यालङ्कारभूतं भगवतोऽभिनन्दनदेवस्य विम्बम् । केचित्सप्त खण्डानीत्याहुः । तानि च शकलानि सञ्जातमनःखेदैर्मेदैः सम्मील्य एकत्र प्रदेशे धारितानि । एवं वंहीयसि गतवत्यनेहसि हरहसितसित गुणग्रामाभिरामो धाराडग्रामादुपेत्य नित्यं 25 वणिगेकः खकलाछेको वइजाभिस्यस्तत्र 'क्रयाक्रयिकारूपां वणिज्यामकार्षीत् । स च परमाईतस्ततः प्रत्यहं गृहमागत्य देवमपूपुजत् । स यकृतायां देवपूजायां न जातु बुभुजे । ततः पल्लीमुपेयिबानेकदाऽनेकदारुणकर्ममिस्तैरभिदधे स श्राद्धः-किमर्थमन्वहमे हिरेयाहिरां कुरुषे, अस्यामेव पक्ष्यां वणिगुचितभोज्यपूरणकल्पवल्यां किं न भुक्ष्वे ? । ततश्च भणितं वणिजा भो राजन्याः ! यावदहमहन्तं देवाधिदेवं त्रिभुवनकृतसेवं न पश्यामि न पूजयामि च तावन्न वल्भायां प्रगल्भे । किरातैर्जगदे-यद्येवं देवं प्रति तब निश्चयस्तदा तुभ्यं दर्शयामस्त्वदभिमतं दैवतम् । वणिजा पोचे-तथास्तु 130 ततस्तैस्तानि नवापि, सप्तापि या, खण्डानि यथावयवन्यास संयोज्य दर्शितं भगवतोऽभिनन्दनस्य बिम्बम् । तच्च 1C प्रसिद्ध नास्ति P। 2C मेटपाइयां। 3B चित्र। 4 BPa नास्ति "सित। 5 P क्रयक। वि००८ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ विविधतीर्थकल्से शुचितरमम्माणपाषाणघटितं विलोक्य प्रमुदितमुदितवासनातिशयेन तेन वणिग्वरेण ऋजुमनसा नमस्कृतस्तिरस्कृतदुरन्तदुरितो भगवान् , पूजितश्च पुष्पादिभिश्चैत्यवन्दना च विरचिता । ततः स तत्रैव भोजनमकुरुत गुरुतराभिग्रहः । इत्थं कारं प्रतिदिनं जिनपूजानिष्ठामनुतिष्ठति सति तस्मिन् वणिजि, अपरेधुरुधदविवेकातिरेकबहुलै हलैस्तस्माकिमपि द्रव्यं 'धनायद्भिस्तबिम्बं शकलानि युतकीकृत्य कचिदपि संगोप्य धृतम् । यावत्पूजावसरे तां प्रतिमामनालोक्य नासौ बुभुजे । 5 ततस्तेन विषण्णमनसा विहितमपानकमुपवासत्रयम् । अथ स मेदैरपृच्छि-किमर्थ नानासि ।। स यथातथमचकथत् । ततः किरातवातैरवादि-यदास्मभ्यं गुडं ददासि, तदा तुभ्यं दर्शयामस्तं देवम् । वणिजा बभणे--वितरिष्याम्यवश्यमिति । ततस्तैस्तत् सकलमपि शकलानां नवकं, सप्तकं या, प्राग्वत् संयोज्य प्रकटीकृतम् , दृष्टं च तेन संयोज्यमानं तद्विम्बम् । सुतरां विषादनिषादसंस्पर्शकलुषितहृदयः समजनि स श्राद्धधुरीणः । तदनु सात्त्विकतयाभिग्रहमग्रहीद्यावदिदं बिम्बमखण्डं न विलोकये तावन्नौदनमग्रीति । तस्येत्थमनुदिवसमुपवसतस्तविम्बाधिष्ठायकैः खमे निजगदे-यदस्य बिम्बस्य नवखण्ड10 सन्धयश्चन्दनलेपेन पूरणीयाः, तत इदमखण्डतामेष्यतीति । प्रबुद्धेन तेन प्रातर्जातप्रमोदेन तथैव चक्रे । समपादि भग वानखण्डवपुः । सन्धयश्च मिलिताश्चन्दनानुलेपमात्रेण । क्षणमात्रेण भगवन्तं विशुद्धश्रद्धया सम्पूज्य मुक्तवान् पण्याजीव: पीवरां मुदमुद्वहन् , ददौ च गुडादि मेदेभ्यः । तदन्तरं तेन वणिजा मणिजातमिव प्राप्य प्रहृष्टेन शून्यखेटके पिप्पलतरोस्तले वेदिकाबन्धं विधाय" सा प्रतिमा मण्डिता । ततः प्रभृति श्रावकसङ्घाश्चातुर्वर्ण्यलोकाश्चतुर्दिगन्तादागत्य यात्रो सर्व सूत्रयितुं प्रवृत्ताः । तत्र अभयकीर्ति- भानुकीर्ति-आंबा-राजकुलास्तत्र मठपत्याचार्याश्चैत्यचिन्तां कुर्वते। 15 अथ प्राग्वाटवंशावतंसेन थेहात्मजेन साधुहालाकेन निरपत्येन पुत्रार्थिना विरचितमुपयाचितकम्-यदि मम सूनुर्जनिता तदात्र चैत्यं कारयिष्यामीति । क्रमेणाधिष्ठायकत्रिदशसान्निध्यतः पुत्रस्तस्योदपद्यत कामदेवाख्यः । ततश्चैत्यमुच्चैस्तरशिखरमचीकरत्साधुहालाकः । क्रमात्साधुभावडस्य दुहितरं परिणायितः कामदेवः । पित्रापि डाहाग्रामादाहूय मलयसिंहादयो देवार्चकाः स्थापिताः । महणियाभिख्यो “मेदः खाङ्गुली भगवदुद्देशेन कृन्तवान-किलाहमस्य भगवतोऽहलीवर्द्धितः सेवक इति । भगवद्रिलेपनचन्दनलगनाच्च तस्याङलिः पनर्नवीबभूव । तमति20 शयमतिशायिनं निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वरः स्फुरद्भक्तिप्राग्भारभाखरान्तःकरणः खामिनं स्वयमपूपुजत् । देवपूजार्थं च चतुर्विंशतिहलकृष्यां भूमिमदत्त मठपतिभ्यः । द्वादशहलवायां चावनी देवार्चकेभ्यः प्रददाववन्तिपतिः । अद्यापि दिग्मण्डलव्यापिप्रभाववैभवो भगवानभिनन्दनदेवस्तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति । अभिनन्दनदेवस्य कल्प एष यथाश्रुतम् । अल्पीयान् रचयांचने श्रीजिनप्रभसूरिभिः ॥ १॥ ॥ इति सकलभूवलयनिवासिलोकाभिनन्दनस्य श्रीअभिनन्दनदेवस्य कल्पः ॥ 25 ॥ ० ५३, अ० १८॥ 1C समानयद्भिः। 2 P°तरोर्मूले। अभिनन्दनदेवकल्पः । इत्येव संक्षिप्तोल्लेखः । निधाय । 4 P नारयतत्राम। 5BC मेदुः । ।P प्रतौ इति Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठानपुरकल्पः । ३३. प्रतिष्ठानपुरकल्पः । श्रीसुनतजिनं नत्वा प्रतिष्ठां प्रापुषः क्षितौ । प्रतिष्ठानपुरस्याभिदध्मः कल्पं यथाश्रुतम् ॥ १ ॥ इह भारते वर्षे दक्षिणखण्डे महाराष्ट्रदेशावतंसं श्रीमत्प्रतिष्ठानं नाम पत्तनं विद्यते । तच्च निजभूत्याभिभूतपुरुहूत' पुरमपि कालान्तरेण क्षुल्लकग्रामप्राय मजनिष्ट । तत्र चैकदा द्वौ वैदेशिकद्विजी समागत्य विधवया स्वस्रा साकं कस्यचित्कुम्भकारस्य शालायां तस्थिवांसौ । कणवृत्तिं विधाय कणान् स्वरुपनीय तत्कृताहारपाकेन समयां कुरुतः स्म । अन्येद्युः सा तयोर्विप्रयोः खसा जलाहरणाय गोदावरीं गता । तस्याश्च रूपमप्रतिरूपं निरूप्य स्मरपरवशोऽअन्तर्हृदवासी शेषो नाम नागराजो हृदान्निर्गत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत् । भवितव्यताविलसितेन तस्याः सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्यशक्त्या शुक्रपुद्गलसञ्चाराद्गर्भाधानमभवत् । खनामधेयं प्रकाश्य, व्यसनसङ्कटे मां स्मरेत्यभिधाय च, नागराजः पाताललोकमगमत् । सा च स्वगृहं प्रत्यगच्छत् । व्रीडापीडितया तया च स्वभ्रात्रे स्ववृत्तान्तं न खलु न्यवेदयत् । कालक्रमेण सौदर्याभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जातगर्भेत्यलक्ष्यत । ज्याय- 10 सस्तु मनसि शङ्का जाता, यदियं खलु कनीयसोपमुक्तेति । शङ्कनीयान्तराभावाद्यवीयसोऽपि चेतसि समजनि विकल्पों, नूनमेषा ज्यायसा सह विनष्टशीला - इत्येवं मिथः कलुषिताशयौ विहाय तामेकाकिनीं पृथक् पृथक् देशान्तरमयासि - ष्टाम् । सापि प्रवर्धमानगर्भा परमन्दिरेषु कर्माणि निर्मिमाणा प्राणवृत्तिमकरोत् । क्रमेण पूर्णेऽनेहसि सर्वलक्षणलक्षिताङ्गं प्रसूत सूनुम् । स च क्रमाद् वपुषा गुणैश्व वर्धमानः सवयोभिरमा रममाणो बाल्कीडया स्वयं भूपतीभूय तेभ्यो वाहनानि करितुरगरथादीनि कृत्रिमाणि दत्तवानिति । सनोतेर्दानार्थत्वात् । लोकैः सातवाहन इति व्यपदेशं लम्भितः । 15 खजनन्या पाल्यमानः सुखमवास्थित । ५९ इतोज्जयिन्यां श्रीविक्रमादित्यस्यावन्तिनरेशितुः सदसि कश्चिनैमित्तिकः सातवाहनं प्रतिष्ठानपत्तने भाविनं नरेन्द्रमादिशत् । अथैतस्यामेव पुर्यामेकः स्थविरविप्रः स्वायुरवसानमवसाय चतुरः स्वतनयानाहूय प्रोक्तवान् । यथा - वत्स ! मयि परेयुषि मदीयशय्योच्छीर्षकदक्षिण पदादारभ्य चतुर्णामपि पादानामधो वर्तमानं निधिकलशचतुष्टयं युष्माभिर्यथाज्येष्ठं विभज्य ग्राह्यम्, येन भवतां निर्वाह: संपनीपद्यते । पुत्रैस्तु तथेत्यादेशः स्वीचक्रे 20 पितुः । तस्मिन्नुपरते तस्यैौर्ध्वदेहिकं कृत्वा त्रयोदशेऽहनि भुवं खात्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलशांस्ते जगृहिरे । यावदुद्घाट्य निभालयन्ति तावत्प्रथमस्य कुम्भे कनकम्, द्वैतीयकस्य कृष्णमृत्सा, तृतीयस्य बुशम्, तुरीयस्य चास्थीनि ददृशिरे । तदनु ज्यायसा साकं इतरे त्रयोऽपि विवदन्ते स्म - यदस्मभ्यमपि विभज्य कनकं वितरेति । तस्मिंश्चावितर सति तेऽवन्तिपतेर्धर्माधिकरणमुपास्थिषत । तत्रापि न तेषां वादनिर्णयः समपादि । ततश्चत्वारोऽपि ते महाराष्ट्रजनपदमुपानंसिषुः । सातवाहन कुमारस्तु कुलालमृदा हस्त्यश्वरथसुभटानन्वहं नवनवान् विदधानः कुलालशालायां 25 बालक्रीडादुर्ललितः कलितस्थितिरनयत् समयम् । ते च द्विजतनुजाः प्रतिष्ठानपत्तनमुपेत्य परितस्तस्यामेव चक्रजीवनशालायां तस्थिवांसः । सातवाहन कुमारस्तु तानवेक्ष्येङ्गिताकार कुशलः प्रोवाच भो विप्राः । किं भवन्तो वीक्षापन्ना इव वीक्ष्यन्ते । तैस्तु जगदे -जगदेकसुभग ! कथमिव वयं चिन्ता चान्तचेतसस्त्वयाऽज्ञासिष्महि । कुमारेण बभणेइङ्गितैः किमिव नावगम्यते ! । तैरुक्तम् - युक्तमेतत् परं भवतः पुरो निवेदितेन चिन्ताहेतुना 'किं स्याद् ! | बालः खलु भवान् । बाल आलपद्-यदि परं जातु मत्तोऽपि साध्यं वः सिध्यति । तन्निवेद्यतां स चिन्ताहेतुः । ततस्ते तद्व- 90 चनवैचित्रीहृतहृदयाः सकलमपि स्वस्वरूपं निधिनिरयणादि मालवेशपरिषद्यपि विवादानिर्णयान्तं तस्मै निवेदितवन्तः । कुमारस्तु स्मितविच्छुरिताधरोऽवादीत्-मो विप्राः ! अहं यौष्माकं झगटकं निर्णयामि श्रूयतामवहितैः । यस्य तावद्वत्रा कनककलशं प्रददे स तेनैव निर्वृतोऽस्तु । यस्य कलशे कृष्णमृत्स्ना निरगात्स क्षेत्र केदारादीन् गृह्णातु । यस्य तु बुशंस 1B प्राकः 0 एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता C आदर्श | 2 B नास्त्यैतत्पदम् । 3 B समागम्य । 4C पीडिततया । 5 B लक्ष्यते । 6 BP & पुरेयुधि । 7 Pa ° पदे । 8 B P वीश्यापन्ना । 9 B बिना हेतुना | Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० विविधतीर्थकल्पे कोष्ठागारगतधान्यानि सर्वाण्यपि खीकुरुताम् । यस्य चास्थीनि निरगुः सोऽश्वगोमहिषीवृषभदासीदासादिकमुपादत्तामिति युष्मज्जनकस्याशयः । इति क्षीरकण्ठोक्तं श्रुत्वा सूत्रकण्ठाश्छिन्नविवादास्तद्वचनं प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य प्रत्याययुः खनगरीम् । प्रथिता सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्याम् । राज्ञाप्याकार्य पर्यनुयुक्ताः-किं नु भो ! भवतां वादनिर्णयो जातः । तैरुक्तम्- आम खामिन् ! ! केन निर्णीतः ?-इलि नृपेणोदिते सातवाहनखरूयं सर्वमवितथमचकथन् । तदाकर्ण्य, 5 तस्य शिशोरपि बुद्धिवैभवं विभाव्य, प्रागुक्तं दैवज्ञेन तस्य प्रतिष्ठाने राज्यं भविष्यदनुस्मृत्य, तं खप्रतिपन्थिनमाकलय्य क्षुभितमनास्तन्मारणौपयिकमचिन्तयञ्चिरं नरेश्वरः । अभिमरादिप्रयोगैसरिते चास्मिन्नयशः क्षात्रवृत्तिक्षती भवेतामिति विचार्य सन्नद्धचतुरङ्गचमूसमूहोऽवन्तिपतिः प्रस्थाय प्रतिष्टानपत्तनं यथेष्टमवेष्टयत् । तदवलोक्य ते प्राम्यास्त्रस्ताश्चिन्तयन्ति स्म । कस्योपर्ययमेतावानाटोपः सकोपस्य मालवेशस्य । न तावदत्र राजा राजन्यो वा वीरस्ताहग्दुर्गादि वेति चिन्तयत्सु तेषु मालवेशप्रहितो दूतः समेत्य सातवाहनभवोचत्-भो कुमारक ! तुभ्यं नृपः क्रुद्धः प्रातस्त्वां मार10 यिष्यत्यतो युद्धाद्युपायचिन्तनावहितेन भवता भाव्यमिति । स च श्रुत्वापि दूतोक्तीनिर्भयं निर्भर' क्रीडन्नेवास्ते । अत्रा न्तरे विदितपरमार्थौ तौ तन्मातुलावितरेतरं प्रति विगतदुर्विकल्पो पुनः प्रतिष्ठानमागतौ परचक्रं दृष्ट्वा भगिनी प्रोचतुः-हे खसर्येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्तस्तमेव स्मर, यथा स एवास्य साहायकं विधत्ते । सापि तद्वचसा प्राचीनं नागपतेर्वचः स्मृत्वा शिरसि निवेशितघटा गोदावयाँ नागहृदं गत्वा, स्नात्वा च, तमेव नागनायकमाराधयत् । तत्क्षणा नागराजः प्रत्यक्षीभूय वाचमुवाच ब्राह्मणी-को हेतुरहमनुस्मृतस्त्वया ? ! तया च प्रणम्य यथास्थितमभिहिते, बभाषे 15 शेषराजः-मयि प्रतपति कस्तव तनयममिभवितुं क्षमः ? इत्युदीर्य तद् घटमादाय हृदान्तर्निमज्य पीयूषकुण्डात् सुधया घटं प्रपूर्यानीय च तस्यै दत्तवान् । गदितवांश्व-अनेनामृतेन सातवाहनकृतमन्मयाश्वरथगजपदातिजातमभिषिञ्चेः, यथा तत्सीवं भूत्वा परवलं मनक्ति । त्वत्पुत्रं च प्रतिष्ठानपत्तनराज्ये अयमेव पीयूषघटोऽभिषेक्ष्यति । प्रस्तावे पुनः स्मरणीयोऽहम्-इत्युक्त्वा खास्पदमगमद्भुजङ्गपुङ्गवः । सापि सुधाघटमादाय खसद्मोपेत्य, तेन तन्मृन्मयं सैन्यमदैन्यमभ्यु क्षामास । प्रातदिव्यानुभावतस्सचेतनीभूय तत्सैन्यं सम्मुखं गत्वा युयुधे परानीकिन्या सार्द्धम् । तया सातवाहन20 पृतनया भन्ममवन्तीशितुर्बलम् । विक्रमनृपतिरपि पलाय्य ययाववन्तीम् । तदनु सातवाहनो राज्येऽभिषिक्तः । प्रतिष्ठानं च पुनर्निजविभूतिपरिभूतवस्त्रोकसाराभिमानं धवलगृहदेवगृहहट्टपंक्तिराजपथप्राकारपरिखादिभिः सुनिविष्टमजनिष्ट पत्तनम् । सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणापथमनृणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथं साधयित्वा खकीयसंवत्सरं प्रावीवृतत् । जैनश्च समजनि । अचीकरच जनितजननयनशैत्यानि जिनचैत्यानि । पञ्चाशद्वीरा अपि प्रत्येकं खखनामाकितान्यन्तनगरं कारयांबभूवुर्जिनभवनानि । ॥ इति प्रतिष्ठानपत्तनकल्पः ॥ ॥ ग्रं०४७॥ 25 IBनास्ति पदमेतत् । 2 PN मृन्मय । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठानपुराधिपति सातवाहननृपचरित्रम् । ३४. प्रतिष्ठानपुराधिपतिसातवाहननृपचरित्रम् | अथ प्रसङ्गतः परसमयलोकप्रसिद्धं सातवाहन चरित्रशेषमपि किञ्चिदुच्यते श्रीसातवाहने क्षितिं रक्षति पञ्चाशद्वीराः प्रतिष्ठाननगरान्तस्तदा वसन्ति स्म । पञ्चाशच नगराद्वहिः । इतश्च तत्रैव पुरे एकस्य द्विजस्य सूनुर्दर्पोद्धुरः शूद्रकाख्यः समजनि । स च युद्धश्रमं दर्पात्कुर्वाणः पित्रा स्वकुलानुचितमिदमिति प्रतिषिद्धो नास्थात्' । अन्येयुः सातवाहननृपतिर्वापला-खूंदला दि-पुरान्तर्वर्ति-वीरपञ्चाशदन्वितो द्विप-5 ञ्चाशद्धस्तप्रमाणां शिलां श्रमार्थमुत्पाटयन् दृष्टः पित्रा समं गच्छता द्वादशाब्ददेशीयेन शुद्धकेण । केनापि वीरेणाङ्गुलचतुष्टयम्, केनचित्षडङ्गुलान्यष्टौ [वा ] शिला भूमित उत्पादिता । महीजानिना त्वाजानु नीता । इत्यवलोक्य शूद्रकः स्फूर्जदूर्जितमवादीत् - भो भो ! भवत्सु मध्ये किं शिलामिमामा मस्तकं न कश्चिदुद्धर्तुमीष्टे ! । तेऽपि सेर्ण्यमवादिषुर्यथा-त्ववोत्पाटय, यदि समर्थमन्योऽसि । शूद्रकस्तदाकर्ण्य तां शिलां वियति तथोच्छालयांचकार यथा सा दूरमूर्ध्वमगमत् । पुनरवादि शूद्रकेण-यो भवत्स्वलं भूष्णुः स खल्विमां निपतन्तीं स्तनातु । सातवाहना दिवीरैर्मयोद्धान्तलोचनैरूचे 10 स एव सानुनयम्, यथा-भो महाबल ! रक्ष रक्षास्माकीनान् प्राणानिति । स पुनस्तां पतयालुं तथा मुष्टिप्रहारेण प्रहतवान् यथा सा त्रिखण्डतामन्वभूत् । तत्रैकं शकलं योजन त्रयोपरि न्यपतत् । द्वैतीयीकं च खण्डं नागद्ददे । तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे चतुष्पथमध्ये निपतितमद्यापि तथैव वीक्ष्यमाणमास्ते जनैः । तद्बलविलसित' चमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शूद्रकं सुतरां सत्कृत्य पुरारक्षकमकरोत् । शस्त्रान्तराणि प्रतिषिध्य ' दण्डधारस्तस्य दण्डमेवायुधमन्वज्ञासीत्। [स] च शुद्रको बहिश्चरान् वीरान् पुरमध्ये प्रवेष्टुमपि न दत्तवान्, अनर्थनिवारणार्थम् । अन्यदा स्वसौधस्योपरितले शयानः 15 सातवाहनः क्षितिपतिर्मध्यरात्रे शरीरचिन्तार्थमुत्थितः पुराद्बहिः परिसरे करुणं रुदितमाकर्ण्य, तत्प्रवृत्तिमुपलब्धुं कृपाणपाणिः परदुःखदुःखितहृदयतया गृहान्निरगमत् । अन्तराले शूद्र केणावलोक्य सप्रश्रयं प्रणतः, पृष्टश्व महानिशायां निर्गमनकारणम् । धरणीपतिरवदद् - यदयं बहिः पुरः परिसरं करुणक्रन्दितध्वनिः श्रवणाध्वनि पथिकीभावमनुभवन्नस्ति, तत्कारणप्रवृतिं ज्ञातुं व्रजन्नस्मीति राज्ञोते; शूद्रको व्यजिज्ञपत्-देव ! प्रतीक्षपादैः खसौधालङ्करणाय पादोऽवधार्यतामहमेव तत्प्रवृत्तिमानेष्यामीत्यभिधाय वसुधानायकं व्यावर्त्य स्वयं रुदितध्वन्यनुसारेण पुराद्वहिर्गन्तुं 20 प्रवृत्तः । पुरस्ताद्व्रजन् दत्तकर्णो गोदावर्याः श्रोतसि कञ्चन रुदन्तमश्रौषीत् । ततः परिकरबन्धं विधाय शुद्रकः तीर्त्वा यावत्सरितो मध्यं प्रयाति तावत्पयःपूरप्लाव्यमानं नरमेकं रुदन्तं वीक्ष्य बभाषे - भोः ! कस्त्वं किमर्थं च रोदिषीत्यभिहितः स नितरामरुदत् । अतिनिर्बन्धेन पुनः पृष्टः स्पष्टमाचष्ट - भोः साहसिकशिरोमणे ! मामितो निष्काश्य भूपतेः समीपं प्रापय, येन तत्र खवृत्तमाचक्षे - इत्युक्तः शूद्रकस्तमुत्पाटयितुं यावदयतिष्ट, तावन्नोत्पटति स्म सः । ततोऽधस्तात् केनापि यादसा मा विधृतोऽयं भवेदित्याशय, सद्यः कृपाणिकामधो वाहयामास शूद्रकः । तदनु शिरोमात्रमेव 25 शूद्रकस्योद्धर्तुः करतलमारोहलघुतया तच्छिरः प्रक्षरद्रुधिरधारमवलोक्य शुद्रको विषादमापेदानश्चिन्तयति स्म - धिग् मामप्रहर्तरि प्रहर्तारम्, शरणागतघातुकं चेत्यात्मानं निन्दन् वज्राहत इव क्षणं मूच्छितस्तस्थौ । तदनु समधिगतचैतन्यश्चिरमचिन्तयत्-कथमिवैतत् खदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेदयिष्यामीति लज्जितमनास्तत्रैव काष्ठैश्चितां विरचय्य तत्र ज्वलनं प्रज्वाल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदुदर्चिषि प्रवेष्टुं प्रववृते तावत्चेन मस्तकेन निजगदे - भो महापुरुष 1 किमर्थमित्थं व्यवसीयते भवता ? । यावदहं शिरोमात्रमेवास्मि सैंहिकेयवत्सदा । तद्दृथा मा विषीद प्रसीद मां राज्ञः समीप- 30 मुपनय इति तद्वचनं निशम्य चमत्कृतचित्तः, प्राणित्ययमिति प्रहृष्टः शूद्रकस्वच्छिरः पटांशुकवेष्टितं विधाय प्रातः सातवाहनमुपानमत् । अपृच्छदथ पृथिवीनाथ:-शूद्रक ! किमिदम् ? । सोऽप्यवोचत्-देव ! सोऽयं यस्य क्रन्दित - ध्वनिर्देवेन रात्रौ शुश्रुवे । इत्युक्त्वा तस्य प्रागुक्तं वृत्तं सकलमावेदयत् । पुना राजा तमेव मस्तकमप्राक्षीद् भोः ! 4 C विलसितेन | 5 Pa नास्ति पदद्वयमेतत् । 6 B तत्क्षणं । 1 Pa नास्थानात् । 2 B रखलातु । 3 B ६१ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ विविधतीर्थकल्पे कस्त्वं किमर्थ चात्र भवदागमनमिति: । तेनाभिदधे-महाराज! भवतः कीर्तिमुभाकर्णि समाकर्ण्य करुणरुदितव्याजेनारमानं ज्ञापयित्वा त्वामहमुपागमम् , दृष्टश्च भवान् , कृतार्थे मेऽद्य चक्षुषी जाते इति । कां कलां सम्यगवगच्छसि !-इति राज्ञा पृष्टे, तेनोक्तम् देव ! गीतकलां वेभि । ततो राज्ञ आज्ञया निरवगीतं गीतं गातुं प्रचक्रमे । क्रमेण तद्गानकलया मोहिता सकलापि नृपतिप्रमुखा परिषत् । स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां मायां निर्माय महीपतेर्महिषी 5 महनीयरूपधेयामपजिहीर्घरुपागतो बभूव । न च विदितचरमेतत्कस्यापि । लोकैस्तु शीर्षमात्रदर्शनात्तस्य प्राकृतभाषया सीपुला इति व्यपदेशः कृतः । तदनु प्रतिदिनं तस्मिन्नतितुंबरौ मधुरतरं गायति सति श्रुतं तस्वरूपं महादेव्या । दासीमुखेन भूपं विज्ञाध्य तच्छीर्षकं खान्तिकमानायितम् । प्रत्यहं तमजीगपत् राज्ञी । दिनान्तरे रात्रौ प्रस्तावमासाद्य सद्य एवापहरति स्म तां मायासुरः । आरोपयामास च घण्टाविलम्बिनामनि स्वविमाने । राज्ञी च करुणं क्रन्दितुमारे मे-हाऽहं केनाप्यपहिये! ! अस्ति कोऽपि वीरः पृथिव्यां यो मां मोचयति । तच खूदलाभित्येन वीरेण श्रुत्वा 10धावित्वा व्योमन्युत्पत्य च तद्विमानस्य घण्टा पाणिना गाढमधार्यत । ततस्तत्प्राणेनावष्टब्धं विमानं पुरस्तान प्राचालीत् । तदनु चिन्तितं मायासुरेण-किमर्थं विमानमेतन्न सर्पति ? । यावदद्राक्षीतं वीरं हस्तावलम्बितघण्टं ततः खड्गेन तद्धस्तमच्छिदत् । पतितः पृथिव्यां वीरः । स चासुरः पुरः प्राचलत् । ततो विदितदेव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः पञ्चाशतमेकोनां वीरानादिक्षत्-यत्पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियताम् , केनेयमपहृतेति । प्रागपि शूद्रकं प्रत्यसूयापराः ते प्रोचुः महाराज! शुद्रक एव जानीते अनेनैव तच्छीर्षकमानीतं तेनैव च देवी जहू । ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपण15 माज्ञापयत् । तदनु देशरीतिवशात्तं रक्तचन्दनानुलिप्ताङ्गं शकटे शाययित्वा, तेन सह गाढं बध्वा, शूलायै यावदाजपुरुषाश्चेलुस्तावत्पञ्चाशदपि वीरास्सम्भूय शुद्रकमवोचन्-भो महावीर ! किमर्थमेवं रण्डेव म्रियते भवान् ! । 'अशुभस्य कालहरण मिति न्यायात् मार्गय नरेन्द्राकतिपयदिनावधिम् , शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम्', किमकाण्ड एव खकीयां वीरत्वकीर्तिमपनयसि । तेनोक्तम्-गम्यतां तर्हि उपराजम् , विज्ञाप्यतामेतमर्थ राजा । तैरपि तथाकृते प्रत्यानायितः शुद्रकः क्षितीन्द्रेण । तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृता-महाराज ! दीयतामवधिर्येन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीं तदप20 हारिणं च । राज्ञा दिनदशकमवधिदत्तः । शूद्रकगृहे च सारमेयद्वयमासीत्तत्सहचारि । नृपतिरपददेतद्भवणयुगलं प्रति भूप्रायमसत्पाबें मुञ्च, स्वयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये हिण्डतां महीमण्डलम् । सोऽप्यादेशः प्रमाणमित्सुदीर्यवीर्यवान् प्रतस्थे । भूचक्रशकस्तत्कौलेयकद्वन्द्वं शृङ्खलाबद्धं स्वशय्यापादयोरबध्नात् । शुद्रकस्तु परितः पर्यट्यमानोऽपि यावत्प्रस्तुतार्थस्य वार्तामात्रमपि कापि नोपलेभे, तायदचिन्तयद् अहो ! ममेदमपयशः प्रादुरभूद्यदयं खामिद्रोही मध्ये भूत्वा देवीमुपाजीहरदिति । न च वापि शुद्धिर्लब्धा तस्यास्तस्मान्मरणमेव मम शरणमिति विमृश्य दारुभिश्चितामरचयत् । ज्वलनं 25 चाज्वालयद्यावन्मध्ये प्राविशत्तावत्वाभ्यां शुनकाभ्यां देवताधिष्ठिताभ्यां ज्ञातं यदस्सदधिपतिनिधनं धनायन्नस्तीति । ततो दैवतशक्त्या शृङ्खलानि भक्त्वा निर्विलम्बं गतौ तौ तत्र यत्रासीच्छूद्रकरचिता चिता । दशनैः केशानाकृष्य शुद्रकं बहिनिष्कासयामासतुः । तेनाप्यकस्मात्तौ विलोक्य विस्मितमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ ! किमेतत्कृतं भवभ्यामशुभवद्भ्याम् । राज्ञो मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति, यत्पतिभुवावपि तेनात्मना सह नीताविति । भषणाभ्यां बभाषे-धीरो भव, अस्मदर्शितां दिशमनुसर, सरभसं का चिता तवेत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थितौ तेन सार्द्धम् । क्रमात्प्राप्ती कोल्ला30 पुरम् । तत्रस्थं महालक्ष्मीदेव्या भवनं प्रविष्टौ । तत्र शूद्रकस्तां देवीमभ्यर्च्य कुशस्त्रस्तरासीनस्त्रिरात्रमुपावसत् । तदनु प्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्-वत्स ! किं मृगयसे । शुद्रकेणोक्तम्-खामिनि ! सातवाहनमहीपालमहिप्याः शुद्धिं वद; वास्ते, केनेयमपहृता ? । श्रीदेव्योदितम्-सर्वान् यक्षराक्षसभूतादिदेवगणान् सम्मील्य तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि । परं तेषां कृते त्वया बल्युपहारादिप्रगुणीकृत्य धार्यम् । यावच ते कणेहत्य बल्याधुपभुज्य प्रीता न भवेयुस्तावत्त्वया विघ्ना रक्षणीयाः । ततः शुद्रकरतेषां देवतानां तर्पणार्थ कुण्डं विरचय्य होममारेभे । मिलिताः 1B निरवगानगातुं। एतदन्तर्गताः पंक्तयः पतिताः B आदर्श। 2 एते शब्दा अनुपलभ्याः प्रती। 3 Pa परिहारेणं। 4 B °पहारिणी वा। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ प्रतिष्ठानपुराधिपतिसातवाहननृपचरित्रम् । सकलदैवतगणाः, खां खां भुक्तिमभिमुखेन जगृहे । तावत्तद्धोमधूमः प्रस्मरः प्राप तत्स्थानं यत्र मायासुरोऽभूत् । तेनापि परिज्ञाततलक्ष्म्यादिष्टशूद्रकहोमस्वरूपेण प्रेषितः खभ्राता कोल्लासुरनामा होमप्रत्यूहकरणाय । समागतश्च वियति कोल्लासुरः खसेनया समम् । दृष्टश्च दैवतगणैश्चकितं च तैः । ततो भषणौ दिव्यशच्या युयुधाते दैत्यैः सह । क्रमान्मारितौ च तौ दैत्यैः । तत शुद्रकः स्वयं योद्धं प्रावृतत् । क्रमेण दण्डव्यतिरिक्तप्रहरणान्तराभावाद्दण्डेनैव बहुन्निधनं नीतवानसुरान् । ततो दक्षिणबाहुं दैत्यास्तस्य' चिच्छिदुः । पुनमदोष्णैव दण्डयुद्धमकरोत् । तस्मिन्नपि च्छिन्ने दक्षिणां-5 हिणोपात्तदण्डो योद्धं लमः । तत्रापि दैत्यैर्लने वामपदात्त्यष्टिरयुध्यत तमपि क्रमादच्छिदन्नसुराः । ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे । ततस्तैर्मस्तकमच्छेदि । अथाकण्ठतृप्ता देवगणास्तं शूद्रकं भूमिपतितशिरस्कं दृष्ट्य-अहो! अस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्यास्य किं जातमिति परितप्य योद्धं प्रवृत्ताः कोल्लासुरममारयन् । ततः श्रीदेव्या अमृतेनाभिषिच्य पुनरनुसंहिताजश्चके शूद्रकः, प्रत्युज्जीवितश्च । सारमेयावपि पुनर्जीवितौ । देवी च प्रसन्ना सती तस्मै खड्गरनं प्रददौं । अनेन खमजय्यो भविष्यसीति च वरं व्यतरत् । ततो महालक्ष्म्यादिदैवतगणैः सह सातवाहनदेव्याः शुद्ध्यर्थं समग्रमपि 10 भुवनं परिभ्राम्य प्राप्तः शूद्रको महार्णवम् । तत्र चैक वटतरुमुच्चैस्तरं निरीक्ष्य विश्रामार्थमारुरोह । यावत्पश्यति तच्छाखायां लम्बमानमधःशिरसं काष्ठकीलिकाप्रवेशितोर्ध्वपादं पुरुषमेकम् । स च प्रसारितजिहोऽन्तर्जलं विचरतो जलचरादीन् भक्षयन् वीक्षितस्तैः । पृष्टश्च शूद्रकेण--कस्त्वम् ?, किमर्थं चेत्थं लम्बितोऽसि ? । तेनोक्तम्-अहं मायासुरस्य कनिष्ठो भ्राता स च मदनोन्मदिष्णुर्मदप्रजः । प्रतिष्ठानाधिपतेः सातवाहनस्य महिषीं रिरंसुरपाहरत्सीतामिव दशवदनः । सा च पतिव्रता तन्नेच्छति । तदनु मया प्रोक्तोऽग्रजन्मा-न युज्यते परदारा-15 पहरणं तव । विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिरंसया । कृत्वा कुलक्षयं प्राय नरकं दशकन्धरः ॥ १ ॥ . इत्यादि वाग्निषिद्धः क्रुद्धो मह्यं मायासुरोऽस्यां वटशाखायां रङ्कित्वा मामित्थं व्यडम्बयत् । अहं च प्रसारितरसनः समुद्रान्तः सञ्चरन्तो जलचरादीनभ्यवहरन् प्राणयात्रां करोमि । इति श्रुत्वा शूद्रकोऽप्यभाणीत्-अहं तस्यैव महीभृतो भृत्यः शूद्रकनामा । तामेव देवीमन्वेष्टुमागतोऽस्मि । तेनोक्तम्-एवं चेचर्हि मां मोचयत, यथाहं सह भूत्वा 20 तं दर्शयामि, तां च देवीम् । तेन स्वस्थानं परितो जातुषं दुर्ग कारितमस्ति । तच्च निरन्तरं प्रज्वलदेवास्ति ततस्तदुल्लंध्य, मध्ये प्रविश्य, तं निपात्य, देवी प्रत्याहर्तव्या-इत्याकर्ण्य शद्रकस्तेन कृपाणेन तत्काष्ठबन्धनानि च्छित्वा तं पुरोधाय, दैवतगणपरिवृतः प्रस्थाय, प्राकारमुल्लंघ्य, तत्स्थानान्तः प्राविशत् । देवतगणांश्वावलोक्य मायासुरः खसैन्यं युद्धाय प्रजिघाय । तस्मिन्पञ्चतामश्चिते स्वयं योद्धमुपतस्थे । ततः क्रमेण शुद्रकस्तेनासिना तमवधीत् । ततो घण्टावलम्बिविमानमारोप्य देवी देवतगणैः सत्रा प्रस्थितः प्रतिष्ठानं प्रति । 25 ___इतश्च दशमं दिनमवधीकृतमागतमवगत्य जगत्यधिपतिर्ध्यातवान्-अहो ! न मम महादेवी, न च शूद्रकवीरो, नापि च तौ रसनालिहौ । सर्वं मयैव कुबुद्धिना विनाशितमिति शोचयन् सपरिच्छद एव प्राणत्यागं चिकीर्षुः पुराबहिश्चिताभरचयञ्चन्दनादिदारुभिः । यावत्क्षणादाशुशुक्षणिं क्षेप्स्यति परिजनश्चितौ तावद्वर्द्धापक एको देवगणमध्यात्समायासीधजिज्ञपच्च सप्रश्रयम्-देव! दिल्या वर्द्धसे महादेव्यागमनेन । तन्निशम्य श्रवणरम्यं नरेश्वरः स्फरदानन्दकन्दालेतहृदय ऊर्ध्वमवलोकयन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शद्रकं च । अयमपि विमानावदतीर्य राज्ञः पदोऽपतत् ; महादेवी च । 30 अभिननन्द सानन्दं मेदिनीन्द्रः शूद्रकम् , राज्याधं च तस्मै प्रादित । सोत्सवमन्तनगरं प्रविश्य श्रुतशुद्रकचारुचरितः समं महिष्या राज्यश्रियमुपबुभुजे महाभुजः ।। इत्थंकारं नानाविधानान्यवदानानि हालक्षितिपालस्य, कियन्ति नाम व्यावर्णयितुं पार्यते । स्थापिता चानेन गोदावरीसरित्तीरे महालक्ष्मीः । प्रासादे अन्यान्यपि यथार्ह दैवतानि निवेशितानि तत्तत्स्थानेषु । राज्यं प्राज्यं चिरं 1 'तस्य' नास्ति Pa1 2 3 ददौ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ विविधतीर्थकल्पे खाने जगतीजानावन्यवा कचिदारुभारहारकः कस्यचिद्वणिजस्य वीथौ प्रत्यहं चारूणि दारूण्याहत्य विक्रीणीते स्म । दिनान्तरे च तस्मिन्ननुपेयुषि वणिजा तद्भगिनी पृष्टा - किमर्थं भवद्भ्राताऽद्य नागतो मद्वीध्याम् ? । तया वभाणे-श्रेष्ठिश्रेष्ठ ! मत्सौदर्यः स्वर्गिषु सम्प्रति प्रति वसति । वणिगभाणत्कथमिव ? । साऽवदत्- कङ्कणबन्धादारभ्य विवाहप्रकरणे दिनचतुष्टयं नरः स्वर्गिष्विव वसन्तमात्मानं मन्यते । तत्तदुत्सवालोकनकुतूहलात् । तच्चाकर्ण्य राजाप्यचिन्तयत्-अहो ! अहं किं न स्वर्गिषु वसामि चतुर्षु दिनेष्वनवरतं विवाहोत्सवमय एव स्थाप्यामीति विचार्य चातुर्वर्थे यां यां कन्यां युवति वा रूपशालिनीं पश्यति शृणोति स्म वा, तां तां सोत्सवं पर्यणैषीत् । एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लोकैश्चिन्तितम् - अहो ! कथं भाव्यमनपत्यैरेव सर्ववर्णैः स्थेयम् । सर्वकन्यास्तावद्राजैव विवोढा । योषिदभावे च कुतः सन्ततिरिति । एवं विषषु लोकेषु विवाहवाटिकानामनि ग्रामे वास्तव्य एको द्विजः पीठजादेवीमारान्य व्यजिज्ञपद्-भगवति ! कथं विवाहकर्मास्मादपत्यानां भावीति ? । देव्योक्तम्- भो वाडव ! वद्भवनेऽहमात्मानं कन्यारूपं कृत्वावतरिष्यामि । यदा मां 10 राजा प्रार्थयते तदाहं तस्मै देयाः शेषमहं भलिष्ये । तथैव राजा तां रूपवतीं श्रुत्वा विप्रमयाचत । सोऽपि जगाद - दत्ता मया, परं महाराज ! तत्रागत्य मत्कन्योद्वोढव्या । प्रतिपन्नं राज्ञा । गणकदत्ते लग्ने क्रमाद्विवाहाय प्रचलितः । प्राप्तश्च तं मामं श्वसुरकुलं च नृपतिः । देशाचारानुरोधाद्वधूवरयोरन्तराले जवनिका दत्ता । अञ्जलिर्युगन्धरीलाजैर्भृतो लग्नवेलायां तिरस्करिणी मपनीय यावदन्योऽन्यस्य शिरसि लाजान् विकिरीतुं प्रवृत्तौ । तदनु किल हस्तलेपो भविष्यतीति तावद्राजा तां रौद्ररूपां राक्षसीमिवैक्षिष्ट । ते च लाजाः कठिनपाषाणकर्कररूपा राज्ञः शिरसि लगितुं लभाः । क्षितिपति15 रपि किमपि वैकृतमिदमिति विभावयन् पलायितस्तावत्सा पृष्ठलमाऽश्मशकलानि वर्षन्ती प्राप्ता । ततो नरपतिर्नागहृदं प्राविशन्निजजन्मभूमिम् । तत्रैव च निधनमानश इति । अद्यापि सा पीठजादेवी प्रतोल्या बहिरास्ते निजप्रासादस्था । शूद्रकोsपि क्रमेण कालिकादेव्याऽजारूपं विकृत्य वापीं प्रविष्टया करुणरसितेन विप्रलभ्य तन्निष्कासनार्थं प्रविशन् । पतितस्य तस्य कृपाणस्य कूपद्वारे तिर्यक्पतनाच्छिन्नाङ्गः पञ्चतामानञ्च । महालक्ष्म्या हि वरं वितरणावसरेऽस्मादेव कौक्षेयकात्तव दिष्टान्तावाप्तिर्भवित्रीत्यादिष्टमासीत् । ततः शक्तिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः सातवाहनायनिः । तदनन्तरमद्यापि 20 राजा न कश्चित्प्रतिष्ठाने प्रविशति वीरक्षेत्रे इति । अत्र च यदसम्भाव्यं क्वचिदूचे तत्र परसमय एव । मन्तव्यो हेतुर्यन्नासंगतवाग्जनो जैनः ॥ इति श्रीप्रतिष्ठानकल्पः प्रसङ्गतः सातवाहनचरित्रलेशश्च विरचितः श्रीजिनप्रभसूरिभिः । चक्रे प्रतिष्ठान कल्पः श्रीजिनप्रभसूरिभिः । सातवाहनभूपस्य कथालेशश्च प्रसङ्गतः ॥ ॥ ग्रं० १६६, अ० ९॥ 1 B 'प्रति' नास्ति । 2 B नास्ति 'किमपि' । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पापुरीकल्पः । ३५. चम्पापुरीकल्पः । कृतदुर्नयभङ्गानामङ्गानां' जनपदस्य भूषायाः । चम्पापुर्याः कल्पं जल्पामस्तीर्थधुर्यायाः ॥ १ ॥ ६५ अस्यां द्वादशमजिनेन्द्रस्य "श्रीवासुपूज्यस्य त्रिभुवनजनपूज्यानि गर्भावतार - जन्म - प्रव्रज्या - केवलज्ञान-निर्वाणोपगमलक्षणानि पञ्चकल्याणकानि जज्ञिरे ॥ १ ॥ अस्यामेव श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्रपुत्र मघव नृपतिपुत्री लक्ष्मीकुक्षिजाता रोहिणी नाम कन्याऽष्टानां पुत्रा- 5 णामुपरि जज्ञे । सा च स्वयंवरेऽशोकराजन्यकण्ठे वरमालां निक्षिप्य तं परिणीय पट्टराज्ञी जाता । क्रमेणाष्टौ पुत्रांश्चतस्रश्च' पुत्रीरजीजनत् । अन्यदा श्रीवासुपूज्यशिष्ययो रूप्यकुम्भ स्वर्णकुम्भयोर्मुखाददृष्टदुःखत्वे हेतुं प्राग्ज - नमचीर्णे रोहिणीतपः श्रुत्वा सोद्यापनविधिं प्राचीकटन' मुक्तिं च सपरिच्छदाऽगच्छत् ॥ २ ॥ अस्यां करकण्डु नामधेयो भूमण्डलाखण्डलः पुरासीद्यः कादम्बर्यामटव्यां कलिगिरेरुपत्यकावर्तिनि कुण्डनाम्नि सरोवरे श्रीपार्श्वनाथं छस्थावस्थायां विहरन्तं हस्तिव्यन्तरानुभावात्कलिकुण्डतीर्थतया प्रतिष्ठापितवान् ॥ ३ ॥ 10 अस्यां पुनः” सुभद्रा महासती पाषाणमयविकटकपाटसम्पुटपिहितास्तिस्रः प्रतोलीः ”शीलमाहात्यादामसूत्रतन्तुवेष्टितेन तितना कूपाज्जलमाकृष्य तेनाभिषिच्य सप्रभावनमुदघाटत् । एकां तु तुरीयां प्रतोलीमन्याऽपि या किल मत्सदृशा सुचरित्रा भवति तयेयमुद्घाटनीयेति भणित्वा राजादिजनसमक्षं तथैव पिहितामेवास्थापयत् । सा च तद्दिनादारभ्य चिरकालं तथैव दृष्टा जनतया । क्रमेण विक्रमादित्यवर्षेषु षष्ट्यधिकत्रयोदशशतेष्वतिकान्तेषु लक्षणावती हम्मीरश्रीसुरत्राण समसदीनः " शङ्करपुर दुर्गोपयोगिपाषाणग्रहणार्थं तां प्रतोलीं पातयित्वा कपाट- 15 सम्पुटमग्रहीत् ॥ ४ ॥ अस्यां दधिवाहननृपतिर्महिष्या पद्मावत्या सह तद्दौहृदपूरणार्थमनेकपारूढः सञ्चरम् स्मृतारण्यानी विहारेण करिणा तां प्रतिव्रजताऽपवाहितः स्वयं तरुशाखामालम्ब्य स्थितः । करिणि पुरः सञ्चरिते व्यावृत्त्येमामेव खपुरीमागमत् । देवी चासामर्थ्यात्तदारूढैवारण्यानी मगात् । तदवतीर्णा क्रमेण सूनुं सुषुवे । स च करकण्डुर्नाम क्षितिपतिरजनि । कलिङ्गेषु पित्रा सार्धं युध्यमानः प्रतिषिद्धः " खजनन्या "आर्यया । क्रमेण महावृषभस्य यौवन - वार्द्धकदशादर्शना- 20 ज्जातः प्रत्येकबुद्धः सिद्धिं चाससाद || ५ || अस्यां चन्दनबाला दधिवाहननृपतिनन्दना जन्म " उपलेभे । या किल भगवतः श्रीमहावीरस्य कौशाम्त्र्यां सूर्पकोणस्यकुल्माषैः पारणाकारणया पञ्चदिनोनषण्मासावसाने द्रव्य-क्षेत्र - काल-भावाऽभिग्रहानपूरयत् ॥६॥ अस्यां पृष्टचम्पया सह श्रीवीरस्त्रीणि वर्षारात्रसमवसरणानि चक्रे ॥ ७ ॥ अस्था एव परिसरे श्रीश्रेणिकसूनुरशोकचन्द्रो "नरेन्द्रः कूणिकापराख्यः श्री राजगृहं जनकशोकाद्वि- 25 हाय नवीनां चम्पामचीकरचारुचम्पकरोचिष्णुं राजधानीम् ॥ ८ ॥ अस्यामेच पाण्डुकुलमण्डनो दानशौण्डेषु दृष्टान्तः श्रीकर्णनृपतिरशाद्राज्यश्रियम् । दृश्यन्ते चाद्यापि तानि तानि तदवदातस्थानानि शृङ्गारचतुरिकादीनि पुर्यामत्याम् ॥ ९ ॥ अस्यां सम्यग्दृशां निदर्शनं सुदर्शन श्रेष्ठी दधिवाहनभूपस्य राज्याऽभयाख्यया सम्भोगार्थमुपसर्यमाणः ID 'महाजन 1 2 P विहाय सर्वत्र 'तीर्थ पुर्यायाः ।' 3 Pa श्री मे ( दे ? ) ववासु । 4 B C गर्भाक्तर । 5 D ' चतस्रः 1 6 CD विधि | 7BDP प्राचीकशन् । 8P करकुण्ड 9 P छत्रस्थावस्थां समथिंगल विहरन्तं । 11 P शीतलकरचन्द्रलीलशीलमाह । । 12 B शङ्करदुर्गेप° । 13 B. PD प्रतिषिध्य 15 C जन्म लेभे । 16 P श्रेणिकसूर शोकचन्द्रापरनामधेयः । 17 B चतुरंगाका 10 P विना नास्वन्यत्र 'पुनः ' । 14 BCD आर्यया जनन्या | P D चतुरका | वि० क० ९ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ विविधतीर्थकल्पे क्षितिपतिवचसा वधार्थं नीतः स्वकीयनिष्कम्पशीलसम्पत्प्रभावाकृष्टशासनदेवतासान्निध्यात् 'शूलीं हैमसिंहासनतामनैबीत्; तरवारिं च निशितं सुरभिसुमनोदाम भूय मनोदामनयत् ॥ १० ॥ अस्यां च कामदेवः श्रेष्ठी श्रीवीर स्योपासकाग्रणीरष्टादशकनककोटिखामी गोदशसहस्रयुतषङ्गोकुलाधिपति'भद्रा पतिरभवत् । यः पौषधागारस्थितो मिथ्यादृग्देवेन पिशाचगजभुजगरूपैरुपसर्गितोऽपि न क्षोभमभजत् । श्लाघितश्च 5 भगवताऽन्तः समवसरणम् ॥ ११ ॥ अस्यां विहरन् श्रीशय्यम्भवसूरिचतुर्दशपूर्वरः खतनयं मनकाभिधानं राजगृहादागतं प्रत्राज्य तस्यायुः षण्मासावशेषं श्रुतज्ञानोपयोगेनाकलय्य तदध्ययनार्थं दशवैकालिकं पूर्वगतान्निर्व्यूढवान् । 'तत्रात्मप्रवादात् षड्जीवनिकां, कर्मप्रवादात् पिण्डैषणां, सत्यप्रवादाद्वाक्यशुद्धिं, अवशिष्टाध्ययनानि प्रत्याख्यानपूर्व तृतीयवस्तुत' इति ॥ १२ ॥ अस्यां वास्तव्यः कुमारनन्दी सुवर्णकारः स्वविभववैभवाभिभूतधनदमदो ऽकृशकृशानुप्रवेशात्पञ्चशैलाधिपत्य10 मधिगत्य प्राग्भवसुहृदच्युतविबुधबोधितश्चारुगोशीर्षचन्दनमयीं जीवन्तखामिनीं सालङ्कारां देवाधिदेवश्रीमहावीरप्रतिमां निर्ममे ॥ १३ ॥ अस्यां पूर्णभद्रे' चैत्ये श्रीवीरो व्याकरोद्-योऽष्टापदमारोहति स तद्भव एव सिद्ध्यतीति ॥ १४ ॥ अस्यां पालितनामा श्रीवीरोपासको वणिक् । तस्य पुत्रः समुद्रयात्रायां समुद्रे प्रसूत इति समुद्रपालो वध्यं नीयमानं वीक्ष्य प्रतिबुद्धः सिद्धिं च प्राप्त् ॥ १५ ॥ 15 अस्यां सुनन्दः श्राद्धः' साधूनां मलदौर्गन्ध्यं " निन्दित्वा मृतः कौशाम्यामिभ्यसुतोऽभूद्रतं चाग्रहीत् । उदीर्णदुर्गन्धः कायोत्सर्गेण देवतामाकृष्य स्वाङ्गे सौगन्ध्यमकार्षीत् ॥ १६ ॥ अस्यां कौशिकार्यशिष्याऽङ्गर्षि-रुद्रका" भ्याख्यानसंविधानकं सुजातप्रियं वादिसंविधानकानि च जज्ञिरे॥१७॥ इत्यादि नानाविधसंविधानकरलप्रकटनाना" वृत्तनिधानमियं पुरी । अस्याश्च प्राकारभित्तिं प्रियसखीव प्रतिक्षणमा - लिङ्गति सर्वाङ्ग' पावनघनरसपूरितान्तरा सरिद्वरा प्रसृत्वरवीचिभुजाभिः ॥ १८ ॥ उत्तमतमनरनारीमुक्तामणिधोरणिप्रसवशुक्तिः । नगरी विविधाद्भुतवस्तुशालिनी मालिनी जयति ॥ १ ॥ जन्मभूर्वासुपूज्यस्य तद्भक्त्या स्तूयते बुधैः । चम्पायाः कल्पमित्याहुः श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ २ ॥ ॥ इति श्रीचम्पापुरीकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रं० ४७ ॥ 20 1B Pa शूलं । 2 P हिरण्मय° । 3 C गोकुलपतिः । 4 B तत्त्वात्म° 5 CD वस्तु इति । 6 B धनदमानो । 7. P पूर्ण भवचैत्ये । 8 P सिद्धिं चाससाद छतविषादाम् । 9 P श्रावकः । 10 BC Pa मलदुर्गन्धं । 11 Pa रुद्रका न्याख्यान ; C°रुद्रकाव्याख्यान । 12 P प्रकटमाना । 13 P विधाय नास्ति 'सर्व' । 14 Pa सूरिभिः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलिपुत्र नगरकल्पः । ३६. पाटलिपुत्रनगरकल्पः । ६७ आनम्य श्रीनेमिनमनेकपुंरलजनिपवित्रस्य । श्रीपाटलिपुत्राह्वयनगरस्य प्रस्तुमः कल्पम् ॥ १ ॥ पूर्वं किल श्रीश्रेणिक महाराजेऽस्तंगते तदात्मजः कूणिकः पितृशोकाचम्पापुरी न्यवीविशत् । तस्मिंश्चाले - ख्यशेषतां प्रयाते तत्सूनुरुदायिनामधेयश्वम्पायां क्षोणिजानिरजनिष्ट । सोऽपि स्वपितुस्तानि तानि सभाक्रीडाशयनासनादिस्थानानि' पश्यन्नस्तोकं शोकमुदवहत् । ततोऽमात्यानुमत्या नूतनं नगरं निवेशयितुं नैमित्तिकवरान् स्थानगवेषणा-5 यादिक्षत् । तेऽपि सर्वत्र तांस्तान् प्रदेशान् पश्यन्तो गङ्गातटं ययुः । तत्र कुसुमपाटलं पाटलितरुं प्रेक्ष्य तच्छोभाचमत्कृतास्तच्छाखायां निषण्णं चाषं व्यात्तवदनं स्वयं निपतत्कीटकपेटकमालोक्य चेतस्यचिन्तयन् - अहो ! यथाऽस्य चापक्षिणो मुखे स्वयमेत्य कीटाः पतन्तः सन्ति तथात्र स्थाने नगरे निवेशितेऽस्य राज्ञः खयं श्रियः समेष्यन्ति । तच्च ते राज्ञे व्यजिज्ञपन् । सोऽप्यतीव प्रमुदितः । तत्रैको जरनैमित्तिको व्याहरद्-देव ! पाटलातरुरयं न सामान्यः | पुरा हि ज्ञानिना कथितम्- 10 पाटलादुः पवित्रोऽयं महामुनिकरोटिभूः । एकावतारोऽस्य मूलजीवश्चेति विशेषतः ॥ २ ॥ ? राज्ञोक्तम्– कतमः स महामुनिः । तदनु जगाद नैमित्तिकः - श्रूयतां देव ! | उत्तरमथुरायां वास्तव्यो देवदत्ताख्यो वणिक्पुत्रो दिग्यात्रार्थं दक्षिणमथुरामगमत् । तत्र तस्य जयसिंहनाम्ना वणिक्पुत्रेण सह सौहृदमभवत् । अन्यदा तगृहे भुञ्जानोऽनिकानानीं तज्जामिं स्थाले भोजनं परिवेष्य वातव्यजनं कुर्वन्तीं रम्यरूपामालोक्य तस्यामनुरक्तो द्वितीयेऽह्नि 'चरकान् प्रेष्य जयसिंहं तामयाचिष्ट । सोऽभ्यधाद् अहं तस्मा एव ददे 'स्वस्वसारं यो 15 मगृहाद्दूरे न भवति । प्रत्यहं तां तं च यथा पश्यामि यावदपत्यजन्म । तावद्यदि मद्गृहे स्थाता 'तदा तस्य जामिं दास्यामीति । देवदत्तोऽप्योमित्युक्त्वा शुभेऽह्नि तां पर्यणैषत् । तया सह भोगान् भुञ्जतस्तस्यान्यदा पितृभ्यां लेखः प्रैषि ँ । तं वाचयतस्तस्य नेत्रे यर्षितुमश्रूणि " प्रवृत्ते । ततस्तया हेतुं पृष्टोऽपि यावन्नाब्रवीत् तावत्तयाऽऽदाय लेखः स्वयं वाचितः । तत्र चेदं “लिखितमासीद् गुरुभ्याम् -- यद्वत्स ! आवां वृद्धौ निकटनिधनौ; यदि च नौ जीवन्तौ दिदृक्षसे तदा द्रागागन्तव्यमिति । तदनु सा पतिमाश्वास्य स्वभ्रातरं हठादप्यऽन्वजिज्ञपत् । भर्त्रा सह प्रतस्थे चोत्तरमथुरां प्रति सगर्भा | 20 क्रमान्मार्गे " सा "सूनुमसूत । नामास्य पितरौ करिष्यत इति देवदत्तोक्ते परिजनस्तमर्मकमन्निकापुत्र इत्युल्लापितवान् । क्रमेण देवदत्तोऽपि खपुरीं प्राप* । पितरौ प्रणम्य च शिशुं तयोरार्पयत् । सन्धीरणेत्याख्यां तौ "नप्तः पुनश्चक्राते, तथाप्यन्निकापुत्र इत्येव पप्रथेऽसौ । वर्द्धमानश्च प्राप्ततारुण्योऽपि भोगांस्तृणवद्विधूय जयसिंहाचार्य पार्श्वे दीक्षामग्रहीत्" । गीतार्थीभूतः प्रापदाचार्यकम् । अन्यदा विहरन् सगच्छो वार्द्धके पुष्प भद्रपुरं गङ्गातटस्थं प्राप्तः । तत्र पुष्प केतुर्नृपस्तद्देवी पुष्पवती तयोर्युग्मजौ पुष्पचूलः पुष्पचूला चेति पुत्रः पुत्री चाभूताम् । तौ च सह वर्द्धमानौ क्रीडन्तौ च परस्परं 25 प्रीतिमन्तौ जातौ । राजा दध्यौ - यद्येतौ दारकौ वियुज्येते तदा नूनं न" जीवतः; अहमप्यनयोर्विरहं सोढुमनीशस्तस्मादनयोरेव विवाहं करोमीति ध्यात्वा मन्त्रिमित्र" पौरां छलेना पृच्छद् - भो ! यद्रलमन्तःपुरे उत्पद्यते तस्य कः प्रभुः ? | 'तैर्विज्ञप्तम्-देव ! अन्तःपुरोत्पन्नस्य किं वाच्यम्, यद्देशमध्ये " ऽप्युत्पद्यते रत्नं तद्राजा यथेच्छं विनियुक्ते । कोऽत्र " बाधः ! | तच्छ्रुत्वा स्वाभिप्रायं निवेद्य देव्यां वारयन्त्यामपि तयोरेव सम्बन्धमघटयन्नृपः । द्वौ दम्पती भोगान् भुङ्क्तः स्म । राज्ञी तु पत्यपमाने" वैराग्याद्व्रतमादाय खर्गे देवोऽभूत् । अन्यदा पुष्पकेतौ कथाशेषे पुष्पचूलो राजाऽभूत्" । स च देवः प्रयुक्ता - 30 वधिस्तयोरकृत्यं ज्ञात्वा खमे पुष्पचूला या नरकानदर्श यत्तदुःखानि च । सा च प्रबुद्धा भीता च पत्युः सर्वमावेदयत्। सोऽपि * C आदर्श इदं पद्यं नास्ति । 1 B सनादीनि । 2 B P अमात्या । 3 P कुसुमपाटलिं । 4 P भोज्यं । 5PD वरकान् । 6A C 'ख' नाति । 7 BD Pa 'सदा' नास्ति । 8P प्रेषितः । 9P 'तं' नास्ति । 10BD 'भथु । 11 P लेखित । 12 B 'सा' नास्ति । 13 P सुत° 14 B C प्राप्य 15 B पुन 116P कक्षीचके । 17 B नास्ति 'न'। 18 B मन्त्रिमत्रि'; P मन्त्रिमन्त्र 19 Pab मध्येषु । 20 P बाध्यः । 21 BD मान। 22 P जज्ञे । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे 1 शान्तिकमचीकरत् । स च देवः प्रतिनिशं नरकांस्तस्था अदर्शयत् । राजा तु सर्वांस्तीर्थिकानाहूय पप्रच्छ—कीदृशा नरकाः स्युरिति । कैश्चिद्गर्भवासः, कैश्चन गुप्तिवासः, कैरपि दारिद्र्यम्, अपरैः पारतंत्र्यमिति तैर्नरका ' आचचक्षिरे । राज्ञी तु' मुखं मोटयित्वा तान् विसंवादिवचसो व्यस्राक्षीत् । अथ नृपोऽन्निकापुत्राचार्यमाकार्य तदेवाप्राक्षीत् । तेन तु यादृशान् देव्यदर्शयत्तादृशा एवोक्ता नरकाः । राज्ञी प्रोचे - भगवन् ! भवद्भिरपि किं स्वमो दृष्टः ? । कथमन्यथेत्थं 5 वित्थ ? | सूरिरवदद्-भद्वै ! जिनागमात्सर्वमवगम्यते । पुष्पचूलाऽवोचत्-भगवन् ! केन कर्मणा ते प्राप्यन्ते । गुरुरगृणाद्-भद्रे ! महारम्भपरिग्रहैर्गुरुप्रत्यनीकतया पञ्चेन्द्रियवधान्मांसाहाराच्च तेष्वङ्गिनः पतन्ति । क्रमेण स सुरस्तस्यै स्वर्गानदर्शयत् स्वमे । राज्ञा तथैव पाखण्डिनः पृष्टास्तानपि व्यभिचारिवाचो विसृज्य भूपस्तमेवाचार्थं स्वर्गस्वरूपमप्राक्षीत् । तेनापि यथावत्तत्रोदिते स्वर्गाप्तिकारणमपृच्छद्राज्ञी । ततः सम्यक्त्वमूलौ गृहि यतिधर्मावादिशन्मुनीशः । प्रतिबुद्धा च सा लघुकर्मा । नृपमनुज्ञापयति स्म प्रव्रज्यायै । सोऽप्यूचे - यदि मगृह एव 'भिक्षामादत्से तदा प्रव्रज । तयोरीकृते नृप10 वचसि सा सोत्सवमभूत्तस्याचार्यस्य शिष्या गीतार्थी च । अन्यदा भाविदुर्भिक्षं श्रुतोपयोगात् ज्ञात्वा सूरिर्गच्छं देशान्तरे ग्रैषीत् । स्वयं तु परिक्षीणजङ्घाबरुस्तत्रैवास्थात्; भक्तपानं च पुष्पचूलाऽन्तः पुरादानीय गुरवेऽदात् । क्रमात्तस्या गुरुशुश्रूषाभावनाप्रकर्षात् क्षपकश्रेण्यारोहात्केवलज्ञानमुत्पेदे । तथापि गुरुवैयावृत्यान्न निवृत्ता । यावद्धि गुरुणा न ज्ञातं यदयं केवलीति तावत् पूर्वप्रयुक्तं विनयं केवल्यपि नात्येति । सापि यद्यद्गुरोरुचितं रुचितं च तत्तदन्नादि सम्पादितक्ती । अन्यदा वर्षत्यब्दे सा पिण्डमाहरद् । गुरुभिरभिहितम् - वत्से । श्रुतज्ञाऽसि, किमिति वृष्टौ त्वयाऽऽनीतः पिण्डः 15 इति । साऽभाणीद्-भगवन् ! यत्राध्वनि अष्कायोऽचित एवासीत्तेनैवाया सिपमहम् ; कुतः प्रायश्चित्तापतिः । गुरुराहछद्मस्थः कथमेतद्वेद ? । तयोचे केवलं ममास्ति । ततो मिथ्या मे दुष्कृतम् केवल्याशातित इति ब्रुवन्नपृच्छत्तां गच्छाधिपः–किमहं सेत्स्यामि न वेति ? ! केवल्यूचे मा कृढमधृतिम् ; गङ्गामुत्तरतां वो भविष्यति केवलम् । ततो गङ्गामुतरीतुं लोकैः सह नावमारोहत्सूरिः । यत्र यत्र स न्यषीदत्तत्र तत्र नौर्मंक्तुमारेभे । तदनु मध्यदेशासीने मुनीने सर्वापि नौर्मक्तुं लग्ना । ततो लोकैः सूरिर्जले क्षितः । दुर्भगीकरण विराद्धया प्राग्भवपत्न्या व्यन्तरीभूतयाऽन्तर्जलं शूले निहितः । 20 शूलप्रोतोऽप्ययम 'प्कायजीवविराधनामेवा' शोचयन्नाऽऽत्मपीडाम् । क्षपकश्रेण्यारूढोऽन्तकृत्केवलीभूय सिद्धः । आसन्नैः सुरैस्तस्य निर्वाणमहिमा चक्रे । अत एव तत्तीर्थं प्रयाग इति जगति पप्रथे । प्रकृष्टो यागः पूजा अत्रेति प्रयाग इत्यन्वर्थः । शूलाप्रोतत्वगतानुगतिकतया चाद्यापि परसमयिनः क्रकचं स्वाने दापयन्ति तत्र । वटश्च तत्र गणशस्तुरुष्कै• छिन्नोऽपि मुहुर्मुहुः प्ररोहति । ६८ सूरेः करोटियादो मित्रोट्यमानाऽपि जलोर्मिभिर्नदीतीरं नीता । इतस्ततो लुलन्ती च शुक्तिवन्नदीतटे क्वापि गुप्त25 विषमे प्रदेशे विलग्य तस्थौ । तस्य च करोटिकर्परस्यान्तः कदाचित्पाटलावीजं न्यपतत् । क्रमात् करोटिकर्परं भित्त्वा दक्षिणहनोः पाटलातरुरुद्वतो विशालश्चायमजनि । तदत्र पाटलिद्रोः प्रभावाच्चाप' निमित्ताच्च नगरं निवेश्यताम्, आशिबाशब्दं च सूत्रं दीयताम् । ततो राज्ञाऽऽदिष्टा नैमित्तिकाः पाटलां पूर्वतः कृत्वा पश्चिमाम्, तत उत्तराम्, ततः पुनः पूर्वाम्, ततो दक्षिणां शिवाशब्दाऽवधि गत्वा " सूत्रमपातयन् । एवं चतुरखः पुरस्य सन्निवेशो बभूव । तत्राङ्किते प्रदेशे पुरमचीकरन्नृपः । तच्च पाटला" नाना पाटलिपुत्रं पत्तनमासीत् । असमकुसुमबहुलतया च कुसुमपुरमित्यपि 30 रूढम् । तन्मध्ये श्रीनेमिचेत्यं राज्ञाऽकारि । तत्र पुरे गजाश्वरथशालाप्रासादसौधप्राकार गोपुरपण्यशाला सत्राकारपौषधागाररम्ये चिरं राज्यं जैनधर्मं चापालयमुदायिनरेन्द्रः । तस्मिन्नुपात्तपौषधेऽन्यदोदायिमारकेण स्वर्गातिथ्यं प्रापिते नापितगणिकासुतो नन्दः श्रीवीर मोक्षारष्टिवत्सर्यामतीतायां क्षितिपतिरजनि । तदन्वये सप्त नन्दा नृपा जाताः । नवमनन्दे राजनि परमार्हतकल्पकान्वयी शकटालो | 4 B दिक्षा 1 P प्रतिदिशं । 2 B नारकाः 1 3P नास्ति 'तु' ● विराधनाशो" । 8 ' इत्यन्वर्थः ' नास्ति ABD आदर्श 1 P 'पाटली' । 9 P चाप । 5P ज्ञानं । 6B sप्यप्काय । 7 B 10 A B C नास्ति 'सूत्र' 11 A 'पाडली'; Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटलिपुत्रनगरकल्पः । मध्यभूत् । तस्य पुत्रौ स्थूलभद्र- श्रियकौ; सप्त च पुत्र्यः - यक्षा-यक्ष दत्ता भूता भूतदत्ता-एणा-रेणावेणाख्याः क्रमादेकादिसप्तान्तवार' श्रुतपाठिन्योऽजनिपत । ६९ तत्रैव पुरे कोशा वेश्या, तज्जामिरुपकोशा चाभूताम् । तत्रैव च चाणिक्यः सचिवो नन्दं समूलमुन्मूल्य मौर्यवंश्यं श्रीचन्द्रगुप्तं न्यवीविशद्विशां पतित्वे । तद्वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्रीः कुणाल स्तत्सूनुत्रिखण्डभरताधिपः परमार्हतोऽनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमण- 5 विहारः सम्प्रतिमहाराजश्चाभवत् । मूलदेवः सकलकलाकलापज्ञः, अचलसार्थवाहो महाधनी, देवदत्ता च गाणिक्यमाणिक्यं तत्रैव प्रागवसन् । उमाखातिवाचकच कौभीषणिगोत्रः पञ्चशतसंस्कृतप्रकरणप्रसिद्धस्तत्रैव तत्त्वार्थाधिगमं सभाष्यं व्यरचयत् । चतुरशीतिर्वादशालाश्च तत्रैव विदुषां परितोषाय पर्यणंसिषुः । तत्रैव चतुङ्गतरङ्गत्संगितगगनाङ्गणा परिवहति महानदी गङ्गा । तस्यैव चोत्तरा' दिशि विपुलं वालुकास्थलं नातिदूरे, यत्रारुह्य कल्की प्रातिपदाचार्य प्रमुखसंघश्ध सलिलप्लवान्निस्तरीता । तत्रैव च भविष्यति कल्किनृपतिर्धर्मदत्त - जितशत्रु मेघघोषादयश्च तद्वंश्याः । तत्रैव च विद्यन्तेऽन्तर्निहितनन्दसत्कनवनवतिद्रव्यकोट्यः, पञ्च स्तूपाः, येषु धनधनायया श्रीलक्षणावती - रत्राणस्तांस्तानुपाक्रमतोपक्रमांस्ते च तत्सैन्योपप्लवाथैवा कल्पन्त । 15 तत्रैव विहृतवन्तः श्रीभद्रबाहु - महागिरि - सुहस्ति-वज्रस्वाम्यादयो युगप्रवरागमाः । विहरिष्यन्ति च प्रातिपदाचार्यादयः । तत्रैव महाधनधनश्रेष्ठिनन्दना रुक्मिणी श्रीवज्रखामिनं पतीयन्ती प्रतिबोध्य तेन भगवता निर्लोभचूडामणिना प्रब्राजिता । तत्रैव सुदर्शनश्रेष्ठिमहर्षिर भयाराच्या व्यन्तरीभूतया भूयस्तरमुपसर्गितोऽपि न क्षोभमभजत् । तत्रैव स्थूलभद्रमहामुनिः षड्रसाहारपरः कोशायाश्चित्रशालायामुत्सादितमदन' मदश्चकार वर्षारात्रचतुर्मासीम् । सिंहगुहावासिमुनिरपि तं स्पर्द्धिष्णुस्तत्रैव कोशया तदानीतरत्नकम्बलस्य चन्दनिका प्रक्षेपेण प्रतिबोध्य पुनश्चारुतरां चरणश्रियमङ्गीकारितः । 10 तत्रैव च श्रीवज्रस्वामी पौरस्त्रीजनमनः संक्षोभरक्षणार्थं प्रथमदिने सामान्यमेव रूपं विकृत्य, द्वितीयेऽह्नि चाहो ! नास्य भगवतो गुणानुरूपं रूपमिति देशनारस हृतहृदयजनमुखात् सँल्लापान् श्रुत्वाऽनेकलब्धिमान् सहजमप्रतिरूपं रूपं विकु सौवर्णं सहस्रपत्रे निषद्य देशनां विधाय राजादिजनताममोदयत् । 20 तत्रैव द्वादशाब्दे दुर्भिक्षे गच्छे देशान्तरं प्रतिप्रोषिते सति सुस्थिताचार्यशिष्यौ क्षुल्लकायदृशीकरणाञ्जनाक्तचक्षुषौ चन्द्रगुप्तनृपतिना सह बुभुजाते कियन्त्यपि दिनानि । तदनु गुरुप्रत्युपालम्भाद् विष्णुगुप्त एव तयोर्निर्वाह - 25 मकरोत् । तस्यैव पुरस्य मध्ये सप्रभावातिशया मातृदेवता आसंस्तदनुभावाचत्पुरं परैराग्रहवद्भिरपि न खलु ग्रहीतुमशाकि 180 वाणिक्यवचसोत्पाटिते पुनर्जनैर्मातृमण्डले गृहीतवन्तौ चन्द्रगुप्त - पर्वतकौ । एवमाद्यनेकसंविधानकनिधाने तत्र नगरेऽष्टादशसु विद्यासु स्मृतिषु पुराणेषु च द्वाससतौ कलासु भरत वात्सायन -चाणाक्यलक्षणे रत्नत्रये मन्त्र-यन्त्र - 1 B श्रुति । 2 P C चाणक्यः 3BD Pa कुणालसूनुं । 4 P उत्तरदिशि । 5 'मदन' नास्ति BC Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 دق विविधतीर्थकल्पे आर्यरक्षितोऽपि हि चतुर्दशविद्यास्थानानि तत्रैवाधीत्य दशपुरमागमत् । आठ्यास्तु तत्रैवंविधा वसन्ति स्म, ये योजनसहस्रगमने यानि गजपदानि भवेयुस्तानि प्रत्येकं स्वर्णसहस्रेण पूरयितुमीशते । अन्ये च तिलानामाढक उसे 5 प्ररूढे सुफलिते यावन्तस्तिलाः स्युस्तावन्ति हेमसहस्राणि बिभ्रति गृहे । अपरे च घनागमप्रवहगिरिनदीवारिपूरस्यैकदिनोत्पन्नेन गवां नवनीतेन संवरं विरचय्य पयोरयं स्खलयितुमलम् । अन्यतमे चैकाहजातजात्यनवकिशोराणां समुद्धृतैः स्कन्धकेशैः पाटलिपुत्रं समन्ताद्वेष्टयितुमचेष्टन्त । इतरे च शालिरलद्वयं वेश्मनि बिभरांबभूवुस्तत्रैकशालिर्भिन्नभिन्नशालिबीजप्रसूतिमान्, अन्यश्च गर्द्दभिकाशालियों लूनलूनः पुनः पुनः फलति । गौडदेशावतंसस्य श्रीजिनप्रभसूरयः । कल्पं पाटलिपुत्रस्य रचयां चकुरागमात् ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीपाटलिपुत्रपुरकल्पः ॥ ॥ अं० १२५; अ० १९ ॥ तत्रविद्यासु रसवाद - धातु-निधियादाञ्जन-गुटिका-पादप्रलेप-रत्नपरीक्षा वास्तुविद्या- पुं- स्त्री - गजाश्ववृषभादिलक्षणेन्द्रजालादिप्रन्थेषु काव्येषु च नैपुणचणास्ते ते पुरुषाः प्रत्यूषुः प्रत्यूषकीर्तनीयनामधेयाः' । 25 ३७. श्रावस्ती नगरीकल्पः । दुहसरितारणवत्थी सावत्थी सयलसुक्खपसवत्थी । नमिऊण संभवजिणं तीसे कित्तेमि' कप्पलवं ॥ १ ॥ अस्थि' इहेव दाहिणद्धभारहे वासे अगणिज्जगुणगणविसर कुणालाविसए सावत्थी नाम नयरी संप - 15 इकाले महेठित्ति रूढा वट्टइ * । जत्थ अज्जवि घणगहणवणमज्झट्ठियं सिरिसं भवनाह पडिमा विभूसियं गयणगलग्गसिहरं पासट्टियजिण बिंबमंडियदेव लिया अलंकारयं जिणभवणं चिट्ठा पायारपरियरियं । तस्स चेइयरस दुवारअदू'सामंते विल्लिरउल्लसिर' अतुल्लपल्लवसिद्धिच्छाओ महलसाहाभिरामो रत्तासो अपायवो दीसह । तस्स य जिणभवणस्स ओलीए जे कवाडiपुडा' आसि ते माणिभद्दजक्खाणुभावाओ सूरिए अत्थमुर्विते सयमेव लगति म्ह; उदिए य दिणयरे सयमेव उघडंति म्ह । अन्नया कलिकालदुल्ललिअवसेण अल्लावदीणसुरचाणस्स मलिक्केण हव्वसनाम20 गेणं वहडाइञ्चनगराओ आगंतूण पायारभित्ति-कवाडाई कइवयबिंबाणि अ भम्गाणि । मंदप्पभावा हि भवंति दूसमाए अहिद्वायगा । तहा तस्सेव चेइयस्स सिहरे जत्तागयसंघेणं कीरमाणे हवणाइमहसवे आगंतूण एगो चित्तगो उवविसइ । न य कस्स वि भयं जणेइ । जाव मंगलपईवे कए सहाणमुवगच्छति । इत्थेव नयरीए बुद्धाययणं चिट्ठइ जत्थ समुद्दवंसीया करावल नरिंदकुलसंभूया रायाणो वृद्धभत्ता अज्ज वि नियदेवयस्स पुरओ महग्घमुलं पल्लाणियं अलंकियं विभूसिअं महातुरंगमं ढोअंति । जंगुलीविज्जा य इत्थेव बुद्धेण ससंपदाया पयासिया महत्पभावा । इत्थेव निष्पज्जंति नाणाविहा साली; जेसिं सव्वसालिजाइण इक्किक्के कर्णमि निक्खिप्पमाणे" आसिहं भरिजइ महंत खोरयं । इत्थेव भयवं संभवसामी चवण - जम्मण-निक्खमण- केवलनाणुप्पत्तिकल्लाणगाई ससुरासुर-नर-भवणमणरंजit अकारि । 30 कोसंबीपुरीए उप्पण्णो जियसत्तुनिवसचिवकासवपुत्तो जक्खा "कुक्खिसंभूओ कविलो महरिसी 11 मानधियः t 2 B कप्पेमि । 3P नास्ति 'अस्थि' । 4 B महिठि; D महठि । 5 P विहाय नास्त्वन्यत्र 'वह' । 6P नास्ति 'अदूर' 7 BD उद्धसिरं । 8 C ° संपुटा । 9 C करावल ; P कर वेल । 10 P ' माणा । 11DP जसा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावस्तीनगरीकल्पः। जणयंमि विवन्ने विज्जाअहिज्जणत्थं एवं नयरि' समागओ पिउमित्तइंददत्तउवज्झायसयासे सालिभराइब्भदासचेडीवयणेणं दोमासयसुवण्णकए वच्चंतो कमेण सयंबुद्धो जाओ । पडिबोहिऊण पंचसयचोरे सिद्धो अ। __इत्येव तिंदुगुजाणे पंचसयसमण-अजिआसहस्सपरिवुडो पढमनिन्हवो जमाली ठिओ। ढंकेण कुंभयारेण पढमं नियसालासंठिआ भगवओ धूआ पिअदंसणा अजा साडियाए एगदेसे अंगारं छोडूण 'कयमाणे कडिति वीरवयणं पडिवज्जाविया । तीए य सेससाहुणी साहुणो पडिवोहिया सामि चेव अल्लीणा । एगो चेव 5 जमाली विपडिकन्नो ठिओ। ____ इत्येव तिंदुगुज्जाणे केसीकुमारसमणो गणहरो भयवया गोअमसामिणा कुट्टयउवाणाओ आगंतूण परुप्परं संवायं च काउं पंचजामं धम्ममंगीकारिओ। इत्थेव एग वासारत्तं समणो भयवं महावीरो ठिमओ खंडपडिमाए; सकेण य पूइओ चित्तं तवोकम्ममकासी । इत्येव जियसत्तु-धारिणीपुत्तो खंदगायरिओ उप्पन्नो जो पंचसयसीससहिओ पालगणं कुंभयार-10 कडनयरे जंतेण पीलिओ। इत्येव 'जियसत्तुरायपुत्तो भद्दो नाम पञ्चइत्ता पडिमं पडिवन्नो विहरतो वेरज्जे संपत्तो चोरिउ ति काऊण गहिओ रायपुरिसेहिं तच्छियंगो खारं दाउं कक्खडदब्भेहिं वेढिओ मुक्को सिद्धो अ। जहा रायगिहाइसु तहा इत्थवि नयरीए बंभदत्तस्स हिंडी जाया । इत्यैव खुड्डगकुमारो अजियसेणायरियसीसो जणणीमयहरिया-आयरिय-उज्झायनिमित्तं बारसवारसवरि-15 सामि दबओ सामण्णे ठिओ । नट्टविहीए 'सुङ गाइयं सुदु वाइय'मिच्चाइ गीइयं सोउं जुवराय-सत्थवाह-भज्जा-मच्च. मिठेहिं समं पडिबुद्धो । एवमाईणं अणेगेसि संविहाणगरयणाणं उप्पत्तीए एसा नयरी रोहणगिरिभूमि त्ति । सावत्थिमहातित्थस्स कप्पमेयं पढंतु विउसवरा । जिणपवयणभत्तीए इय भणइ जिणप्पहो सूरी ॥ १॥ ॥ इति श्रीश्रावस्तीनगरीकल्पः समाप्तः ॥ 20 1 अं०४२॥ 1P नयर। 2 P साडियाएग°1 3C जय। 4D वेग्गे। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्त्यत्रैव दक्षिणे भारतार्थे मध्यमखण्डे काशिजनपदालङ्कृतिरुत्तरवाहिन्या त्रिदशवाहिन्याऽलङ्कृतधनकनक5 रलसमृद्धा वाराणसी नाम नगरी गरीयसामद्भुतानां निधानम् । वरणानाम्नी सरिदसिनाम्नी च द्वे अपि सरिताatri गङ्गामनुप्रविष्ठे इति वाराणसीति नैरुक्तं नामास्याः प्रसिद्धम् । विविधतीर्थ कल्पे ३८. वाराणसीनगरीकल्पः । नत्वा तत्त्वाख्यायिनं श्रीसुपार्श्व श्रीपार्श्वं च न्यश्चितानिभविघ्नम् । वाराणस्यास्तीर्थरत्नस्य कल्पं जल्पामः सत्कल्पनापोढकल्पम् ॥ १ ॥ अस्यां सप्तमो जिनसत्तमः श्रीमान् सुपार्श्व ऐक्ष्वाकुप्रतिष्ठमहीपतिमहिष्याः पृथ्वीदेव्याः कुक्षावतीर्य जन्ममुपादित । त्रिभुवनजनवादितयशः पटहः स्वस्तिकलान्तिद्विशतधनुरुच्छ्रायकाञ्चनच्छायकायः क्रमेण प्राज्यराज्यश्रियमनुभूय भूयः सांवत्सरिकं दानं प्रदाय, सहश्राम्रवणे दीक्षां च कक्षीकृत्य, विहृत्य छद्मस्थावस्थया नवमासीं केवल10 ममलमासाद्य संमेतगिरिमेत्य निर्वृतः । 15 अस्यां काश्यपगोत्रौ चतुर्वेदौ षट्कर्मकर्मठौ समृद्धौ यमलभ्रातरौ जयघोष - विजयघोषाभिधानौ द्विजवरावभूताम् । एकदा जयघोषः खातुं गङ्गामगात् । तत्र वृदाकुणा ग्रस्यमानं भेकमेकमालोकयत् । स च कुललेनोत्क्षिप्य भूमौ पातितमद्राक्षीत् । सर्पमाक्रम्य स्थितं 'कुललम् । तमेव चण्डग्रासैः' खादन्तं सर्प च कुललवशगतमपि चीटकु - र्वाणमण्डूकभक्षिणं वीक्ष्य प्रतिबुद्धः । प्रव्रज्य क्रमादेकरात्रिकी प्रतिमां प्रपद्य विहरन् पुनरिमां नगरी भागात् । मासक्षपणपारणके यज्ञपाटकं' प्रविष्टः । तत्र विषैर्भैक्षमदिखुभिः प्रतिषिद्धः । ततः श्रुताभिहितचर्यामुपदिश्य भ्रातरं विप्रांश्च 20 प्रत्यवबुधत् । विरक्तो विजयघोषः प्रात्राजीत् । द्वावपि मोक्षं प्रापतुः । अस्य नन्दाभिधान नाविकस्तरपण्यजिघृक्षया मुमुक्षं धर्मरुचिं विराध्य, तस्य हुंकारेण भस्मीभूय, गृहकोकिल- हंस-सिंहभवान् यथासङ्ख्यं सभा-मृतगङ्गातीराजनागिरिष्ववाप्य, तस्यैवानगारस्य तेजोनिसर्गेण विपद्य चास्यामेव बटुवा, तथैव निधनमधिगत्यास्यामेव राजा समजनिष्ट । जातिस्मरः सार्धं लोकमकरोत् । अन्येयुस्तत्रैवागतं तमनगारं समस्यापूरणाद्विज्ञायाभयया चनपुरस्सरमुपगत्य च क्षमयित्वा परमार्हतोऽभूत् । सिद्धश्च धर्मरुचिः क्रमात् । 25 सा चेयं समस्या - 30 त्रयोविंशश्च जिनेशः श्रीपार्श्वनाथ ऐक्ष्वाकाश्व सेन रसेनसूनुर्वामाकुक्षिसम्भवः पन्नगलक्ष्म्या नवकरोच्छ्रायनीलच्छविवपुराचजन्माश्रमपदोद्याने कौमार एवोपात्तचारित्रभारः केवलमुत्पाद्य तस्मिन्नेव शैले शैलेसीमवाप्य सिद्धः । अस्यामेव कुमारकाले भगवानेष एव मणिकर्णिकायां पञ्चाग्नितपस्तप्यमानात्कमठऋषेरायतौ भाविनीं विपदमा - त्मनो विविदिवानप्यन्तर्दारुणज्वलनज्वालाभिरर्घदग्धं दन्दशूकं जनन्या जनानां च संदर्श्य कुपथमथनमकार्षीत् । गंगाए नाविओ नंदो सभाए घरकोइलो । हंसो मयंगतीराए सीहो अंजणपत्र ॥ १ ॥ वाराणसीए बहुओ राया तत्थेव आयओ । एएसिं घायगो जो उ सो इत्थेव समागओ ॥ २ ॥ इति । अस्यां संवाहनस्य नरपतेः सातिरेके कन्यासह से सत्यपि परनृपतिपृतनावेष्टितायां पुरि राज्यलक्ष्मी गर्भtristoङ्गवीरखातवान् । अस्यां मातङ्गऋषिर्बलनामा मृतगङ्गातीरे लब्धजन्मा तिन्दुकोधाने स्थितवान् । गण्डी' तिन्दुकं च यक्षं गुणगणैर्हृतहृदयमकार्षीत् । कौशलिक नृपदुहिता च भद्रा मलक्लिन्नानं तमृषिं विलोक्य निष्ठतवती । यक्षेणाधिष्ठिताङ्गी तेनैव मुनेर्वपुषि सङ्क्रम्य परिणीता त्यक्ता च मुनिना । ततो रुद्रदेवेन यज्ञपत्नी कृता ! मासक्ष iB श्री सुपार्श्व 1 2 P °अश्वसेनसूनु° । 3 C वृदाकुदा । 7 P यज्ञपार्ट 8P& C जाओ । 9Pठी 4 B C कुलालं । 5 B प्रासैः खःसैः । 6P भक्षणं । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराणसीनगरीकल्पः ७३ पणपारणे च भिक्षार्थमुपागतो मातङ्गमुनिर्द्विजातिभिरुपहस्य कदर्थ्यमानं तं प्रेक्ष्य भद्रयोपलक्ष्य बोधितास्तं क्षमयामासुब्रह्मणाः । प्रत्यलाभश्च भक्ताद्यैर्विदधे विबुधैर्गन्धोदकवृष्टिः पुष्पवृष्टिर्दुन्दुभिवादनं वसुधारापातश्च । अस्यां वाणारसीपकोट्टए पासे गोवालि भद्दसेणेय । णंदसिरी पउमद्दह रायगिहे सेणिए वीरे ॥ १ ॥ वाणारसी य नयरी अणगारधम्मघोस - धम्मजसे । मासस्स य पारणए गोउल गंगा य अणुकंपा ॥२॥ एतदावश्यक निर्युक्तिस्थं संविधानकद्वयमजनि । तथा हि- अत्रैव पुर्यां भद्रसेनो जीर्णश्रेष्ठी । तस्य भार्या नन्दा । तयोः पुत्री नन्दश्रीर्वरकरहिता । अत्रैव कोष्टके चैत्येऽन्यदा पार्श्वस्वामी समवासरत् । नन्दश्रीः प्रात्राजीद् । गोपाल्यार्यायाः शिष्यतयार्पिता । सा च पूर्वमुत्रं विहृत्य पश्चादवसन्नीभूता हस्तपादाद्यक्षालयत् । साध्वीभिर्वार्यमाणा तु विभक्तायां वसतौ स्थिता । तदनालोच्य मृता ल्लहिमवति पद्म श्रीदेवी जज्ञे देवगणिका । भगवतः श्रीवीरस्य राजगृहे समवसृतस्याये नाख्यविधिमुपदर्श्य गता । अन्ये त्वाहुः– करिणीरूपेण यातनिसर्गमकरोत् । श्रेणिकेन तस्याः खरूपे पृष्टे भगवानाख्यत् तस्या: 10 पूर्वभवावसन्नतावृत्तम् । अत्रैव पुर्यां धर्मघोष-धर्मयशसौ द्वावनगारौ वर्षारात्रमवस्थाताम् । तौ' मासं मार्स क्षपणेनास्ताम् । अन्यदा चतुर्थपारणके तृतीयपौरुप्यां विहाराय प्रस्थितौ शारदातपेनात तृषितौ गङ्गामुत्तरन्तौ मनसापि नाम्भ ऐच्छतामनेषणीयमिति । देवता तद्गुणावर्जिता गोकुलं विकुर्व्य गङ्गोतीर्णौ तौ दध्यादिभिरुपन्यमन्त्रयत् । तौ दत्तोपयोगी ज्ञातवन्तौ यथेयं मायेति प्रत्यषेधताम् । पुरः प्रस्थितयोस्तयोरनुकम्पया बाईल' व्यकार्षीदेवता । तौ चाद्रयां भूमौ शीतलवाताप्यायितौ 1.5 आमं प्राप्य शुद्धोन्मादिषातामिति । श्रीमदयोध्यायामिक्ष्वाकुवंश्यः श्रीहरिश्चन्द्रो महानरेन्द्रस्त्रिशङ्कुपुत्र उशीनरनृपसुतया सुतारादेव्या रोहिताश्वेन च पुत्रेण सहितः सुखमनुभवंश्चिरमसात्काश्यपीम् । एकदा सौधर्माधिपतिर्दिवि दिविजपरिषदि तस्य सत्त्ववर्णनामकरोत् । तदश्रद्दधानावुभौ गीर्वाणौ चन्द्रचूड - मणिप्रभनामानौ वसुन्धरामवतीर्णौ । तयोरेको वनचराहरूपं विकृत्याऽयोध्या परिसरस्थित शक्रावतार चैत्याश्रमं ससंरम्भं भवतुं प्रववृते । अन्येद्युः सदसि सिंहासन- 20 स्थितो हरिश्चन्द्रमहीन्द्रस्तमाश्रमोपलवं शूकरोपज्ञं श्रुत्वा तत्र गत्वा बाणप्रहारेण तं वराहं प्रहतवान्' । तस्मिंश्च सशरेऽन्तर्हिते गर्हिते तर चरितः स यावत्तं 'प्रदेशमविशत्तावचत्र हरिण स्वबाणप्रहतां, तस्याः स्फुरन्तं च गलितं गर्भ निभालय, ' कपिञ्जल-कुन्तलमित्राभ्यां सह पर्यालोच्य भ्रूणनं स्वं शोचयन् प्रायश्चित्तग्रहणार्थं कुलपतिमुपसृत्य नमस्कृत्य गृहीत्वा चाशिषं यावदास्ते; तावद् वञ्चनानामकुलपतिकन्यका तुमुलमतुलमकार्षीत् । व्याहार्षीिच्च-तात ! अनेन पापीयसा मन्मृगी हता; तन्मरणे च" मम " मन्मातुश्च मरणं भविष्यतीति निशम्य कुपितः कुलपतिर्नृपतये । ततस्तत्पदोर्निपत्य नरपति - 23 रलपत्-प्रभो ! सकलामपि वसुधां प्रतिगृय मामेतस्मादेनसो मोचय; वञ्चनायाश्च मरणनिवारणाय हेमलक्षं दास्यामीति । तेनाप्योमिति प्रतिपन्नवति कौटल्यमृर्षि सह कृत्वा नृपः खपुरीमागात् । ततो वसुभूतेर्मणिः कुन्तलस्य च सुहृदस्तत्खरूपमावेद्य कोशान्निष्कलक्षमानाययत् । ततः स्मित्वा तापसः सांगारको" व्याकरोत् - अस्मभ्यं जलधिमेखलामखिलामिलां त्वमदाः । ततोऽस्मदीयमेव वस्त्वस्मभ्यमेवं दीयत" इति कोऽयं न्यायः । अथ वसुभूतिः " किमपि ब्रुवाणः कुलपतिना शापादकारि कीरः; कुन्तलस्तु" शृगालः । तौ च वनमध्येऽवसताम् । राजा च मासमवधिं मार्ग- 30 यित्वा रोहिताश्वमङ्गुलौ लगयित्वा सुतारया सह काशीं प्रति प्राचलत् । क्रमादिमां पुरीं प्राप्य संस्थायां स्थितः । तत्र शिरसि तृणं दत्वा वज्रहृदयविप्रहस्ते देवीं कुमारं च हेमषट्सहरुया विविक्रिये" । सा तत्र खण्डनपेषणादि 1 Pपि । 2 P P& पद्मदे | 3 Pतौ द्वौ । 7 B ग्रहीतवान् 8B Pa प्रवेश । 9 Pa निर्भय । 13 P ततोऽस्मदीयमेव चास्म दीयते; Pa ततोऽस्म दीयते । 1 14 C वसुभूर्ति 4 P गोकुलानि । 10 B 'च' नास्ति। वि० क० १० 5 5 P वाईलकं । 6B रोहिताख्येन । 11 P मम मातु 15 B कुन्तलस्य 1 12 P सांगाको । 16 PP& विचिक्रिये ! Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ विविधतीर्थकल्पे कर्माणि निर्ममे । दारकश्च समित्पत्रपुष्पफलाद्याजहार । राज्ञि चिन्ताचान्तचेतसि कुलपतिः कनकं मार्गयितुमगात् । दत्तं तस्मै राज्ञा काञ्चनसहस्रष्टुम् । कुलपतौ स्तोकमिति कुप्यत्यङ्गारकोऽवोचद् भोः ! किमर्थं पत्नीमपत्यं च व्यक्रीणीथाः । अत्रत्यं चन्द्रशेखरं नरेश्वरं किं न याचसे वसुलक्षम् । राज्ञोक्तम् - अस्मत्कुले नेदं सिध्यति । डोम्बस्यापि वेश्मनि कर्मकरत्वमुररीकृत्य दास्यामि तव काञ्चनलक्ष मिति । ततः कर्म कर्तुं प्रवृत्तश्चण्डालेन श्मशानरक्षणे नियुक्तः । 5 ततः परं ताभ्याममराभ्याभकारि मारिः पुर्याम् । यथा भूपादेशानीतमान्त्रिकेण राक्षसीप्रवादमारोप्य सुतारा मण्डलमानीय रासभमारोपिता, यथा शुकः पावके दत्तझम्पोऽपि न दग्धः, यथा पितृवने वटोत्कलम्बितं नरं तटे च रुदन्तीं सुदतीं विलोक्य नराद्विधाघरापहारवृत्तमाकर्ण्य तमुन्मोच्य तत्स्थाने हरिश्चन्द्रः खं नियुज्य होमकुण्डे ' खमांसखण्डानि आर्पयत्, यथा ‘कुण्डमध्यान्मुखं निर्गतं शृगालश्वारटत्, तापसेन यथा व्रणरोहणमवनीपतेरकारि, यथा च पुष्पाणि गृह्णन् रोहिताश्वो निःशुकं' दन्दशूकेन दष्ट: ' संस्कारयितुमानीताच्च तस्मात्कण्टिकमयाचिष्ट नृपतिः, यथा च सत्त्वपरीक्षानि10 र्वहणप्रमुदितप्रकटितनिजरूपत्रिदशकृतपुष्पवृष्टिजयजयध्वनिः सर्वजनैः प्रशंसितः सात्त्विकशिरोमणिरिति, यथा च बहिर्मुखमुखाद्वराहादि पुष्पवृष्टिपर्यन्तं दिव्यमायाविलसितमवबुध्य यावच्चेतसि चमत्कृतस्तावत्स्वं स्वपुर्यां सदसि सिंहासनस्थं सपरिवारमपश्यत् । तदेतद्देवी कुमार विक्रयादि दिव्यपुष्पवर्षावसानं श्रीहरिश्चन्द्रस्य चरित्रं सत्त्वपरीक्षा निकषोऽस्यामेव पुर्यामजनि जनजनितविस्मयम् । यच्च काशीमाहात्म्ये प्रथमगुणस्थानीयैरभिधीयते - यद् वाराणस्यां कलियुगप्रवेशो नास्ति । तथाऽत्र प्राप्तनिघनाः 15 कीटपतङ्गभ्रमरादयः कृतानेकचतुर्विधहत्यादिपाप्मानोऽपि मनुष्यादयो वा शिवसायुज्यमिति प्रतीत्यादियुक्तिरिक्तं तदस्माभिः श्रद्धातुमपि दुःशकं किं पुनः कल्पे जल्पितुमित्युपेक्षणीयमेवैतत् । धातुवाद-रसबाद-खन्यवाद मन्त्रविद्याविदुराः शब्दानुशासन- तर्क- नाटका -ऽलङ्कार- ज्योतिष- चूडामणि- निमित्तशास्त्रसाहित्यादिविद्यानिपुणाश्व पुरुषा अस्यां परिव्राजकेषु जटाधरेषु योगिषु ब्राह्मणादिचातुर्वण्यें च नैके रसिकमनांसि प्रीणयन्ति । चतुर्दिगन्तदेशान्तरवास्तव्याश्चास्यां जना दृश्यन्ते सकलकलापरिकलनकौतूहलिनः । 20 वाराणसी चेयं सम्प्रति चतुर्धा विभक्ता दृश्यते । तद् यथा - देववाराणसी, यत्र विश्वनाथा - सादः । तन्मध्ये चाश्मनं जैनचतुर्विंशतियहं पूजारूढमद्यापि विद्यते । द्वितीया राजधानी वाराणसी यत्राद्यत्वे यवनाः । तृतीया मदनवाराणसी; चतुर्थी विजयवाराणसीति । लौकिकानि च तीर्थानि अस्यां क इव परिसंख्यातुमीश्वरः । अन्तर्वणं दन्तस्वातं" तडागं निकषा श्रीपार्श्वनाथस्य चैत्यमनेकप्रतिमाविभूषितमास्ते । अस्याममलपरिमलभरा25 कृष्टभ्रमरकुलसङ्कुलानि सरसीषु नानाजातीयानि कमलानि । अस्यां च प्रतिपदमकुतोभयाः सञ्चरिष्णवो निचाय्यन्ते शाखामृगा मृगधूर्ताश्च । अस्याः क्रोशत्रितये धर्मेक्षानामसंनिवेशो यत्र बोधिसत्त्वस्योच्चैस्तरशिखर चुम्बितगगनमायतनम् । अस्याश्च सार्धयोजनद्वयात्परतश्चन्द्रावती नाम नगरी, यस्यां श्रीचन्द्रप्रभोगर्भावतारादिकल्याणिकचतुष्टयमखिलभुवनजनतुष्टिकरमजनिष्ट ! गङ्गोदकेन च जिनद्वयजन्मना च प्राकाशि काशिनगरी न गरीयसी कैः । तस्या इति व्यधित कल्पमनल्पभूतेः श्रीमान् जिनप्रभ इति प्रथितो मुनीन्द्रः ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीवाराणसीनगरीकल्पः ॥ ॥ मं० ११३, अ० २३ ॥ 30 दृष्टः । B होमखण्डैः । 4 BD कुण्डमुखा । 3 P निःशुक 16 BP 9 B P इद्द | 10 P दण्डख्यातं 1 P& 'लक्ष' नास्ति 1 2 ' प्रवृत्तः' नास्ति Pa। 3 7 P 'यथा' नास्ति । 8 B'यद्' नास्ति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ महावीरगणधरकल्पः । ३९. श्रीमहावीरगणधरकल्पः । सिरिवीरस्स गणहरे इकारंस जच्चमाणे नमिउं । तेसिं चिअ कप्पलवं भणामि समयाणुसारेण ॥ १॥ नाम ठाणं जैणया जर्गणीउ जम्मैरिक्ख-गुत्ताइ । गिहिपरिआउ संसय-वयदिणे-पुर-देस-काली य ॥ २ ॥ वयपरिवारो छउमैत्थ-केवलित्तेसु बरिससंसा य । रूवं लैंद्धी आउं सिठाण तेवु ति दाराइं ॥ ३ ॥ १. तत्थ गणहराण नामाइं-१ इंदभूई,२ अग्गिभूई, ३ वाउभूई, ४ विउत्तो,५ सुधम्मसामी, ६ मंडिओ, ७ मोरिअपुत्तो, ८ अकंपिओ, ९ अचलभाया, १० मेअजो, ११ पभासो य । २. इंदभूइप्पमुहा तिन्नि सहोअरा मगहदेसे गोब्बरगामे उप्पन्ना । विअत्तो सुहम्मो य दो वि कोल्लागसंनिवेसे । मंडिओ मोरिअपुत्तो अ दो वि मोरिअसंनिवेसे । अकंपिओ मिहिलाए । अयलमाया कोसलाए । मेअन्जो वच्छदेसे तुंगिअसंनिवेसे ! पभासो रायगिहे। ३. जणओ तिहं सोअराणं वसुभूई । विअत्तस्स धणमित्तो । अज्जसुहम्मस्स धम्मिलो । मंडिअस्स 10 धणदेवो । मोरिअपुत्तस्स मोरिओ। अकंपिअस्स देवो । अयलभाउणो वसू । मेअजस दत्तो । पभासस्स बलो। ४. जणणी तिण्हं भाउआणं पुहवी । विअत्तस्स वीरुणी । सुहम्मस्स भदिला । मंडिअस्स विजय. देवा । मोरिअपुत्तस्स सा चेव । जओ धणदेवे परलोअं गए मोरिएण सा संगहिआ; अविरोहो अ तंमि देसे । अकंपिअस्स जयंती । अयलभाउगो नंदा । मेअज्जस्स वरुणदेवा । पभासस्स अइभद्दत्ति। 15 ५. नक्खत्तं-इंदभूइणो जिट्टा, अग्गिभूइणो कित्तिआ, वाउभूइणो साई, विअत्तस्स सवणो, सुहम्मसामिणो उत्तरफग्गुणीओ, मंडिअस्स महाओ, मोरिअपुत्तस्स मिगसिरं, अकंपिअस्स उत्तरासाढा, अयलभाउणो मिगसिरं, मेअजस्स अस्सिणी, पभासस्स पूलु ति । ६. तिण्णि भाउणो गोअमगुत्ता, विअत्तो भारदायसगुत्तो, सुहम्मो अग्गिवेसायणसगुत्तो, मंडिओ घासिट्ठसगुत्तो, मोरिअपुत्तो कासवगुत्तो, अकंपिओ गोअमसगुत्तो, अयलभाया हारिअसगुत्तो, मेअजो पभासो20 अ कोडिण्णसगुत्तु ति। ७. गिहत्थपरिआओ-इंदभूइणो पंचासं वासाइं, अग्गिभूइस्स छायालीस, वाउभूइस्स बायालीसं, वियत्तस्स पन्नासं, सुहम्मसामिस्स वि पन्नासं, मंडियस्स तेवण्णा, मोरियपुत्तस्स पणसट्टी, अकंपियस्स अडयालीसं, अयलमाउणो छायालीसं, मेअजस्स छत्तीसं, पभासस्स सोलस ति । ८. संसओ-इंदभूइस्स जीवे । भगवया महावीरेणं छिन्नो ! अग्गिभूइणो कम्मे ! वाउभूइणो तज्जीव-तस्सरीरे 125 विअत्तस्स पंचमहाभूएसु । सुहम्मसामिणो जो जारिसो इह भवे, परभवे वि सो तारिसो चेव ति । मंडिअस्स बंध-मुक्खेसु । मोरिअपुत्तस्स देवेसु । अकंपिअस्स नरएसु । अयलमाउणो पुन्न-पावेसु । मेअजस्स परलोए । पभासस्स निवाणे ति । ९-१०-११-१२. दिक्खागहणमिकारसण्हं पि देवाणमागमणं दट्टण जण्णवाडयाओ उवट्टियाणं वइसाहसुद्धइक्कारसीए, मज्झिमपावाए नयरीए, महसेणवणुजाणे, पुचण्हदेसकाले ति । १३. इंदभूइपमुहाणं पंचण्हं पंचसया खंडिआ सह निक्खंता । मंडिअ-मोरिअपुत्ताणं पत्तेअं सड्ढा तिन्निसया । 30 अकंपिआईणं चउण्हं पत्ते तिन्निसय ति । 1P संसयदिक्खा। 2 B C Pa रिद्धी। मोरियपुत्तस्स विजयदेवा। 7 BCबायालीसं । P वसुदत्तो। 4 P बलिपिया। 5 P सोयराणं। 6 मंडियस्स Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ विविधतीर्थकरपे : १४. छउमत्यपरिआओ-इंदभूइस्स तीसं वासाई, अग्गिभूइस्स दुवालस, वाउभूइस्स दस, विअत्तस्स दुवालस, सुहम्मस्स बायालीसं, मंडिअ-मोरिअपुत्ताणं पचेअं चउद्दस, अकंपिअस्स नव, अयलभाउणो दुवालस, मेअजस्स दस, पभासस्स अट्ठति। १५. केवलि विहारेणं-इंदभूई दुवालसवासाई विहरिओ । अग्गिभूई सोलस, वाउभूई विअत्तो अ पत्तेयं अट्ठा5 रस, अज्जसुहम्मस्स अट्ठ, मंडिअ-मोरिअपुत्ताणं पत्तेअं सोलस, अकंपिअस्स एगवीसं, अयलभाउणो चउड्स, मेअजस्स पभासस्स य पत्तेयं सोलस ति।। १७. इकारसह वि बजरिसहनारायं संघयणं, समचउरंसं संठाणं, कणगप्पहो देहवण्णो । स्वसंपया पुण तेसिं एवं तित्थयराणं 'सबसुरा जइ रुवं अंगुट्ठपमाणयं विउविज्जा । जिणपायंगुटुं पइ न सोहए तं जहिंगालो ।' 10 ति वयणाओ अप्पडिरूवं ख्वं । तओ किंचूणं गणहराणं । तत्तो वि हीणं आहारगसरीरस्स । तत्तो वि अणुत्तर सुराणं । तत्तो जहक्कम नवमगेविजगपज्जवसाणदेवाणं हीणयरं । तत्तो वि कमेण अचुआइसोहम्मंतदेवाणं हीणयरं । तत्तो वि भवणवईणं, तत्तो वि जोइसिआणं, तत्तो वि वंतरदेवाणं, तत्तो वि चक्कवट्टीणं हीणयरं । तत्तो वि अद्धचक्कबट्टीणं, तत्तो वि बलदेवाणं हीणयरं । ततो वि सेसजणाणं छट्ठाणवडिअं । एवं विसिटुं रूवं गणहराणं । सुरं पुण-अगारवासे चउद्दसविज्जाठाणाई; सामण्णे पुण दुवालसंग गणिपिडगं सबेसि । जओ सवे वि दुवा15 लसंगप्पणेआरो। १७. लद्धीओ पुण-सवेसिं गणहराणं सबाओ वि हवंति । तं जहा-बुद्धिलद्धी अट्ठारसविहां केवलनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, बीअबुद्धी, कुट्टबुद्धी, पयाणुसारितं, संमिन्नसोइत्तं, दूरासायण सामत्थं, दूरफरिसणसामत्थं, दूरदरिसणसामत्थं, दूरग्घाणसामत्थं, दूरसवणसामत्थं, दसपुवित्तं, चउदसपुबित्तं, अटुंगमहानिमित्तकोसलं, पण्णासवगणतं, पत्तेअबुद्धत्तं, वाइत्वं च । । 20 किरियाविसया लद्धी दुविहा–चारणत्तं, आगासगामित्वं च । वेउधिअलद्धी अणेगविहा-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, पत्ती, पकामित्तं, ईसित्तं, वसितं, अप्पडिघाओ, अंतद्धाणं, कामरूवित्तमिच्चाइ। तवाइसयलद्धी सचविहा-उग्गतवत्तं, दित्ततबत्त, महातवत्तं, घोरतवत्त, घोरपरक्कमत्तं, घोरबंभयारितं, अघोरगुणबंभयारितं च । 25 बललद्धी तिविहा-मणोबलित्त, वयणबलित्तं, कायवलितं । ओसहिलद्धी अट्ठविहा-आमोसहिलद्धी, खेलोसहिलद्धी, जल्लोसहिलद्धी, मलोसहिलद्धी, विप्पोसहिलद्धी, सब्बोसहिलद्धी, आसगअविसत्तं, दिट्ठिअविसत्तं । रसलद्धी छबिहा–चयणविसत्तं, दिद्विविसत्तं, खीरासवित्तं, महुआसवित्तं, रुप्पिरासवित्तं, अमिआसवित्तं । खित्तलद्धी दुविहा पण्णत्ता-अवस्वीणमहाणसत्तं, अक्खीणमहालयत्तं च ।। 30 -एयाहिं लद्धीहिं संपन्ना सवे वि। १८. सबाउअं-इंदभूइस्स बाणउई संवच्छराई । अग्गिभूइस्स चउहत्तरी, वाउभूइस्स सत्तरी, विअत्तस्स असीई, अजसुहम्मस्स सयं, मंडिअस्स तेआसीई, मोरिअपुत्तस्स पंचनउई, अकंपियस्स अट्टहत्तरी, अयलभाउणो बाहत्तरी', मेअजस्स बासट्ठी, पहासस्स चालीसं ति । 1 Pa रूपं रूपं। 2D विजा। 3 PaC सामण1 4 Pa बाहुत्तरी । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोकावसतिपार्श्वनाथकल्पः । १९-२०. निवाणं च सधेसिं पाओवगमणमासि अभतेण, रायगिहे नयरे, वे भारपर संजायं । पदम - पंचभवज्जा नवगणहरा जीवंते भयवंतम्मि वीरे मुक्खं पता । इंदभूई अज्जसुहम्भो अ तम्मि निबाणगए निव्वुअ चि । गोअमसामिप्पभिई' गणपहुणो 'पवयणंबवणमहुणो । सुगहीअनामधेया महोदयं मज्झ उवार्णेतु ॥ १ ॥ जो गणहरकप्पमिणं पइपञ्चसं पढे पसन्नमणो । करयलमहिवसइ सया कल्लाणपरंपरा तस्स ॥ २ ॥ freeसूरह कओ ह सु-सिंहि-कु-निअविक्कमसमासु । जिसिअपंचमिबुहे गणहरकप्पो चिरं जयइ ॥ ३ ॥ ॥ इति श्रीमहावीरगणधरकल्पः ॥ ॥ श्रं० ६८ ॥ ७७ ४०. कोकावसतिपार्श्वनाथकल्पः । नमिऊण पासनाहं पउमावइ-नागरायकयसेवं । कोकावसहीपासस्स किंपि वत्तवयं भणिमो ॥ १ ॥ 10 सिरिपण्हवाहणकुलसंभूओ हरिसउरीयगच्छालंकारभूसिओ अभयदेवसूरी हरिसउराओ एगया गामाणुगामं विहरंतो सिरिअणहिलवाडय पट्टणमागओ । ठिओ बाहिपएसे सपरिवारो । अन्नया सिरिजयसिंहदेवनरिंदेण' गयखंधारूढेण रायवाडिआगएण दिट्ठो मलमलिणवत्थदेहो । राइणा गयखंधाओ उयरिऊण बिंदिऊण दुक्करकाओं त्ति दिन्नं मलधारि चि नामं । अब्भत्थिऊण नयरमज्झे नीओ रण्णा । दिन्नो उवस्सओ घयवसहीसमीवे । तत्थ ठिआ सूरिणो । तस्स पट्टे कालक्कमेणं 'अणेगगंथनिम्माण विक्खायकित्ती सिरिहेमचंदसूरी सजाओ 115 ते अ पइदिअहं वासारचचउम्मासीए घघवसहीए गंतूण वक्खाणं करिति । अन्नया कस्सवि घयवसही गुट्ठियस्स पिउकज्जे बलिवित्थाराइकरणं घयवसहीचेइए आढत्तं । त वक्खाणकरणत्थमागया सिरिहेमचंद्रसूरी । पडिसिद्धा गुट्टिएहिं जहा - अज्ज वक्खाणं इत्थ न काय । इत्थ बलिमंडणाइणा नत्थि ओगासो । तओ सूरीहिं भणिअं - थोवमेव अज्ज वक्खाणिस्सामो मा चमासीवक्खाणविच्छेओ भविस्सइ ति । तं च न पडिवन्नं गुट्टिएहिं । तओ अमरिसविलक्खमाणसा पडिआगया उवस्स्यमायरिआ । तओ दूमिअचित्ते गुरुणो नाऊण सोवन्निअमोखदेव-नायग - 20 नामगेहिं सङ्केहिं मा अन्नयाचि परचेइए एवंविहो अवमाणो होउ ति घयवसहीसमीवे चेइयकारावणत्थं भूमी मग, न य कत्थ विलद्धा । तओ कोकओ नाम सिट्ठी भूमिं मग्गिओ । वारिओ अ सोघयवसहीगुट्टिएहिं तिउणदम्मदाणपइच्छणेण' । तओ ससंधा आगया सूरिणो को कयस्स घरं । तेण वि पडिवत्तिं काऊण भणिअंदिन्ना मए भूमी जहोचिअमुल्लेण, परं मज्झ नामेणं चेइयं कारेअवं । तओ सूरीहिं सावएहिं अ तह त्ति" पडिवन्नं । तत्थ य घयवसहीआसन्नं कारिअं चेइयं" कोकावसहि ति । ठाविओ तत्थ सिरिपासनाहो । पूइज्जइ तिकालं | 25 कालक्कमेण सिरिभीमदेवरज्जे पट्टणं भजतेण मालवरण्णा सा पास नाहपडिमा वि भग्गा । तओ सोवन्निअनायगसंताणुप्पन्नेहिं रामदेव-आसघर "सिट्टीहिं उद्धारो कारेउमादत्तो । आरासणाउ फलहीतिगं आणीअं; न य तं निद्दोसं । तओ बिंबतिगे वि घडिए न परितोसो संजाओ गुरूणं सावयाणं च । तओ रामदेवेण अभिगहो गहिओ, जहाहं अकाराविअ पाससामिबिंबं न भुंजामि त्ति । गुरुणो वि उववासे कुणंति म्ह । तओ अट्ठमोववासे 1P मुहा 2 D पवयोवण ; P Pa पवयणं च वण° पक्तिः पतिता P आदर्शे । 5P क्षणेय° । 6 BP C संजायो । दाणइच्छणेण 10 B तहिति । 11 Pa B C नास्ति 'चेइयं' । 5 Pa पाडय 4 P देवेण । एतन्दतर्गता 7 B Pa C वसहीए 8P पएसो । 9PCD 12 B Pa आसाधर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे रामदेवस्स देवादेसो जाओ । जहा - जत्थ गोहलिओ' सपुप्फक्ख्या दीसई, तस्स हिट्ठा, इत्थेव चेइअपरिसरे इतिएहिं हत्थेहिं फलही चिट्ठइ चि । खणिऊण लद्धा फलही । कारिअं "निरुवमरुवं पासनाहबिम्बं । बारससय 'छास विक्कम्मसंयच्छरे देवानंदसूरीहिं पट्टि । ठाविअं च वेइए । पसिद्धं च कोकापासनाहु त्ति । रामदेवरस पुता तिहुणा जाजा नामाणो । तिहुणागस्स पुत्तो मल्लओ । तस्स पुत्ता देल्हण - जइतसीह 5 नामधेया, ते अ पूअंति पइदिणं पासनाहं । ভ अन्नया देल्हणस्स सिरिसंखे सरपासनाहेण सुमिणयं दिनं । जहा - पहाए घडियाचउक्कं जाव अहं कोकापासनाहपडिमा सन्निहिस्सामि । तंमि घडिआचउके एगंमि बिंबे पूइए किर अहं पूइति । तहेव लोगेहिं पूइज्माण कोकापासनाहो पूरेइ संखेसरपासनाहु व पञ्चए । संखेसरपासनाहविसया पूआ - जचाइ-अभिग्गहा तत्थैव पुरिज्जंति जणाणं । एवं संनिहिअपाडिहेरो जाओ भयवं कोकयपासनाही तिचीसपत्रपमाण10 मुत्ती मलधारिगच्छ पडिबद्धो । अणहिलपट्टणमंडणसिरिको कावसहिपासनाहस्स । इअ एस कप्पलेसो होउ जणाणं धुअकिलेसो || १ | ' इति श्रीकोकाव सतिपार्श्वनाथकल्पः ॥ ॥ ग्रं० ४० ॥ 11 ४१. कोटिशिलातीर्थकल्पः । नमिअ जिणे उवजीविअ वक्काई पुत्रपुरिससीहाणं । को डिसिलाए कप्पं जिणपहसूरी पयासेइ ॥ १ ॥ 15 इह भरहखित्तमज्ज्ञे तित्थं मगहासु अस्थि कोडिसिला । अज्ज वि जं पूइज्जइ चारण-सुर-असुर - जक्खेहिं ॥ २ ॥ भरहद्भवासिणीहिं अहिडिया देवयाहिं जा सययं । जोअणमेगं पिहुला जोअणमेगं च उस्सेहो ॥ ३ ॥ तिक्खंडपुहविपणो निअं परिक्खति बाहुबलमखिला । उप्पाडिअ जं हरिणो सुरनरखयराण पञ्चखं ॥ ४ ॥ पढमेण कया छत्तं बीएणं पाविआ सिरं जाव । तइएणं गीवाए तओ चउत्थेण वच्छधले ॥ ५ ॥ उअरंत पंचमएण तह य छद्वेण कडियड' नीआ । ऊरूपजंतं' सत्तमेण' उप्पाडिआ हरिणा || ६ || 20 जाणूस अट्ठमेणं नीआ चउरंगुलं तु भूमीओं । उद्धरिआ चरमेणं कन्हेणं वामबाहाए ॥ ७ ॥ अवसप्पिणिकालवा कमेण हायंति माणवबलाई । तित्थयराणं तु बलं सबेसिं होइ इगरूवं ॥ ८ ॥ उप्पाडेउं तीरइ जं बलवंतीए सुहडकोडीए । तेणेसा" कोडिसिला इकल्लेणावि हरिणा उ ॥ ९ ॥ चक्काउहोति नामेण संतिनाहस्स गणहरो पढमो । काऊण अणसणविहिं कोडिसिलाए सिवं पत्तो ॥ १० ॥ सिरिसंतिनाहृतित्थे संखिज्जाओं मुणीण कोडीओं । इत्येव य सिद्धाओं एवं सिरिकुंथुतित्थे वि ॥ ११ ॥ 25 अरजिणवरतित्थमिव बारससिद्धाओं समणकोडीओं । छक्कोडीओं रिसीणं सिद्धाओं मल्लिजिणतित्थे ॥ १२ ॥ मुणिन्वय जितित्थे सिद्धाओं तिन्नि साहुकोडीओं । इक्का कोडी सिद्धा नमिजिणतित्थेऽणगाराणं ॥ १३ ॥ अन्ने वि अगे तत्थ महरिसी सासयं पयं पता । इह कोडिसिलातित्थं विक्खायं पुहविवलयंमि " ॥ १४ ॥ वायरिएहिं च इत्थ सविसेसं किं पि भणियं । तं जहा जोअणपिहुला यामा दसन्नपवयसमीवि कोडिसिला । जिणहक्कतित्थसिद्धा तत्थ अणेगाउ मुणिकोडी ॥ १५ ॥ 6 Pa 1 B गोअलिआ । 2 C नही । 8 C निरुपम । 4 C बासडे | 5P नास्ति 'आ'; B Pa पूजा । वच्छयले; B वत्थयले 7 Pa कडिअं नीया; B कडिअ नीयाऊ । 8 Pa D qज॑ते । 9 B सत्तमो । 10 BC तेणं सा । 11 B बलयंति । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल - तेजः पालमन्त्रिकल्पः । ७९ पढमं संतिगणहरो चक्काउ हो ऽगसाहुपरिअरिओ | 'बत्तीसजुगेहिं तओ सिद्धा संखिज्जमुणिकोडी ॥ १६ ॥ संखिज्जा मुणिकोडी अडवीसजुगेहिं कुंथुनाहस्स । अरजिणचउवीसजुगा बारसकोडीओं सिद्धाओं ॥ १७ ॥ मल्लिक्स वि वीसजुगा छकोडि. मुणिसुव्वयस्स कोडितिगं । नमितित्थे इगकोडी सिद्धा तेणेस कोडिसिला ॥१८॥ छत्ते सिरंमि गीवा वच्छे उअरे कडीइ ऊरुसु । जाणू कहमवि जाणूनीया सा वासुदेवेण ॥ १९ ॥ इअ कोडिसिलातित्थं तिहुअणजणजाणिअनिव्वुआवत्थं । सुरनरखेअरमहिअं भवियाणं कुणउ कल्लाणं ॥ २० ॥ 5 ॥ इति श्रीकोदिशिलातीर्थकल्पः ॥ ॥ अं० २४, अ० ६ ॥ ४२. वस्तुपाल-तेजःपालमन्त्रिकल्पः । श्रीवस्तुपाल-तेजःपालौ मन्त्री रावुभावास्ताम् । यौ भ्रातरौ प्रसिद्धौ कीर्तनसंख्यां तयोर्धूमः ॥ १ ॥ पूर्वं गुर्जर धरित्रीमण्डनायां मण्डलीमहानगर्यां श्रीवस्तुपाल - तेजःपालाद्या वसन्ति स्म । अन्यदा श्रीम - 10 त्पत्तनवास्तव्यप्राग्वादान्वयठकुरश्रीचण्डपात्लज' ठकुरश्री चण्डप्रसादाङ्गज मत्रिश्रीसोमकुलावतंस ठक्कुरश्रीआसराजनन्दनौ कुमारदेवी कुक्षिसरोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपाल - तेजः पालौ श्रीशत्रुञ्जय - गिरिनारादितीर्थयात्रायै प्रस्थितौ । हृडालाग्रामं गत्वा यावत्स्यां विभूर्ति' चिन्तयतस्ताबल्लक्षत्रयं सर्वखं जातम् । ततः सुराष्ट्राखसौस्थ्यमाकलय्य लक्षमेकमवन्यां निधातुं निशीथे महाऽश्वत्थतलं खानयामासतुः । तयोः खानयंतोः कस्यापि प्राक्तनः कनकपूर्णः शौल्बकलशो निरगात् । तमादाय श्रीवस्तुपालस्तेजः पालजायामनुपमादेवीं मान्यतयाऽपृच्छत् - 15 क्वैतन्निधीयत ? इति । तयोक्तम् - गिरिशिखर एवैतदुच्चैः स्थाप्यते यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसाद्भवति । तच्छ्रुत्वा श्रीबस्तुपालस्तद् द्रव्यं श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्तादायव्ययत् । कृतयात्री व्यावृत्तो धवलक्ककपुरमगात् । अत्रान्तरे महणदेवी नाम कन्यकुलेश्वरसुता, [या] जनकात् कलिकापदे गूर्जर धरित्रीमवाप्य तदाधिपत्यं भुक्त्वा मृता सती तत्रैव देशाधिष्ठात्री देवता समजनि । सैकदा स्वमे वीरधवलनृपस्याचीकथत्-यद्वस्तुपाल-तेज:पाल राज्यचिन्तकप्राग्रहरौ विधाय सुखेन राज्यं शाधि । इत्थं कृते राज्य-राष्ट्रवृद्धिस्तव भवित्री - इत्यादिश्य खं च 20 प्रकाश्य तिरोदधे देवी । प्रातरुत्थाय नृपतिर्वस्तुपाल-तेजःपालावाहूय सत्कृत्य च ज्यायसः स्तम्भतीर्थ - धवलक्कयोराधिपत्यमदात् । तेजःपालस्य तु सर्वराज्यव्यापारमुद्रां ददौ । ततस्तौ षड्दर्शनदान - नानाविधधर्मस्थानविधापनादिभिः सुकृतशतानि चिन्वन्तौ निन्यतुः समयम् । तथा हि-लक्षमेकं सपादं जिनबिम्बानां कारितम् । अष्टादश कोट्यः षण्णवतिर्लक्षाः श्रीशत्रुञ्जयतीर्थे द्रविणं व्यथितम् । द्वादश कोढ्योऽशीतिलक्षाः श्री उज्जयन्ते । द्वादशकोट्यस्त्रिपञ्चाशल्लक्षा अर्बुदशिखरे लूणिगवसत्याम् 125 नवशतानि चतुरशीतिश्व पौधशालाः कारिताः । पञ्चशतानि दन्तमयसिंहासनानाम्, पञ्चशतानि पञ्चोत्तराणि समवसरणानां जादरमयानाम् । ब्रह्मशालाः सप्तशतानि सप्तदशानि । सत्राकाराणां सप्तशती । तपखि- कापालिकमठानां सर्वेषां भोजननिर्वापादिदानं कृतम् । त्रिंशच्छतानि ह्युत्तराणि माहेश्वरायतनानाम् । त्रयोदशशतानि चतुरुत्तराणि शिखरबद्धजैनप्रासादानाम् । त्रयोविंशतिः शतानि जैनचैत्योद्धाराणाम् । अष्टादशकोटिसुवर्णव्ययेन सरस्वती भाण्डागाराणां स्थानत्रये भरणं कृतम् । पञ्चशती ब्राह्मणानां नित्यं वेदपाठं करोति स्म । वर्षमध्ये संघपूजात्रितयम् । पञ्चदशशती 30 1 Pa छत्तीस° । 2 Pa नास्ति; B चन्द्रपात्मज । 3 B चन्द्रप्रसा° । 4 C 'विभूर्ति' नास्ति । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे श्रमणानां गृहे नित्यं विहरति स्म । तटिक कार्पटिकानां सहस्रं साधिकं प्रत्यहममुक्त । त्रयोदश तीर्थयात्राः संघपतीभूय कृताः । तत्र प्रथमयात्रायां चत्वारि सहस्राणि पञ्चशतानि शकटानां सशय्यापालकानां, सप्तशती सुखासनानां, अष्टादशशती वाहिनीनां, एकोनविंशतिः शतानि श्रीकरीणां, एकविंशतिः शतानि श्वेताम्बराणां, एकादशशती दिगराणां, चत्वारि शतानि सार्धानि जैनगायनानां त्रयस्त्रिंशच्छती बन्दिजनानां चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धाः, चतुःशती 5 चतुःषष्ट्यधिका वार्षीनां, पाषाणमयानि त्रिंशद्-द्वात्रिंशद्दुर्गाणि दन्तमयजैनरथानां चतुर्विंशतिः, विंशं शतं शाकघटितानां, सरस्वतीकण्ठाभरणादीनि चतुर्विंशतिर्बिरुदानि श्रीवस्तुपालस्य । चतुःषष्टिर्भसीतयः कारिताः । दक्षिणस्यां श्रीपर्वतं यावत्, पश्चिमायां प्रभासं यावत्, उत्तरस्यां केदारं यावत् पूर्वस्यां वाराणसीं यावत् तयोः कीर्तनानि । सर्वाप्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दश लक्षा अष्टादश सहस्राणि अष्टशतानि लोष्टिकत्रितयोनानि द्रव्यव्ययः । त्रिष्टिवान् संग्रामे जैत्रपत्रं गृहीतम् । अष्टादश वर्षाणि तयोर्व्यापृतिः । 10 एवं तयोः पुण्यकृत्यानि कुर्वतोः कियताऽपि कालेन श्रीवीरधवलनृपः कालधर्ममवापत्' । ततस्तत्पट्टे तदीयस्तनयः श्रीमान् वीसलदेवस्ताभ्यां मनिप्रवराभ्यां राज्येऽभिषिक्तः । सोऽपि समर्थः सन् क्रमेण दुर्मदः सचिवान्तरं विषाय मन्रितेजःपालमपाचकार । तदवलोक्य राज्ञः पुरोधाः सोमेश्वरनामा महाकविर्नृपमुद्दिश्य साक्षेपं नव्यं काव्यमपठत् । तथा मासान्मांसल पाटलापरिमलव्यालोलतोलम्बतः प्राप्य प्रौढिमिमां समीर महतीं पश्य त्वया यत्कृतम् । सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत् पादस्पर्शसहं विहायसि रजः स्थाने तयोः स्थापितम् ॥ १ ॥ इत्यादि । तयोः पुरुषरत्नयोर्वृत्तशेषमादित उत्पत्तिस्वरूपं च लोकप्रसिद्धित एवावगन्तव्यम् । 15 ८० 20 गीतगायनवर्येण सूडाद्विज्ञाय कीर्तिता । कीर्तनानामियं संख्या श्रीमतोर्मधिमुख्ययोः ॥ १ ॥ यदध्यासितमर्हद्भिस्तद्धि तीर्थं प्रचक्षते । अर्हन्तश्च तयोश्चित्तमध्यवात्सुरहर्निशम् ॥ २ ॥ तत्तीर्थरूपयोक्त्या पुरुषश्रेष्ठयोस्तयोः । कीर्तनोत्कीर्तनेनापि न्याय्या कल्पकृतिर्न किम् ॥ ३ ॥ इत्यालोच्य हृदा कल्पलेशं मन्त्रीशयोस्तयोः । एतं विरचयां चक्रुः श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ 8 ॥ ॥ श्रीमहामात्य वस्तुपालतेजःपालकीर्तनसंख्याकल्पः ॥ ॥ मं० ५३, अ० ६॥ 1 C अगात् । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढिंपुरीतीर्थकल्पः । ४३. टिंपुरीतीर्थकल्पः। श्रीपार्श्व' चेल्लणाभिख्यं ध्यात्वा श्रीवीरमप्यथ । कल्पं श्रीडिंपुरी तीर्थस्याभिधाये यथाश्रुतम् ॥ १ ॥ पारेतजनपदान्तश्चर्मणवत्यास्तटे महानद्याः । नानाघनवनगहना जयत्यतौ दिपुरीति पुरी ॥ २ ॥ अत्रैव भारते वर्षे विमलयशा नाम भूपतिरभूत् । तस्य सुमङ्गलादेव्या सह विषयसुखमनुभवतः क्रमाजातमपत्ययुगलम् । तत्र पुत्रः पुष्पचूलः, पुत्री पुष्पचूला । अनर्थसार्थमुत्पादयतः पुष्पचूलस्य कृतं लोकै-5 वंचूल इति नाम । महाजनोपालब्धेन राज्ञा रुषितेन निःसारितो नगरानचूलः । गच्छंश्च पथि पतितो भीषणायामटव्यां सह निजपरिजनेन स्वस्रा च स्नेहवशया । तत्र च क्षुत्पिपासादितो दृष्टो भिल्लैः । नीतः खपल्लीम् , स्थापितश्च पूर्वपल्लीपतिपदे पर्यपालयद्राज्यम् , अलुण्टयद्रामनगरसार्थादीन् । ___अन्यदा सुस्थिताचार्या अर्बुदाचलादष्टापदयात्रायै प्रस्थितास्तामेव सिंहगुहानामपल्ली सगच्छाः प्रापुः । जातश्च वर्षाकालः; अजनि च पृथ्वी जीवाकुला । साधुभिः सहालोच्य मार्गयित्वा वङ्कचूलाद्वसतिं स्थितास्तत्रैव 10 सूरयः । तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता-मम सीमान्तधर्मकथा न कथनीया । यतो युष्मकथायामहिंसादिको धर्मः3; न चैवं मल्लोको निर्वहति । एवमस्तु इति प्रतिपद्य तस्थुरुपाश्रये गुरवः । तेन चाहूय सर्वे प्रधानपुरुषा भणिताः अहं राजपुत्रस्ततो मत्समीपे ब्राह्मणादय आगमिष्यन्ति । ततो भवद्भिर्जीववधो मांसमद्यादिप्रसङ्गश्च पल्या मध्ये न कर्तव्यः । एवं च कृते यतीनामपि भक्तपानमजुगुप्सितं कल्पत इति । तैस्तथैव कृतं यावञ्चतुरो मासान् । प्राप्तो विहारसमयः । अनुज्ञापितो वङ्काचूलः सूरिभिः-'समणाणं सउणाण'मित्यादि वाक्यैः । ततस्तैः सह चलितो वङ्काचूल: । खसीमां 15 प्रापुषा तेन विज्ञप्तम् -वयं परकीयसीमायां न प्रविशाम इति । भणितः सूरिभिः--वयं सीमान्तरमुपेताः, तकिमुपदिशामस्तुभ्यम् । तेनोक्तम्-यन्मयि निर्वहति, तदुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः । ततः सूरिभिश्चत्वारो नियमा दत्तास्तद्यथाअज्ञातफलानि न भोक्तव्यानि, सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य घातो देयः । पट्टदेवी नाभिगन्तव्या । काकमांसं च न भक्षणीयमिति । प्रतिपन्नाश्च तेन ते । गुरून् प्रणम्य स स्वगृहानागमत् । अन्यदा गतः सार्थस्योपरि धाट्या । शकुनकारणान्नागतः सार्थः । त्रुटितं च तस्य पथ्यदनम् । पीडिताः क्षुधा 20 राजन्याः । दृष्टश्च तैः किंपाकतरुः फलितः । गृहीतानि फलानि । न जानन्ति ते तन्नामधेयमिति तेन न भुक्तानि । इतरैः सर्वैर्बुभुजिरे । मृताश्च तैः किंपाकफलैः । ततश्चिन्तितं तेनाहो ! नियमानां फलम् । तत एकाक्येवागतः पल्लीम् । रजन्यां प्रविष्टः स्वगृहम् । दृष्टा पुष्पचूला दीपालोकेन पुरुषवेषा निजपल्या सह प्रसुप्ता । जातस्तस्य कोपस्तयोरुपरि । द्वावप्येतौ खड्गप्रहारेण छिनीति यावदचिन्तयत्तावत्स्मृतो नियमः । ततः सप्ताष्टपदान्यपक्रम्य धातं ददत् खाकृतमुपरि खङ्गेन । व्याहृतं स्वस्रा 'जीवतु वङ्कचूल' इति तद्वचः श्रुत्वा लज्जितोऽसायपृच्छत् किमेतदिति ? । सापि 25 'नटवृत्तान्तमचीकथत् ।। ___ कालक्रमेण तस्य तद्राज्य शासतस्तत्रैव पल्ल्यां तस्यैवाचार्यस्य शिष्यौ धर्मऋषि-धर्मदत्तनामानौ कदाचिद्वर्षा रात्रमवास्थिषाताम् । तत्र तयोरेकः साधुस्त्रिमासक्षपणं विदधे । द्वितीयश्चतुर्मासक्षपणम् । वङ्कचूलस्तु तद्दत्तनियमानामायतिशुभ फलतामवलोक्य व्यजिज्ञपत्-भदन्तौ ! मद्नुकम्पया कमपि पेशलं धर्मोपदेशं दत्तम् । ततस्ताभ्यां चैत्यविधापनदेशना क्लेशनाशिनी विदधे । तेनापि शराविकापर्वतसमीपवर्तिन्यां तस्यामेव पल्ल्यां चर्मणवतीसरित्तीरे 30 कारितमुच्चैस्तरं चारुचैत्यम् । स्थापितं तत्र श्रीमन्महावीर बिम्यम् । तीर्थतया च रूढं तत् । तत्र यान्ति स्म चतुर्दिग्भ्यः सङ्घाः। 4 Pa°पलब्धेन। 5 Pa विज्ञप्ति। 6PA प्रपन्नास्तेन । 1 Pa पा । 2 Pa पुर। 3Pu°दहना। 7 B दद्यात् । 8 B तद्। 9 Pa °फलशुभता । वि.क.११ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे कालान्तरे कश्चिन्नैगमः सभार्यः सर्वर्धा तद्यात्रायै प्रस्थितः । प्राप्तः क्रमेण रन्तिनदीम् । नावमारूढौ च दम्पती चैत्यशिखरं व्यलोकयताम् । ततः सरभसं सौवर्णकच्चो के कुङ्कुमचन्दनकर्पूरं प्रक्षिप्य जले क्षेतुमारब्धवती नैगमगृहिणी । प्रमादान्निपतितं तदन्तर्जलतलम् । ततो भणितं वणिजा - अहो ! इदं कच्चोलकं नैककोटिमूल्यरत्नखचितं राज्ञा ग्रहणकेऽर्पितमासीत् । ततो राज्ञः कथं छुटितव्यमिति चिरं विषद्य वङ्कचूलस्य पल्लीपतेर्विज्ञापितं तत् । 5 यथाऽस्य राजकीयवस्तुनो विचितिः कार्यताम् । तेनापि धीवर आदिष्टस्तच्छोधयितुं प्राविशदन्तर्नदम् । विचिन्वता चान्तर्जलतलं दृष्टं तेन हिरण्मयरथस्थं जीवन्तस्वामिश्रीपार्श्वनाथ विम्बम् । यावत्पश्यति स्म स विम्वस्य हृदये तत्कच्चोलकम् । धीवरेणोक्तम्- धन्याविमौ दम्पती यद्भगवतो वक्षसि घुसृणचन्दनविलेपनाहे स्थितमिदम् । ततो गृहीत्वा तदर्पितं नैगमस्य । तेनापि दत्तं तस्मै बहुद्रव्यम् । उक्तं च त्रिम्बखरूपं नाविकेन । ततो वङ्कचूलेन श्रद्धाना तमेव प्रवेश्य निष्काशितं तद्विम्वम् । कनकरथस्तु तत्रैव मुक्तः । निवेदितं हि खप्ने प्राग् भगवता नृपतेः, यत्र 10 क्षिप्ता सती पुष्पमाला गत्वा तिष्ठति तत्र विम्बं शोध्यमिति । तदनुसारेण बिम्बमानीय समर्पितं राज्ञे वङ्कचूलाय । तेनापि स्थापितं श्रीवीरस्य बिम्बस्य बहिर्मण्डपे यावत्किल नव्यं चैत्यमस्मै कारयामीत्यभिसन्धिमता | कारिते च चैत्यान्तरे यावत्तत्र स्थापनार्थमुत्थापयितुमारभन्ते राजकीयाः पुरुषास्तावत्तद्विम्बं नोत्तिष्ठति स्म । देवताधिष्ठानात्तत्रैव स्थितमद्यापि तथैवास्ते । धीवरेण पुनर्विज्ञप्तः पल्लीपतिः - यत्तत्र देव ! मया नद्यां प्रविष्टेन विम्बान्तरमपि दृष्टम्, तदपि बहिरानेतुमौचितीमश्चति । पूजारूढं हि भवति । ततः पल्लीश्वरेण पृष्टा स्वपरिषत् - भो । जानीते कोऽप्यनयोर्विम्बयोः 15 संविधानकम् ? । केन खल्वेते नधान्तरजलतले' 'न्यस्ते ? । इत्याकयैकेन पुराविदा स्थविरेण विज्ञप्तम् - देवैकस्मिन्नगरे पूर्वं नृपतिरासीत् । स च परचक्रेण समुपेयुषा सार्द्धं योद्धुं सकलचमूसमूहसन्नहनेन गतः । तस्याग्रमहिषी च निजं सर्वस्वमेतच्च बिम्बद्वयं कनकरथस्थं विधाय जलदुर्गमिति कृत्वा चर्मणवत्यां कोटिंबके प्रक्षिप्य स्थिता' । चिरं युद्धवतस्तस्य कोऽपि खलः किल वार्तामानैषीत् - यदयं नृपतिस्तेन परचक्राचिपतिनृपतिना व्यापादित इति । तच्छ्रुत्वा देवी तत्कोटिंबकमाक्रम्यान्तर्जलतलं प्राक्षिपत् । स्वयं च परासुतामासदत् । स च नृपतिः परचक्रं निर्जित्य यावन्निजनगरमा20 गमत् साबद् देव्याः प्राचीनं वृत्तमाकर्ण्य भवाद्विरक्तः पारमेश्वरीं दीक्षां कक्षीचक्रे । तत्रैकं बिम्बं देवेन बहिरानीतं पूज्यमानं चास्ति । द्वितीयमपि चेन्निःसरति तदोपक्रम्यतामिति । तदाकर्ण्य वङ्कचूलः परमार्हत' चूडामणिस्तमेव धीवरं तदानयनाथ नद्यां प्रावीविशत् । स च तद्विम्बं कटी दभवपुर्जलतलेऽवतिष्ठमानं वहिस्थशेषाङ्गं चावलोक्य निष्काशनोपायाननेकानकार्षीत् । न च तन्निर्गतमिति दैवतप्रभावमाकलय्य समागत्य च विशामीशाय न्यवेदयत्तत्स्वरूपम् | अद्यापि तत्किल तथैवास्ते । श्रूयतेऽद्यापि केनापि धीवरस्थविरेण नौकास्तम्भे जाते तत्कारणं विचिन्वता तस्य " हिरण्मयरथस्य 25 कीलिका लब्धा । तां कनकमयीं दृष्ट्वा लुब्धेन तेन व्यचिन्ति-यदिमं रथं क्रमात्सर्वं गृहीत्वा ऋद्धिमान् भविष्यामीति । ततश्च स रात्रौ निद्रां न लेभे । उक्तब्ध केनाप्यदृष्टपुरुषेण-यदिमां तत्रैव विमुच्य सुखं" स्थेयाः, नो चेत्सद्य एव त्वां हनिष्यामीति । तेन भयार्तेन तत्रैव मुक्ता युगकीलिका इत्यादि । किं न सम्भाव्यते दैवताधिष्ठितेषु पदार्थेषु । ८२ श्रूयते च, सम्प्रति काले कश्चिन्म्लेच्छः पाषाणपाणिः श्रीपार्श्वनाथ प्रतिमां भङ्कुमुपस्थितः स्तम्भितचाहुतः । महति पूजाविधौ कृते सज्जतामापन्न इति । श्रीवीरबिम्बं महत्तदपेक्षया लवीयस्तरं श्री पार्श्वनाथ विम्बमिति महावीर30 स्यार्भकरूपोऽयं देय इति मेदाचेलण इत्याख्यां प्राचीकशन् । श्रीमच्चेल्लणदेवस्य महीयस्तममाहात्म्यनिधेः पुरस्ताभ्यां महर्षिभ्यां सुवर्णमुकुटमन्नाम्नायः समा[ रा ]धितः प्रकाशितश्च भव्येभ्यः । सा च सिंहगुहापल्ली कालक्रमाहिं पुरीत्याख्यया प्रसिद्धा नगरी संजाता । अद्यापि स भगवान् श्रीमहावीरः स चेल्लणपार्श्वनाथः सकलसंधेन तस्यामेव पुर्यां यात्रोत्सवैराराध्येते इति । 1 Pb C जलं | 2 Pa-b भवगता । 3 B नान्यं । 4 B नाखि 'च' । 5 Pa °जलं । 6 B न्यास्ते । 7 Pa स्थितारासीत् । 8 B 'तत्' नास्ति । 9 B Pa पर माईतः चूलामणि । 10 B हि रथस्य । 11 Pa नारित 'सुख' । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंपुरीतीर्थकल्पः। ८३ अन्यदा वङ्कचूल उज्जयिन्या खात्रपातनाय चौर्यवृत्त्या कस्यापि श्रेष्ठिनः सद्मनि गतः । कोलाहलं श्रुत्वा 'वलितः । ततो देवदत्ताया गणिकाया गाणिक्यमाणिक्यभूताया गृहं प्राविशन् । दृष्टा सा कुष्ठिना सह प्रसुप्ता । ततो निःसृत्य गतः पुरः श्रेष्ठिनो वेश्म । तत्रैकविशोपको लेख्यके त्रुट्यतीति परुषवाग्भिनिर्भर्त्य निःसारितो गेहात् पुत्रः श्रष्ठिना । विरराम च यामिनी । यावद्राजकुलं यामीत्यचिन्तयत् , तायदुज्जगाम धामनिधिः । पल्लीशश्च निःसृत्य नगरागोधां गृहीत्वा तरुतले दिनं नीत्वा पुना रात्रावागात् । राजभाण्डागाराबहिर्गोधापुच्छे विलाय प्राविशत्कोशम् । दृष्टो 5 राजाग्रमहिप्या रुष्टया, पृष्टश्च कस्त्वमिति । तेनोचे चौर इति । तयोक्तम्-मा भैपीः, मया सह सङ्गमं कुरु । सोऽवादीत्का त्वम् ? । साऽप्यूचेऽयमहिष्यमिति । चौरोऽवादीद्ययेवं तर्हि ममाम्बा भवसि, अतो यामीति निश्चिते तया खाङ्गं नखैर्विदार्य पूरकृतिपूर्वमाहूता आरक्षकाः । गृहीतस्तैः । राज्ञा चानुनयार्थमागतेन तदृष्टम् । राज्ञोक्ताः खपौ(पु)रुषाःमैनं गाढं कर्वीध्वमिति । तै रक्षितः । प्रातः पृष्टः क्षितिभृता । तेनाप्युक्तम्-देव! चौर्यायाहं प्रविष्टः । पश्चादेवभा ण्डागारे देव्या दृष्टोऽस्मि । यायदन्यन्न कथयति तावतुष्टो विदितवेद्यो नरेन्द्रः स्वीकृतः पुत्रतया, स्थापितश्च सामन्त-10 पदे । देवी च विडम्ब्यमाना रक्षिता वाचलेन । अहो! नियमानां शुभफलमित्यनवरतमयमध्यासीत । प्रेषितश्चान्यदा राज्ञा कामरूपभूपसाधनार्थम् । गतो युद्धे । घातर्जर्जरितो विजित्य तमागमत् खस्थानम् । व्याहृता च राज्ञा वैद्याः । यावद्र्ढोऽपि घातन्त्रणो विकसति । तैरुक्तम्-देव ! काकमांसेन शोभनो भवत्ययम् । तस्य च जिनदासश्रावकेण साई प्रागेव मध्यमासीत् । ततस्तदानयनाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना, येन तद्वाक्याकाकमांसं भक्षयतीति । तदाहूतश्च जिनदासो ऽवन्तीमागच्छन्नुभे दिव्ये सुदत्यौ रुदत्यावद्राक्षीत् । तेन पृष्टे-किं रुदिथः । ताभ्या-15 मुक्तम्-अस्माकं भर्ता सौधर्माच्युतः । अतो राजपुत्रं वङ्कचूलं प्रार्थयावहे । परं त्वयि गते स मांसं भक्षयिता ततो गन्ता दुर्गतिं तेन रुदिवः । तेनोक्तम्-तथा करिष्ये यथा तन्न भक्षयिता । गतश्च तत्र । राजोपरोधाद्वङ्काचूलमवोचत्गृहाण बलिभुपिशितम् । पटूभूतः सन् प्रायश्चित्तं चरेः । वङ्कचूलोऽवोचत्-जानासि त्वं यदाचर्याप्यकार्य प्रायश्चित्तं ग्राह्यम् , ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय इति । 'प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।' इति वाक्यान्निषिद्धो नृपतिः । विशेषप्रतिपन्ननिवहश्वाऽच्युतकल्पमगमत् । वलमानेन जिनदासेन ते देव्यौ तथैव रुदत्यौ दृष्ट्वा प्रोक्तम्-20 किमिति रुदिथः । न तावत्स मांसं ग्राहितः। ताभ्यामभिदधे-स ह्यधिकाराधनावशादच्युतं प्राप्तस्ततो नाऽभवदस्मद्भतेति । एवं जिनधर्मप्रभावं सुचिरं परिभाब्य जिनदासः खावासमाससादेति । एवं चास्य निर्मापयिता वङ्कचूल एवाजनि जनितजगदानन्दः ।। डिंपुरीतीर्थरत्नस्य कल्पमेतं यथाश्रुतम् । किश्चिद्विरचयां चक्रुः श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीचेल्लणपार्श्वनाथस्य कल्पः॥ ॥ अं० ११६, अ० २६ ॥ 1B चलितः। 2D 'स' नास्ति । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ विविधतीर्थकल्पे ४४. दिपुरीस्तवः। उत्तुङ्गैर्विविधैर्नगैरुपलसच्छायैरभिभाजिता, श्रीवीरप्रभुपार्श्व-सुव्रत-युगादीशादिबिम्वैर्युता । पल्ली भूतलविश्रुता नियमिनः श्रीवङ्कचूलस्य या, सा भूत्या चिरमद्भुतां कलयतु प्रौढिं पुरी डिंपुरी ॥ १ ॥ व्योमचुम्बिशिखरं मनोहरं रन्तिदेव'तटिनीतटस्थितम् । अन चैत्यमवलोक्य यात्रिकाः शैत्यमाशु ददति खचक्षुषोः ॥ २ ॥ मूलनायक इहान्त्यजिनेन्द्रश्चारुलेपघटितोद्भटमूर्तिः ।। दक्षिणे जयति चेल्लणपाश्चों भात्युदक् तदपरः फणिकेतुः ॥ ३ ॥ एकत आदिजिनो जिनो ऽतोऽन्यत्र पुनर्मुनिसुव्रतनाथः । एवमनेकजिनेश्वरमार्तिः स्फूर्तिमदनचकास्ति जिनौकः ॥ ४॥ अनाम्बिका द्वारसमीपवर्तिनी श्रीक्षेत्रपालो भुजषट्कभास्वरः । सर्वज्ञपादाम्बुजसेवना ऽलिनौ संघस्य विनौषमपोहतः क्षणात् ॥ ५ ॥ यात्रोत्सवानिह शितौ 'महसो दशम्यामालोक्य लोकसमवाय विधीयमानान् । संभावयन्ति भविकाः कलिकालगेहे प्राधूर्णकं कृतयुगं ध्रुवमभ्युपेतम् ॥ ६ ॥ अमरमहितमेतत् तीर्थमाराध्य भत्त्या, फलितसकलकामाः सर्वभीतीर्जयन्ति । बहलपरिमलाढ्यं चन्दनं प्राप्य यद्वा क इव सहतु तापव्यापमालिङ्गिताङ्गम् ।। ७ !! वन्द्या नन्द्यादधहतिढा दिपुरीतीर्थरलम् , यामध्यास्ते सुरतरुरिव प्रार्थितार्थप्रदायी। पद्मावत्या भुजगपतिना चाविमुक्तांहिपार्श्वः, कायोत्सर्गस्थित वपुरयं चेल्लणः पार्श्वनाथः ॥८॥ शशधरहृषीकाक्षिक्षोणीमिते (१२५१) शकवत्सरे, गृहमणिमहे संघान्वीता उपेत्य पुरीमिमाम् । मुदितमनसस्तीर्थस्यास्य प्रभावमहोदधेरिति विरचयां चक्रुः स्तोत्रं जिनप्रभसूरयः ॥ ९ ॥ ॥ इति ढिपुरीस्तोत्रम् ॥ ॥ ग्रं०१६॥ 4Cजनीकः ।। +Pa Cतिपुरीस्तवस्त्रयम्। 1B रन्तिदेवकीर्तितटिनी 1 2 Pa. नान्यात्र। 3 Pa एक'। pa'केशना1 6Cयात्रोत्सवानिहि। 7 BPa सहसो। 8P समवायि°19Pa स्थिति। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 चतुरशीतिमहातीर्थनामसङ्ग्रहकल्पः । ४५. चतुरशीतिमहातीर्थनामसङ्ग्रहकल्पः । पर्युपास्य परमेष्ठिपञ्चकं कीर्तयामि कृतपापनिग्रहम् । तन्त्रवेदि विदितं चतुर्युताशीतितीर्थजिननामसंग्रहम् ॥ १ ॥ तथा हि-श्रीशत्रुञ्जये भुवनदीपः श्रीवैरस्वामिप्रतिष्ठितः श्रीआदिनाथः । तथा, श्रीमूलनायकः पाण्डवस्थापितो नन्दिवर्धनयुगादिनाथः । श्रीशान्तिप्रतिष्ठितः पुण्डरीकः श्रीकलशः, द्वितीयस्तु' श्रीवैर-5 स्वामिप्रतिष्ठितः पूर्णकलशः । सुधाकुण्डजीवितस्वामी श्रीशान्तिनाथः । मरुदेवास्वामिनी प्रथमसिद्धः । श्रीउज्जयन्ते पुण्यकलश-मदनमूर्तिः श्रीनेमिनाथः । काञ्चनपलानके अमृतनिधिः श्रीअरिष्टनेमिः । पापामठे अतीतचतुर्विंशतिमध्यात् अष्टौ पुण्यनिधयः श्रीनेमीश्वरादयः । १. काशहदें त्रिभुवनमङ्गलकलशः श्रीआदिनाथः ! पारकरदेशे श्रीआदिनाथः । अयोध्यायां श्रीऋषभदेवः । कोल्लापुरे वज्रमृत्तिकामयः श्रीभरतेश्वरपूजितो भुवनतिलकः श्रीआदिनाथः । सोपारके जीवन्त खा- 10 मिश्रीऋषभदेवप्रतिमा। नगरमहास्थाने श्रीभरतेश्वरकारितः श्रीयुगादिदेवः । दक्षिणापथे गोमटदेवः श्रीवाहुबलिः । उत्तरापथे कलिङ्गदेशे गोमटः श्रीऋषभः । खङ्गारगढे श्रीउग्रसेनपूजितो मेदिनीमुकुटः श्रीआदिनाथः । महानगर्या उद्दण्डविहारे श्रीआदिनाथः । पुरिमताले श्रीआदिनाथः । तक्षशिलायां बाहुबलिविनिर्मितं धर्मचक्रम् । मोक्षतीर्थे श्रीआदिनाथपादुका । 'कोल्लपाकपत्तने माणिक्यदेवः श्रीऋषभो मन्दोदरीदेवतावसरः । गङ्गा-यमुनयोर्वेणीसंगमे श्रीआदिकरमण्डलम् । २. श्रीअयोध्यायां श्रीअजितखामी । चंदेयाँ अजितः । तारणे विश्वकोटिशिलायां श्रीअजितः । अंगदिकायां श्रीअजित-शांतिदेवताद्वयं श्रीब्रह्मेन्द्रदेवतावसरः । ३. श्रावस्त्यां श्रीसंभवदेवो जाङ्गुलीविद्याधिपतिः । ४. सेगमतीग्रामे श्रीअभिनन्दनदेवः । नर्मदा तत्पादेभ्यो निर्गता । ५. क्रौंचद्वीपे सिंहलद्वीपे हंसद्वीपे श्रीसुमतिनाथदेवपादुकाः । 'आम्बुरिणिग्रामे श्रीसुमतिदेवः । 20 ६. माहेन्द्रपर्वते कौशाम्ब्यां च श्रीपद्मप्रभः ।। ७. मथुरायां महालक्ष्मीनिर्मितः श्रीसुपार्श्वस्तृपः । श्रीदशपुरनगरे श्रीसुपार्श्वः सीतादेवी देवतावसरः । ८. प्रभासे शशिभूषणः श्रीचन्द्रप्रभश्चन्द्रकान्त मणिमयः श्रीज्यालामालिनीदेवतावसरः । श्रीगौतमखामिप्रतिष्ठितो वलभ्यागतः श्रीनन्दिवर्धनकारितः श्रीचन्द्रप्रभः । नासिक्यपुरे श्रीजीवितस्वामी त्रिभुवनतिलकः श्रीचन्द्रप्रभः । चन्द्रावत्यां मन्दिरमुकुटः श्रीचन्द्रप्रभः । वाराणस्यां विश्वेश्वरमध्ये श्रीचन्द्रप्रभः । ९. कायाद्वारे श्रीसुविधिनाथः । १०. प्रयागतीर्थे श्रीशीतलनाथः । ११. विन्ध्याद्रौ मलयगिरौ च श्रीश्रेयांसः । १२. चम्पायां विश्वतिलकः श्रीवासुपूज्यः । १३. काम्पील्ये गङ्गामूले, श्रीसिंहपुरे च श्रीविमलनाथः । 30 १४. मथुरायां यमुनाहूदे, समुद्रे द्वारवत्यां, शाकपाणिमध्ये श्रीअनन्तः । - 1B वेद1 2 Pa पूर्णकलशः। 3 B °स्थापित। 4 Pa द्वितीयो। Pa काशद्रहे। 6 Pa, जीवत । 7 Pa-b कोलपाक'; B कोलापाक। 8 Pa सग। 9 Pa आथुरणि° 1 10 Pa. °स्तूभः। 11 Pa सीतादेवता । 12 BPb कान्ति। 25 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे १५. अयोध्यासमीपे रत्नवाहपुरे नागमहितः श्रीधर्मनाथः । १६. किष्किन्धायां कायां पाताललंकायां त्रिकूटगिरी श्रीशान्तिनाथः । १७-१८. गङ्गा-यमुनयोर्वेणी संगमे श्री कुंथुनाथारनाथौ । १९. श्रीपर्वते मल्लिनाथः । २०. भृगुपत्तने अनर्घ्यरलचूडः श्रीमुनिसुव्रतः । प्रतिष्ठानपुरे अयोध्यायां विन्ध्याचले माणिक्यदंडके मुनिसुव्रतः । २१. अयोध्यायां मोक्षतीर्थे नमिः । २२. शौर्यपुरे शङ्खजिनालये पाटलानगरे मथुरायां द्वारकायां सिंहपुरे स्तम्भतीर्थे पाताललिङ्गाभिधः श्रीनेमिनाथः । २३. अजागृहे नवनिधिः श्रीपार्श्वनाथः । स्तंभनके भवभयहरः । फलवर्द्धिकायां विश्वकल्पलताभिधः । करहेटके उपसर्गहरः | अहिच्छत्रायां त्रिभुवनभानुः । कलिकुण्डे नागहदे च श्रीपार्श्वनाथः । कुक्कुटेश्वरे विश्वगजः । माहेन्द्रपर्वते छायापार्श्वनाथः | ओंकारपर्वते सहस्रफणी पार्श्वनाथः । वाराणस्यां दण्डखाते भव्यपुष्करावर्तकः । महाकालान्तरा पातालचक्रवर्ती । मथुरायां कल्पद्रुमः । चम्पायामशोकः । मलयगिरौ श्रीपार्श्वः । 5 10 ८६ 15 २४. श्रीपर्वते घण्टाकर्णमहावीरः । विन्ध्याद्री श्रीगुप्तः ' | हिमाचले छायापार्श्वो मत्राधिराजः श्रीस्फुलिङ्गः । श्रीपुरे अन्तरिक्षः श्रीपार्श्वः । 'डाकुली - भीमेश्वरे श्रीपार्श्वनाथः । भाइल' खामिगढे देवाधिदेवः | श्रीरामशयने प्रद्योतकारि श्रीवर्धमानः । मोढेरे वायडे खेडे' नाणके पट्टयां मतुण्डके मुण्डस्थले श्रीमालपत्तने उपवेशपुरे कुण्डग्रामे सत्यपुरे टङ्कायां गङ्गाहदे सरस्थाने वीतभये चम्पायां 'अपापायां पुंड्रपर्वते नन्दिवर्द्धन - कोटि भूमौ वीरः । वैभाराद्रौ राजगृहे कैलासे श्रीरोहणाद्री 29 श्रीमहावीरः । 25 अष्टापदे चतुर्विंशतिस्तीर्थकराः । संमेतशैले विंशतिर्जिनाः । हेमसरोवरे द्वासप्ततिजिनालयः । कोटिशिला सिद्धि क्षेत्रम् । १ ॥ इति जैन सिद्धानां तीर्थानां नामपद्धतेः । सङ्ग्रहोऽयं स्फुटीचक्रे श्रीजिनप्रभसूरिणा ॥ *किञ्चिदत्र यथा दृष्टं किञ्चिच्चापि यथा श्रुतम् । स्वतीर्थनामधेयानां पद्धतौ लिखितं मया ॥ २ ॥ ॥ समाप्तस्तीर्थनामधेय संग्रहकल्पः ॥ ॥ प्र० ४९, अ० २१ ॥ 1 P विहाय नास्त्यन्यत्र । 2 B श्री गुप्तिः । 3 P व्याकुली'; Pe 'डाकुली चन्द्रावत्यां मंदिरमुकुट भीमेश्वरे' एतादृशः पाठः । 4 Pa भालय° । 5 P ° कारितः । 6 B Pa नास्ति 'खेडे' । 7 Pa विहाय 'अपापायां' नास्ति । 8P Pa सिद्ध । * इदं पद्यं नास्ति P आदर्शे । P इति सर्वचतुरशीति महातीर्थनामसङ्ग्रह कल्पः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरणरचनाकल्पः। ____15 ४६. समवसरणरचनाकल्पः । नमिऊण जिणं वीरं कप्पं सिरिसमवसरणरयणाए । पुवायरिअकयाहिं गाहाहिं चेव जंपेमि ॥ १॥ वाऊ-मेहा कमसो जोअणभूसोहि'-सुरहिजलवुट्टी । मणिरयणभूमिरयणं कुणंति पुण कुसुमवुट्ठि वणा ॥ २ ॥ पायारतिअं कमसो कुणंति वररुप्पकणयरयणमयं । कंचणवसुमणिकविसीससोहिअं भवण-जोइ-वणा ॥ ३ ॥ गाउअमेगं छस्सयणुहपरिच्छिन्नमंतरं तेसिं । अटुंगुलीकरयणी तित्तीसं घणुहबाहलं ॥ ४ ॥ पंचसयधणुञ्चत्तं चउदारविराइआण वप्पाणं । सप्पमाणमेयं निअनिअहत्थेण य जिणाणं ।। ५॥ सोवाणदससहस्सा भूमीओ गंतु पढमपायारो । पण्णासधणुहपयरो पुणो वि सोवाणपणसहसा ॥ ६ ॥ तत्थ विअ बीअवप्पो पुव्वुत्तविही तयंतरे नेया । तत्तो तईओ एवं वीससहस्सा य सोयाणा ॥ ७ ॥ दस पंच पंच सहसा सधे हथुच्च-हत्यवित्थिन्ना । बाहिर-मज्झ-भितरवप्पाण कमेण सोवाणं ॥ ८ ॥ सम्मज्झे मणिवीदं भूमीओ सवदुन्निकोसुच्चं । दोधणुसयवित्थिण्णं चउदारं जिणधणुसमुच्चं ॥ ९ ॥ 10 सिंहासणाई चउरो मणिपडिछन्नाई तेसु चउरूवो । पुबमुहो' ठाइ सयं छत्तत्तयभूसिओ भयवं ॥१०॥ समहिअजोअणपिहुलो तहा असोगो दुसोलसवणुचो । पडिवित्तयपमुहं किचं तु कुणंति वंतरिआ ॥ ११ ॥ परिसाअग्गे आइसु मुणिवर-वेमाणिणीओं समणीओं। मवण-वण-जोइदेवी देवा वेमाणिअ-नरित्थी ॥ १२ ॥ जोअणसहस्सदंडो धम्मज्झओ कुडहिकेउसंकिन्नो । दो जक्स चामरधरा जिणपुरओं धम्मचक्कं च ॥ १३ ॥ ऊसिअधय-मणितोरण-अडमंगल-पुण्णकलस-दामाई । पंचालिअ-छत्ताइं पइदार धूवघडिआओं ॥ १४ ॥ हेम-सिअ-रत्त-सामलवण्णा सरवण य जोइ-भवणवई । पइदारं वसु वप्पे पुधाइसु ठंति पडिहारा || १५ ।। जयविजयादिअ-अवराजिअगोरा रत्तकणयनीलाभा । देवी पुबकमेणं सकच्छरा ठंति कणयमए ॥ १६ ॥ जडमउडमंडिआ तह तुंबर-खटुंग-पुरिससिरिमाली । बहिवप्पदार दोसु वि पासेसुं ठंति पइवप्पं ।। १७ ॥ बहियप्पे जाणाई बीए सत्तू वि मित्तभावगया । तिरिआ मणिमयछंदै' इंसु पुण रयणवप्पबहिं ॥ १८ ॥ बहिवप्पदारमज्झे दो दो वावीओं हुंति वट्टम्मि । चउरंससमोसरणे इग इग वावी उ कोणेसुं ॥ १९ ॥ __20 उक्किट्टि सीह्नायं कलयलसद्देण सबओ सबं । तित्थयरपायमूले करिंति देवा निवयमाणा ॥२०॥ चेइदुम-पीढछंदग-आसण-छत्तं च चामराओ अ । जं चण्णं करणिज्ज करंति तं वाणमंतरिआ ॥ २१ ॥ साहारणओसरणे एवं जस्थिड्डिमंतु ओसरइ । इक्कु चिअ तं सर्व करेइ भयणाउ इअरेसिं ॥ २२ ॥ 1"सूरुदयपच्छिमाए ओगाहंतीइ पुवओ एइ । दोहिं पउमेहिं पाया मग्गेण य हुंति सत्तन्ने ॥ २३ ॥ पादाहिणपुधमुहो तिदिसिं पडिरूवगाउ देवकया । जिट्ठगणी अन्नो वा दाहिणपुषे अ दूरमि ॥ २४ ॥ 25 जे ते देवेहिं कया तिदिसि पडिरूवगा जिणवरस्स । तेसि पि तप्पभावा तयागुरूवं हवइ रूपं" ॥ २५ ॥ इतं महहि पणिवयंति ठिअमवि "वयंति पणमंता । न वि जंतणा न विकहा न परुप्परमच्छरो न भयं ॥ २६ ॥ तित्थपणाम काउं कहेइ साहारणेण सद्देण । सबेसि सन्नीणं जोअणनीहारिणा भयवं ॥ २७ ॥ जत्थ अपुरोसरणं अदिट्ठपुर च जेण समणेणं । बारसहिं जोअणेहिं सो एइ अणागमो लहुआ ॥ २८॥ साहारणासवंते तदुवओगो अगाहगगिराए । नय निविजई सोआ किढिवाणिअ-दासिआहरणा ॥ २९॥ 30 सबाउअंपि सोआ "झविज्ज जइ हु सययं जिणो कहइ । सीउल-खुप्पिवासापरिस्समभए अविगणतो ।। ३० ॥ 1C सोहिया। 2 Pb °सोहियं च वणजोई। 3 B पुग्धमुहे। 4 C पन्चाइसु; Pb पुवाइंसु वाइसु15 B सत्थकरा। 60ठवंति। 7 Pbe छंदे ईसे। 8Cउकिट्ठ। 9 PaC जत्धिष्टि; Pb जत्थति। 10 Pa सूरदय' रिदय । 11 Pa रूवं । 12 Pa. धयंति; Cयंति। 13 Pa पुव्वंत; C पुव्वं व । 14 Pb सरणेणं । 15 C सर्वतो। 16 B नयरिदिज्बई। 17C सोआमज्झविजजह । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे वित्तीओ सुवण्णस्साबारस अद्धं च सयसहस्साई । तायइअं चिअ कोडी पीईदाणं तु चक्किस्स ॥ ३१॥ एअं चेव पमाणं नवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलिआण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा ॥ ३२॥ भत्तिविभवाणुरूवं अन्नेवि य दिति इब्भमाईआ । सोऊण जिणागमणं निउत्तमणिऑइएसुं वा ॥ ३३ ॥ रायावरायमचो तस्सासइ पवरजणवओ वावि । दुब्बलि खंडिअ बलि छडिअ तंदुलाणाढगं कलमा ॥ ३४ ॥ 5 भाइअमुणाणिआणं अखंडफुडिआण फलगसरिआणं ! कीरइ बली सुरावि अ तत्व छुभंति गंधाई ॥ ३५ ॥ बलिपविसण समकालं पुबद्दारेण ठाइ परिकहणा । तिगुणं पुरओं पाडण तस्सद्धं अवडिअं देवा ॥ ३६॥ अद्धद्धं अहिवइणो अवसेसं होइ पागयजणस्स ! सबामयप्पसमणी कुप्पइ नण्णो य छम्मासा ॥ ३७ ॥ राओवणीअसीहासणोचविट्ठो व पायपीटंमि । जिट्टो अन्नयरो या गणहारि करेइ बीआए ॥ ३८ ॥ इअ समवसरणरयणाकप्पो सुत्ताणुसारओ लिहिओ । लेसुद्देसेण इमो जिणपहसूरिहिं पढियवो ॥ ३९ ॥ 10 ॥ इति समवसरणरचनाकल्पः॥ ॥ ग्रं० ४३ । आदितः ३२०८ ॥ आदितः सर्वकल्पेषु ग्रन्थाग्रमिह जातवान् । अनुष्टुभामष्टयुता दशनप्रमिताः शताः ।। श्रीधर्मघोष सूरयोऽप्येवं समवसरणरचनास्तवमाहुः--"थुणिमो केवलिवत्थं०।" पं० २३, अ० १३ ॥ 15 ४७. कुडुंगेश्वरनाभेयदेवकल्पः। श्वेताम्बरेण चारणमुनिनाचार्येण वज्रसेनेन । शक्रावतारतीथे श्रीनाभेयः प्रतिष्ठितो जीयात् ॥ १ ॥ "कुटुंगेश्वरनाभेयदेवस्यानल्पतेजसः । कल्पं जल्पामि लेशेन दृष्ट्वा शासनपट्टिकाम् ॥ २॥ पूर्व 'लाटदेशमण्डनभृगुकच्छपुरालङ्कारे शकुनिकाविहारे स्थिताः श्रीवृद्धवादिसूरयो 'यो येन निर्जीयते तेन तस्य शिष्येण भाव्य'मिति प्रतिज्ञा विधाय बादकरणार्थ दक्षिणापथायातं कर्णाट भट्टदिवाकर 20 निर्जित्य व्रतं ग्राहयां चकिरे। सिद्धसेनदिवाकरेत्यभिधयाऽभ्यधुः । ततः कतिचिहिनैनिःशेषानप्यागमानध्यजीगपत् । अन्यदा तु सकलानप्यागमान् संस्कृतानहं करोमीति तेन वचनमिदमूचे । ततः पूज्या अपीदमभिदधिरे-किं संस्कृतं कर्तुं न जानन्ति श्रीमन्तस्तीर्थङ्करा गणधरा वा यदर्द्धमागधेनागमानकृषत । तदेवं जल्पतस्तव महत्प्रायश्चित्तमापन्नम् । किमेतत्तवाग्रतः कथ्यते । स्वयमेव जानन्नसि । ततो विमृश्याभिदधे-मो भगवन् ! आश्रितमौनो द्वादशवार्षिकं पाराञ्चितं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिकारजोहरणादिलिङ्गः प्रकटितावधूतरूपश्चरिष्यामीत्यावश्यकम् । उपयुक्त इति गुरुभिरभिहित25 माकर्ण्य देशान्तरामनगरादिषु पर्यटन द्वादशे वर्षे श्रीमदुजयिन्यां कुटुंगेश्वरदेवालये शेफालिकाकुसुमरंजिताम्बरालङ्कृतशरीरः समागत्यासांचक्रे । ततो देवं करमान्न नमस्यतीति लोकैर्जरप्यमानोऽपि नाजल्पत् । एवं च जनपरम्पस्या श्रुत्वा, सर्वत्रानृणीकृतविश्वविश्वंभराङ्कितनिजैकवत्सरः श्रीविक्रमादित्यदेवः समागत्य जरूपयांचकार-क्षीरलिलिक्षो मिक्षो" 1 किमिति त्वया देवो न नमस्यते" ? । ततस्त्विदमवादि वादिना-मया नमस्कृते देवे लिङ्गभेदो भक्ताम प्रीतये भविष्यति । राज्ञोचे-भवति (तु?) क्रियतां नमस्कारः । तेनोक्तम्-श्रूयतां तर्हि । ततः पद्मासनेन भूत्या 30"द्वात्रिंशद-द्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तोतमपचक्रमे | तथा हि-- 1C अटुं। 2 Pa°कुरिआण। 3 Pa°पवसण। Cप्पसवणी। 5B वीआ य। 6P कुडंगेश्वर । 7 Paललाट | 8C , B नास्ति 'च'। 10P नास्ति। 11C देवो न मस्यते; Paन नमस्ते । 12 PB नास्ति 'द्वात्रिंशद्' । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुडुंगेश्वरनाभेयदेवकल्पः। खयंभुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् । अव्यक्तमन्याहतविश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ १॥ इत्यादि प्रथम एवं श्लोके प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गाद्भूमवर्तिरुदस्थात् । ततो जनैर्वचनमिदमूचे--अष्टविद्येशाधीशः कालामिरुद्रोऽयं भगवांस्तृतीयनेत्रानलेन भिक्षु भस्मसात्करिष्यति । ततस्तडित्तेज इव सतडत्कारं प्रथमं ज्योतिर्निर्गत्याप्रतिचक्राताड्यमानमिथ्यादृष्टिदैवतमामूलाल्लिङ्गं द्विधा भित्वा प्रादुरास पद्मासनासीनः स्वयंभूर्भगवानाभिसूनुः । तदनया दर्शनप्रभावनया तीर्णः पाराञ्चिताम्भोनिधिरिति विमुच्य रक्ताम्बराणि, प्रकटीकृत्य मुखवत्रिका-5 रजोहरणादिलिङ्गानि, महाराजं धर्मलाभाक्षरैराशीर्वादयांचक्रे वादीन्द्रः । ततो विनयपुरस्सरम् सूरये सिद्धसेनाय दूरादुच्छ्रितपाणये । धर्मलाभ इति प्रोक्ते ददौ कोटिं नराधिपः ॥ १॥ ततः प्रभून् क्षमयित्वा नृपतिः स्तुतिमकार्षीत् । यथा उद्यूढपाराञ्चितसिद्धसेनदिवाकराचार्यकृतप्रतिष्ठः । श्रीमान् कुडुंगेश्वरनाभिसूनुर्देवः शिवायास्तु जिनेश्वरो वः ॥ १॥ 10 ततो भगवतो भट्टश्रीदिवाकरसूरैर्देशनया संजीविनीचारिचरकन्यायेन खाभाविकभद्रकतया विशेषतः सम्यक्त्वमूलां देशविरतिं प्रत्यपादि श्रीविक्रमादित्यः । ततश्च गोहदमण्डले च सांबद्रा' प्रभृतिग्रामाणामेकनवति, चित्रकूटमण्डले वसाडप्रभृतिप्रामाणां चितुरशीति, तथा धुटारसीप्रभृतिप्रामाणां चतुर्विशतिं, मोहडचासकमण्डले ईसरोडाप्रभृतिप्रामाणां षट्पञ्चाशतं श्रीकुटुंगेश्वरऋषभदेवाय शासनेन खनिःश्रेयसार्थमदात् । ततः शासनपट्टिका 'श्रीमदुज्जयिन्यां, संवत् १, चैत्रसुदि १, गुरौ, “भाटदेशीयमहाक्षपटलिकपरमार्हतश्वेताम्बरोपासकब्राह्मण-15 गौतमसुतकात्यायनेन राजाऽलेखयत् ।' ततः श्रीकुडुंगेश्वरऋषभदेवप्रकटीभवनदिनात् प्रभृति सर्वात्मना मिथ्यात्वोच्छेदेन सर्वानपि जटाधरादीन् दर्शनिनः श्वेताम्बरान् कारयित्वा परिमुक्तमिथ्याष्टिदेवगुरुः सकलामप्यवनी जैनमुद्राकितां चकार । ततः परितुष्टैः श्रीसिद्धसेनसूरिरभिदधे वसुधाधवः ।। पुण्णे वाससहस्से सयंमि अहिअंमि नवनवइकलिए । होही कुमरनरिंदो तुह विक्कमराय ! सारिच्छो ॥१॥ इत्थं ख्यातिं सर्वजगत्पूज्यतां चोपगतः श्रीकुडुंगेश्वरयुगादिदेव इति । कुडुंगेश्वरदेवस्य कल्पमेतं यथाश्रुतम् । रुचिरं रचयां चक्रुः श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ १ ॥ ॥ इति कुडुंगेश्वरयुगादिदेवकल्पः ॥ ॥ ग्रं० ५५, अ० १८ ॥ 20 __1C नास्ति 'एव'12 BP संजीवनी । 3 B साबद्रा; P सावदा। 1 एतदन्तर्गता पंक्तिः नास्ति P आदर्श । 4Cघंटारसी। 5 BC भाद। वि.क. १२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ४८. व्यात्रीकल्पः । यः स्यादाराधको जन्तुः श्रेयस्तत्कीर्तनाद् ध्रुवम् । इत्यालोच्य हृदा किंचिद्व्याघ्रीकल्पं वदाम्यहम् ॥ १ ॥ श्रीशत्रुञ्जना मेयचैत्यवप्रस्य कर्हिचित् । प्रतोलीद्वारमावृत्य काचिव्याघ्री समास्थिता ॥ २ ॥ निरीक्ष्य निश्चलाङ्गीं तामातङ्कातुरमानसाः । जनाः श्राद्धा जिनं नन्तुं बहिस्तो न डुढौकिरे || ३ || 5 राजन्यः साहसी कोऽपि तस्याः पार्श्वमुपासृपत् । सा तु तं प्रति नाकार्षीत् हिंसाचेष्टां मनागपि ॥ ४ ॥ विश्वस्य बाहुजस्तस्य कुतोऽप्यानीय तत्पुरः । आमिषं मुमुचे सा च दृशापि न तदस्पृशत् ॥ ५ ॥ अथ श्राद्धजनोऽप्येत्य त्यक्तमीस्तत्पुरः क्रमात् । तरसा सरसं भक्ष्यं पानीयं चोपनीतवान् ॥ ६ ॥ तदप्यनिच्छन्तीं दृष्ट्वा तां दध्यौ जनता हृदि । नूनं जातिस्मरैषाऽत्र तीर्थेऽनशनमाददे ॥ ७ ॥ श्लाघ्यस्तिर्यग्भवोऽप्यस्याश्चतुर्द्धाऽऽहारमुक्तितः । एकाग्रचक्षुषा चैषा देवमेव निरीक्ष्यते ॥ ८ ॥ 10 अभ्यर्च्य गन्धपुष्षाद्यैः श्राद्धाः साधर्मिकीधिया । सम्भावयां बभूवुस्तां स्फीतसङ्गीतकोत्सवैः ॥ ९ ॥ निराकारं प्रत्याख्यातं तेऽथ तस्या अचीकरन् । मनसैव श्रद्दधाना सा स्वीचक्रे च तन्मुदा ॥ १० ॥ इत्थं सा तीर्थमाहात्म्यात्समृद्ध्यच्छुद्धवासना । दिनानुपोष्य सप्ताष्टान्नष्टपापा ययौ दिवम् ॥ ११ ॥ चन्दनागरुभिस्तस्था वपुः संस्कार्य संज्ञिनः । प्रतोल्या दक्षिणे पक्षे शैली मूर्ति न्यवीविशन् ॥ १२ ॥ तीर्थचूडामणिर्जीयात्सैष श्रीविमलाचलः । भवेयुर्यत्र तिर्यञ्चोऽप्येवमाराधिकाग्रिमाः ॥ १३ ॥ 15 व्याघ्रीकल्पमिमं कृत्वा श्रीजिनप्रभसूरयः । पुण्यं यदार्जयंस्तेन श्रीसङ्घोऽस्तु सुखास्पदम् ॥ १४ ॥ ९० ॥ इति व्याघ्रीकल्पः ॥ ॥ मं० १४ ॥ 1BC भक्षं । 2 C निरीक्षते । 3 B अध्यर्च्य । 4 B ते च; C तथा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टापदगिरिकल्पः । ४९. अष्टापदगिरिकल्पः। अट्ठावयदेहपहं भवकरिअठ्ठावयं नमिय उसहं । अट्ठावयस्स गिरिणो जंपेमि समासओं कप्पं ॥१॥ अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दक्षि( क्खि )णभरहद्धमज्झे नवजोअणविस्थिन्ना चारसजोषणदीहा अउज्झा नाम नयरी । सा य सिरिउसभ-अजिअ-अभिनंदण-सुमइ-अणंताइ जिणाणं जम्मभूमी । तीसे अ उत्तरदिसाभाए' बारसजोअणेसुं अहावओ नाम केलासापराभिहाणो रम्मों नगवरो अट्ठजोअणुच्चो सच्छ-5 फालिहसिलामओं, इत्तुच्चिअ लोगे धवलगिरित्ति पसिद्धो । अजावि अउज्झापरिसरवत्तिउड्डयकूडोवार ठिएहिं निम्मले नयले धवला सिहरपरंपरा तस्स दीसइ । सो पुण महासरोवरघण सरसपायवनिज्झरवारिपूरकलिओ परिपाससंचरंतजलहरो मत्तमोराइविहगकुलकलयलमुहलो किंनरखेअररमणीरमणिज्जो चेइअवंदणस्थमागच्छंतचारणसमणाइलोगो आलोअमित्तेणं पि खुहापिवासावहरणो आसन्नवत्तिमाणससरोवरविराइओ अ। एअस्स उवच्चयासुं साकेअवासिणो जणा नाणाविहकीलाहिं कीलंति म्ह । तस्सेव य सिहरे उसमसामी चउदसमभत्तेणं पजंकासडिओ अणगाराणां 10 दसहिं सहस्सेहिं समं माहबहुलतेरसीए अभीइरिक्खे पुरण्हे निवाणमणुपत्तो । तत्थ सामिणो देहं सवारियं सक्काइएहिं । पुत्वदिसाए सामिणो चिया, दक्खिणदिसाए इक्खागुवंसीणं, पच्छिमदिसाए सेससाहूणं । तम्मि चियाठाणतिगे देवेहिं थूभतिगं कयं । भरहचकवट्टिणा य सामिसक्कारासन्नभूयले जोअणायामो तदद्धपिहलो तिगाउअसमसिओ सिंहनिसिज्जा नामधिज्जो पासाओ रयणोवलेहिं वदइरयणेण कारिओ । तस्स चत्तारि दुवाराणि फालिहमयाणि । पइदारं उमओ पासेसुं सोलस रयणचंदणकलसा । पइदारं सोलस रयणमया तोरणा । दारे दारे सोलस अट्ठमंगलाई । तेसु दुवारेसु चत्तारि 15 विसाला मुहमंडवा । तेसिं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेक्खामंडवा । तेसिं पेक्खामंडवाणं मज्झमागेसु वइरामया अक्खवाडा । अक्खाडे अक्खाडे मज्झभागे रयणसिंहासणं । पत्तेअं पेक्खामंडवग्गे मणिपीढिआओ । तदुवरि रयणमया चेइअथूमा । तेसिं चेइअथूभाणं पुरओ पत्तेअं पइदिसं महइमहालिआ मणिपीढिआ । तदुवरि पत्ते चेइअपायया । सयधणुप्पमाणाओ चेइयथूभसंमुहीओ सदंगरयणनिम्मिआ उसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा नामिगाओ पलिअंकासणनिसण्णाओं मणोहराओं सासयजिणपडिमाओं नंदीसरदीवचेइअमज्झे व हुत्या । तेसिं च 20 चेइअथूभाणं पुरओ पत्ते चेइअपायवा । तेसिं चेइअपायवाणं पुरओ पत्तेअं मणिपीदिआओं; तासि च उपरि पत्तेयं इंदज्झओ । इंदज्झयाणं पुरओ पत्तेअं नंदापुक्खरिणी ति सोवाणा सतोरणा सच्छसीअलजला पुण्णा विचित्तकमलसालिणी मणोहरा "दहिमुहाधारपुक्खरिणीनिभा । सीहनिसिज्जामहाचेइअमज्झमागे महइमहालिआ मणिपीढिआ । तीए उवरि चित्तरयणमओ देवच्छंदओ । तदुवरि नाणावण्णंसुगमओ उल्लोओ । उल्लोअस्स अंतरे पासओ अ वइरामया अंकुसा । तेसु अंकुसेसु ओलंबिया कुंभमिजआमलगथूलमुत्ताहलमया हारा । हारपतेसु अ विमलाओं 25 मणिमालिआओं। *मणिमालिआणं पंतेसु वहरमालिआओं* । चेइअभित्तीसु विचित्तमणिमया गवक्खा डज्झमाणागरुधूमसमूहवमालिआ । तम्मि देवच्छंदे रयणमईओं उसभाइचउवीसजिणपडिमाओं निअनिअसंठाण-माण-वण्णधराओ कारियाओ भरहचकिणा । तत्थ सोलस पडिमाओ उसभ-अजिअ-संभव-अभिनंदण-सुमइ-सुपाससीअल-सिजंस-विमल अणंत-धम्म-संति-कुंथु-अर-नमि-महावीराणां सुवण्णमईओ । मुणिसुव्वय नेमीणं रायावट्टमईओ । चंदप्पह-सुविहीणं फलिहमईओ । मल्लि-पासनाहाणं वेरुलिअमईओ । 30 पउमप्पह-वासुपुजाणं पउमरायमईओ । तासिं च सवासिं पडिमाणं लोहिअक्खपडिसेगा, अंकरयणमया नहा । पडिसेगो नाम नहपज्जतेसु जावयरसु व लोहिअक्खमणिरससेगो जं दिज्जइ । नाही-केसंतभूमी-जीहा-ताल-सिरीवच्छ-चूचु 1P भागे। 2 P आदर्श एवैतत्पदम् । 3 Pa B उड्यज्झाडोवरि । 4'धण' नाति P5 BP पिक्खा। 1P उसभवद्धमाण-चंदाणण-वारिसेण नामिगाओ। 6P दिहि17 P पासाओ। * एतदन्तर्गतं वाक्यं नोपलभ्यते Pa भादशैं। एतदन्तर्गता पंक्ति: P आदर्श एव प्राप्यते। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ विविधतीर्थकरपे ग-हत्थ-पायतलानि तवणिजमयाणि । नयणपम्हाणि, कणीणिगाओ, मंसू, भमुहाओ, रोमाणि, सिरकेसा रिहरयणमया। उद्या विहुममया । फालिहमया दंता । वयरमईओ सीसघडीओ। अंतो लोहिअक्खपडिसेगाओ, सुवण्णमईओ नासिआओ। लोहिअक्खपडिसेगपंताई अंकमयाई लोअणाई । तासिं च पडिमाण पिढे पत्तेअं इकिका रयणमई मुत्ता-पवाल-जाल-कं स-कोरण्ट-मल्लदामं फालिहमणिदंड सिआयवत्तं धारिती छत्तहरपडिमा । तासिं च उभयपासे पत्ते उक्खित्तमणिचाम5 राओ रयणमईओ चमरधारपडिमाओ। पडिमाणं च अग्गे पत्तेअं दो दो नागपडिमाओ, *दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूअपडिमाओ,* दो दो कुंडधारपडिमाओ कयंजलीओ रयणमईओ सवंगुज्जलाओ पज्जुवासिंति । तहा देवच्छंदे चउवीसं रयणघंटाओ, चउधीसं माणिकदप्पणा, तहेव ठाणट्ठिअदीविआओ सुवणमईओ; तहा रयणकरंडगाई, पुष्फचंगेरिआओ, लोमहत्थाई, पडलीओ, आभरणकरंडगाई, कणगमयाणि, धूवदहणाणि, आरत्तिआणि, रयणमंगलदीवा, स्य णभिंगारा, रयणस्थालाणि, तवणिज्जपडिग्गहा, रयणचंदणकलसा, रयणसिंहासणाणि, रयणमयाणि अट्ठमंगलाणि, सुवण्णमया 10 तिल्लसमुग्गया, कणगमयाणि धूवभंडाणि, सुवण्णमया उप्पलहत्थगा। एअं सवं पत्तेअं पडिमाणं पुरओ हुत्या । तं चेइअं चंदकंतसालसोहिअं, ईहामिग-उसभ-मगर-तुरंगम-नर-किंनर-विहग-वालग-रुरु-सरम-चमर गय-वणलयाविचित्रं रयणथंभसमाउलं, पडागारमणिज, कंचणधयदंडमंडिअं, ओअट्टिअकिंकिणीसद्दमुहलं, उवरि पउमरायकलसविराइअं, गोसीसचंदणरसघासय (1) लंछिअं । माणिकसालमंजिआहिं विचित्तचिट्ठाहिं अहिटिअनियं, वारदेसमुभयओ चंदणरसलि तकलसजुअलंकि, तिरियं यद्धोलंबिअधूबियसुरहिदामरम्मं, पंचवण्णकुसुमरइयधरतलं, कप्पूरागरुमिगमयधूवधूम15 धारियं, अच्छरगणसंकिण्णं, विजाहरीपरिअरिअं, अगओ पासओ पच्छा य चारुचेइअपायवेहिं मणिपीढिआहिं च विभूसिअं भरहस्स आगाए जहाविहि बढइरयणेण निप्पाइअं। तत्थेव दिवरयणसिलामईओ नवनवइभाऊणं पडिमाओ कारिआओ, अप्पणो अ पडिमा सुस्सूसमाणा कारिआ । चेइआओ बाहिं एग भगवंतस्स उसमसामिणो थूभं, एगूणं च सयं भाउगाणं थूभे कारविंसु । इत्थ गमणागमणेणं नरा पुरिसा मा आसायणं काहिति ति लोहजंतमया आरक्खगपुरिसा कारिआ। तेण तं अगम्मं जायं । गिरिणो अ दंता दंडरयणेणं छिन्ना । अओ सो गिरी अणारो20 हणिजो जाओ। जोअणंतराणि अ अट्ठपयाणि मेहलारूवाणि माणुसअलंघणिज्जाणि कारिआणि । अओ चेव अहावओं त्ति नाम पसिद्ध। __तओ कालक्कमेण चेइअरक्खणत्थं सविसाहस्सीए सगरचक्वट्टिपुत्ताणं दंडरयणेण पुढविं खणित्ता बोले (2) सहस्सजोषणा परिहा कया, दंडरयणेण गंगातडं विदारिता जलेणं पूरिआ । तओ गंगा खाइअं पूरित्ता, अट्ठावयासण्णगामनगरपुराइअं पलावेउं पउत्ता । पुणो दंडरयणे आयडिअ कुरूणं मज्झे, हत्थिणाउरं दक्खिणेण, कोसलदेसं 25 पच्छिमेण, पयागं उत्तरेण, कासिदेसस्स दक्खिणेणं, वन्झमज्झे दक्खिणेणं, मगहाणं उत्तरेणं, मम्गनईओ कती सगराइटेण जण्हुपुत्तेणं भगीरहकुमारेणं पुवसमुद्दमोआरिआ । तप्पमिइ गंगासागरतित्थं जायं । इत्येव य पबए अट्ट उसमसामिणो नत्तुआ, नवनउई वालु-वलिप्यमुहा पुचा य सामिणा सद्धिं, एवं अटुतरसयं एगसमएण उक्कोसोगाहणाए अच्छेरयभूआ सिद्धा। इत्थ पचए ससत्तीए आरोढुं जो मणुओ चेइयाई वंदए सो मुक्खं इहेव भवे पाउणइ त्ति सिरिवद्धमाण30 सामिणा सयं वण्णिओ एसो । तं सोउं भयवं गोअमसामी लद्धिनिही इमं नगवरमारूढो । चेइआई वंदित्ता असोगतरुतले वेसमणस्स पुरओ साहूणं तवकिसिअंगत्तणं वक्खाणंतो सयं च उवचिअसरीरो वेसमणस्स-'अहो! अन्नहावाई-कारि'त्ति विअप्पनिवारणत्थं 'पुंडरीयज्झयण' पण्णविसु । पुंडरीओ किल पुट्ठसरीरो वि भावसुद्धीए सबढ़सिद्धिं गओ । कंडरीओ उण दुब्बलदेहो वि सत्तमपुढवीए । तं च पुंडरीअज्झयणं वेसमणसामाणिएणं अवधारिश्र गोअममुहाओ सोऊणं । सो अ तुंबवणसन्निवेसे धणगिरिपत्तीए सुनंदाए गम्भे उववजिअ दसपुत्वधरो 1B तलाणि । * एतदन्तर्गता पंक्तिर्नास्ति Pat Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टापदगिरिकल्पः । ९३ वहरसामी जाओ | अट्टावयाओ ओअरमाणेणं च गोअमसामिणा कोडिन - दिन - सेवालितावसा तिउत्तरपंनरससयसंखा दिक्खिया । ते खलु जणपरंपराए इत्थ तित्थे चेइअवंदगो सिवं इहेव पावइति चीरवयणं सुच्चा पढम-बीअ-तइअमेहलासुं जहासंखं कोडिन्नाइआ आरूढा अहेसि । तओ परं गंतुमचयंता गोअमसामिं अप्पडिहयमुत्तरंतं दद्धुं विम्हिअ पडिबुद्धा निक्खता य । तत्थेव पवए भरहचक्कवट्टिपमुहाओ अणेगा महरिसिकोडीओ सिद्धाओ । तत्थेव य सुबुद्धी नाम सगर- 5 चकिमहामच्चो जन्हुमाईणं सगरसुआणं पुरओ, आइचजसाओ आरम्भ पंचासलक्खे कोडिसागरोवमकालमज्झे भर हमहारायचंससमुब्भू आणं रायरिसीणं चित्तंतरगंडियाए सबट्टसिद्धि गई मुक्खगई च बाहरित्था । इत्थेव पar पवयणदेवयानीयाए वीरमईए। चउवीसजिणपरिमाणं भाले सुवण्णमया रयणखचिया तिलया दिन्ना । तओ तीए धूसरीभवं जुगलधम्मिभवं देवभवं च लभ्रूण दमयंतीभवे संपत्ते तिमिरपहयरावहारिभालयले साभाविअं तिलयं संजायं । 10 इत्थेव पar वालिमहरिसी कयकाउस्सग्गो ठिओ । अह विमाणखलणकुविएण दसग्गीवेण पुवेरं सरंतेणं' तलभूमिं खणिता, तत्थ पविसिभ एअं निअवेरिणं सह अट्ठावयगिरिणा उप्पाडिअ लवणसमुद्दे खिवामि ति बुद्धीए विज्जासह स्सं सुमरिता उप्पाडीओ गिरी । तं च ओहिनाणेण नाउं चेइअरक्खानिमित्तं पायंगुट्टेण गिरिमस्थयं सोरायरिसी चंपित्था । तओ संकुचिअगतो दसाणणो मुहेण रुहिरं यमंतो आरावं मिल्हित्था । ततुच्चि रावणु त्ति पसिद्धो । तओ मुक्को दयालुणा महरिसिणा पाएसु पडित्ता खामित्ता य सद्वाणं गओ । इत्थेव लंकाहिवई जिणाणं 15 पुरओ पिक्aणयं करितो दिववसेण वीणातन्तीए तुट्टाए मा पिक्खणयरसभंगो होउ त्ति निअभुआउदारुं कट्टितुं वीणाए लाइ । अ ( एवं ! ) भुअवीणावायणए भत्तिसाहसतुद्वेण धरणिदेण तित्थवंदणागरण रावणस्स अमोहविजया सचिवकारिणी विज्जा दिन्ना । तत्थेव पबए गोअमसामिणा सिंहनिसिज्जाचेइअस्स दक्खिणदुवारे पविसंतेण पढमं चउन्हं संभवाईणं पडिमाओ वंदिआओ; तओ पयाहिणेणं पच्छिमदुवारेसु पासाईणं अट्ठण्हं; तओ उत्तरदुवारे धम्माईणं दसहं; तओ पुव - 20 दुवारे दो चैव उसम - अजिआणं ति । जं' तित्थमिणमगम्मं ता' फलिह' वणगहणसमरवालेहिं । जलपडिर्बिबियचेई अज्झयकलसाई पि जं पिच्छे ॥ १॥ भविओ विसुद्धभाव पूआण्हवणाई तत्थ वि कुणंतो । पावइ जत्ताइफलं जं भावोचिअ फलं दिसइ || २ || भरसरनिम्मिविआ चेइअधूमे इहं पडिमजुते । जे पणमंति महंति अ ते धन्ना ते सिरीनिलया || ३ || इअ अट्ठावयकप्पं जिण हसूरीहिं निम्मिअं भवा । भाविंति निअमणे जे तेसिं कल्लाणमुल्लस || ४ || अष्टापदस्तत्रे पूर्वं योऽर्थः संक्षिप्य कीर्तितः । विस्तरेण स एवास्मिन् कल्पेऽस्माभिः प्रकाशितः ॥ ५ ॥ ॥ इति श्रीअष्टापदकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ग्रं० ११८ ॥ 1 एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता B P Pa आदर्शेषु । 1P सरितेणं । 2 'जं' नास्ति PP& B1 3 Bतो; Pa-b 4 Pa फणिद्दा | 5 P Pb बालहिं । 6 Pa नियमेण । तावत् । 25 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ५०. हस्तिनापुरतीर्थस्तवनम् । अभिवन्ध जगद्वन्द्यान् श्रीमतः शान्ति-कुन्थ्वरान् । स्तुत्यं वास्तोष्पतिस्तोमैः स्तौमि तीर्थ गजाहयम् ॥ १॥ शतपुच्यामभून् नाभिसूनोः सूनुः कुरुर्नुपः । कुरुक्षेत्रमिति ख्यातं राष्ट्रमेतत्तदाख्यया ॥२॥ 5 कुरोः पुत्रोऽभवद् हस्ती तदुपज्ञमिदं पुरम् । हस्तिनापुरमित्याहुरनेकाश्चर्यसेवधिम् ॥ ३ ॥ श्रीयुगादिप्रभोराद्या चोक्षैरिक्षुरसैरिह । श्रेयांसस्य गृहे पञ्चदिव्याख्याऽजनि पारणा ॥ ४ ॥ जिनास्त्रयोऽत्राजायन्त शान्ति-कुन्थुररस्तथा । अत्रैव सार्वभौमद्धि बुभुजुस्ते महीभुजः ॥ ५॥ मल्लिश्च समवासार्षीत्तेन चैत्यचतुष्टयी । अत्र नि पिता श्राद्धर्वीक्ष्यते महिमाद्भुता ॥ ६ ॥ भासतेऽत्र जगन्नेत्रपवित्रीकारकारणम् । भवनं चाऽम्बिकादेव्या यात्रिकोपप्लवच्छिदः ॥ ७॥ 10जाह्नवी क्षालयत्येतचैत्यभित्तीः खवीचिभिः । कल्लोलोच्छालितैर्भूयो भक्त्या साचिकीरिव ॥ ८ ॥ सनत्कुमारः 'सुभूमो महापद्मश्च चक्रिणः । अत्रासन् पाण्डवाः पञ्च मुक्तिश्रीजीवितेश्वराः ॥ ९ ॥ गङ्गादत्तः कार्तिकश्च श्रेष्ठिनौ सुव्रतप्रभोः । शिष्यावभूतां विष्णुश्च नमुचेरत्र शासिता ॥ १०॥ कलिदर्पद्रुहं स्फीतसङ्गीतां सदसुव्ययाम् । यात्रामासूत्रयन्त्यत्र भव्या निर्व्याजभक्तयः ॥ ११ ॥ शान्तः कुन्थोऽरव (रस्य ) चतुष्कल्याणी चात्र पत्तने । जज्ञे जगज्जनानन्दा सम्मेताद्रौ च नितिः ॥ १२ ॥ 15 भाद्रस्य सप्तमी श्यामा नभसो नवमी शितिः । द्वितीया फाल्गुनस्यात्या तिथ्योऽमों दिवश्युतेः ॥ १३ ॥ ज्येष्ठे त्रयोदशी कृष्णा माधवे च चतुर्दशी । मार्गे च दशमी शुक्ला तिथयो जनुषस्तु वः ॥ १४ ॥ शुक्रे चतुर्दशी श्यामा राधे बहुलपश्चमी । महस्येकादशी शुभ्रा जजुर्तीक्षादिनानि च ॥ १५॥ पौषस्य नवमी श्येनी तृतीया धवला मधोः । ऊर्जस्य द्वादशी श्वेता ज्ञानोत्पत्तेरहानि वः ॥ १६ ॥ शुक्रे त्रयोदशी कृष्णा वैशाखे पक्षतिः' शितिः । मार्गे वलक्षा दशमी मुक्तेर्वस्तिथयः क्रमात् ॥ १७ ॥ 20 भवादृशानां पुरुषरलानां जन्मभूरियम् । स्पृष्टाऽप्यनिष्टं शिष्टानां पिनष्टि किमुत स्तुता ॥ १८ ॥ तादृग्विधैरतिशयैः पुरुषप्रणीतै-विभाजितं जिनपतित्रितयी महैश्च । भागीरथीसलिलसङ्गपवित्रमेत-जीयाचिरं गजपुरं भुवि तीर्थरलम् ॥ १९ ॥ इत्थं पृषत्कविषयार्कमिते शकाब्दे वैशाखमासशितिपक्षगषष्ठतिथ्याम् । यात्रोत्सवोपनतसंघयुतो यतीन्द्रः स्तोत्रं व्यधाद् गजपुरस्य जिनप्रभाख्यः ॥ २० ॥ ॥ इति श्रीहस्तिनापुरस्तवनम् , कृतिः श्रीजिनप्रभसूरीणाम् ॥ 25 !! ग्रं० २१, अ० १६॥ 1 Pa पारणे । 2 PaC आ महिमावर्वभौमा । 8 P Pa सनत्कुमारसुभूमौ । 4 Pa भाद्रपदस्य । 5 Pa-c पक्षितिः। 6 B Pa त्रितयः; C तृतीयैः । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्यानयमहावीरकल्पपरिशेषः । ५१. कन्यानयमहावीरकल्पपरिशेषः । अह विज्ञातिलयमुणी आएसा संघतिलयसूरीणं । परिसेसलवं जंपर कंनाणयवीरकप्पस्स ॥ १ ॥ तहा हि-भट्टारया सिरिजिणप्पहसूरिणो सिरिदउलतावादनयरे साहु पेथड - साहु सहजा-ठ०अचलकारिअचेइआणं तुरुक्केहिं' कीरमाणं भंगं फुरमाणदंसणपुढं निवारिचा, सिरिजिणसासणयभावणातिसयं कुणंता, पाडिच्छगाणं सिद्धंतवायणं दिता, तवस्सीणं अंगाणंगपविट्टागमतवाई कारिता, विणेयाणं अवरगच्छय मुणीणं पि5 पमाण-वागरण-कब-नाडयालंकाराई सत्थाई भणता, उभडवाय भडवायाणं वाइविंदाणं अणप्पदप्पमवहरंता, सावसेसं बच्छरतिगमइक्कमंति । इओ अ सिरिजोमणिपुरे सिरिमहम्मद साहिसगाहिराओ कहिंचि अवसरे पत्थुआ पंडिजगुट्ठीए सत्थवियारसंसयमावन्नो सुमरेइ गुरूणं गुणे; भणइ अ-जइ ते भट्टारया संपयं मह सहालंकरणं हुंता ता मज्झ मणोगयसमत्थसंसयसमुद्धरणे हेलाए खमंता । नूणं विहृदपई तब्बुद्धिपराजिओ चेव भूमिमुज्झिअ सुन्नं गयणदेसमल्लीणो । 10 इत्थं गुरूणं भूवइकिज्जमाणगुणवन्त्रणावइअरे, अवसरन्नू तकालं दउलताचादादागओ ताजलमलिक्को भूमिअलमिलि अभालबट्टो विन्नवेइ-महाराय ! संति ते तत्थ महत्पाणो । परं तन्नयरनीरमसहमाणा किसिअंगा गाढं वट्टेति । तओ संभरि अगुरुगुणपब्भारेण भूमिनाहेण सो चेव मीरो आइठ्ठो । - भो मल्लिक ! सिग्धं गंतूण दुवीरखाने लिहावेसु फुरमाणं । पेसेसु तत्थ । जहा तारिससामग्गीए चेव भट्टारया पुण इत्थं इंति । तत्र तेण तहेब कए, पेसिअं फुरमाणं । कमेण पतं सिरिउलतावाद दीवाणे | भणियं च सविणयं नयरनायगेणं सिरिकुतुलखानेण भट्टारयाणं सिरिपात- 1.5 साहिफुरमाणागमणं ढिल्लीपुरं पर पत्थाणं चाइट्ठ । तओ दिणदसगन्धंतरे सन्नहिऊण जिट्ठसि अवारसीए रायजोगे संघसत्थि अपरिसाए अणुगम्ममाणा पत्थिआ महयाविच्छणं गुरुणो । कमेण ठाणे ठाणे महसवसयाई पाउन्भावयंता, विसमदूसमादप्पं दलंता, सयलंतराल जणवयजणनयण को ऊहलमुप्पा अयंता, धम्मट्ठाणाई उद्धरंता, दूरओ उक्कंठाविसंठुलसमागच्छंतआयरियबग्गेहिं बंदिज्जमाणा, पता रायभूमिमंडणं सिरिअल्लावपुरदुग्गं । तओ तत्तारिसपभावणापगरिसासहिण्डुमिलक्खुकयं विप्पडिवचि मुणिकण, ताणं चैव गुरूणं सीसुतमेहिं रायसभामंडणेहिं गुरुगुणालंकिअ - 20 देहेहिं सिरिजिणदेवसूरीहिं विन्नतेण भूवइणा सम्मुहं पविझविएण सबहुमाणं फुरमाणेण मलिकपञ्चप्पिrसयलसत्थि अवत्थुणो बिसेसओ जिणसासणं पभावयंता, सङ्कं मासं अच्छिन, पत्थिआ अल्लावपुराओ । पुणो वि धरणीनाहेण सिरिसिरोहमहानयरे संमुहपेसिअमसिणसिद्धिदेवसप्पायवत्थदसगेण अलंकरिआ, जाव हम्मीरवीररायहाणी परिसरदेसेसु संपत्ता । इओ चिरोवचिअभचिराएण अभिमुहमाग एहिं दंसणनिमित्तओ वि अमय कुंडण्हाएहिं व धन्नमप्पाणं मन्त्रमा - 25 हिं आयरियजइसंघसावयविंदेहिं परिअरिआ भद्दवयसी अबीआए जाया रायसभामंडणं जुगप्पहाणा । तक्खणं आणंदभर निब्भरेहिं नयणेहिं अब्भुत्थाणमिवायरंतेण सिरिमहम्मदपातसाहिणा पुच्छिआ कोमलगिराए कुसलपउत्तिं । चुंबिओ अ ससिणेहं गुरूणं करो धरणिराएण; घरिओ अ हिभए अचंता दरपरेण । गुरूहिं पितालकविअअहिनवासी वयणदाणेण चमक्कारिअं नरेसरमाणसं । पेसिआ य महामहसारं विसालसालं पोसहसालं । आइट्ठा य महीनाहेण गुरूणं सह गमणाय पहाणपुरिसा हिंदुअरायाणो, सिरिदीनारपमुहा महामलिका य । पणमंति सयसा - 30 हस्सा चिरुकंठि सावयलोआ । मिलिआ य चिरदंसणलालसा नायरलोआ । संगया य कोऊहलेणं पगइजाणवयजणा । तओ बंदिविदेहिं भोगावलीहिं थुवंता, भूवालप्पसाइअ भूरिभेरीवेणुवीणामद्द लमु इंगपडपडहजमलसंख मुंगलाई विउलवाइअरवेणं दिअंतरालं मुहलं विणिम्मविता, विप्पवग्गेहिं वे अज्झणीहिं णिज्जंता, गंधवेहिं सुहवाहिं अ गाइज्जमाणमंगला, पत्ता 1 P& C तुहिं 2 P& अवरगच्छमु° । 3 B तक्काले । f एतदन्तर्गता पंक्रिः पतिता P& आदरों । 4 Pa भुंग्गला: C भुग्गला° । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ विविधतीर्थकल्पे तक्कालं सिरिसुरताणसराइ पोसहसालं । कया य वद्धावणयमहूसवा संघपुरिसेहिं । वाइज अ भद्दवयसि अतइआदि सयलसंघकारिअमहूसवसारं सिरिपज्जोसवणाकप्पो । पत्ता य ठाणे ठाणे आगमणप्पभावणालेहा । रंजिआ सयलदेससंघा । मोइआ अणेगे रायबंदिबद्धा रायदिज्जसय साहस्सा सावया । इअरलोगा य करुणाए उम्मोइआ काराहिंतो | दिन्ना दाविआ य अपइट्ठाणं पट्टा । कया य काराविआ य अणेगसो जिणधम्मप्पभावणा । 5 एवं णिच्चं रायसभागमण पंडिअवाइ अविंद्र विजयपुवं पभावणाए पयट्टमाणाए, कमेण वासारतचउमासीए वइक्कंताए, अन्नया फग्गुणमासे दउलतावादाओ आगच्छंतीए मगदूमई जहाँ नामधिज्जाए नि अजणणीए संमुहं पट्ठिएण चउरंगचमूसमूहसन्नद्धेण सुरत्ताणेण अन्भत्थणापुरस्सरं चालिआ गुरुणो अप्पणा समं । बडथूणठाणे भिट्टिआ जणणी । महाराएण दिन्नं सधेसिं महादाणं । परिधाविआ सवे पहाणकबाई बाई । कमेण पत्तो महसवमई रायहाणिं । सम्माणि गुरुणो वत्थकप्पूराईहिं । तओ चित्तसिअदुवालसीए रायजोगे महारायाणमापुच्छिअ पातसाहिदत्तसाइबा - 10ण छायाए क्या नंदी । तत्थ दिक्खिआ पंच सीसा | मालारोवण-संमत्तारोवणाईणि अ धम्मकिचाई कयाणि । विचि वित्तं थिरदेवनंदणेण ठ० मदनेन । आसादसुद्धदसमीए अ पइट्ठिआणि अहिणवकारिआणि तेरस विचाणि, महावित्थरेणं । तत्थ विचिनं विबकारावएहिं बहुअं वित्तं । विसेसओ साहुमहारायतणएण अजयदेवेण चि । तहा अन्नया नरिंदेण दूरओ निचं समागमणे गुरूणं कां ति चिंतिऊण पदिन्ना सयमेव निअप सायपासे सोहंतभवणराई अभिणवसराई; आइट्ठा य वसिउं तत्थ सावयसंघा | 'भट्टारय सराइ ' त्ति कयं से सयं नरिंदेण 15 नामं । कारिओ तत्थेव वीरविहारो पोसहसाला य पातसाहिणा । तओ तेरसघनवासि अवरिसे आसाढ कण्हसतमी सुमह (मुहु) ते महीवइ समाइगीयनट्टवाइ असंपदाए पयडिज्जमाण अमाणमह्रसवसारं, सयं नरिंदेण दाविजमाणमंगलं, पविट्ठा पोसहसालं भट्टारया | संतोसिआ पीइदाणेणं विउसा । उद्धरिभा दाणेणं दीणाणाहाइलोआ । चालिआ पुणन्नया मग्गसिरमा से पुवदिसजयजत्तायत्थिएण अप्पणा सह नरिंदेण । कारिआ ठाणे ठाणे बंदिमोअणाइणा जिणधम्मप्पभावणा । उद्धरिअं सिरिमहुरातित्थं । संतोसिआ दाणाईहिं दिअवराइणो । निच्चं पवासूणं 20 खंधाबारे कट्टं ति मन्त्रमाणेण महीनाहेण खोजे जहांमलिकेण सद्धिं आगरानगराओ पडिपेसिआ रायहाणि पइ सच्चपइन्ना गुरुणो । गहिऊण सिरिहत्थिणाउरजत्ता फुरमाणं समागया निअट्ठाणे मुणिवद्दणो । तओ मेलिऊण चउद्विहं संघं काऊण थ पुत्त 'चाहडसहिम्स साहुबीहित्यस्स संघवइततिल्यं । पट्टिमा सुमुहुत्ते सायरियाइपरिवारा सिरिह त्थिणाउरजतं गुरुणो । विहिआ ठाणे ठाणे संघवइबोहित्थेण महूसया । संपत्ता तित्थभूमिं कयं च वद्धावणयं । ठाविआणि तत्थ गुरूहिं अहिणवकारिअपइद्विआणि सिरिसंति कुंथु-अरजिणविंवाणि, अंबिआपडिमा 25य चेइअट्ठाणेसु । कथा य संघवच्छलाइमहूसवा संघवइणा संघेण य । पूइआ वत्थमोअणतंबोलाईहिं वणीमगसस्था । आगयमित्तेहिं जत्ताओ गुरूहिं वइसाहसुद्धदसमीदिणे तं चैव दूरीकयस यलदुरिअडिवं' सिरिमहावीरविंचं ठाविभं महूसवसारं, साहिरायकारिअविहारे, तहेव पूइज्जइ संघेण । बिसेसओ दिसिजत्ताओ समागए महाराए पवति ऊसवा चेइयवसहीसु । संमाणेइ गुरुणो उत्तरोत्तरमाणदाणेण सिरिसबभोमो । वज्र्ज्जति पइदिसं सूरिसइभूमाणं पभावणासारा जसपडहा । विहरंति निरुवसग्गं" सबदेसेसु से अंबरा दिअंबरा य रायाहिरायदिनफुरमाणहत्था । खरतरगच्छा30 लंकारगुरुप्पसायाओ सगसिन्नपरिभूह वि दिसिचके कथाई गुरूहिं फुरमाणगहणेण 'अकुदोभयाई सिरिसित्तुज्जगिरिनार - फलवद्विप्पमुहतित्थाई । उज्जोइआ इच्चाइकिचेहिं सिरिपालित्तय - मल्लवाइ-सिद्धसेणदिवायरहरिभदसूरि - हेमचंद्रसूरिप्पमुहा पुत्रपुरिसा । किं बहुणा सूरिचक्कवट्टीणं गुणेहिं आवज्जिअस्स नरिंदस्स पयडा एव पयर्वृति सयलधम्मकज्जारंभा । वाइजंति यह पच्चूस चेइअवसही जमलसंखा । किज्जति धम्मिएहिं वीरविहारे वज्र्ज्जतगुहिरमद्दलमुइंगभुग्गलताल पिक्खणयसारं महापूआओ । वासिंति सिरिमहावीरपुरओ भविअलोअउग्गाहिज्जमाण 1 P& मगदूमई जहा; D भगदूमइ जहा | 2 C कायस्थाई । 3 Pa सायबाण; C साइबा साळयाए । 4 C बाहड5 C विडिंब । 6 B सगा। 7 Pa अकुतो । सहस्स Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल्यपाकस्थऋषभदेवस्तुतिः । कप्पूरागुरुपरिमलुग्गारा दिसिचकं । संचरति हिंदुअरज्जे इव, दूसमसूसमाए इव, अणज्जरज्जे वि दूसमाए जिणसासणप्पभावणापरायणा सिच्छाए मुणिणो । किं च, लुढंति गुरूणं पायवीटे किंकरा इव पंचदंसणिणो सपरिवारा । पडिच्छंति पडिच्छगा इव गुरुवयणं । सेवंति अ निरंतरं दारदेसट्ठिआ गुरुदंससुगा इह-परलोअकज्जस्थिणो परतित्थियो । निवअन्मत्यणाओ गच्छंति निच्चं रायसभाए गुरुणो । मोआरिंति बंदिवग्गं । उप्पायति जिणुत्ताणुसारिजुत्तिजुत्तवयणेहिं निरंतरं रायमणे कोउहल्लं । महल्लचरिआ सुचारित्तिणो पवटुंति पए पए पभावणं । गंगोदयसच्छचित्ता धव-5 लिंति निअजसचंदिमाएहिं अंतरालाई । उज्जीविंति वयणामएहिं जीवलोगं । सदंसणिणो परदंसणिणो अ वहंति सिरट्टि आणं समग्गवावारेसु । वक्खाणिति अणन्नासाहारणभंगीए स-परसिद्धतं जुगप्पहाणा । एआरिसा पभावणापगरिसा, पयर्ड चेव परिभाविज्जमाणा, निच्चं पि वट्टमाणा कित्तिअमित्ता अप्पमईहिं कहेउं सक्का । केवलं जीवंतु वच्छरकोडीओ; पभावयतु सिरिजिणसासणं सुचिरं इमे सूरिवरा ।। सिरिजिणपहसूरीणं गुणलेसथुई पभावणंगं ति । परिसेसे परिकहिआ कन्नाणयवीरकप्पस्स ॥ १॥ 10 ॥ इति कन्यानयश्रीमहावीरकल्पपरिशेषः ।। ॥ अं० १०८॥ ५२. कुल्यपाकस्थऋषभदेवस्तुतिः । श्रीकुल्यपाक प्रासादाभरणं शरणं सताम् । माणिक्यदेवनामानमानमामि जिनर्षभम् ।। १ ।। श्रीमाणिक्यदेवनमस्कारः। श्रीकुल्यपाकपुरलक्ष्मीशिरोऽवतंस-प्रासादमध्यमनिमेध्यमधिष्ठितस्य । माणिक्यदेव इति यः प्रथितः पृथिव्याम् , तस्यांहियुग्ममभिनौमि जिनर्षभस्य ॥ १॥ तीर्थेशिनां समुदयो मुदितेन्द्रचन्द्र-कोटीरकोटितटघृष्टपदासनानाम् । महुःखदारुणदुरुत्खनशाखिलेखा-पेषाय मत्तकरिणः करिणं दधातु ॥ २॥ हेतूपपत्तिसुनिरूपितवस्तुतत्त्वम् , स्याद्वादपद्धतिनिवेशितदुर्नयौघम् । ससिद्धवल्लिविपिनं भुवनैकपूजा-पात्रं जिनेन्द्रवचनं शरणं प्रपद्ये ॥ ३ ॥ आरुह्य खे चरति खेचरचक्रिणं या, नाभेयशासनरसालवनान्यपुष्टा । चक्रेश्वरी रुचिरचक्रविरोचिहस्ता, शस्ताय साऽस्तु नवविद्रुमकायकान्तिः ॥ ४ !! ॥ इति श्रीमाणिक्यदेवऋषभस्तुतयः ॥ - - --.- .... .......... 1 B सिरिहि। 2 Pa कुल्यपाद । वि.क. १३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ५३. आमरकुण्डपद्मावतीदेवीकल्पः । आमरकुण्डकनगरे तिलङ्गजनपदविभूषणे रुचिरे । गिरिशिखरभुवनमध्यस्थिता जयति पद्मिनीदेवी ॥ १॥ अस्ति 'स्वस्तिकरसमस्तगुणगणनीरन्धेषु अन्धेष्वामरकुण्डं नाम नगरम_लिहरम्यहHश्रेणिविश्राणितनयनान5न्द सिग्धनानाविधच्छायातरुपरिष्कृतं मञ्जुगुञ्जन्मधुकरनिकरपरिकरितकुसुमसौरभसंरम्भ सुरभीकृतदिग्वलयं विमलबहलसलिलकलिलसरित्सरोवरशोभितं दुर्गमदुर्गतया विपक्षपक्षैरक्षोभितम् । किं वा तस्य पुरवरस्य वर्णयामः?-यत्र करवीरसुमनसोऽपि मृगमदगन्धयः । विशिष्टेक्षुयष्टि-विपुलकदलीफल-चङ्गनारङ्ग-नैकपकारसहकार-सरसपनस-पुन्नाग-नागवल्ली-पूग-खादुच्च(त्य)शालिनालिकेरफलप्रभृतीनि हृद्यखाद्यानि; फलन्ति प्रतिऋतु सौरभ्यभर निर्भरवासितदिक्पालयः शालयः, वीक्ष्यन्ते परीक्षकैर्विपणिषु पट्टांशुकप्रमुखासिचयनिचयमौक्तिकरलादीन्यगण्यानि पण्यानि । इत एव निष्पन्नमुरंगलव्यपदेशपेश10 लमेकशिलापत्तनम् । तत्समीपभूमिमलंकरिप्णुविष्णुपदचुम्बिशिखरपरम्पराशेखरितः सर्वतो रमणीयः पर्वतः पातयितुमीश्वरः सौन्दर्यगर्वतः पर्वतराजमास्ते । तदुपरि परिणाहारोहशालिश्रीऋषभ-शान्तिनाथादिजिनप्रतिमालङ्कताः कृतजनमनःप्रसादाः प्रासादाः शोभन्ते शुभंयवः । तत्रैकत्र पवित्रतरे पारगतसद्मनि छद्मनिर्मुक्तमना मनागपि न विषयसुखैः क्षुभितहृदयः सहृदयहृदयाह्लादिदयोदयः प्रतिवसति स्म जितस्मरो विस्मयकारिचरणचर्यावशीकृतपद्मावती देवीलब्धप्रतिष्ठो मेघचन्द्रनामा दिगम्बरः "तिपतिरेकोऽनेकान्तिषत्परिषदन्वासितपदः । स चैकदा श्रावकगोष्ठी15 मनुज्ञाप्य प्रतस्थे स्थानान्तरविहरणाय । यावत्कियतीमपि भुवमगमत्, खहस्ताभरणं नाद्राक्षीत् पुस्तकम् । ततश्चाहो नः प्रमद्वरता येन खपुस्तकमपि व्यसामेति क्षणं विषद्य सद्यश्छात्रमेकं क्षत्रियजातीयं माधवराजनामधेयं व्यावर्तयत् पुस्तकानयनाय । स च छात्रो वलित्वा मठमशठमतिर्यावस्प्रविशति तावदपश्यदेकयाऽद्भुतरूपधेयश्रिया स्त्रिया तं पुस्तकमूरूपरि न्यस्तम् । यावन्निर्भीकमक्षुब्धचेतास्तदूरोर्ग्रहीतुं प्रवृत्तस्तं तावत्सा वरवर्णिनी तत्पुस्तकं स्वस्कन्धदेशस्थमदी दृशत् । तदनु स छात्रो मात्रोत्तीर्णवैया त्यात्तदूरौ चरणं दत्वा स्कन्धादपि तद्गहीतुं प्रावृतत् । ततस्तया राज्याहोंऽय20मिति विमृश्य विधृतः करे, अभिहितश्च-वत्स ! किमपि वृणु, तनुभ्यमहं प्रयच्छामि । तुष्टाऽसि तव साहसिक्येन । तदनन्तरं शिष्येण निजगदे जगदेकवन्धो मद्गुरुः सर्वं मह्यमभिरुचितमर्थं प्रदातुं समर्थ एवास्ति । तत्किमहं शुभवति ! भवती प्रार्थये इत्यभिधाय छात्रः पुस्तकमादाय च स्वाचार्यसविधमागच्छत् । तदखिलमपि स्वरूपं निवेद्य पुस्तकनाचार्याय समार्पिपत् । क्षपणकगणाधिपतिरवोचद्-भद्र ! सा न स्वीमात्रं, किन्तु भगवती पद्मावती देवता सा । तद्गच्छ, लिखितहृद्यपद्यमिदं पत्रं तस्यै दर्शयेति । गुर्वादेशं तथेति प्रतिपद्य सद्य एव विनेयो व्याघुट्य तं मठं गत्वा तस्यै तत्पत्रं समर्प्य पुरस्तस्थौ । देव्यप्यवाचयत् ; यथा--- अष्टौ दन्तिसहस्राणि नव कोट्यः पदातयः । रथाश्वा लक्षसंख्याश्च कोशश्चास्मै प्रदीयताम् ॥ १ ॥ भगवत्यपि पद्यार्थमवधार्य तस्मादन्तेवासिने चतुरगस्तुरगः प्रददे। जगदे चासौ-यदेनमधिरुह्य व्रजतु भवान । यत्पत्र लिखितमास्ते तत्सर्व त्वत्पृष्ठत एव समेष्यति । केवलं गिरिवराऽध्वना स्वया गन्तव्यम, पृष्ठतश्च नावलो. क्यम् इति तद्वचनं तथेत्युरीकृत्य कृत्यवित्तगिरिविवरमनुप्रावीविशदश्वम् । यावद् द्वादश योजनान्यबाजीद्वाजी । ततः पश्चा४० दागच्छदतुच्छकरिघटाघण्टाटणत्कारतुमुलमतुलमुभाकणि समाकर्ण्य कुतूहलोत्तालतया स छात्रः सपदि पश्चाद्भाग सिंहावलोकितन्यायेन निभालयांबभूव | यावदवैक्षिष्ट करितुरगादिसमूहसङ्कलां सेनाम् । तसिंश्च विस्मयरसमयहृदयीभूते तत्रैव द्वादशयोजनान्ते स तदधिष्ठितस्तुरङ्गमयुङ्गयोऽवास्थित ! तदनु च स माधवराजः परमजैनस्तया पृतनया परिवृतस्तन्नैव नगरं निवेश्य तत्र देव्या भवनं च विधाप्य पुनरानमत्कुण्ड( आमरकुण्ड ?) नगरमागत्य राज्यलक्ष्मी ICखस्ति समस्त । 2 C नयानन्दं। 3 'संरंभ' नास्ति B। 4 B 'प्रासादाः' नास्ति। 5 'न' नास्ति Pur * नास्ति वाक्य मिदम् । 6 Pa व्रतपति। 7 'च' नास्ति Pal 8C वैयावृत्त्यात्त। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशतिजिनकल्याणककल्पः । + ९९ 'पर्ण्यपालयद्भूपालमौलिलालितशासनः । प्रासादं चाभ्रंकषशिखरं हिरण्मयदण्डकलशध्वजभ्राजिष्णुमचीकरत् । प्रत्यतिष्ठिपच्च नत्र चित्रीयमाणनमस्कुर्वाणमनुष्यचेतसं श्रीपद्मावतीं देवीम् । पर्यपूपुजच्च पर्याप्तभक्तितरङ्गितमनास्त्रिषवणमष्टविधपूजया । विद्यते च तदद्यापि भुवनोदरव्यापिमाहात्म्यं भगवत्या मन्दिरममन्दलक्ष्मीकं भव्यजनतया पर्युपास्यमानम् । तस्य च गिरिविवरस्य द्वारि विपुल शिलापट्टमद्यापि दत्तमस्ति, यथा तेन पथा सर्वोऽपि न प्रविशति । तत्र हि शिलामुद्घाट्य महतीं पूजां कृत्वा प्रविश्य प्रथमं लुठता गन्तव्यं कियतीमपि कलाम्, तदग्रे चोपविष्टैश्चलनीयम्, अग्रेतरां च महत्य - 5 काशे ऊर्ध्वर्जुभिरेव यावदेवीसदनं किल गन्तव्यमिति । प्रत्यूहव्यूहसंभावनया कष्टभयाच्च न कश्चित्प्रायस्तद्विवरद्वारमुद्घाटयितुं पाटवमसाहसिकः कलयतीति शिलापिहितद्वारि विवरस्थान एव सर्वेऽपि श्रद्धालवः पद्मावत्याः पूर्जा कुर्वते; प्राप्नुवन्ति च विष्वद्रीचीरभिरुचितार्थसिद्धीः । माधवराजस्य कंकतिग्रामवास्तव्यत्वात्तद्वंशजाः पुरंटिरित्तमराज- पिण्डिकुण्डिमराज - प्रोल्लराज- 'रुद्रदेव- गणपतिदेवाः । गणपतिदेव पुत्री च रुद्रमहादेवी पञ्चत्रिंशद्वर्ष कृतराज्यस्ततः श्रीप्रतापरुद्रः । एते काकतीया इति प्रसिद्धाः ॥ 10 श्रीमदाराम (०दामर ?) कुण्डाख्यपद्मावत्या यथाश्रुतम् । अजल्पि कल्पलेशोऽयं श्रीजिनप्रभसूरिभिः ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीआमरकुण्ड' पद्मावतीदेवीकल्पः ॥ ॥ प्र० ५९, अ० २२ ॥ ५४. चतुर्विंशति जिनकल्याणककल्पः । इअ तीअवट्टमाणाणागयचउवी सजिणवरिंदाणं । उसप्पिणिऑस्सप्पिणिभवाण अणुलोम-पडिलोमा ॥ १ ॥ 'सम्गाइअमहियलया पंचसु भरहेसु एरवयपणगे । कल्लाणयमासतिहीओं सासया नय विदेहेसु ॥ २ ॥ इगभत्तिनिविअआयामखमणमिगदु त्ति पंचकल्लाणे | इअ संखेवतवेणं आराहह पंचकला ॥ ३ ॥ वित्थरओं अ चउत्थं चुइ-जंमेसुं करिज्ज पत्तेअं । जिणचिण्णेणं तवसा दिक्खाइतिगं तु आराहे || ४ || सुमइत्थ निच्चभत्तेण निग्गओं वासुपूज्न चउत्थेणं । पासो मल्ली वि अ अट्टमेण सेसाओं छद्वेणं ॥ ५ ॥ अट्टममत्तंतंमी नाणमुसभ-मल्लिनेमिपासाणं | वसुपुज्जरस चउत्थेण छट्टभत्तेण सेसाणं ॥ ६ ॥ चउदसमेणं उस भो वीरो छट्टेण मासिए भत्ते । सिद्धा वयंमि सुमइस्क्वासो निच्चभते वि ॥ ७ ॥ काउं कल्लाणतवं उज्जमणं जो करिज्ज विहिपुत्रं । जिण पहआराहणओं परमपयं पावए सकमा ॥ ८ ॥ चुइ-जम्म- दिक्ख-केवल-सिवाई कलाणयाई पंचेव । सबजिणाणं छ पुणो वीरस्स सगब्भहरणाई ॥ ९ ॥ इह वित्तभवजिणाणं जो आराहेइ पंचकल्लाणं । ते दसखित्त-तिकालिअ अरिहाण उवासिआ तेण ॥ १० ॥ पणकल्लाणयकप्पं भवीण पूरिअमणिट्टकप्पं । जो पढइ सुणइ भवो सयंवरा तस्स सिद्धिसिरी ॥ ११ ॥ ॥ ग्रं० १३, अ० १५ ॥ ५५. तीर्थकरातिशयविचारः । प्रथमं चत्वारः सहजातिशयाः, ततो घातिकर्मक्षयादेकादशातिशयाः । एकोनविंशतिः सुरकृतातिशयाः । एवं ३४ । तत्रापि-अवायावगभातिसओ नाणाइसओ वयणाइसओ पूआइसओ ति । ॥ अं० २, अ० ७ ॥ 1 Pa परिपालयद् । 2 Pa गिरिवरस्य । 5 C रुद्रगणपति° । 6 Pb आरम; C आराम 3 B पिण्डकुण्डिनगज; Pa कुण्डि इतिमराज | 4 Pa प्रोसराज 7 Pa सगाइअवयहि" । 15 20 25 20 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० विविधतीर्थकल्पे 15 ५६. पञ्चकल्याणकस्तवनम् । नमि वि जिण ताण कित्तेमि कल्लाणए, पंच चुइ जंमु वउ नाण निवाणए । नाणु कत्तिअकसिणपंचमिहिं संभवे, बारिसिहिं नेमि चुइ पउम जंमो भवे ॥ १ ॥ तेरसिहिं पउभवउ वीर सिबु पनरसी, मागसिअ तीइ सुविहिस्स अर बारसी । मम्गसिरकसिणपंचमि सुविहि जमए, छट्टि सुविहिस्स वीरस्स दसमी वए ॥२॥ मुक्खु इक्कारसिहि एउ पउमप्पहे, सुद्धदसमी अर मुक्खु जमणमहे । पंच इक्कारसिहिं अरवयं निम्मलं, जंमु वउ नाणु मल्लिस्स नमि केवलं ॥ ३ ॥ चउदसिहिं जंमु पुंनिम वयं संभवे, बहुलपोसे दसमि पास जंमूसरे । गहिअ इक्कारसिहिं पासदिक्खागमो, बारसिहिं जंमु ससि तेरसिहिं संजमो ॥ ४ ॥ नाणु उप्पन्नु चउदसिहिं सीअलजिगे, विमल सिम छवि संतिस्स नवमीदिणे । गहिअ इकारसिहिं चउदसिहिं अभिनंदणे, पुंनिमिहि नाणु धमे जणाणंदणे ॥ ५॥ माहकसिणाइ छट्ठीइ पउमो चुउ, सीअलो बारसिहिं जंम-दिक्खाजुओ। रिसहजिणु तेरसिहि पत्तु निव्वुइपए, नाणु सेअंसजिण मावसा गिज्जए ॥६॥ सुद्ध बीआइ पुण दुन्नि कल्लाणए, जम्मु अभिनंदणे नाणु वसुपुज्जए । धम्म-विमलाइ तइआइ जाया जिणे, विमल वर चउत्थि अजिअट्ठमी जमणे ॥ ७ ॥ अजिअ उ नवमि बारसिहिं अभिनंदणे, तेरसिहिं धम्मदिक्खा पसिद्धा जिणे । फग्गुणे कसिणछट्ठीइ नाणुज्जलं, मुक्खु सत्तमि सुपासस्स ससि केवलं ॥ ८ ॥ सुविहि चुइ नवमि केवलमुसभिगारसी, जंमु सेअंस केवल सुक्य बारसी । गहिउ सेअंसि तेरसिहि चारित्तयं, जंमु चउदसिहिं वसुपुज्जमावसि वयं ॥ ९ ॥ सुद्धबीआइ अर चविउ जिणपुंगवो, चउथि मल्ली चविउ अट्टमी संभवो । बारसिहि सुमइ बउ मल्लिजिण निवुई, चउथि चित्ताइ पासस्स नाणं चुई ॥१०॥ पंचमिहिं चवणु चंदप्पहे जिणवरे, अट्टमिहिं जंमु दिक्खा य रिसहेसरे। सुद्धतइआइ कुंथुस्स नाणूसवो, सिद्ध पंचमिहिं गंतोऽजिउ संभवो ॥ ११ ॥ सुमइ मुक्खो नवमि नाणुमेगारसी, वीरनाहस्स जंमूसवो तेरसी । पुंनिमाए तु पउमाभ केवलगुणो, बहुलवइसाहपडिवइ सिवं कुंथुणो ॥ १२ ॥ सीअलो नाहु बीआइ परिनिब्बुउ, कुंथु वउ पंचमिहिं छट्टि सीअल चुउ । दसमि नमि मुक्खु तेरसिहिं गंतब्भवो, चउदसिहि ऽयंतजिण केवलं तह तवो ॥ १३ ॥ जाउ चाउसिहिं कंथु निम्मलमणो, चविउ सद्धे चउथीइ अभिणंदणो। चवण सत्तमिहिं धम्ममि तित्थेसरे, सिद्ध अभिनंदणो अद्रमीवासरे ॥ १४ ॥ अट्रमिहिं जमु नवमी वयं सुमहणो. केवलं पत्त दसमीड वीरो जियो । विमलजिण बारसिहिं अजिउ तेरसि चुड, जिट्टयहुलाइ सेअंसु छहिहिं चुउ ॥ १५ ॥ अट्ठमी जंमु नवमी सिवं सुबए, जंमु सिवु तेरसिहिं संति चउदसि वए। सुद्धपंचमिहिं धम्मस्स निवागयं, नवमि वसुपुज्जजिण चवणकल्लाणयं ॥ १६ ॥ जंमु बारसि सुपासस्स तेरसि वयं, बहुलआसाढचउथी उसम चवणयं । विमल सिब सत्तमिहिं दिक्ख नवमिहिं नमी, वीर सिअछट्टि बुइ नेमि सिवु अट्ठमी ॥ १७ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ कोल्लपाकमाणिक्यदेवतीर्थकरुपः । पत्तु वसुपुज्जु चउदसिहिं सिद्धासए, सावणे बहुलतिइ सिद्धि सेअंसए । सत्तमिहिं गंत चुइ जंमु अट्ठमि नमी, नवमि चुइ कुंथु सिअनीअ सुमई समी ।। १८ ॥ पंचमिहिं जंमुछवि नेमि दिक्खारुई, पास सिवु अट्टमिहिं सुवय पुनिम चुई। भद्दवइसत्तमिहिं संति चुइ ससि सिवे, चवणु अट्टमिहिं सुपासस्स तित्थाहिने ॥ १२ ॥ सुद्धनवमीइ सुविही जिणो निव्वुड, केवली नेमि आसो अमावसि हुउ । पुंनिमासीइ नमि तित्थनाहो चुउ, कुणह मह मंगलं सोमसूरी थुउ ॥ २० ॥ ॥ इति श्री सोमसूरिकृतं]कल्याणिकस्तवनं समाप्तम् ॥ 1 ग्रं० काव्य २०॥ ५७. कोलपाकमाणिक्यदेवतीर्थकल्पः। सिरिकोल्लपाकपुरवरमंडणमाणिक्कदेवरिसहस्स ! लिहिमो जहासुअं किंचि कप्पमप्पेण गंथेण' ॥ १ ॥ पुर्व किर अट्ठावयनगवरे सिरिभरहेसरेण निभनिअवण्ण-पमाण-संठाणजुत्ताओं सीहनिसिज्जाययणे चटवीसजिणाणं पडिमाओ रयणमईओ कारिआओ । ताओ अमणुआणं अगम्माओ होहिंति त्ति परिभाविअ एगा उसभसामिपडिमा पुढो चेव लोआणुग्गहत्थं तेण चेव कारिआ सच्छमरगयमणिमई; जडाजुअलं खंधेसु, चिबुगे दिवायरो, भालयले चंदो, नाहीए सिवलिंगं । अओ चेव माणिकदेवु त्ति विक्खाया । सा य कालंतरे जत्तागएहिं खेअरेहिं 15 दिवा ! अउबरूवि त्ति विम्हिअमणेहिं विमाणे ठाविऊण वेअडगिरि नीआ दक्खिणसेढीए । तेहिं भत्तिभरभरिअचित्तेहिं पूइज्जइ । अन्नया भमंतेण नारयरिसिणा वेअड्डागएण तं पडिमं दट्टणं पुच्छिा विजाहरा-कुओ एस त्ति ! । तओ तेहिं वुत्तं-अट्ठावयाओ आणिअत्ति । जप्पमिई एसा अम्हेहिं पूइडं पकंता तप्पभिई अम्हे दिणे दिणे बविआ इड्डीए । तं सोउं नारओ सग्गे इंदस्स तप्पडिममाहप्पं कहेइ । इंदेणावि सग्गे आणाविता भत्तीए पूइउमादत्ता, जाव मुणिसुश्वय-नमिनाहाणं अंतरालं । इत्थंतरे लंकाए तेलुक्ककंटओ रावणो उप्पन्नो । तस्स 20 भज्जा मंदोअरी परमसम्मदिट्ठी । तीए तं रयणविबमाहप्पं नारयाओ सोऊण तप्पूअणे गाढामिग्गहो गहिओ । तं वुत्तंतं मुणित्ता महारायरावणेण इंदो आराहिओ । तेणावि तुट्टेण समप्पिआ सा पडिमा महादेवीए । तीए तुवाए तिक्कालं पूइज्जइ 1 अन्नया दसग्गीवेण सीआदेवी अवहरिआ ! मंदोअरीए अणुसिट्टो वि तंन मुंचइ । तओ सुमिणे पडिमाअहिटायगेण रावणविणासो लंकाभंगो अ अक्खिओ मंदोअरीए । तओ तीए बिंबं सायरे खिविरं । तस्थ सुरेहिं पूइज्जइ । इओ अ कन्नाडदेसे कल्लाणनयरे संकरो नाम राया जिणभत्तो हुत्था । तत्थ केमावि मिच्छद्दिट्टिणा वंतरेण कुविएण मारी विउबिआ । अदण्णो राया । तं दुखिरं नाउं देवी पउमावई रतिं सुविणे भणइ-जइ महाराय ! रयणायराओ माणिकदेवं निअपुरि आणित्ता पूएसि तो सिर्व होइ । तओ राया सायरपासे गंतूण उववासं करेइ । लवपाहियो संतुट्ठो होऊण पथडी रायाणं भगइ-गिण्हह जहिच्छाए रयणाई । रण्णा विन्नत्तं-न मे स्यणाईएहि कर्ज, मंदोअरीठविअंबिवं देहि ति 1 तओ सुरेण बिंचं कड्डिऊण अप्पिरं रणो; भणिअंच-तुह देसे 30 सुही लोओ होही। परं पंथे गच्छंतस्स जत्थ संसओ होही तत्थेव बिंब ठाहि ति । तओ पत्थियो पत्थिओ ससिन्नो । देव 1 Pa गव्येण । एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता Pa आदर्श। 2P विमलमरगय°13 PaC वेदि। 4 B P तहिं । 5 Pa दिठ्ठीए। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ विविधतीर्थकल्पे यापभावेण 'तण्णयजुअलखंघट्टियसगडारोत्रिअं बिंबं मम्गओ आगच्छइ । दुग्गं मगं लंबित्ता राया संसयं मणे धर्इकिं आगच्छइ नवि ति । तओ सासणदेवीए तिलंगदेसे कोल्लपाकनयरे दक्विणवाणारसि ति पंडिएहिं वणिजमाणे पडिमा ठाविआ। पुधि अइनिम्मलमरगयमणिमयं आसि विबं । चिरकालं खारोअहिनीरसंगेण कठिणंगं जायं 1 एगारसलक्खा असीइ सहस्सा नवसयाई पंचुत्तराई वरिसाई सग्याओ आणिअस्स भगवओ माणिकदेवस्स 5 संवुत्ताई । तत्य राया पवरं पासायं कारवेइ । किं च दुवालसगामे देवपूअर्से देह । तम्मि भयवं अंतरिक्खे ठिओ छसयाई असीआई विक्रमवरिसाई । तओ मिच्छपवेसं नाउं सीहासणे ठिओ । निकंतीए भविआणं लोअणेसु अमयरसं वरिसेई-'किमेसा पडिमा टंकेहिं उक्किन्ना, खाणीओ वा आणि श्रा, किं सप्पिमा घडिआ, बज्जमई वा नीलमणिमई वित्ति न निच्छिज्जइ, रंभाखंभनिभेव दीसेइ । अन्ज विकिर भगवओ हवणोदगेग दीवो पजलइ । *अज्ज वि अंधा हवणमट्टियाए लोयणेसु बंधियाए सलोयणा हवंति । अज वि तित्थाणुभावओ चेइ अमंडवाओ झरंता 10 जलसीअरा जत्तिअजणाणं वत्थाई उल्लिंति । पुरओ सप्पदट्ठो उट्टेइ । एवं अणेगविहपभावभासुरस्स महातित्थम्स माणिकदेवम्स जत्तामहूसवं पूभं च जे करिति कारविंति अणुमोअंति अ ते इहलोअ-पारलोइअसुसिरिं पाविति । . माणिकदेवकप्पो इअ एसो वण्णिओं समासेणं । सिरिजिणपहसूरीहिं भविआणं कुणा कल्लाणं ॥१॥ ॥इति श्रीमाणिक्यदेवतीर्थकल्पः ॥ ! अं० ४४, अ०५॥ 15 ५८. श्रीपुर-अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्पः । पयडपहायनिवासं पासं पणमित्तु सिरिपुराभरणं । कित्तेमि अंतरिक्वट्ठिअतप्पडिमाइ कप्पलवं ॥ १ ॥ पुवं लंकापुरीए दसग्गीवेण अद्धचक्किणा मालि-सुमालिनामाणो निअगा ओलगा केणावि कत्थवि पेसिआ। तेसिं च विमाणारूढाणं नहपहे बच्चंताणं समागया भोयणवेला । फुल्लबद्धएण चिंतिअं-मए ताव अज्ज जिण पडिमाकरंडिआ ऊसगत्तेण घरे चिसारि 1 एएसिं च दुह बि पुन्नवंताणं देवपूआए अकयाए न कत्थ वि भोअणं । 20 तओ देवयावसरकरंडिअमदटुं महोवरि एए रूसिस्संति ति । तेण विजाबलेण पवित्तवालु आए अहिणवा भाविजिणपासनापडिमा निम्मविआ । मालि-सुमालीहिं तं पूइत्ता भोअणं कयं । तओ तेसु नमग्गे पट्ठिएसुसा पडिमा आसन्नसरोवरजलमझे बडएण निक्खिता । सा य देवयाणुभावेण सरोवरमज्झे अखंडिअरूवा चेव तत्थ द्विआ । कालकमेण तस्स सरोवरस्स जलं अप्पीहूअं । जलभरिअं खडग व दीसइ । तं तओ कालंतरेण विं(चिं?)गउल्लीदेसे वि(चिं?)गउल्लं नयरं तत्थ सिरपालो नाम नरवई हुत्था । सो अ गाढकोढविहुरिअसबगो अन्नया पारहिहेडं 25 बाहिं गओ । तत्थ पिवासाए लग्गाए तम्मि खड्डुगे कमेणं पत्तो । तत्थ पाणिअं पीअं, मुहं हत्था य पक्खालि आ । तओ ते अंगावयवा जाया नीरोगा कणयकमलुज्जलच्छाया । तओ वरं गयस्स रन्नो महादेवी तमच्छेरं दट्ठ पुच्छित्था- सामि ! कत्थ वि तुम्हेहिं अज्ज व्हापाइ कयं । रायणा जहहिए वुत्ते देवीए चिंतिअं-अहो । सादिवं ति । बीअदिणे राया तत्थ नीओ ! तीए सवंग पखालिअं । जाओ पुणण्णवसरीरावयवो राया । तओ देवीए बलिपूआइअं काऊण भणि-जो इत्थ देवयाविसेसो चिट्ठइ सो पयडेउ अप्पाणं । तओ घरं पत्ताए देवीए सुमिणंतरे देवयाए भणिअं30 इत्थ भावितित्थयरपासनापडिमा चिट्ठइ । तस्स पभावेणं रन्नो आरुगं संजायं । एयं च पडिमं सगडे आरोविऊण सत्चदिणजाए तण्णए जुत्तिता आमसुत्ततंतुमित्तरस्सीए रन्ना सयं सारहीहएणं सट्टाणं पइ चालेअबा इमा । जत्थेव 1P) भयजुअल° C भाइय°। 2 Pa कडिणंगे। 3 B लोआण : एतदन्तर्गतः पाठः P आदर्श नास्ति । * P विहायान्यत्र नापलभ्यते वाक्य मिदम् । P आदर्श एक लभ्यते वाक्यमिदम् । 4 पदमिदं नास्ति Pal 5B नास्ति 'सुमालि'। GPa नास्ति पदमेतत् । 7 B खुद्धगं। 8Pa गिल्लिं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुर-अन्तरिक्षपार्श्वनाथ कल्पः । १०३ निवो पच्छाहुत्थं पलोइस्सर तत्थेव पडिमा ठाहिर । तओ नरनाहेण तं खड्डुगजलमालोइ (डि) ऊण सा पडिमा लद्धा | तेण तव काउं पडिमा चालिआ । कित्तिअं पि भूमिं गएण रन्ना, किं पडिमा एइ नवि ति सिंहावलोइअं कयं । पडिमा तत्थेव अंतरिक्खे ठिआ । सगडो अभ्गओ हुतं नीसरिओ । रन्ना पडिमा अट्टग अधिईए गते तत्थेव सिरिपुरं नामं नयरं निअनामोवलक्खिअं निवेसिअं; *चेइअं च तहिं कारिअं । तत्थ पडिमा अणेगमहसवपुत्रं ठाविआ । पूएइ तं पुहविपई तिकालं । अज्जवि सा पडिमा तहेव अंतरिक्खे चिट्ठ | पुर्बि किर सवाहडिअं घडं सिरम्मि बहंती 5 नारी पडिमा ए हिट्ठा सीहासणतले संचरिंसु । कालेण भूमिवेगरचडणेण वा मिच्छाइदृसि अकालानुभावेण वा अहो अहो दीसंती जाव संपइ उत्तरमित्तं पडिमाए हिट्टे संचर । पईवप्पा य सीहा सण - भूमिअंतराले दीसह । जया य सा पडिमा सगडमारोविआ तथा अंबादेवी वित्तवालो अ सहेब पडिमा । ऊसगतेण सिद्ध-बुद्धाणं अन्नयरो पुतो अंबा गहिओ । अन्नो अ पच्छा ठिओ । तओ खित्तवालस्स आणत्ती दिन्ना, जहा एस दारओ तर आणेअबो | तेणावि अइउत्ताउलं चलंतेण सो नाणीओ । तओ देवीए टुंगएण मत्थए आहओ | अज्जवि तहेव खित्त- 10 वालसीसे दीसइ । एवं अंबाएवी खित्तवालेहिं सेविजमाणा धरविंद पउमावईहिं च कयपाडिहेरा सा पडिमा भवलोएहिं पूईज्जइ; जत्तिअलोआ य जत्तामहसवं कुणंति । तीए व्हवणसलिलेण सितं पि आरतिअं न विज्झाइ । हवणोदगेण अहिसित्तगत्ताणं दद्द- खस - कुट्टाइरोगा उवसमंति । सिरिअंतरिक्वट्टिअपासनाहकप्पे जहासुअं किं पि । सिरिजिणपहसूरीहिं लिहिओ सपरोवयारकए ॥ १ ॥ || इनि अंतरिक्ख (क्ष) पार्श्वनाथकल्पः || ॥ ग्रं० ४१, अ० ८ इदं वाक्यं Pa आदर्श नास्ति । Pa खर° 15 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध तीर्थकल्पे ५९. स्तम्भनककल्पशिलोञ्छः । थंभणयकष्पमझे जं संगहिअं न वित्थरभएण । तं सिरिजिण हसूरी सिलुंछ मिच कं पि' जपेइ ॥ १ ॥ ढंकपत्र्वए रणसी हरायउत्तस्स भोपलनामिअं धूअं रूपलावण्णसंपन्नं दडूण जायाणुरायस्स तं सेवमाणस्स वासुगिणो पुत्ती नागज्जुणो नाम जाओ । सो अ जणएण पुत्तसिणेहमोहिअमणेण सवासिं महोसहीणं फलाई 5 मूलाई दलाई च भुंजाविओ । तप्पभावेण सो महासिद्धीहिं अलंकिओ 'सिद्धपुरिसुति विक्खाओ पुहविं विअरंतो सालाहणरन्नो कलागुरू जाओ । सो अ गयणगामिणिविज्जाअज्झयणत्थं पालित्तयपुरे सिरिपालितायरिए सेवेह | अन्नया भोयणावसरे पायप्पलेवचलेण गयणे उप्पइए पासइ । अट्ठावयाइतित्याणि नर्मसिअ सङ्घाणमुवागयाण तेर्सि पाए पक्खालिऊण सत्तुत्तरसयमहोसहीणं आसायण-वण्ण-गंधाईहिं नामाई निच्छइऊण गुरूवएस विणाव पायलेवं काउं कुक्कुडप्पोउ व उप्पयंतो अवडतडे निवडिओ | वणजज्जरिअंगो गुरूहिं पुट्टो - किमेअं ति ? । तेण 10 जहट्टिए वुत्ते तस्स कोसलचमक्किचित्ता आयरिआ तस्स सिरे पउमहत्थं दाडं भणंति-सट्टि अतंदुलोदगेण ताणि ओसहाणि वट्टित्ता' पायलेवं काउं गयणे वचिज्जासि त्ति । तओ तं सिद्धिं पाविअ परितुट्ठो । १०४ पुणो कयावि गुरुमुहाउ सुणेइ, जहा - सिरिपासनाहपुराओ साहिज्जतो सबइत्थी लक्खणोवलक्खि अमहासईविलयाए अ मद्दिज्जंतो रसो कोडिवेही हवइ । तं सोऊण सो पासनाहपडिमं अन्नेसिउमारद्धो । इओ अ बारसमुहविजयदसारेण सिरिनेमिनाहमुहाओ महाइसयं नाऊण रयणमई सिरिपासनाहपडिमा पासार्थमि 15ठविता पूईआ । बारवईदाहाणंतरं समुद्देण पाविआ सा पडिमा तहेव समुद्दमज्झे ठिआ । कालेण कंतीवासिणो धणवइनामस्स संजत्तिअस्स जाणवत्तं देवयाइसयाओ खलिअं । इत्थ जिणबिंबं चिट्ठइ त्ति विवायाए निच्छिभं । नाविए तत्थ पक्खिविअ सत्तहिं आमतंतूहिं संदाणिअ उद्धरिआ पडिमा । निअनयरीए नेऊण पासायनि ठाविआ । चिंताइरित्तलाभपहिट्टेण पूइज्जइ पइदिणं । तओ सबाइसाइ तं बिंबं नाऊण नागज्जुणो सिद्धरससिद्धिनिमित्तं अवहरिऊण सेडीनईए तडे ठाविंसु । तस्स पुरओ रससाहणत्थं सिरिसालवाहणरन्नो चंदलेहाभिहाणिं महासदं देविं 20 सिद्धवंतरसन्निज्झेण तत्थ आणाविअ पइनिसं रसमद्दणं कारेइ । एवं तत्थ भुज्जो भुज्जो गयागएणं तीए बंधु पिडि - वन्नो । सा तेसिं ओसहाणं मद्दणकारणं पुच्छेइ । सो अ कोडिरसवेहबुत्तंतं जहद्विअं कहेइ । अन्नया दुष्हं निअपुत्ताणं तीए निवेइअं - जहा एअस्स रससिद्धी होहिइ त्ति । ते रसलुद्धा निअरज्जं मुत्तुं नागज्जुणपासमागया । कइअवेणं तं रसं घित्तुमणा पच्छन्नवेसा, जस्थ नागज्जुणो भुंजइ तत्थ रससिद्धिवुत्तं पुच्छंति । सा य तज्जाणणत्थं तदहं स रसवई साहेइ | छम्मासे अइक्कते खार ति दूसिआ तेण रसवई । तओ इंगिएहिं रसं सिद्धं नाऊण पुत्ताण निवेइअं 25 तीए । तेहिं च परंपराए नायं जहा - वासुगिणा एअस्स दब्भंकुराओ मच्चू कहिओ चि । तेणेव सत्थेण नागज्जुणो निहओ | जत्थ य रसो थंभिओ तत्थ भणयं नाम नयरं संजायं । तओ कालंतरेण तं बिंबं वयणमित्तवज्जं भूमिअंतरिअंगं संवृत्तं । इओ अ चंदकुले सिरिवद्धमाणसूरि-सीसजिणे सरसूरीणं सीसो सिरिअ भयदेवसूरी गुज्जरत्ताए संभायणठाणे विहरिओ । तत्थ महावाहिवसेण अईसाराइरोगे जाए पच्चासन्ननगर - गामेहिंतो पक्खिअ डिक्कमणत्थ30 मागंतुकामो विसेसेण आहूओ मिच्छदुक्कडदाणत्थं सबोवि सावयसंघो । तेरसीअङ्कुरते अ भणिआ पहुणो सासणदेवयाए-भयवं ! जग्गह सुअह वा ? । तओ मंदसरेणं वृत्तं पहुणा - कओ मे निद्दा । देवीए भणिअं - एआओ नवकुक्कुडीओ उम्मोहेसु । पहुणा भणिअं-न सक्केमि । तीए भणिअं - कहं न सक्केसि ? | अज्जवि वीरतित्थं चिरं पभावेसि, नवगवित्तीओ अ काहिसि । भयवया भणिअं -कहमेवंविहसरीरो काहामि ? । देवयाए वुत्तं-थं भणयपुरे सेढीनई उनकंठे 2 P बढित्ता । एतदन्तर्गता पंक्तिर्न लभ्यते A आदर्श । 3 A संभाणय° । 1 B किपि । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलवर्द्धिपार्श्वनाथकल्पः। खंखरपलासमझे सयंभू सिरिपासनाहो अच्छइ । तस्स पुरो देवे वंदेह । जेण सुत्थसरीरा होह । तओ गोसे आहूसावयसंधेण वंदिआ पहुणो । पहुणा भणिअं-थंभणए पासनाहं वंदिस्सामो । संघेण चिंतिअं-नूणं कोइ उवएसो पहुणं, ता एवं आइसति । तओ भणिअंसंघेण-अम्हे वि वंदिस्सामो। तओ वाह्णण गच्छंतस्स पहुणो मणयं सरीरं सुत्थं जायं । अओ धवलक्याओ परओ चरणचारेण विहरता पत्ता थंभणपुरं । गुरुसावया सवत्थ पासनाहमवलोइंता गुरुणा भणिआ-खंखरपलासमज्झे पलोएह । तेहिं तहाकए दि8 सिरिपासनाहपडिमामुहं । तत्थ य पइदिणं एगा घेणू 5 आगम्म पडिमामत्थए खीरं झरइ । तओ पहिढेहिं सावएहिं जहादिहें निवेइअं गुरुणो । अभयदेवसूरी वि तत्थ गंतुं मुहदसणमित्तेण थोउमाढत्तो-'जयतिहुअणवरकप्परक्व' इच्चाइतकालिअवित्तेहिं । तओ सोलससु वित्तेसु कएसु पच्चक्खीहूआ सबंगं पडिमा । अओ चेव 'जय ! पचक्खजिणेसर' चि सत्तरसमे वित्ते पढिअं । तओ बत्तीसाए पुण्णाए अंतिमवित्तदुगं अईव देवयाइड्डिकर ति नाऊण देवयाए विन्न-भयवं ! तीसाए वि वित्तेहिं सन्निझं करिस्सामि; अंतिमवित्तदुगं ओसारेह । मा अम्हं कलिजुगे आगमणं दुक्खाय होउ ति । पहुणा तहा कयं । संघेण 10 सह चिइवंदणा कया। तत्थ संघेण उत्तुंगं देवहरयं कारिअं । तओ उवसंतरोगेण पहुणा ठाविओ सिरिपाससामी। तं च महातित्थं पसिद्ध । कालाइक्कमेण कया ठाणाइनवंगाणं वित्ती । आयारंग-सूअगडाणं तु पुचिं पि सीलंकायरिएण कया आसि । तओ परं चिरं वीरतित्थं पभाविअं पहुण ति ॥ ॥ इति श्रीस्तम्भनककल्पशिलोञ्छः॥ ॥अं०६७॥ 15 ६०. फलवर्द्धिपार्श्वनाथकल्पः। सिरिफलवद्धिअचेई अपरिट्ठिों पणमिऊण पासजिणं । तम्सेव बेमि कप्पं जहासुभं दलिअकलिदप्पं ॥१॥ ___ अस्थि सवालक्खदेसे मेडत्तयनगरसमीवठिओ वीरभवणाइ-नाणाविहदेवालयाभिरामो फलवद्धी नाम गामो । तत्थ फलवद्धिनामधिज्जाए देवीए भवणमुत्तुंगसिहरं चिट्ठद्द । सो अरिद्धिसमिद्धो वि कालक्कमेण उबसपाओ संजाओ। तहावि तत्थ कित्तिआ वि वाणिअगा आगंतूण अवसिंसु । तेसु वि एगो सिरिसिरिमाल-20 वंसमुत्तामणी धम्मिअलोअगामगामणी धंधलो नाम परमसावओ हुत्था । बीओ अ तारिसगुणो चेव उवएसवालकुलनहयलनिसाकरो सिवंकरो नाम । ताण दुण्डंपि पभूआओ गावीओ आसि । तासि मज्झे एगा धंधलस्स घेणू पइदिणं दुझंती वि दुद्धं न देइ । तओ धंधलेण गोवालो पुच्छिओ-किमेसा घेणू तुमए चेव बाहिरे दुज्झइ अन्नेण वा केणावि, जेणेसा दुद्धं न देइ । तओ गोवालेण सबहाइं काऊण अप्पा निरवराही कओ । तओ गोवालेण सम्म निरिक्खंतेण एगया 'उच्चरडयस्स उवरि बोरितरु समीवे चउहिं वि थणेहिं खीरं झरती दिट्ठा सा सुरही । एवं 25 पइदिणं पिच्छंतेण दंसिआ धंधलम्स । तेण वि चिंतिअं नृणं इत्थ कोइ जक्खाई देवयाविसेसो भविस्सइ भूमिमज्झट्टिओ। तओ गिहमागएण तेण सुहपसुतेण रत्तीए सुमिणओ उक्लद्धो; जहा एगेण पुरिसेण वृत्तं-इत्थ रडए भयवं पासनाहो गभहरदेवलिआमज्झे चिट्टइ । तं बाहिं निकासिऊण पूएहिं । तओ धंधलेण पहाए बुद्धेणं सिवंकरस्स निवेइओ सुमिणवुत्तंतो । तओ दोहिं पि कोऊलाऊरिअमाणसेहिं बलिपूआविहाणपुवं उड्डेहिं रडयभूमि खणावित्ता कडिओ गब्भहरदेउलिआसहिओ सत्तफाणिकणामंडिओ भयवं पाससामी । पइदिअहं पूयंति महया 30 इड्डीए ते दो वि । एवं पूइज्जते भुवणनाहे पुणो वि अहिट्ठायगेहिं सुमिणे आइटुं तेसिं; जहा-तत्थेव पएसे चेईअं कारावेह ति । तओ तेहिं पहिट्ठचित्तेहिं दोहिं वि निअविवाणुसारेण चेईअं कारावेउमाढत्तं । फ्यट्टिा सुत्तहारा 1 Pa निरखतेण। 2 Pa उज्वरडय। 3 B तकस्स स। 4 P पुच्छतेण। 5 PaC उद्देहि । 6 B महिआ। वि.क. १४ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे कम्मट्ठाएसु । जाव अग्गमंडवे निप्पन्ने तेसिं 'अप्पड्डिअत्तेण दविणविच्चणअसमत्थयाए निअत्तो कम्मट्ठाओ। तो धणि अधिइमावन्ना दो वि परमोवासया । तयणंतरं रयणीए पुणो वि अहिट्टायगसुरेहिं सुमिणे भणिों; जहा--अप्पभाए अलबतेसु काएमु देवस्स अग्गओ दम्माणं सत्थिों पइदिणं पिच्छिस्सह । ते दम्मा चेईअकजे वइयव चि । तेहिं तहेव दिढे, ते दम्मे चित्तूण सेसकम्मट्ठाय कारवेउमाढत्तं । जाव पडिपुण्णा पंच वि मंडवा य, लहुमंडवा य, 5 तिहुअणजण चित्तचमुक्कारकारए । बहुनिप्पन्नंमि चेईअंमि तेसिं पुत्तेहिं चिंतिअं-कत्तो एवं दवं संपज्जइ, जं अविच्छे. एण कम्मट्ठायं उस्सप्पइ ति । अह एगंमि दिणे अइप्पहाए चेव थंभाइअंतरिआ होऊण निहुअं दट्ठमारद्धा । तम्मि दिवसे देवेहिं न पूरिअं दम्माणं सत्थिों आसन्नं च मिच्छरजं नाऊण पयत्तेण आराहिआ वि अहिट्टायगा न पूरिसु दवं ति । ठिओ तदवत्थो चेव चेईअकम्मट्ठाओ । एगारससएस इकासीइसमहिएसु विकमाइवरिसेसु अइक्कतेसु रायगच्छमंडणसिरिसीलभद्दसूरिपट्टपइट्टिएहिं महावाइदिअंबरगुणचंदविजयपत्तपइटेहिं सिरि10 धम्मघोससूरीहिं पासनाहचेई असिहरे चउविहसंघसमक्खं पइट्ठा किआ । कालंतरेण, कलिकालमाहप्पेणं केलिप्पिा वंतरा हवंति, अथिरचित्ता य त्ति पमायपरवसेसु अहिट्ठायगेसु सुरताणसाहावदीण भगं मूलबिंब । पुणरवि सावहाणीभूएसु अहिटायगसुरेसु मिच्छरन्नो मिच्छागं च अंधत्तरुहिरवमणाइचमुक्कारा दंसिआ । तओ' सुरताणेण दिन्नं फुरमाणं; जहा-एअस्स देवभवणस्स केणावि भंगो न कायद्यो ति । अन्नं च बिंब किर भयवओ अहिट्ठायगा न सहति ति संघेण "बिंबंतरं न ठावि । विलंगिअंगस्स वि भगवओ महंताई माहप्पाइं उवलब्भंति । पइव15 रिसं च पोसबहुलदसमीए जम्मकल्लाणयदिणे चाउद्दिसाओ सावयसंघा आगंतूण व्हवण-गीअ-नट्ट-वाइअ-कुसुमाभरणा रोवण-इंदधयाईहिं मणहरं जत्तामहिमं कुणंता, संघपूआईहिं सासणं पभाविता, निद्दलंति दुसमासमयविलसिआई, विढवंति गुरुरं सुकयसंभारं । इत्थ य चेईए धरणिंद-पउमावई-खित्तवाला अहिहायगा संघस्स "विग्धपञ्भारं उत्सामिति, पणयलोआणं मणोरहे" अ पूरिति । इत्तो चि थिरपईवहत्थं पुरिसं चेईअमज्झे संचरंत ___ पासंति समाहिअमणा इत्थ रत्तिं वुत्था भविअजणा । एअंमि महातित्थभूए पासनाहे दिढे कलिकुंड-कुकुडेसर20 सिरिपश्चय-संखेसर-सेरीसय-महुरा-बाणारसी-अहिछत्ता-थंभणय-अजाहर-पवरनयर-देव पट्टण-करहेडय-नागद्दह-सिरिपुर-सामिणि-चारूप-दिपुरी-उज्जेणी-सुद्धदंती-हरिकंसी-लिंबोडयाइठाणवट्टमाणपासनापडिमाणं किरि जत्ता कया हवइ त्ति संपदायपुरिसाणं उवएसो।। इअ फलवद्धिपुरट्टिअपास जिणिंदस्स कप्पमवि"अप्पं । निसुणताणं भवाण होउ कल्लाणनिप्पत्ती ॥ १ ॥ इत्याप्तजनस्य मुखात् किमप्युपादाय संप्रदायलयम् । व्यधित जिनप्रभसूरिः कल्पं फलवर्द्विपार्श्वविभोः ॥ २ ॥ ॥ इति फलवर्द्विपार्श्वनाथकल्पः समाप्तः ॥ ॥ ० ५५, अ० २॥ 1 Pa C कम। 2 P अप्पिट्टि 3B पभावे । 4 P Pa नास्ति 'बहुमंडवा य'। 5 B Pa.C ततः । 6 B वियं। 7 B°दिसाओ वि। 8BC सुकृत 19 B विधस्स विग्धप। 10 B मणोहरे। 11 Pa कप्पं । 12Pa सूरिभिः। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बिकादेवीकरपः। १०७ ६१. अम्बिकादेवीकल्पः। सिरिउन्नयंतगिरिसिहर सेहरं पणमिऊण नेमिजिणं । 'कोहंडिदेविकप्पं लिहामि वुटोवएसाओ ॥ १ ॥ अस्थि सुरट्टाविसए धणकणयसंपन्नजणसमिद्धं कोडीनारं नाम नयरं । तत्थ सोमो नाम रिद्धिसमिद्धो छकम्मपरायणो वेआगमपारंगो बंभणो हुत्था । तस्स परिणी अंबिणीनामा महग्यसीलालंकारभूसिअसरीरा आसि । तेसि विसयसुहमणुहवंताणं उप्पन्ना दुवे पुत्ता । पढमो सिद्धो बीओ वुद्ध त्ति । अन्नया समागए पिअरपक्खे भट्ट-5 सोमेणं निमंतिआ बंभणा सद्धदिणे । कत्थ चि ते वेअमुच्चारंति, कत्थ वि आढवंति पिंडप्पयाणं, कत्थ वि होमं करिति, वइसदेवं च । संपाडिआ सालिदालिवंजणपक्कन्न भेअखीरिखंडपमुहा जेमणारा अंविणीए अ । सासुआ पहाणं काउं पयट्टा । तंमि अवसरे एगो साहू मासोववासपारणए तंमि घरे भिक्खट्टा संपत्तो । तं पलोइत्ता हरिसभरनिभरपुलइअंगी उढिआ अंबिणी । पडिलाभिओ. तीए मुणिवरो भत्तिबहुमाणपुर्व अहापवितेहि भत्तपाणेहि । जाव गहिअमिक्खो साहू वलिओ, ताव सासुआ वि पहाऊण रसवईठाणमागया । न पिच्छइ पढमसिहं । तओ तीए कुविआए पुट्ठा 10 बहुआ। तीर जट्ठिए वुत्ते, अंबाडिआ सा अजूए; जहा-पावे ! किमेअं तए कयं ? । अन्ज वि कुलदेवया न पूईआ, अज्ज वि न भुंजाविआ विप्पा, अज्ज वि न भरिआई पिंडाई; अग्गसिहा तए किमत्थं साहुणो दिन्ना ? । तओ तीए भणिओ सबो वि वइअरो सोमभट्टस्स । तेण रुट्टेण अप्पच्छंदिअत्ति निकालिआ गिहाओ सा। परिभवदूमिआ सिद्धं करंगुलीए धरित्ता बुद्धं च कडीए चडावित्ता चलिआ नयराओ बाहिं ! पंथे तिसामिभूएहिं दारएहिं जलं मग्गिआ, जाव सा अंसुजलपुण्णलोअणा संवुत्ता, ताव पुरओ ठिअं सुकसरोवरं तस्सा अणग्घेणं सीलमाहप्पेणं तक्खणं जलपूरिअं15 जायं । पाइआ दो वि सीअलं नीरं । तओ छुहिएहिं भोअणं ममिगआ बालएहिं । पुरओ ठिओ सुक्कसहयारतरू तक्खणं फलिओ। दिन्नाई फलाई अंविणीए तेसिं । जाया ते सुत्था । जाव सा चूअच्छायाए वीसमइ ताव जं जायं तं निसामेह । तीए जे बालयाई पढम जेमाविआ तेसिं भुत्तत्तर पत्तलीओ तीए बाहिं उज्झिआओ आसि, ताओ सीलमाहप्पा कंपिअमणाए सासणदेवयाए सोवष्णथालकच्चोलयरूवाओ कयाओ। जे अ उच्छिट्टसित्थकणा भूमीए पडिआ ते मुत्तिआई संपाइआई । अम्मिसिहा य पिढरेसु तहेव दंसिआ 120 एयमच्चुच्चो अं सासुए. दट्टण निवेइअं सोमविप्पस्स । सिटुं च, जहा-वच्छ ! सुलक्खणिआ पइबया य एसा वहू । ता पचाणेहि एअं कुलहरं ति जणणीपेरिओ पच्छायावानलडझंतमाणसो गओ बहुअं वालेउं सोमभट्टो । तीए पिट्टओ आगच्छंतं दिअवरं निअवरं दद्रूण दिसाओ फ्लोईआओ। दिट्ठओ अग्गओ मग्गकूबओ । तओ जिणवर मणे अणुसरिऊण सुपत्तदाणं अणुमोअंतीए अप्पा कूवंमि संपाविओ । सुहज्झवसाणेण पाणे चईऊण उप्पन्ना कोहंडविमाणे सोहम्मकप्पहिढे चउहिं जोअणेहिं अंधिअदेवी नाम महड्डिआ देवी । विमाणनामेणं कोहंडी वि भन्नइ । 25 सोमभट्टेणं वि तीसे महासईए कूवे पडणं द8 अप्पा तत्थेव झंपाविओ । सो अ मरिऊण तत्थेव जाओ देवो । आभिओगिअकम्मुणा सिंहरूवं विउवित्ता तीसे चेव वाहणं जाओ । अन्ने भणंति-अंबिणी रेवयसिहराओ अप्पाणं झंपावित्था, तप्पिट्टओ सोमभट्टो वि तहेव मओ । सेसं तं वेद । सा य भगवई चउम्भुआ दाहिणहत्थेसु अंबलुबि पासं च धारेइ । वामहत्थेसु पुण पुत्तं अंकुसं च धारेइ । उत्तत्तकणयसवण्णं च वण्णमुबहइ सरीरे । सिरिनेमिनाहास सासणदेवय त्ति निवसइ रेवइगिरिसिहरे । 30 मउडकुंडलमुत्ताहलहाररयणकंकणनेउराइसवंगीणाभरणरमणिज्जा पूरेइ सम्मदिट्ठीण मणोरहे, निवारेइ विग्यसंघायं । तीए मंतमंडलाईणि' आराहिंताणं भविआणं दीसंति अणेगरूवाओ रिद्धिसिद्धीओ । न पहवंति भूअपिसायसाइणी _1 Pa °सिहरे । 2 A कोहिडि । 3 P Pa नाम। 4 A अहापसेहिं; B P पक्त्तेहि। 5 A Pa B तिसा। 6 Pa सिहरेसु। 7 Pa मंडणाईगि । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ विविधतीर्थकल्पे विसमग्गहा, संपज्जंति पुनकलत्तमित्त'धणधन्नरज्जसिरीओ ति । अंविआमंता इमे'वयवीयमकुलकुल जलहरिहयअकंततत्तपेआई । पणइणियायावसिओ अंबिदेवीइ अह मंतो ॥१॥ धुवभुवण'देवि संबुद्धि पास अंकुस तिलोअ पंचसरा । गहसिहिकुलकलअब्भासिअमायापरपणामपयं ॥२॥ 5 वागुभवं "तिलोअं पाससिणीहाओ तइअवन्नस्स । कूडं च अंबिआए नमु"ति आराहणामंतो ॥ ३ ॥ एवं अन्नेवि अंबादेवीमंता अप्परक्खा-पररक्खा विसया सुमरणाजुग्गा मग्गखेमाइगोअरा य बहवो चिटुंति । ते अ, तहा मंडलाणि अ, इत्थ न भणिआणि गंथवित्थरभएणं ति गुरुमुहाओ नायबाणि । एअं अंबियदेवीकप्पं अविअप्पचित्तवित्तीणं । वायंतसुणताणं पुजंति समीहिआ अत्था ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीअंबिकादेवीकल्पः समाप्तः ॥ 10 ॥ ग्रं० ४७, अ०५॥ - - ----- 15 ६२. पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारकल्पः' तथा पुण्यतमं मनं जगत्रितयपावनम् । योगी पञ्चपरमेष्ठिनमस्कार विचिन्तयेत् ॥ १॥ अष्टपत्रे सिताम्भोजे कर्णिकायां कृतस्थितिम् । आधे सप्ताक्षरं मन्नं पवित्रं चिन्तयेहुधः ॥ २॥ सिद्धादिकचतुष्कं च दिपत्रेषु यथाक्रमम् । चूलापदचतुष्कं च विदिक्पश्रेषु चिन्तयेत् ॥ ३ ॥ त्रिशुद्ध्या चिन्तयन्नस्य शतमष्टोत्तरं मुनिः ! भुञ्जानोऽपि स लभते चतुर्थतपसः फलम् ॥ ४ ॥ एतमेव महामन्त्रं समाराध्येह' योगिनः । त्रिलोक्याऽपि महीयन्तेऽधिगताः परमं पदम् ॥ ५॥ कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन समाराध्य तिर्यश्चोऽपि दिवं गताः ॥ ६ ॥ गुरुपञ्चकनामोत्था विद्या स्यात् षोडशाक्षरा । जपन् शतद्वयं तस्याश्चतुर्थस्यानुयात् फलम् ॥ ७ ॥ ॥ इति श्रीपञ्चपरमेष्टिनमस्कारकल्पः॥ 1Pa मित्त नास्ति। Pa चय। 3A P°कुल नास्ति । 4 P तत्तणयाई। 5A अंक्या । 6 Ps देवी इह। 7 P भुवगे। 8.A. Pa देव 1 9 Pa वागुभं चिंति। 10 A नमो। 11 B P नास्ति 'पररक्या' *चतुरशी तिमहातीर्थनामसङ्ग्रहकल्पानन्तरम् P सञ्जके आदर्श एष कल्पो लिखितो लभ्यते । अन्यसर्वादशेष्वनुपलम्भादत्र ग्रन्था न्तेऽस्माभिरय स्थापितः। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसमाप्तिकथनम्। ६३. ग्रन्थसमाप्तिकथनम् । *आदितः सर्वकल्पेषु ग्रन्थमानमजायत । अनुष्टुभां पञ्चत्रिंशच्छती षष्टयधिका स्थिता ॥१॥ कार्थी सजेत्'? किं प्रतिषेधवाचि पदं ? ब्रवीति प्रथमोपसर्गः। कीहा निशा ? प्राणभृतां प्रियः कः ? को ग्रन्थमेतं' रचयांचकार ? ॥२॥ -जिनप्रभसूरयः । नन्दा-ऽनेकर्प-शक्ति-शीतगुमिते श्रीविक्रमोर्वीपते वर्षे भाद्रपदस्य मास्थवरजे सौम्ये दशम्यां तिथौ । श्रीहम्मीरमहम्मदे प्रतपति क्ष्मामण्डलाखण्डले __ ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामभजत श्रीयोगिनीपत्तने ॥३॥ तीर्थानां तीर्थभक्तानां कीर्तनेन पवित्रितः। कल्पप्रदीपनामाऽयं ग्रन्थो विजयतां चिरम् ॥ ४॥ ॥ इति श्रीकल्पप्रदीपग्रन्थः समाप्तः ॥ ॥ ग्रंथान ३५६०६॥ * P आदर्श निम्नप्रकारेण पाठभेदो लभ्यतेऽस्मिन् पर्छ आदित [:] सर्वमध्ये (१) कल्पेषु प्रन्यायमिह जानत । अनुष्टुभामष्टयुता दशनप्रमिताः शताः॥ + C समधिका निमिः, Pa पश्यधिका त्रिभिः। 1A भजेत् ; P सजेत् । 2 Pa °मेते; AC मेकं । 3 Pa मण्डलेऽसण्डले। PaC ३५०३; B ३९६.। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ . विविधतीर्थकसे A. D. P. सञ्ज्ञकादशेषु प्रतिलेखयित्रादिसूचका निम्नस्वरूपा उल्लेखा विद्यन्ते । A आदर्शस्थ उल्लेख:श्रीमालीवंशमुक्तातः सञ्जातो विवहारिकः । देवा इत्यभिधानस्तत्पत्नी हासलदेव्यभूत् ॥१॥ तयोर्जाता पु(सु)ता एते प्रथमो मांडणाह्वयः। पद्मसिंहो द्वितीयोऽभूत् मालदेवस्तृतीयकः ॥२॥ लिखापितः प्रमोदात्तैस्तीर्थकल्पोऽयमुत्तमः। खकीयमातृपितृणां श्रेयार्थं पुण्यवृद्धये ॥३॥ षट्षष्टिवत्सरे जाते चतुर्दशशताधिके । श्रीविक्रमभूपालात् भाद्रशुद्धजयातिथौ ॥ ४॥ . . ___D आदर्शगत उल्लेख:अकब्बरोवारमणप्रदत्तजगद्गुरुख्यातिधरो बभूव । श्रीहीरसूरिर्विजयं दधानः श्रीवर्द्धमानप्रभुशासनेऽस्मिन् ॥१॥ तदीयपदाम्बरभानुमाली सूरीश्वरः श्रीविजयादिसेनः । तपागणं यः प्रथितं चकार विजित्य भूपालसभे द्विजौघम् ॥२॥ श्रीविजयतिलकसझे सूरिवरे तत्पदे श्रियं श्रयति । वैराग्यवासितान्तःकरणैः शुद्धोपदेशरतैः ॥ ३॥ हैमगुरुवृत्तिकाव्यप्रकाशमणिमुख्यशास्त्रनिष्णातैः । श्रीविजयसेनसूरीश्वरशिष्यै रामविजयबुधैः ॥ ४॥ पञ्चदशलक्षपुस्तकचित्को [शो] ज्ञानभक्तये विहितः। आचन्द्रार्क नन्दतु विज्ञजनैर्वाच्यमानोऽसौ ॥५॥ P आदर्शस्थित उल्लेखः॥ संवत् १५६९ वर्षे चैत्रादौ संवच्छरे । आषाढमासे । शुक्लप्रतिपद्दिने । सोमवासरे । पुनर्वसुनक्षत्रे । वैरिसिंहपुरे । श्रीमालज्ञातीय । बहकटा गोत्रे । महं० जिणदत्तपुत्रप्रवरमासादपौषधशालादि पुण्यकार्यकरण सावधानचित्त । सप्तक्षेत्रसफलकृत निजवित्त । धर्मधुरंधर । महं० भोजा भार्या वइजलदे पुत्र । एकांतदेवगुरुभक्त । श्रीशांतिनाथचरणकमलार्चनासक्त। महं० रायमल भार्या सरसतिपुत्र चिरं० लषणसी महणसी द्वि० भा० करमाई प्रमुष पुत्र परिवारसहितेन महं० रायमलसुश्रावकेण सर्वतीर्थकल्पग्रंथी लेष (ख) यित्वा दत्तः। श्रीखरतरगच्छे । पूज्य म० श्रीजिनभद्रसूरिपदे श्रीजिनचंद्रसूरिशिष्य श्रीजिनेश्वर सूरिशिष्य वा साधुकीर्तिगणीनां समर्पितश्च ॥ सकलसंघस्य शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु ॥ ७ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A. सञ्ज्ञकादर्शप्रान्ते निम्नोद्धृता ग्रन्थगतसर्वकल्पानामनुक्रमणिका लिखिता लभ्यते । (१) श्रीशचुंजयकल्पः । ग्रं० १३४। (२८) श्रीनाशिक्यपुरक०।०५९ अ० २७। (२) श्रीरैवतकल्पः । (२९) श्रीहरिकंषीपार्श्वनाथः । ग्रं० २५ । (३) श्रीउजयंतस्तवः। | (३०) श्रीकपर्दियक्षकल्पः । ग्रं० ४२। (४) श्रीउजयंतमहातीर्थकल्पः। (३१) श्रीशुद्धदंतीपार्श्वनाथकल्पः । ग्रं०१८। (५) श्रीरैवतककल्पः । ग्रं० १६१ अक्षर (३२) श्रीअभिनन्दनक० । ०५३ अ०१८॥ २७, चतु:कल्पसंख्या। (३३) श्रीप्रतिष्ठानकल्पः। ०४७ अ०१८॥ (६)श्रीपार्श्वनाथकल्पः संक्षेपः। ग्रं०९२॥ (३४) श्रीपरसमये सातवाहनकल्पः । ग्रंक (७) श्रीअहिच्छत्राक० । ग्रं० ३६ अ० १२॥ ११६ अ०९।। (८) श्रीअर्बुदकल्पः । ग्रं० ५२ अ० १६ । (३५) श्रीचम्पाकल्पः । ग्रं० ४७ । (९) श्रीमथुराकल्पः । ग्रं० ११३ अ० २९॥ (३६) श्रीपाटलिपुरकल्पः। ग्रं०१२५ अ०१९। (१०) श्रीअश्वावबोधक० । ग्रं०८२ अ०२०। (३७) श्रीश्रावस्तिकल्पः । ग्रं० ४२ । (११) श्रीवैभारकल्पः । ग्रं० ३१ अ० २। (३८) श्रीवाणारसीका ग्रं० ११३ अ०१३ । (१२) श्रीकौशाम्बीकल्पः। ग्रं०१८ अ०२१॥ (३९) श्रीवीरगणधरकल्पः । ग्रं० ६८ अ०। (१३) श्रीअयोध्याकल्पः । नं. ४४ अ०९ (४०) श्रीकोकापार्श्वनाथक० । ०४। (१४) श्रीअपापाकल्पः । ग्रं० १० अ० २१ । (४१) श्रीकोटिशिलातीर्थक०।०२४ अ०६॥ (१५) श्रीकलिकुंडकुकुटेश्वरकल्पः।०३५॥ (४२) श्रीवस्तुपालतेजपालकल्पः । ०५३। (१६) श्रीहस्तिनापुरकल्पः।ग्रं०२४ अ०११। (४३) श्रीचिल्लणपार्श्वनाथकल्पः । ग्रं० ११४ (१७) श्रीसत्यपुरकल्पः । ग्रं०१६१ अ०३। अ० २६ । (१८) श्रीअष्टापदकल्पः। ग्रं० ३० अ० २२। (४४) श्रीटिंपुरीस्तोत्रं । ग्रं० १६ । (१९) श्रीमिथिलातीर्थक०।०२४ अ०१८ (४५) श्रीतीर्थसंग्रहकल्पः।ग्रं०४९ अ०२२॥ (२०) श्रीरत्नपुरतीर्थकल्पः । ग्रं०३२ अ० २३। (४६) श्रीसमवसरणस्तवनं । ग्रं० ४३ । (२१) श्रीअपापाबृहद्दीपोत्सवः । ग्रं० ४१६॥ (४७) श्रीकुडुंगेश्वरपार्श्व०५५ अ०१८। (२२) श्रीकन्यानयनीय । ग्रं०७७ अ०१५। (४८) श्रीव्याघ्रीकल्पः । ग्रं० १४ अ० ४। (२३) श्रीप्रतिष्ठानपत्तन । ग्रं० १९। (४९) श्रीअष्टापदकल्पः । ग्रं० ११८ । (२४) श्रीनन्दीश्वरकल्पः । ग्रं० ४९। (५०) श्रीहस्तिनापुरस्तवनं । ग्रं०२१ अ०१६॥ (२५) श्रीकांपिल्यपुरकल्पः । ग्रं०३३ अ०७।। (५१) श्रीकन्नाणयवीरकल्पः। ग्रं० १०८ । (२६) श्रीअरिष्टनेमिकल्पः । ग्रं०३३ (५२) श्रीकुल्यपाकनमस्कार । ग्रं०१। (२७) श्रीशंखपुरकल्पः । ग्रं० २२ अ० २४१ (५३) श्रीमणिक्कदेवरिषभस्तुतिः । ग्रं०४। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्प (५४) श्रीआमरकुंडपद्मावती । ग्रं० ५९ (५८) श्रीमाणिकरिषभदेव । अं० ४४ अ० अ०२२। (५५) श्रीकल्याणकादिविचारः । ग्रं० १३ (५९) श्रीअंतरीक्षपार्श्वनाथ । ग्रं० ४१ । (६०) श्रीस्तंभनकशिलोज्छः । ग्रं० ६७ । अ०१५। (६१) श्रीकलिकुंडकुकुटेश्वरक० । ग्रं०३३ । (५६) श्रीअतिशयादिविचार।ग्रं०२अ०७१ (६२) श्रीफलवर्द्धिपार्श्वनाथक० । ग्रं० ५५ ॥ (५७) श्रीकल्याणिकस्तवनम् । ग्रं० ३६ अ० (६३) श्रीअंबिकाकल्पः । ग्रं०४७। (६४) श्रीसमाप्तिकाव्य ४। ॥ श्रीसमग्रग्रन्धा० ३९६० शुभम् ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पग्रन्थार्गतविशेषनाम्नां सङ्ग्रहः। Page #146 --------------------------------------------------------------------------  Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा. १८ २१, २२ अगर्षि विविधतीर्थकल्पग्रन्थान्तर्गत-विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः । * अकाराद्यनुक्रमेण * [ सङ्केत सूचना-(प्रा०)-प्राकृतभाषाशब्दः; (सं०) संस्कृतभाषाशब्दः; (या०) यावनीभाषाशब्दः ।] | अज्ज सुहत्थी . ३४, ४३ मभया [राज्ञी ] संग ६५, ६९ अज सुहम्म प्रा. प्रा. ३८ | अभिणदण जिण] प्रा. अजाहर [गाम] . भइमड़ा १०६ , नंदन [ जिन] सं. उज्झा [नयरी]. अजुण [पंडव] . | अमम अकस्थल अजुणदेव राया] . ५१ अमर अकंपिल गणहर]. ३२,७५, ७६ अट्ठावय [गिरि] . १०, १२, २४, अमरवाहण भग्गहार [गाम] . ११, ९२,९३, १०१ अंबड [सिरिसिरिमाल ] • अग्गिभूइ [गणहर] . [तित्थ] . १०४ अंबड [मंती] अटुिअगाम] श्रग्गिवेसायण [गोत्त]. . अंचा १६,२९ अणहिल [गोवाल ] . | अबाई अंगकुमार अणहिल पण अंबाइमा | अंबादेवी अंगजणवय । " पुर पट्टण . ५, १४,२७,४७, ५१, १०३, १०० , जनपद ६५ भणहिलवाड . अंबादेवी कप्प मंगदिका [ नगरी] . . , वाडय ५१,५५,७७ अंबादेवीमंता १०८ अंगदेस अणही अंबिअआसमपय अंगवीर सं० अणंत [ जिण] अषिभदेवी १०० अंगारक तापस अणत वीरित्र अंबिआ (या) अतनुबुक अचल ठकर . या० . ८,९,१०,१९ अंबिभापडिमा अचलभाय गणहर] प्रा. अतिमुक्तक [ केवली ] सं. , मंता १०८ अचल [सार्थवाह ] सं. | अनन्त [ जिन] . अंबिकादेवी अचलेश्वर अखिापुत्व अंबिणी अजयदेव [राया ] प्रा. | अन्निका मजयदेव [ साहु] . अपलभाय [गणहर]. अजागृह सं. । अनुपमासर अयोध्या सं० २,७३,८५,८६ भजित [जिन] . अंतरिक्ख अर [जिन] २५,७८,७९,८६, अजित-शान्तिस्तव . । पास प्रा. भजितायतन अन्तरिक्षपार्श्व ४१ भजिम प्रा. अन्ध्रदेश रिटुनेमी [जिण ] प्रा० ५१, ५२ अजिय [जिण] श. अपराजिअ अरिष्टनेमी , अजिय[संपाहिव] . अपापा पुरी | अरुणा [नई] प्रा. अजियसेणायरिय . ७१ अपावा , | अर्बुदकल्प भल चंदणा २३ अभय २१ अर्बुदगिरि भज महागिरि अभयकीर्ति मल्लविय चंस प्रा. अञ्च मंगु अभयदेवसूरि [हर्षपुरीय] • ७७ अलावदीन सुरत्राण या० ३०,५१,५० मज रक्खिय अभयदेवसूरि [नवंग वित्तिकर] प्रा०१२, मल्लारपुर प्रा. मज पयर १३, १०४,१०५ ववमा [नयरी] . २४,२५, ५० वि.क. १५ . A परवर प्रा. ६७ ६७,६८ . . १०३ . भरिट्ठ . P . . . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अवन्ति [ देश ] "" प्रा० [ पुरी ] भवरविदेह अवलोयण सिहर । अवलोकन शिखर ४० ] सं० अशोकचन्द्र सं० अशोकश्री [ मौर्य ] अश्वसेन [ राजा ] naraata अष्टापदगिरि अष्टोत्तरशतकूट असिकुंड [तिश्व ] प्रा० असि नदी सुं० अस्याचोड तिरथ प्रा० सं० Mo अहिच्छन्ना अहिच्छत्ता 13 कृप्प आइगर आइचजस आइजिशिंद तित्येसर 33 आगरा नगर आणंद आत्रेय आदित्ययश आदिनाथ आदिमात आदी पादुका आदीश्वर आचाईत् आंबा राजकुल भरिणि ग्राम आम [ पति ] आमरकुंडक आमराय भावारंगसुत आ SIT प्रा० आरासण ग्राम आर्यसूरि भार्यरक्षितसूरि आलभिया [नयरी ] प्रा० आलोचन [ तीर्थं ] सं० आवश्यक नियुकि भै० ० २७, ५७ आश्रमपद उद्यान ५८, ५९, ८३ | आसधर [ सेट्ठी ] प्रा० २० | असमित आसराज [कुर] सं. ६,८,१० आसराय [ पोरवाट ] प्रा० ६५ आसराय बिहार आससेण राया ६९ ७२ २२ ३,४, ५,३१, ६६, ८१, ८६ १ १९ ७२ २०, २२ ८६ १०६ १४ २४ ९३ आसावली आसीनयर विविधती कल्पे इक्खागुकुल इक्खागु भूमि इंच [ उक्षाय ] इवंदन्त [ पुरोहिr ] इइ [ गणहर] इदवायरण सम्म ईसर राय ईसर सा सामान १ उज्जयिनी ५ उज्जितगिरि ५८ ८५ उज्जेणी इ प्रा० ५६ २७ ९६ ४१ ४७ उग्गसेणगढ प्रा० २ उग्रसेन [ राजा ] सं० ८५ उमर्थतरुप्प प्रा० ३ उज्जयंतगिरि ० सं० [ईसाण [देवलोग] प्रा० [] इक्ष्वाकुकुल, वंश सं० ४,३३,५७,७३ ई २ उत्तर मथुरा ९८, ९९ उत्तरापथ १९ उत्तरा वायी १०५ ७ 29 ४ उदाई ७० | उदायी [ राजा ] २४ उदविहार २२ उपदेश पुर ३ उपकोशा [ वेश्या ] [मंती ] बच्छाव ० उ ० प्रा० SIT ७२ | उमास्वाति [ वाचक ] ७० वरंगल [ मगर ]] ३२, ५० उलूखान प्रा० ४५ या० ७९ उवएसवाल [ वंस ] प्रा० १० उशीनर [प] ० १० । २६, ५ ५० २४ ७१ १९ ३४, ७५, ७६ ૨૪ २९ २६ ५४ ८९ २१ १० ८५ ९ ४, ७, १०, ७९, ८५, १०७ ५९,८८,८१ ० २३, ४२, १०६ सं० उसभ जिण सामी १३ उसभदत्त उसभसामिपडिमा ६७,६० उसभा [जिणपडिमा ] उसड़कूड ऋषभ [ जिन ] ऋषभकूट ऋषभचैत्य ऋषभदेव प्रतिमा वाकुस ओंकार पर्वत ८, ९ कणयपुर ३४ | कृणयराय ऋषभपुर प्रत्यभसेन ऋषभा [[जिनप्रतिमा] • ककिपुत्त [ दत्त ] की [राया ] ए एक शिला [पतन] • एणा परावण [ गय ] प्रा० ६९ ९८ ३० १०५ ર ४० २४, २७, ९१, ९२, ९९ कणसुंदरी कण्ण कण्णउज्ज नयर कण्णदेव [१] कण्णदेव [२] ६७ ६०, ८५ १४ २१ २३ कण्णाणयपुर ४१ ह ७ ८५ करिसी ८६ कति [ सेट्ठी] ६९ [गिर] 0 सं० ० ओं क प्रा० प्रा० ० 1+ ३४ १०१ ९१ ९ २,४ १६ ८५, ९८ २२ १ ૪૮ ६९ १० ७२ ८६ ४१ ३९, ४० ३२ ३२ १९ २०, ४१ ५१ ५१ ३०, ५१ ४५,४६ ६, ११, १८ ४१, ५२ * ११,२७,४१ १ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः। प्रा. ९९ प्रा. काउज २८ कंबल-संबल १९ | कुबेरसेण कनाडदेस १.१ | काकतीय [ वंश] सं. कुबेरा कन्नाणयवीरकप्प ९७ काकन्दी [नगरी] . कुमरनरिंद कन्यकुब्ज कात्यायन . कुमरदेवि कपही [यक्ष] कादम्बरी [ अटवी] . कुमरसर कपर्दिनिवास कामदेव [श्रेष्ठी] . कुमारदेवी कपाट ___, [साहु] प्रा. कुमारनन्दी कपिल कामरूप कुमारपाल कपिंजल कामित्र वण प्रा. कुमारसीह [साहु ] प्रा. कप्पच्छेयरगंथ कायंबरी [अडवी कुमुअवण कप्फर या० कायाद्वार कुरुखित्त कमठ कार्तिक [ श्रेष्ठी] कुरुजंगल जणवय कमठासुर कालकसूरि । . कुरुनृप कमठऋषि कालगायरिय प्रा. कुरुराय कमढ कालमेह | कुरुक्षेत्र कमलासण कालवेसिअ [ मुणि] . कहीर देस कालिकाचार्य सं० कुर्कुटेश्वर कयवम्म कालिकादेवी . कुल्यपाकपुर कयंदास मंती कालिंजर तित्य] प्रा. , तीर्थ कार्यवासस्थक कालिंदी [नई] . कुशामपुर करकंड कालीएन्वय कुसस्थल करहेटक काशहद कुसुमपुर करहेडय काशिजनपद कुण्डग्राम करावल्लनारद काशी नगरी कुंडसरवर कर्णनृपति काशीमाहात्म्य कलावई काश्मीर कुन्ती कलिकुंड | कासव [गोत्त] प्रा. कुन्तीविहार कलिगिरि ६५ कासव [ सचिव] . ७. कुन्थु [जिन] २७,७८,७९,८६, कलिंग २५,६५, ८५ कासिदेस करिकपुत्र ४. कासी नयरी १२,१९,४२,५० कुंभयारकड [नयर] प्रा. कल्की [राजा] कान्ती नगरी | कुंभराय कल्पक । कांचनवलानक | कूणिक राजा कल्पप्रदीप ग्रंथ कोपील्यनगर २,८५ कूष्माण्डीदेवी कल्पनामृत | किन्नर यक्ष ३३ कृतपुण्य कलाणकडय [नयर] प्रा० ५४, १०१ | किष्किन्धा नगरी . कृष्ण कबड्डी जक्स कुकुडेसर [ तित्थ ] प्रा. केदार , महत्तर . कुटुंगेश्वर [ तीर्थ ] सं० ८८,८९ केलासगिरि कविल महरिसी कुणाल मौर्यवंश्य ] . केसरी कवडढ कुणाला विसय प्रा. केसरुजाण कंकतिग्राम कुतुलखान | केसव कंडरी कुरेर जक्ख | केसीकुमार [समण]. कंतीनयरी कुबेरदत्त १९. कैलासादि सं. कंदादेवी दत्ता १९ कोकभ [ सेट्टी] कैपिल्लपुर ५० | कुबेरदेवया . १७'कोकापासनाह (ក) ដែរ រកុមរូរពេក ७३, ७४ प्रा. (५ प्रा. __सं० २२, ६५,६७ सं. प्रा. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Do कोकाव सही कोकूति] [ कुण्ड] [सं० कोटिभूमि कोडि कोटि [गोल] कोतव कोटि [ मु]ि कोडसिला [ वित्थ ] कोडीनार [नयर] प्रा कोरिंडवण कोलवण कोलपा पत्न " कोला [ संनिवेस ] कोलापुर कोलासुर कोशलजनपद कोशा [ वेश्या ] कोष्ठक [] कोसलग सं० पुरनयर प्रा० कोसलदेस कोसलानगरी कोसलापुर कोसंबीनयरी कोलिदेखि कोटि देवकप्प कोडिभवण कौटल्यऋषि कौ भीषण [ गोत्र ] प्रto खरवण खसवाय सत्तियकुंड [गाम ] खरक [वै] खरतरगच्छ खरयर " खरय विज ० कौशल [प] कौशांबी नगरी कौशिकार्य क्रौंचद्वीप सितिप्रतिष्ठ [नगर] हिमवान् क्षेत्रपाल ० सं• प्रा० सं० प्रा० सं० ● स्व प्रा० सं० प्रা• ७८ | खित्तवा (पा) ल १६ ८६ ८६ ३२, ७५ १३ ५० ६, ७८, ७९ १०१, १०२ १०७ खंगारग २०, २१ | खंगारदुर्ग १८ खंगारराय ८५ खंडक् ६२, ८५ ६३ ३३ ६९ विकाशिखर ७५ |खंदगायरिय दारिय ७३ ४२ ९२ २४, ७५ ५७ २३, ७० ८, १०७ १०७ ९ ७३ ६९ ७२ खेड सेमरा २,६५,६६,०५ ६६ ८५ | २२ ७३ ८४ खुड्डाकुमार ला वीर १८ विविधतीर्थकर सोगे जहांडक या खोडिक संभा इंदपय [कुंड ] [देश ] गयउर गयासुर गागलिकुमार गिरिनार ०१९,२९,१०३, गुर्जरेश्वर १०६ | गोत्रम [गणहर] गिरिविदारण गुज्जर गुजरता गुज्जरदेस सं० प्रा० " धरा o ji सं० प्रा० ग राजपुर गजाब [तीर्थ] गजेन्द्रपद गजणवड् गणचरकुंड गणपतिदेव गहि [राया] प्रा० भाल [अणगार] प्रा० सं० प्रा० Q सं० प्रा० ७१ ६१ गोलम [ग] गोअमगंगा ८६ धरिती 33 ३४ गुणचंद [दिशेवर], २६ गुणशिल [ चैत्य ] सं० ९६ गुणसागर [ ] ४५ गूढदंत ४४ गुर्जरधरित्री सं० ५९ सोमालि ९६ गोदावरी [न] ६नोपरा १९ ५१ १० ३४ ९४ २७ प्रा० १०,८५ गोपाली [आार्या] [सं० ७ गोबरगाम ९ गोमदेव ५० गोमुहजक्ख २२ गोवा गिरि ७१ गोवालि [ अजा ] गोहद मंडल मोडदेश गौतम [गणधर ] गंगदत्तश्रेष्ठी در गंगा ९९ मंगाइ ३९ ५० १९,१७,४३ ५२ ५० घग्घरदह ७, ९, १०, १९, घयपूसमित्त ४६,७९, ९६ घयवसही ६ सिट्टी १६ ० २८, ४१, ४२, ४४, ५०, ७१, १२, १३ ७५ ५३ १५ ५९, ६१, ६३ २४ गंगासागर ईन गंधारीदेवी गांव सं० ७ २९ गंगा-यमुनावेणी संगम घरनद घंटसिला घंटाकर्ण महावीर घंटाक्षरच्छप्रशिला घुटारसीग्राम २९ १०४ ५१ ९, १०, २९, ३०, ५५ ५१ १०६ चम्मुद २२ चरासी २६ / चक्कतिव्थ ४१ | चकाउ [ गणहर ] ७९ स प्रা० सं० प्रा० सं० ० ७० २३, २५, ३१, ८५, ८९ ૪ २७ सं० SIT २६, ४०, ५०, ५३, ६५,६९,७२,७३,९२ O र्स ० प्रा० घ ཧཱུྃཕྲུལཿ॰ ༠སྦྲུཡཾ • च ७३ ७५ ८५ ૨૪ प्रा. १९ { * ८५, ८६ ९१ ८६ ३२ ३२ ૩૮ २४ १९ ७७ २३ ६ ८६ ७ ८९ ३९ ૧૮ १९ ܐ ७८, ७९ r Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रेश्वरी चणकपुर चर्मणवती प्रা० चाकर [स] चाणाक्य [शास्त्र] सं० चाणक्य [मंत्री] चामुंडराय चारुदत्त चारूप [स] चाहड साहु चिकू चित [] चित्रकूट चित्रकूट मंडल चिल्लणिभा [र] सिंद परिभभवण कुल चंद्रगुत्त राया चंद (न) बाला दह [जिय] चंदष्पद विहार चंदप्पा [शिबिया] चंद्रहा चंद्रप चंदेरी नवरी चंद्रगुप्त [ राजा ] चंद्रचूड [देव] चंद्रप्रभ [ जिन 3 चंद्रशेखर [ नृप } चंद्रानमा प्रतिमा चंद्रावती [ पुरी ] चंपापुरी ० उत्तविला प्रा० प्रा० २६ १०६ प्रा० ९,२५,५१,५५ १६ ४५ भै० प्रা 0 प्रा० सं० ० ० प्रा सं० प्रा० नगर चिंगली देस १०२ | जयतिहुअण थव चेलण (णा ) पार्श्वसं० ८१ ८२ ८४ जयराम [ राजर्षि ] चोलदेस जयसिंह देव [ चालुक] प्रा० से ४५ चंडप [र] ० D ३, ९७ २२ ८१, ८२ ० O ५१ ६९ ६९ ५१. जडदंस ३० ४१ १०४ २०, २० २३, ६५ [प्र.२९, ५३, ५४ प्रा० ५३ प्रा० ७९ १६ १४ छत्तावली छत्रशिला छायापार्श्वनाथ १६ ८९ १७ जमाती १२ जयघोष * २०, १०४ ज जहुतसीह [खेड़ी ] प्र जना नई vr ३,४० विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः । [गम ] जगह [गाम ] जगसीह [ संपद] ज [रामदत्त] जण थट्टाण जणयराया जणयसुया जया देवी जयंत जयंती जरासंध जरासिंधु } जस [पंडास] जसदेवी १६,७४,८५ २, ११, १२, २०, २६,१४, १५, १६,६५,८५,८६, जाम्बवली छ जयसिंह देव [मालवेश्वर]] सं० जयसिंह [ वणिक् ] . ज जसघई जसो भद्दसूरि जसोहर 11 ८५ ६९ जडल ७३ जाजा [बेट्टी ]] जायन [वंस ] सं० देवी [C] [सेट्ठी ] [] जान्हवी ० जिणदास ६, १० जिणदेवसूरी प्रा सं० २४ [सावय] Ято ७ ८६ ७८ १७ ११ ५१ ३२ ४६ २८ ४५ ५३ ३२, ५३ ३२ ९१, ९२ ७१ || जय (अ) सतु ७२ १० जग ( [ सू] १,१०, ) ह १४, २०, २२, २६, २०, २२, ४४,४५, ५०, ५४, ५५, ५०, ५७, ७७, ७८, ८८, ९३, ९५, ९७, १०२, १०३, १०४ जिनभर [समासमण] • १९ जिणवइ [ सूरि ] ४५ जिणसिंह [ सूरि ] ४५, ४६ जिजेसर [र] विश १२,१०५ डू १ जुगानाद ९,५१, ७७ जुष्णकूड ५८ जुण्णदुग्ग ६७ जुहिहिल ६७ जोज[ सुत्तहार] 75 ११ जोगराच ४१ जोगिणपुर ७५ | जूमिका ग्राम ११, २२, ५२ ज्वालामालिनी जंबुद्दीव ३९ ५० ० १०, ११, १२, ५४ ४३ २, ३, ५ ૪ * सं० ४, ६९ ८३ जिदास [ आवक 1 श्रावक ] जिनप्रभ [ सूर] ५, ७, १६, ४७, ४९, ५१, ५८, १४, १६, ७०, ७१, ७४, ८०, ८३, ८४, ८६, ८९, ९०, ९४, ९९, १०६, प्रा० १९, २०, ४०, ७०, ७१ जंबूद्वीप जंबूस्वामी ५१ भा ४१ २० टंका [स्थान] . ठाणानवंगवित्ती डाकुली भीमेश्वर डाहाग्राम १९ ४६,९५ | कणिनि [मार] प्रा Я ० ठ ० इ प्रा० १० ३७, ३८, ५३ ४५ ५१ ४५, ९५ २५ ८५ प्रा० १४, २०, २८, ५०, ९१ RT २२, ३८ सं. ૧૪, ૪૪ सं• ह ५ ० प्रा० ૨૨ १० ६ ८६ १०५ ८६ ५८ ७१ १, १०४ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ४१,५३ २७, ३० प्रा. ३८, ४० | दुबिहु ४४, ४५.४६ दिल्लीपुर ३०,४५, ४६, ९५ [ थिरदेव [ ठकुर] ९६ / दीवायण [ रिसी] प्रा. दिल्लीमंडल ४६ | थूलभद्द दीहदंत दिपुरी ८१, ८२,८४, १०६, | थेहसाहु | दुग्गासूअगाम दुजोहण [राया] . णंदसिरी | दम दुप्पसह [सूरि] . णायसंडवण | दउलताबा(वा)द या० दुबलियापूसमित्त दक्खिणभरह प्रा. दुमुह [राया] तक्खय , वाणारसी . दुखहराय तक्खसिला । दक्षिणभारत दुबय नरिंद . राक्षशिला सं. दक्षिण मथुरा तत्त्वार्थाधिगम [सूत्र]. दक्षिणापथ दुष्प्रसह [ सूरि] सं. संबयदेव दढाऊ प्रा. दूइजंतग [तावस] ताजल मलिक या. दप्पहारी दूसासण तापी नदी दत्त [कुलगर] देपाल [मंदी] वारणगिरि दत्त [ कक्किपुत्त] देल्हण [ सेट्टी] तालध्वज [ गिरि] . दत्त [पुरोहिअपुत्त] . देव १ ७५ | देव २ तालवण दत्त मिअजजणअ] . प्रा० तिला दधिवाहन [प] सं. देवई तिलंग ३१.९३ 'देवगिरिनयर . दमयंती . ९८, १०२ दशकंधर ६३. देवजानी तिविटु ८५ देवदत्त [ वणिक] सं. दशपुर तिसलादेवी दशबदन ६३ देवदत्ता [गणिका] . तिहुणा(गाय) [सेट्ठी] . दशवैकालिक [ सूत्र]. ६६ देवपट्टण प्रा० तिन्दुक [उद्यान] सं. दसग्गीय प्रा० ९३,१०१,१०२ देववाराणसी तिंदुगुजाण दसदसारमंहव देवसम्म [ निष्प] विकटगिरि दसबपञ्चय देवसीह त्रिशंकु नृपति] . दसवेआलिय [ सुत्त] . | देवस्सु तीरहुति [देस] प्रा० दंड [ अणगार] देवसेण तीर्थराज [पर्वत । सं० दंडगारपण ११ देवाणंद [ सूरि] तुगुलकाबाद दंडयराया ५३ : देवाणंदा दृकर्णकुमार ३३ देविंद [सूरि] तुरुक्कमंडल द्रविड नृप २. देवेंद्रसूरि दाई [जाई] प्रा. २८ दोणायरिय , राया दामोअ (द)र . | दोबई तुंगिन संनिवे] . दामोयर जायव]. तुंबवण [संनिवेस] . दारवई [नयरी] . १२ धणगिरि [मुणि] प्रा. तेजःपाल [मंत्री] सं० ४,१०, १६, | दाहिमकुल ४५, धणदेव विष्प] . द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका सं. | धणदेव सिट्ठी] . तेजलपुर द्वादशांगी धणमित्त [विप्प] . द्वारका धणय [जक्ख] . थंभणय-कप्प प्रा. १०४ द्वारवती धणवह [संजत्तिा ] . " पास | दिन्न [तावस] ९३ धणेसर [सत्थवाह ] . • १२,१३,१०४, दिअंबर ४६ , [नेगम] . १०५, १०६ दीनारमहामलिक या. ९५, धनमित्र ६९,८३ २९, १०६ प्रा. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनी धर्मतरिकूव धम्पि धनेश्वर धम्म धम्मपोस [ मुणि] धरमपोस [] धम्मजस [ मुणि] धम्मदत्त धम्मपुत धम्मराय धम्मरुद धम्मिल धरण [देव] धरणिंद " प्रा 23 धर्मश [ मुनि ] धर्मराज सं० प्रा० ० नकुल नगरमहास्थान नगाधिराज नडुलमंडल ० ० प्रा Q धरह धर्मऋषि धर्मकीर्ति धर्मचक्र धर्मघोष [ सूरि ] धर्मघोष [गुण ] धर्मदत्त [ कल्किवंशज ] धर्म [न] धर्मनाथ [ जिन ] • चैत्य धर्मरुचि [ मुनि ] धर्मेक्षा [ संनिवेश ] धवल [ सिरिसिरिमाल ] प्रा० ० (क) पुर ० धवलगिरि धाराडग्राम सं० धाराधर [ जोइसिअ ] प्रा० धारा सेजय [ ग्राम ] धारिणी [ राणी ] धंधल [ सिरिसिरिमाल ] . धांधूक [राजानक] सं० • १२, १४, १७, २४,२६,५२, १३, १०३, १०६ सं० 0 न १९ १४ २२ १३ सं० ४१ १७, ७३ १०६ नमी [ महाराय ] प्रा० } नम्मया [ नई ] ३] [देव] नरवाण [ राया ] प्रा० ฿ प्रा० ४३ १५, ५० ७५ ११ ४० २७, २० नर्मदा नदी] नवगवित्ती ३१ ८१ 31 ८५ ३१, ८८ विशेषना सङ्ग्रहः । मि विनम - नमिनाह [जि] प्रा. 33 नमुद्द नमुचि ४५ २५ ७१ १०५ १६ २० ८५ नाइल [स] नाऊ ७३ ४, ६९ ८१ २२.८६ ३३ नायग[सावग ] ७३ नाय सुअ २३ नारद [मुनि ] ७२ ૪ नारय [रिसी ] ९ नारायण १२. ७९ नाद याम नामराय [देव] नागार्जुन नागकुमार [देव] सं० नागकुण प्रा० नागद्दह नागद्दद नाणक प्राम माणसा नाभि [ राजा ] नाभिरायमंदिर ५० नासिगतिरथ नाभिसूनु नाभेय नाथग ५७ नासिकपुर मासिवधपुर नाइडराय विकासा निप्पुलाम निम्मम सं० प्रा० 0 १ २८ | मिमंदिर सं० प्रा० सुं सं० प्रा० प्रा० सं० २० प्रा० प्रा० २, ४ नेमिमुसि ३२,७८, नंद [] ७९, १०१ नंद नाविक ] २२ नंदण २७ नंदण [ मुणि] नंदराय नंदश्री सं० प्रा० ४२, ९४ २० २० नंदा ३९ ८५ १३ ४० नंदिण ५४ नंदिपन २२ मंदि ૨૪ ८९ 33 32 १२, १०४ नंदिसूरि १०६ नंदी ४१ ७७ ४२ १, २ ४१,५१,१०१ मं ८६ मंदीवरद्वीप ७७ नंदीसरदीव ८६ ८६ ८,९ ९४ पउमत्थक पउमनाह १,२,५,१५,८८,९७ परमप्यद [जिय] पउमपुर निवाणसिका ० निन्दुई [ रायका ] [जिन] १, १, २, ४, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १५, १९, मि ६७, ८६, ९९, १०४, १०७ [ श्रेष्ठिनी ] पट्ठाणपुर पडम 23 [देव] १७ २२, ३४ १२ ५३. पद्मनवार ५४ पजोजराय ८५ २८ प्रा० सं० ४१ ४१ | पहवाहणकुल ४१| पविमभूमि ८ | पद्मद्रह १९ पद्मनाभ पद्मप्रभ प्रा० पजोसवणाकम्प पण [ अणहिलपुर ] Ято सं० प्रा० ७५ ७३ ४१ ४२ सं० १५, ८५, ८६ २, २२ प्रा० सं० प्रा० प это पउमासण সা० पदमसिंड [नयर] • परमुत्तर [ राया ] पाण्ण ० [देव] ० ११, १२, १४, ५२, ७७, १०१, १०३, १०६ ५३ २० * १० ♦ २३ ९६ ५१ सं० पद्मावती [ राज्ञी ] 33 [ देवी] १५ | पचन [ अणदिनपुर J G १४ ६८, ६९ ७२ ४१ २० ३८, ३९ ७३ २२ O ४१ ४, ७, ४८ ९१ २०, ४६ ૪૧ ५७ १८ ४१ २३ ५३ ७७ ૩૪ ७३ १, २ ८५ ६५ ८४,९८, ९९ ७९ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे ७१ प्रा. Vv १०५ are this it dainindia प्रा. पभावई प्रा. ३२ , बिंद ७४ पुंडू पर्वत सं० पभास [गणहर] ७५,७६ , भवण प्रतापरुगनृप पयाग [वित्य] , वाडिया प्रतिष्ठानकल्प परमड्डी [राया] पिअदसणा [अजा].. , पत्तन परमारवंश १६ । पिठर राय "पुर ४७,५९, ६१, परसुराम पिट्ठी चंपा [नयरी] . पर्वतक [राजा] पीठजा देवी प्रद्युम्न पल्ली ग्राम पीघड प्रभासस्थान] ८०,८५ पल्लीवाल वंश पुक्खल विजय प्रभास [गणधर] . पवर नयर १०६ पुक्खलि सावय प्रयागतीर्थ पन्बईपडिमा पुण्ण [राया] प्रागवाट [वंश] पहराम पुण्यपाल [रया] प्रातिपदाचार्य पाटला नगर सं० पुप्फचूल प्रियंगु पाटलिपुत्र पुरिमताल [नयर] . प्रोल्लराज पाडलिपुत्त पुरंटिरित्तमराज सं. पाडलिपुर) पुष्पकेतु [प] सं. फरगुसिरी पाठिवयायरिय पुष्पचूल [राजा] . ६५,८१ | फलचदिम(दी). ०५ पाणयकप्प पुष्पचूला [ राशी] . ६५, ६८, ०१/ फलवद्धि तित्य . पाताललंका पुष्पभद्र [पुर] . पाताललिंग , देवी पुष्पवती [राज्ञी] पादलिप्तपुर | फलवदिका पुहविराय फलवद्धिपाव १०६ पादलिप्साचार्य पुहवी [राणी] पापापुरी पुहवीपुरी पापामढ प्रा. पूहकर [बिल] पायाललिंग , [मातंगऋषि] पूर्णभद् [चैत्य] पारकर [ देश] सै. " [विप] पूसमित्त पारेत जनपद] . बलए (दे)व . पृथ्वी [ राशी] पार्श्वनाथ बलमित्त [राया] पृष्ठ चंपापुरी ७२, ५३, ८१, ८६, पार्श्वनाथचैत्य पेढाल बप्पहट्टी सूरि __, बिंब पेथड साहु | बहल [ विप्प] पोटिल पालग(य) राया प्रा० ३८,७१ बहिर्मुख पालित [वणिक] सं. पोस्वाड [स] . बहुलावण पालित्तयपुर प्रा. पंचकलाणय [नयर]. बाणगंगा [नई) , सूरि .६,१२,९६,१०४ पंचवडी वाणज्जण पंचाल पालित्ताणय बाणारसी १.६ पंडव पावापुरी . १२, ३४, ४४ बाणासुर . पास जक्ख पंदुराय . | बारवई [नयरी] प्रा० ५२, ५३, १०४ पासनाह पांडव प्रा. ११, १२, १४, २,४, २५, ८५, बाल मूलराय १८,२५, २६,४५, ५१.५२. पाडकुल | बाली पिंखिकुंडिमराज सं. बाहडदेव प्रा० | पुंडरीष [गणहर] प्रा. बाहुबली १,२५, ३१,८५ पासनाह चेईय प्रा. १४, १०६ | पुंडरीक [गणधर] सं० ३१, ८५ बिंदुसार - पडिमा . १३, ५५, ७७, | पुंडरीक [पर्वत] सं. १, २,३,४,५ विभीसण प्रा. १०२, १०५, १०६ । पुडवणदेस प्रा. ४१ | बिल्लक्खय ब ३६ बल बली १०४ ११ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः । ९ बंभ ८८ बिल्लवण प्रा. १८. माणुमित्त राया ] . । मयणावली बुद्ध भानुकीर्ति आचार्य] सं. ५८ | मरहट्ठ जणवय] भानुनरेन्द्र , मंडल। . बुद्धभत्त भारतवर्ष . ३३, ८१ मरुदेव पर्वत] सं. बुद्ध [सिद्ध-बुद्ध भारदाय [गोत्त] प्रा. ७५ मरुदेवा [राज्ञी] . १,२,४, अंबायुत्त] ७,१०३, १०७ मरुदेविपासाय प्रा. भारह खंड . मरुमंडल बृहस्पति | भारह वास) . २०, ३२, ३५, मलधारी [गच्छ] सं० मोहित्यसाहु मलयगिरि [पर्वत]. | मावड साहु प्रा. मलयासंह बंभकुंड , साधु सं० मलिक ताजदीन या. बंभगिरि भिउडी [अक्ख] प्रा. ३२ | मलिक काफूर . भदत्त ५०,७१ | भीम मल्ल संभसंति [जक्ख] भीम [पांडव] । मल्लभ [सेट्ठी] बंभाणगच्छ भीमदेव [राजा] ५१, ५५, ७७ | | मलाई [राया] भाणपुर भूलहराया मल्लदेव भूअरमण [उववण] . मलवाई [सूरि] भूतदत्ता मल्लि जिण . २७, ३२, ७८, भगीरथ भगीरह। प्रा. भृगुकच्छ | महणिगा मदिवाकर सं. महणियास्य मेद] सं. महारय सराई महणदेवी भइ [रायपुत्त] भोपल [रायधूना प्रा० १०४ | महणसिंह महकर भंडीरवण महम्मद पातसाहि या. भइसेण __, साहि . भदा महिमा [नयरी] . मइसार [मंती] प्रा. २० " सुरत्ताण . भहिला [भणी ] . मगदण [चंडाल] . , हम्मीर भवबाहु [स] से. मगदुमई जहां या० ९६ । महसेन वन सं० मगध [तीर्थ] भद्रसेन [ श्रेष्टी] . | महसेण वण सं. प्रा. भद्रा कामदेवपली]. मगह [ देस] महाकाल प्रा. ७५, ७८, ९२ मघव नृपति] सं. महागिरि सूरि] भद्रा [राजकन्या] . मज्झदेस प्रा. महायल भदिला [नगरी] . मज्झिमपावा नयर] • ३४, ४४, ७५ महानगरी भरत [शास] . मणिकर्णिका सं. महानिसीह [सुत्त ] . १९,४० भरतचक्रवर्ती . | मणिप्रभ [देव] भरतेश्वर महापउम . . २७,४१,४३ भरह खित] सं. प्रा० मत्तगयंद [जक्ख प्रा. १२, ७८ महापम [चक्की] भरह [चकवटी] . २४, ९१,९२, ९३ मतुंटक [स्थल] सं० महाबल भरहवास . १४,२७ मथुरा पुरी महाबाहु भरहेसर . २४, २७, ९३, मदन [ ठक्कर] सं. महाभारह प्रा. मदन वाराणसी . महालक्ष्मी देवी सं. मरुभच्छ [नयर] . १९, २०,२७ मनक [मुनि] . भवन. माइलस्वामिगत सं. मधुमती [ नगरी] . महाराय [साहु] प्रा. भागीरथी . | मम्माण शैक ३ | महाराष्ट्र भागीरही प्रा. २७ | मयणरेहा ३२ | महावण वि.क.१६ म प्रा. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधतीर्थकल्पे । ४७, ८६ | युगादीश ३. | योगिनीपत्तन . . प्रा. 544 मेघनाद रणसीह [रायपुत्त रत रत्नपुर रत्नमालपुर रखवाह (हपुर) रत्रशेखर स्थनेमि रवण रयणाच रयणासय [देस] रहमाण मेहनाद रहुवंस राईमईपडिमा राजगृह [नगर] . सं. ३, २२, ६५, १९, ८६ ७५, ७६ महावीर २३, ३२, ३४, ४४, । मुनिसुव्रत सं० मुहासय [नयर ] प्रा. महावीर घंटाकर्ण सं. मूल देव , प्रतिमा . मूलराय , विष . मृतगंगा महासेण वण . प्रा. मेअज [गणहर महिसगाम | मेघ [कुमार] महिहर हत्थी] मेवघोष महीपति [राजा] सं. मेषचंद्र महुमण महुर कप्प मेडत्तय [ नयर] प्रा. ,तिस्थ . मेदपल्ली महुरा [पुरी] . . १८, १९, ३९, | मेरु [पर्वत ] मेवाड[देस] महुरा कप्प मेहघोस तिस्थ , संघ | मैनाक [ पर्वत] सं० १८ मोक्षतीर्थ .. महेठ गाम | मोखदेव सावग] प्रा. माणिक [ साहु] मोढेर (रय) गाम . माणिकदेव । . . १०१, १०२ | मोरिय [विप्प] . माणिक्यदेव । सं. मोरियपुत्त गणहर]. माणिक्यदंडक . मोरियवंस . माणिभद्र [यक्ष] . मोरियसंनिवेस . माणिभद्द [जक्ख] प्रा. मोहडवासक मंडल . माधवराज सं० मौर्यवंश . मायलि 11 मंगलपुर .. मायासुर ६२,६३ मंडलिकराग . प्रा० मालव ९,५७, ५९, ६. मंडली नगरी , नरेंद प्रा० मंडिअ [गणहर] . ,, अहिवइ . मंडोवर [नयर] . मालि मंदाकिनी माहणकुंड गाम . मंदोअरी प्रा. माहव [मंती] मंदोदरीदेवतावसर सं. माहेंद्र पर्वत] मुंडस्थल मिगावई मिच्छराय मिथिलापुरी । सं० यक्ष दत्ता मिहिला , प्रा. १२, ३२, ३४, यक्षा। ५०, ५३, ४५ | यमुनाद मुक्तिनिलय [पर्वत] सं० १ यवन मुग्गिलगिरि प्रा. यशोमित्र मुणिसुध्वय [जिण] प्रा० ११, १९, २०, युगादि-जिन। .. २५, ४१,४३, ४६, , नाथ . ____७८,७९, १०१ युगादिदेव चैत्य . . राजधानी वाराणसी. राजप्रासाद . राजीमती गुहा . ११, १४, ३२, ३९, प्रा. १०२ रामदेव [ सेट्ठी] प्रा. ४५, ७७, रामपुरी रामशयन [प्राम] सं. रायउरी " प्रा. ७५, ७६ रायगच्छ रायगिह [नयर] प्रा० ३४, ५२, ४१, १५, १६ रायगिहि १०१ रायभूमि सयमई गुहा रावण ३१,५३, १३, १ राष्ट्रिक राव रिसहजिण रुक्मिणी प्रा. रुद्रक | रुद्रदेव [द्विज ] . " [राजा] . १६ रुद्रमहादेवी . . ..... Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः। ११ ६५ वणराय प्रा० ४३ रूप्यकुंभ ६५ / वज्झ () [देस] प्रा० . ९२ वाराणसी [नगरी] ७२, ७४, ८०, ४५, वज्रसूरि ) रेवई वज्रसेनरि वाराणसी, राजधानी सं० रेवइगिरि वज्रस्वामि ) , मदन . रेवय, सिहर • ६, ९ १२, १०७ वज्रहृदय , विजय . रैवतक वडथूण [गाम] वारिषेणा प्रतिमा ] . रोहणादि वट्ठमाण [गाम] वारिसेणा पदिमा प्रा० रोहिणी | वालक [जशक्य ] . रोहिताश्व ७४. वत्थपूसमित्त वालि [ महरिसी] . रोहिणेय वरथुपाल [मंती] वालिखिस्य रंका सेट्ठी] वद्धमाण [जिण] . २३,२९,३४, ९२ 'चालु रंतिदेव बद्धमाण [सूरि] . २९, १०४ वासुई। प्रा. रैतिनदी वद्धमाणा पडिमा . ९१ | वासुगी वप्पादेवी वासुदेव २८ | वासुपूज्य [ जिन] ] सं० ६५, ६६, ८५ लक्खण वयणपगाम प्रा. वयरसीह वासुपुज्ज [जिण/प्रा. लक्खाराम | वासिह गोत्त] कक्षणावती [पुरी] सं. वरणा [नवी] वरुण वासेसी लक्षाराम विउत्त [गणहर] लक्ष्मी [ राज्ञी] १५ वरुणदेवा . विकटधर्म लच्छी [राणी] वरुणा नई प्रा. । वर्द्धमान [जिन] सं. विक्रम वर्द्धमाना प्रतिमा . विकमपुर रुवणसमुह विकमराय लाटदेश वलभी नगरी] सं. वलही नयरी , वच्छर लाडदेस वल्लभराय लिच्छई [राया] . , परिस खूणप्पसाय ! राया] . , संवच्छर १९,७८ वशिष्ठाश्रम | विकमाइच ३८,३९ लूणिगवसति सं० वसंतपुर विकमाइदरिस लोगदेव प्रा. वसाड प्राम | वसु विप्प] ., वत्सर लोहजरायण वसुभूह |, वर्ष छोहासुर वसुभूति [मंत्री] सं. विक्रमादित्य ०२,५९,८८, लौहिस्य [पर्वत ] सं० बसुहारगाम प्रा. विक्रमान्द लंका [पुरी] ५३, ८६,९३, १०१, वस्तुपाल [मंत्री] सं० ४, ५, ७९,८० विक्रमोर्वीपतिवर्ष . वाइअ [खत्तिय] प्रा. ५४ विजा प्रा. किंबोडय [गाम] . वाउभूह [गणहर ] . ७५, ५६ विजय [निव] वाग्भट [मंत्री] सं. २,३ विजयघोष वाघेला [ वंस ] . विजयदेवा बइजा [वणिक वाणारसी [नयरी] . विजय वाराणसी . वाणिअगाम विजया वहरुटा [देवी] | वारस्यायन [ शास्त्र] सं. ६९ | विजातिलय [ मुगि] प्रा. बम्गर [देस] . वापला वीर विजादेवी . . पच्छ [ देस] . । वामणथली विजापाहुन बच्छा [जणवय] २३ वामा [ राजी] सं. विणीया[नयरी] बजजंघ । घायर गाम] प्रा० । विण्डकुमार २७,४३ वलि विक्रम कोहगंध .ई 4 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ विदेह विद्यानंद विनमि विमल विमक जिन विमल [ दंडनायक ] [सं० विमलयश [ भूपति ] विमवसति विमलवाहन विमलवाण चिमरि मिला विश्वेश्वर विरसमूह विरति [] बिसालसिंग निष्पद्द कि नई वीतभयपत्तन वीर [जिन ] विरंचि विवाहवाटिका [म] से० विष्णुगुप्त विष्णुपरि विष्णुमुनि विश्वनाथप्रासाद वीरबिंब वीरभवन सं० वीरवद्धमाण चीरविहार वीरथल वीरधवल बीरनई बीरुणी बीसलदेव वीरवत्य सं० वीरधूभ प्रा० वीरनाह वरिस • वृषभ वृष्णि कुंत [वित्य ] सं० ४ प्रा० २४, ४०, ४१ ५७ प्रা* २,१२ | वेई [न] २१ नेणा २, ४ ४१ ० प्रा० ५० ८५] [नवरी] १६ बेटा [नयर ] ८१ १६ 33 वैरस्वामि १,२,३, १२,५६, ९० वैरोच्या [ देवी ] ५२ कचू ६४ पंकज [राया ] ६९ बंदेस ९८ वंचना ९४ ७४ ८५ १९ १९ 4 ९५ ८ १०, ५१, ७९,८० वैभारपम्यय वेपन्य विविधतीर्थकर सं० ८६ १, ३, ४, १९, २२, २८, २९, ३०, ३१, ४६, ५०, ६५, ६६, ६८, ७१, ७३, ८१, ९९ १६ ४४ १८ १९ शत्रुंजय कल्प १०५ | शत्रुंजयमाहात्म्य १९ शत्रुंजयावतार ९६ शय्यंभव १८ शराविका पर्वत शाकपाणि वैक्रम क्रसर वर्ष 39 वैक्रमाब्द वैभारगिरि ५१, ८०, ८८ कवप विंझराय विंदावण विंध्याचल शकटाल शकवरसर शकाब्द शकुनिका बिहार शक्तिकुमार शक [ इन्द्र ] शक्रावतार चैत्य ९३ शातवाहन ७५ शालिभद्र शिवानु ४ शीतलनाथ ४ शुक १९ शूद्रक प्रा० सं० Si *• श ०३, २२, २३, ८६ शांतिनाथप्रतिमा २२ | शांब ३, ८५ श्रावस्ती [ नगरी ] ४ श्रिथक सं० ८, ९, २९ शेष [ नागराज ] ६९ शैलक ० ७७ शोभनदेव शीर्ष पुर ३४ शंकरपुर शंखवाल २१, ४० ७० ५ शांति [ जिन ] २३ १६ | शांति चैय ८१, ८४ श्रीदेवी १९ | श्रीपर्यंत ७३ श्रीपुंज [ राजा ] २८ श्रीप्रभ १८ | श्रीमाता [ देवी ] ८५, ८६ | श्रीमापत्तन દુઃ ८४ १६, ९४ ७३ सक्कावयार ટ सगराया 33 तीर्थे शतपत्र [ गिरि ] शत्रुंजय [ गिरि] ० १, २, ४, ५, ७९, • १ ८५, ९० ५ श्रेणिक [] श्रेयांस [जिन ] श्रेयांस] [] ८८ विहार ६४) सकुनी चैत्य २, ४ स सगर नृप 39 चकवट्टी ६१, ६४ सग्गवुवार सच्चाई ३ सच्चाउर ७ सचासेरी ३२, ६६ | सज्जन [ दंडा हिव ] ८१ सर्णकुमार समर २ समर सी ८५ सत्तसय [ देस ] ४७ | सतुंजय [ गिरि ] २२ सत्यपुर ७ सनत्कुमार [ चक्री ] ८५ स ५९ २ १६ ३,०६ ६५ ८६ २, ४, ८५, ८६ ૨૪ २, २, ८५ ६९ ६३, ७३ ८०, ८६ ८६ १५ * १५, १६ ८६ • २२, ६५, ६०, ७३ ८५ ४, ९४ प्रा० सं० о सं० प्रा० सं० ९८ ७ SIT समवसरणरयणाकप्प • २०, २१ १,१९ ३९ २,३१ ९२, ९३ ४१ २८, ३० ४० २७ ३०, ५७ ४६,५६ ४,८६ * ५ ३० .. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समसदीनसुरत्राण या० प्रा० समाहि समुद्रविजय समुदस समुद्रपाल सवग पति समदारपुर सपालि सपाणिभ सर्वपक्ष सयंभूदेव सर्ववर वाची सरऊ नई सरस्थान सं० सरस्सई [ नई ] | प्रा० सरस्वती नदी] सं० सवाल क्वदेस प्रा० सब्वाणुभूह प्रा० सहना [स] सहदेव सहसंय वण सहसास [वि] सहस्त्रकमल सहस्सधार सालकुंड सं० प्रा० सहस्रपत्र सहस्रफणी [पार्श्वनाथ] सहस्राभ्रमण सातवाहन सामंतसीह सामिणी प्रा० सायबुद्ध सारंगदेव सं साकेअ (य) नयर • सागरदत्त .. सं० प्रা० साल-महासाल साळाहण [ राया ] प्रा० सालिभइ साथ [नयरी ] सावस्थिमहातित्व साइण साहवदीण सुरताण या० ६५ | सासदेवा ४१ देवी १०, १०४ ७० ६६ ४१ ४१ ४१ ૪૧ १३ सिद्धा ૨૩ सिमंसकुमर सित्तन [ गिरि ] सुंज सियार ६ | सिद्धार्था [राज्ञी ] २४ सिद्धि क्षेत्र ४१ सिद्धसेन दिवाकर० १० सिद्धार्थ ८६ सिद्धिपर्वत ५१ सिद्धिशेखर २२ सिरपाल ९५ सिरपुर ટ ६, १० ८६ विशेषनाम्नां सङ्ग्रहः । सिरधराय सिद्धत्थवाणि १०५ सिरिचंद ४१ सिरिपव्यय ૩૪ ३२ २४, ९१ २० २, ५९-६४ ५१ १० सिद्ध-बुद्ध [अंबापुत्त] ७, १४, १०३, १०७ सिद्धखित १४ ३४ ૪૪ सिरिभूह ८ सिरिमालपुर १०६ ४१ ३०,५१ [ गिर ] } " १ १ सिरिसुंदर सिरिसोम सिरोह नयर सिलाइच [ राया ] सिवा ३४, ७० " सिर्वकर सीतादेवी सीतादेवी देवतावसर सीया सिरिसिरिमाल [स] • ५० १०४ सहरह J¥ देवी ७१ सुग्गीव कुंड सीलभद्द [] सीलकायरिय } सीह निसिजाग्रयण ४५, १०६ | सुदाम प्रा० Q ० सुजात ७१ सुतारा [राज्ञी 1 ४६ | सुदर्शन [श्रेष्ठी ] प्रা १९ सुदंसण १२ सु २७ सुद्धदंत २१,५६,९६नी नवरी १९ सं० ८८,८९,१६ २५ ५७ १,५ ร प्री० १ १०६ २०, ११, १०३, १०६ ४१ २९ ९, १०५ ५३ ४१ ९५ २९ १०२ ४१ सुम्म [गणहर] सुनंद ( १ ) (3) 19 सुनंदा सुपइठ सुपार्श्व [ जिन ,, स्तुप [ मंती ] सुपास सुपास जि सुपासपड सुपणा सुपभ सुबुद्धि सुभद्रा सुभूम सुमइ [ जिण ] सुमतिनापपादुका ० सुमालि सुमित्र सुमुष 13 सुमंगल सुमंगला सुरहा [ विसय ] सुरतागसराइ १० १०५ सुरता सहावीप सुरदेव प्रा० २४, ३२, ५३ १०१ २४ १०६ सुलसा सुवणरेहा [ नई ] १०५ २४ सुवण्णवालु [,] ४३ प्रto सं० सुराष्ट्रा [ देश ] सुरिंदद ..... सुवर्णकुंभ ४१ सुविधि [मन] ६६ सुवत [ जिन ] ७३ ७४वतादेवी ६५ ६९ सुवय [जिए ] ४१ सुधारिय प्रा० सं• सं० प्रा० • ६१ ८५ सुरम्मा [नयरी प्रा० सुरसिद्ध SIT याο ० ६५ २७, ९४ प्रा० २४, ९१, ९९ सं• प्रा० D सं० १३ মা ४१ २१, ४२ ૪૧ ५७, १०६ ७५ ७६ *† ६६ ९२ २६ ७२ ८५ ४१ १७, १९ ૨૭ ५३ ४९ 11, 16, 13 ८५ १०१ २२ ' 69 ८, ९, १०७ ४६९६ १०६ ४१ २१ २० ७, ७९ १९ ४१ १० ६ ६५ ८५ २२,५९,९४ ' २०, २१ २३ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विविधतीर्थकल्पे सं० 16,09,86 52 | स्तंभतीर्थ 19, 21 | खंभनक / 14 106 स्थूलभन्न स्वर्गारोहण चैत्य اي हडाला ग्राम हस्थिणाउर प्रा. 25,43, 91, 29,3. 70,85 द . . सुस्थिताचार्य सं. 69,81 | संखपुर सुइखि [सूति] . 69 संखराय सूभगर [सुत्त] प्रा. .5 संखावई [नयरी] . सूभरखित संखेसर सूरसेण / , पासनाह सूरसेन संगम सूलपाणी [जस्व ] प्रा. संघतिलय [ सूरि ] . सेभेवर संघदास सेगमती प्राम संजय [राया] सेती नदी संति | जिण] सेणा नई संतिसूरि सेणिय [राया] संधीरण सेरीस संपइराया / सेरीसय सेरीसयपुर) संप्रतिराजा संबकुमार सेवालितावस संभव [जिण] मेस [णागराय] . , नाहपडिमा . सोधतिवालगच्छ संभाण गाम / सोपारय] संमाणय, सोपारक संमुह / सोम संमुचि सोमदेव संमेल (य)गिरि प्रा० सोमनाह संमेततिरि। सोमभट्ट 107 ,शिखर सोममंत्री ,शैल) सोमस्ति संवर राज सोमादेवी संवाहन [नरपति ] . सोमेश्वर [कवि] . सांगारक [तापस] . सोरह प्रा. 9, 19,30 सांबदा ग्राम सोपक्षिय [गोत्त] . 77 सिंधवा [देवी] सोहम्म [देवलोग] . 11, 20, 104 ! सोहम्मद 25, 32 सिंहगुहा [पल्ली] संकर [ शया] संकरिसण | सिंहपुर संख (1) सिंहरूदीव] द्वीप संखउर सिंहलेसर संखकूव सुंदरवाड MSK. of 8. हस्थिसाल [राया ] . | हत्थी [राया] हम्मीर या• , महम्मद हरिएसबल प्रा. 6,10 हरिकंखी [नयर] . हरिणेगमेसी . हरिभद्द [सूरि] . हरिश्चंद्र हरिसउरीय [गच्छ] प्रा. हरिसेण 10, 13 हरिहर 3, 33, 72 | इल-बिद्दल 86, 94 हवस मल्लिक हस्तिनापुर हस्ती [ नृप] हारिम [गोत्त] प्रा. हाल [क्षितिपाल] सं. 89 | हालाक [ साधु] हिमाचल | हिमाद्रिज | हिरण्णगम्भ प्रा. हेमचंद सूरि] (1). 3, 85, 86 // (२)मलधारी. | हेमसरोवर हेमंधर 21 हंसद्वीप 41 | इंडिय [जक्स प्र. या. 50 सिंधु सिंहनाद