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प्रास्ताविक निवेदन । कल्पोंकी नामावली प्रकाशित की* तबसे इतिहासान्वेषक विद्वानोंका लक्ष्य इस प्रन्धकी और आकर्षित हुआ। स्वर्गवासी शंकर पाण्डुरंग पण्डित एम्. ए. ने स्वसम्पादित गउडवहो नामक प्राकृत काव्य-ग्रन्थकी प्रस्तावनामें, तीर्थकल्पगत मथुराकल्पमेंसे आमराज और बप्पभट्टी सूरिके सम्बन्धका एक उल्लेख उद्धृत किया । तदनन्तर, प्रवर पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. जी. ब्युहरने, मथुराके जैन शिला-लेखोंका सम्पादन और विवेचन करते समय, इस ग्रन्थका सायन्त अवलोकन किया और उसीके सिलसिलेमें मथुराकल्पपर एक स्वतंत्र निबन्ध लिखकर, वह मूल कल्प, उसके अंग्रेजी भाषान्तरके साथ, विएना (आस्ट्रिया) से प्रकट होनेवाले प्राच्यविद्याविषयक राजकीय वृत्तपत्र ( जर्नल) में प्रकाशित किया। बादमें और भी कई विद्वानोंने इस ग्रन्थके ऐतिहासिक अवतरणोंका जहां तहां उल्लेखादि करके इसकी उपयोगिता तर्फ तज्ज्ञोंके मन में उत्सुकता उत्पन्न की। ६१०. प्रस्तुत प्रकाशन ___ कोई २० वर्ष पहले, जब हमने बडौदामें पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराजकी चरणसेवामें रहते हुए, विज्ञप्तित्रिवेणि आदि अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थोंका संशोधन-संपादन-प्रकाशनादिका कार्य शुरू किया, तभी, इस ग्रन्थको भी प्रकाशमें लानेके लिये हमारा प्रयत्न शुरू हुआ था। प्रवर्तकजी महाराजके शिष्यप्रवर और ग्रन्थसंशोधन-सम्पादनादिकार्य में अविरत परिश्रम करनेवाले तथा पाटण आदिके ज्ञानभाण्डारोंकी सुव्यवस्था करने में अथक उद्यम करनेवाले, यथार्थ जिननवचनोपासक, सुचतुर मुनिवर श्रीचतुरविजयजी महाराजके प्रयत्नसे, सुरतके श्रीमन्मुनिमोहनलालजी ज्ञानभंडारमेंसे इस ग्रन्थकी ताडपत्र पर लिखी हुई एक पुरातन प्रति, तथा बडौदा खंभायत आदिके भंडारोंमेंसे कुछ और प्रतियां भी प्राप्त की गई । इस प्रकार प्रतियां इकट्ठी होने पर, प्रेसके लिये, उन परसे कॉपी तैयार करनेका हम उपक्रम करना ही चाहते थे कि, उसी बीच में, पूनासे, प्रो. देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर, जो उन दिनोंमें आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इन्डिया वेस्टर्न सर्कलके सुप्रीन्टेन्डेन्ट थे, प्रसंगवश बडौदामें आये और जैन उपाश्रयमें हम लोगोंसे मिले । बातचीतमें उन्होंने कहा कि हम और जयपुरवाले पण्डित केदारनाथजी मिलकर तीर्थकल्पका संपादन करना चाहते हैं और कलकत्ताकी एशियाटिक सोसायटी द्वारा उसे प्रकाशित कराना चाहते हैं । अध्यापक भाण्डारकर जैसे समर्थ विद्वानके हाथसे इस ग्रन्थका सम्पादन होना जान सुन कर हमको बडा आनन्द हुआ और हमने अपना उक्त कार्य स्थगित कर दिया। इतना ही नहीं लेकिन, उनके अनुरोध करने पर, उनकी करवाई हुई जो प्रेसकॉपी थी उसे हमने और प्रवर्तकजी महाराजके विद्वान् प्रशिष्य पुण्यमूर्ति मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीने मिलकर, उक्त ताडपत्रकी प्रतिके साथ मिलान कर तथा पाठान्तरादि दे कर शुद्ध भी कर दिया। इसके कुछ वर्ष वाद, उक्त सोसायटी द्वारा, इस ग्रन्थका ९६ पृष्ठ जितना एक हिस्सा प्रकाशित हुआ जिसमें प्रस्तुत आवृत्ति के पृष्ठ ३० जितना भाग मुद्रित हुआ है । तदनन्तर, आज कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये, लेकिन उसके आगेका कोई हिस्सा अभी तक प्रकाशित नही हुआ; और न मालूम भविष्य में कव होगा। भाण्डारकर महाशय सम्पादित आवृत्तिका इस प्रकार अनिश्चित भविष्य देख कर, हमने अपने ढंगसे, इस ग्रन्थको, उसी पुराने संकल्पके अनुसार, तैयार कर, सिंघी जैन अन्धमालाके एक पुष्पके रूपमें, जिज्ञासु विद्वानोंके हाथ में समर्पित करना समुचित समझा है।
* द्रष्टव्य-P. Peterson. A fourth Report of operations in search of sanskrit Mss. in the Bombay Circle, 1886-92.
+देखो बॉम्बे संस्कृतसिरीझमें प्रकाशित गउवद्दो. Introduction. P. Clii.
I G. BUALAR. A Legend of the Jaina Stūpa at Mathura.-Sitzungsberichte der phil.hist. Class der kais. Akademie der Wissenschaften Wien, 1897.