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तुलसी प्रज्ञा
JOURNAL OF THE JAIN VISHVA BHARATI
खण्ड-४
जुलाई-सितम्बर १९७८
अंक-२
L
बाध
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सैनविश्वभारती लाडनं (राजस्थान)
..
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विद्वानों को सम्मतियाँ
(1)
श्री बलसुखभाई, भू० पू० निदेशक, ल० दा. भारतीय विद्या मन्दिर, अहमदाबाद ___ तुलसी प्रज्ञा का 4-1 अंक मिला । लेख अच्छे हैं । संशोधन दृष्टि भी व्यक्त होती है। श्री पू० मुनि नथमल जी ने प्रज्ञापना के पाठ का संशोधन किया है, वह उचित है । उसके लिए उसका आभार । अन्य लेख भी अच्छे हैं ।
अंग्रेजी लेखों में diacritical marks होना जरूरी है। उसका प्रेस में अवश्य प्रबन्ध करावें अन्यथा विदेशी विद्वानों के लिए पढ़ना कठिन होगा।
लेख भी अच्छे हैं।
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(2).
श्री अमृतलाल जैन, अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस :
तुलसी प्रज्ञा का अंक (2-3) प्राप्त हुआ। तुलसी प्रज्ञा को मैंने तथा विश्वविद्यालय के अन्य कई विशिष्ट विद्वानों ने ध्यान से पढ़ा। सभी ने मुक्तकंठ से इसकी सराहना की। अभी लेख गवेषणात्मक हैं । यह हर बुद्धिजीवी के लिए अक्षरशः पठनीय है ।
(3)
श्री भागचन्द जैन, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दमोह :
'तुलसी प्रज्ञा' का सितम्बर 77 का अंक प्राप्त कुर हादिक प्रसन्नता हुई । संक्षेप में यही कह सकता हूं कि 'तुलसी प्रजा' का यह अंक बहुत समृद्ध, ज्ञानवद्धंक एवं अधुनातन साजसज्जा से मण्डित है । सम्पादकों की सूझ बुझ ने इसे अधिक उपयोगी और विद्वद्-भोग्य बना दिया है।
(4) डा० लालचन्द्र जैन, व्याख्याता, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली :
इम अंक में प्रकाशिक सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं गवेषणात्मक है । पहले की अपेक्षा प्रज्ञा का स्तर तथा कलेवर काफी ऊँचा हो गया है । शोधाथियों के लिए प्रज्ञा अत्यधिक उपयोगी है। स्याद्वाद के फलित, क्रियामाणं कृतम् तथा किपागफलोवमा विसया निबन्ध अत्यधिक आकर्षक हैं । इस अक को दर्शन-विशेषांक भी कहा जा सकता है ।
(5)
श्री विमल कुमार जैन सौरया, उपमन्त्री, अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् :
पत्रिका का प्रकाशन अपने आप में गरिमामय है । प्रत्येक लेख की सामग्री दुर्लभ और साहित्यिक दृष्टि से सर्वतो महत्वपूर्ण है । जन-दर्शन के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग पर विद्वानों की विचारशैली आधुनिक विज्ञान के परिपेक्ष्य में प्रकाशित होती रहे ।
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तुलसी प्रज्ञा
सम्पादक
श्री श्रीचन्द रामपुरिया डॉ. नथमल टाटिया डॉ. दयानन्द भार्गव
जैन विश्व
चरण
पिमीवरची
सल्ती लाउनु
जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान)
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आजीवन सदस्यता शुक्ल : 201 रुपये मात्र,
वार्षिक शुक्ल
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भारत : 25 रुपये,
एक अंक का मूल्य
8 रुपये,
:
भारत :
विदेश : 6 डालर या 3 पौण्ड | विदेश : 2 डालर या 1 पौण्ड ।
'तुलसी प्रज्ञा' में जन विद्या सम्बन्धी गवेषणात्मक निबन्ध प्रकाशित किए जाते हैं । प्रकाशनार्थ प्रेषित निबन्ध कहीं अन्यत्र प्रकाशित न हुआ होना चाहिए और कागज के एक ओर सुस्पष्ट रूप से हस्तलिखित या टंकित होना चाहिए। साथ में लेखक अपना परिचय भी भेजें ।
जैन विद्या के विविध क्षेत्रों में चल रही शोध प्रवृत्तियों से अपने पाठकों को परिचित कराना भी हमारा उद्देश्य है । अतः विद्वानों से प्रार्थना है कि वे अपनी अनुसंधान की दिशा और उपलब्धियों से हमें अवगत कराते रहें ।
जैन विद्या की विविध विधाओं से सम्बद्ध विषयों पर विश्वविद्यालयों के द्वारा स्वीकृति शोध महानिबन्धों के सारसंक्षेप भी प्रकाशनार्थ भेजे जा सकते हैं ।
. 'साहित्य समीक्षा' स्तम्भ के अन्तर्गत समीक्षार्थं भेजी जाने वाली पुस्तक की दो प्रतियाँ प्राप्त होनी चाहिए ।
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खण्ड-4
जुलाई-सितम्बर, 1978
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लेख सूची 1. वचन-वीथी
-आगम वचन 2. आचार्य प्रवचन : धर्म का फल-आनन्द
-युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी 3. प्रमाण : एक तुलनात्मक विश्लेषण
-साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा 4. नियमसार का वैशिष्टय
-डॉ० प्रेम सुमन जैन 5. जैन दर्शन में नैतिक मूल्याङ्कन का विषय : एक तुलनात्मक अध्ययन
-डॉ० सागरमल जैन 6. हिंसा के चार भङ्ग
--श्रीचन्द रामपुरिया 7. चार प्रकार के साधक
-आचार्य श्री तुलसी 8.णि कथा : कहं तुब्भे वंदियव्वा ?
-सं० मुनि श्री दूलहराज 9. आगम अनुसन्धान : सूत्रकृताङ्ग के आधार पर आगम कालीन सभ्यता एवं संस्कृति
-मुनि श्री दूलहराज 10. चैतन्य शक्ति का आदान-प्रदान : एक वैज्ञानिक परीक्षण
-अनु० शुभकरण सुराणा तथा इला बहन जवेरी
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11. कुण्डलपुर के बड़े बाबा : आदिनाथ
-डॉ० भागचन्द्र जन 'भागेन्दु' 12. भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का महत्वपूर्ण योगदान
-डॉ० के० आर० चन्द्र 13. शब्द-प्रभेव टीका और उसके कर्ता डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री के निबन्ध का कतिपय आवश्यक संशोधन
-श्री अगरचन्द नाहटा 14. साहित्य समीक्षा (1) सात समन्दर पार
-डॉ० पुष्पा गुप्ता (2) जिन दिन देखे वे कुसम -डॉ० पुष्पा गुप्ता (3) तीर्थङ्कर
-डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' (4) जैन गीता
-डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' (5) मुणिचन्द कहाणयं -डॉ० कमलेश कुमार जैन 15. जैन विश्व भारती : प्रवृति एवं प्रगति
डॉ. कमलेशकुमार जैन एवं डॉ० पुष्पा गुप्ता
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वचन-वीथी
दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं को जाने और छोड़े बिना आत्मा केवलीजहा-आरंभे चेव, परिग्गहे चेव। प्रज्ञप्त धर्म को नहीं सुन पाता ।
दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह - इन दो स्थानों केवलं बोधि बुज्झज्जा, तं जहा-आरम्भ को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध चेव, परिग्गहे चेव।
बोधि का अनुभव नहीं करता। दो ठाणाई अपरियाणेता आया णो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं को जाने और छोड़े बिना आत्मा मुण्ड हो, पध्वइज्जा, तं जहा-प्रारंभे चेव, परिगहे गृह त्याग, सम्पूर्ण अनगारिता को नहीं चेव।
पाता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं बंभचेरवासमावसेज्जा, तं जहा- को जाने और छोड़ बिना आत्मा सम्पूर्ण ब्रह्मआरंभे चेव, परिग्गहे चेव।
चर्य वास (आचार) को प्राप्त नहीं करता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, तं जहा-आरंभे को जाने और छोड़े बना आत्मा सम्पूर्ण संयम बेव, परिग्गहे चेव।
के द्वारा संयत नहीं होता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया जो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, तं जहा- आरंभे को जाने और छोड़े बिना आत्मा सम्पूर्ण चेव, परिग्गहे चेव ।
संवर के द्वारा संवृत्त नहीं होता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया जो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, तं को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध जहा-आरंभे चेव, परिग्गहे चेव । आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त नहीं करता।
दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह -- इन दो स्थानों केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा-आरंभे को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध चैव, परिग्गहे चैव ।
___ श्रुतज्ञान को प्राप्त नहीं करता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो आरम्भ और परिग्रह-इन दो स्थानों केवलं प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा- को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध आरंभे चे व, परिग्गहे चेव ।
अवधिज्ञान को प्राप्त नहीं करता। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता प्राया णो आरम्भ और परिग्रह–इन दो स्थानों केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा को जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध - आरंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
मन:पर्यवज्ञान को प्राप्त नहीं करता।
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दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया जो केवलं केवलणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा - आरंभे चैव परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, तं जहाआरंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणंत्ता आया केवलं बोधि बुज्भेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलं भविता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जा, तं जहा- आरंभ चेव, परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलं बंभचेरवासमा वसेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिगहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेता आया केवलेणं संवरेण संवरेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चैव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलमाभिणिबोहियणाणं उप्पाडेज्जा, आरंभे चैव परिग्गहे चेव ।
जहा -
दो ठाणाई परियाणत्ता आया केवलं सुयणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा- आरंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवलं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहा - श्रारंभ चेव, परिग्गह चेव ।
दो ठाणाई परियाणेता आया केवलं मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा, तं जहाआरंभे चैव परिग्गहे चैव ।
दो ठाणाई परियाणेत्ता आया केवल केवलणाणं उप्पाडेज्जा तं जहा - प्रारंभे चेव, परिग्गहे चेव ।
६०
आरम्भ और परिग्रह - इन दो स्थानों जाने और छोड़े बिना आत्मा विशुद्ध केवल ज्ञान को प्राप्त नहीं करता ।
आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा केवलीप्रज्ञप्त धर्म को सुन पाता है ।
आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध बोधि का अनुभव करता है ।
आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा मुड हो, गृह त्याग, अनगारिता ( साधुपन ) को पाता है ।
आरम्भ और परिग्रह - इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्म सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य वास को प्राप्त करता है ।
आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा सम्पूर्ण संयम के द्वारा संयत होता है ।
आरम्भ और परिग्रह – इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा सम्पूर्ण संवर के द्वारा संवृत होता है ।
आरम्भ और परिग्रह — इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध आभिनिबोधिक ज्ञान को प्राप्त करता है ।
आरम्भ और परिग्रह -- इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध श्रुतज्ञान को प्राप्त करता है ।
आरम्भ और परिग्रह- इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध अवधि ज्ञान को प्राप्त करता है ।
आरम्भ और परिग्रह -- इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त करता है ।
आरम्भ और परिग्रह - इन दो स्थानों को जान कर और छोड़ कर आत्मा विशुद्ध केवल ज्ञान को प्राप्त करता है ।
- ठाणं, २/४१-६२
तुलसी प्रज्ञा
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आचार्य प्रवचन*
धर्म का फल-आनन्द
बहुत बार यह प्रश्न उठता है - धर्म श्रद्धागम्य है या बुद्धिगम्य ? मैं एकान्ततः धर्म को न श्रद्धागम्य मानता हूं और न बुद्धिगम्य । मेरी दृष्टि में धर्म के दो रूप हैं-एक ज्ञानप्रधान धर्म, दूसरा आचार-प्रधान धर्म । ज्ञान-प्रधान धर्म में बुद्धि, चिन्तन, मनन, तर्क सबका प्रयोग किया जा सकता है, पर साधना प्रधान धर्म में तर्क का कोई स्थान नहीं है। धर्म स्वीकरण में मैं तर्क की अपेक्षा श्रद्धा को अधिक महत्त्व देता हूं। धर्म अहेतुग्राह्य तत्त्व है। हेतुग्राह्य तत्त्वों में हेतु का प्रयोग हो सकता है, पर अहेतुग्राह्य तत्त्वों में हेतु का प्रयोग करना यथार्थ से दूर होना है । कहा भी गया है-'स्वभावे ताकिका भग्नाः' । अग्नि उष्ण क्यों होती है ? बर्फ ठण्डी क्यों होती है ? यह तर्क निरर्थक है । अग्नि का स्वभाव है-उष्णता और बर्फ का स्वभाव है - शीतलता। स्वभावजन्य पदार्थों में तर्क नहीं होता।
धर्म का स्वभाव है -आनन्द । जिस क्षण साधना के क्षेत्र में चरण-न्यास होता है उसी क्षण आनन्द की उपलब्धि प्रारम्भ हो जाती है। धर्म आज करें और फल परलोक में मिले ऐसा नहीं हो सकता। धर्म के मर्म से अनभिज्ञ कुछ व्यक्ति जो भौतिक पदार्थों की उपलब्धि के साथ धर्म का सम्बन्ध जोड़ते हैं वे कह देते हैं - इतने वर्ष हो गये, धर्म का आचरण करते; सामायिक, स्वाध्याय, जप, भजन करते, पर आज तक कोई फल नहीं मिला। इसलिए छोड़ देना चाहिये इन धार्मिक झंझटों को । मैंने ऐसे कई व्यक्तियों को देखा है और उनसे सुना भी है-महाराज ! पहले तो प्रतिदिन सामायिक करता था पर अब छोड़ दी है, क्योंकि उसका कोई परिणाम आज तक सामने नहीं आया।
___ सच तो यह है कि अधिकांश व्यक्ति धर्म के साथ भी सौदा करते हैं। उनके अनुसार आज धर्म किया और आज ही उसके फलस्वरूप धनधान्यादि ईप्सित वस्तु की प्राप्ति होनी चाहिये और यदि नहीं होती है तो धर्म निरर्थक है। मेरी दृष्टि में ऐसे व्यक्ति धार्मिक कहलाने के अधिकारी ही नहीं होते । धर्म का सीधा सम्बन्ध आत्मा से है । जो व्यक्ति
* आचार्य श्री तुलसी के प्रवचन से ।
खण्ड ४, अंक २
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आत्मोन्मुख होता है उसे धर्मलाभ से वञ्चित करने की किसी दूसरे की ताकत नहीं हो सकती। मैं एक उदाहरण आपको सुनाऊं ।
एक नगर में दो जाने-माने सेठ रहते थे। एक का नाम था पूर्ण और दूसरे का नाम था जीर्ण । जीर्ण सेठ साधुओं का बहुत भक्त था । पात्रदान की भावना से भावित था। प्रतिक्षण चिन्तन करता-मेरे घर कोई सन्त पुरुष भिक्षा के लिये आए और मैं उन्हें शुद्ध दान देकर लाभान्वित बनूं ।
एक दिन उसने सुना-भगवान महावीर ने तपस्या प्रारम्भ की है, तपस्या की समाप्ति पर वे अवश्य ही भिक्षा के लिये शहर में आयेंगे। मेरा धन्य भाग्य होगा यदि भगवान् मेरी कुटिया में पधारकर मुझे पात्रदान का लाभ देंगे।
प्रतिदिन भिक्षा के समय पात्रदान की भावना से भावित चित्त, जीर्ण सेठ कुटिया से बाहर खड़ा-खड़ा भगवान् महावीर के शुभागमन की प्रतीक्षा करता रहा। लगभग एक महीना व्यतीत हो गया। न भगवान् की तपस्या पूर्ण हुई और न जीर्ण की भावनाएं फली। पर जीर्ण सेठ की भावनाएं प्रतिदिन वर्द्ध मान थी। कभी भी उसने नहीं सोचा कि इतने दिन हो गये भावना भाते, भगवान् आये ही नहीं, छोड़ो भावना को।
इस प्रकार चार माह बीत गये । इधर भगवान् की चातुर्मासिक तपस्या पूर्ण हुई। वे भिक्षा के लिये शहर में आये । पर भगवान् के चरण जीर्ण सेठ की कुटिया की ओर नहीं बढ़े, पूर्ण सेठ की कुटिया की ओर बढ़े। पूर्ण सेठ के मन में न साधुओं के प्रति भक्ति थी, न बहुमान था। ज्योंही भगवान् उसके द्वार पर भिक्षा के लिये पहुंचे, पूर्ण सेठ ने अपने नौकर को आवाज दी और कहा-"जाओ, कोई ठंडा-बासी हो तो इसे देकर विदा कर दो।" नौकर ने उड़द के बाकले लाकर भगवान् को प्रदान किये । भगवान ने ज्योंही पारणा किया, देवदंदुभि बज उठी। नगरवासी पूर्ण सेठ की प्रशंसा करने लगे और कहने लगे-धन्य है पूर्ण सेठ को जिसने भगवान को दान देकर महान् लाभ कमाया है।
इधर जीर्ण सेठ ने भी देवदुदुभी सुनी । उसने सोचा-भगवान् का पारणा कहीं हो गया है । मेरा कहां इतना सौभाग्य था ? धन्य है उस व्यक्ति को जिसने भगवान् को दान दिया है। एक क्षण के लिये भी उसके मन में यह विचार नहीं आया कि मुझे कितने महीने भावना भाते बीत गये, पर भगवान् कहाँ भावना को देखते हैं ? वे तो बड़े घरों में ही भिक्षा के लिये जाते हैं।
एक दिन केवलज्ञानी का उस नगर में पदार्पण हुआ। सहस्रों लोगों ने भगवान् की देशना सुनी । एक व्यक्ति ने प्रश्न किया-भन्ते ! इस शहर में सबसे बड़ा भक्तिमान कौन है ?
केवलज्ञानी ने कहा-जीर्ण सेठ ।
प्रभो ! जीर्ण सेठ यदि भक्तिमान होता तो भगवान का पारणा पूर्ण सेठ के घर में क्यों होता ? क्या जीर्ण सेठ की अपेक्षा पूर्ण सेठ अधिक भक्त परायण नहीं है ?
तुलसी प्रज्ञा
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अधकधिचामलकृतकटबन्ध रहा.माणिक
नुवाद-दरससरसपारसपरस-घनरे रतनदा-घटनशरयंकटार गत का
TA
सवयचौकी बन्यकवितपनाकरी जगत जिदानशाज गारनिरालय सिन्धुनववारिसमजावित रजिनशान रतावितांgaa घटासनाचकी सीता की ।।
तीनच सिमपुत्ववाती-जावकलेसशाकादाभानर ।
हान र ५ मानबदन
मना किमान
१. चौकी प्रबन्ध कवित्त घनाक्षरी
२. ऋषि चांदमल कृत मुकुट बन्ध
*
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Iraniaम: सिंधमसिननीदल क मदत कवितम्या
Hinरयदरीदा गीतम नमानी शाशकाववान्दमनकनाननननकीनवटामिंजगीर in मारवटामानटानमा टायरन न नवधननक्चन नवगुनवधन नवगननवरदान-नव Raससतरमी हो तुम चन्द नवी २४ । रामनवा नवा नवध्यान नवयुननवयन-नवना ननवयान नवचीतनवयुग नववेमनवीन नवगना
सानिमचन्दनवीना गीतजशनमितान रनमा नवधन नवननवयान नवयुननवग्लीन-नवी माता जयर ननवस्तीन नवधनवान
Hasir
NHRCH
PARDHATHREEMAHANIREE
१. बती दल कमल बन्ध
२. मयूर प्रबन्ध, सुन्दरी बन्ध
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केवलज्ञानी ने कहा – पूर्ण सेठ ध्वजा की तरह है । ध्वजा का काम फहरने का है । जिधर हवा होती है उधर ही वह झुक जाती है । जीर्ण सेठ नींव का पत्थर है । नींव का पत्थर दिखाई नहीं देता पर विशाल भवन उस पर ही टिका रहता है । जीर्ण सेठ ने अपनी उत्कृष्ट भावना से अनन्त कर्मों का निर्जरन कर दिया है । यदि वह दो घण्टे दुंदुभि और नहीं सुनता तो केवलज्ञान उत्पन्न होने की स्थिति हो सकती थी । वह धर्म को बाह्य पदार्थों के साथ नहीं, आत्मा के साथ जोड़ता है । धर्म उसकी नस-नस में रमा हुआ है ।
वस्तुत: धर्म का फल ही आत्मशुद्धि है । जो व्यक्ति आत्मशुद्धि के लिये धर्म करता है, वह इधर उधर की बातों को सुनकर धर्म को छोड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकता ।
विकथा - पद
सत्त विकहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - इत्थिकहा, भत्तकहा, देसकहा, रायकहा, मिउकालुणिया, दंसणभेयणी, चरित्तभेयणी ।
विकथाएं सात हैं :- (1) स्त्री कथा (2) भक्तकथा (3) देशकथा, (4) राज्यकथा, ( 5 ) मृदुकारुणिकी (वियोग के समय करुणरस - प्रधान वार्ता ), ( 6 ) दर्शनभेदिनी ( सम्यक् दर्शन का विनाश करने वाली वार्ता ), ( 7 ) चारित्रभेदिनी ( चारित्र का विनाश करने वाली वार्ता ) ।
- ठाणं,
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प्रमाण : एक तुलनात्मक विश्लेषण
साध्वी प्रमुखा श्रीकनकप्रभा
विश्व-चेतना के बहुरंगी व्यक्तित्व को समझने के लिये मनुष्य के पास दो साधन हैं(i) आत्मज्ञान (ii) बौद्धिक चिन्तन
आत्मज्ञान पारदर्शी स्फटिक की भांति निर्विवाद होता है। उस पर विश्व-चेतना के जो प्रतिबिम्ब गिरते हैं उनमें संदिग्ध जैसा कुछ भी नहीं रहता पर आत्मज्ञान की सर्वोच्च भूमिका तक आरोहण करने वाले विरले ही होते हैं इसलिये बौद्धिक चेतना की स्फरणा को उपेक्षित नहीं किया जा सकता । बौद्धिक चेतना की सतह पर दर्शन का उदय होता है। दर्शन का उद्देश्य होता है हेय-उपादेय की मीमांसा। इसके आधार पर मूल्य निर्णय की दृष्टियाँ स्थिर होती हैं।
दर्शन की दो धाराएं हैं - सैद्धान्तिक और बौद्धिक । सैद्धान्तिक धारा का उत्स किसी परम्परा से अनुबन्धित रहता है और बौद्धिक धारा का बहाव उन्मुक्त होता है। भारतीय दार्शनिकों ने परम्परा-निर्वाह की दृष्टि से दर्शन के क्षेत्र में नए आयाम खोले उसी प्रकार वे बौद्धिक उत्कर्ष का स्पर्श करते हुए भी आगे बढ़े हैं । दर्शन का एक अंग है-न्याय, इसे तर्क विद्या भी कहा जाता है । मीमांसा की व्यवस्थित पद्धति अथवा. प्रमाण की मीमांसा, न्याय शास्त्र का विषय है और हमारी वर्तमान चर्चा का भी यही विषय है।
न्याय
न्याय का अर्थ है युक्ति के द्वारा प्रमेय (वस्तु) की परीक्षा करना। युक्ति वहाँ घटित होती है जहां साध्य और साधन में परस्पर किसी प्रकार का विरोध न रहे। साध्य और साधन में विरोध उद्भावित करने वाली युक्तियाँ प्रमेय के परीक्षण में सफल नहीं हो सकतीं। न्याय के मुख्यतः चार अंग हैं
(i) प्रमाता, (ii) प्रमाण, (iii) प्रमेय (iv) और प्रमिति । प्रमाता ज्ञाता होता है, प्रमाण ज्ञान है, प्रमेय वस्तु है और प्रमिति ज्ञान का फल है। प्रमाता प्रमेय की परीक्षा में या किसी भी प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है तो उसका हेतु होता है अर्थसिद्धि । अर्थसिद्धि के तीन प्रकार हैं
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1. असत् का प्रादुर्भाव ।
2. इष्ट की प्राप्ति ।
3. भाव (पदार्थ) का अवबोध ।
कुम्भकार मिट्टी खोदता है । मिट्टी को आकार देने के लिये चक्र, सूत्र आदि सहायक सामग्री जुटाता है । उसका पुरुषार्थ फलता है और घड़ा तैयार हो जाता है । यह असत् का प्रादुर्भाव है ।
तालाब में पानी है । एक मनुष्य उधर से गुजरा । वह प्यास से व्याकुल था । उसने लोटा, बाल्टी आदि सहायक सामग्री के योग से जल प्राप्त कर अपनी प्यास बुझा ली । यह सत् वस्तु की प्राप्ति है ।
मनुष्य चेतनाशील प्राणी है । अनावृत चेतना में संसार की हर वस्तु स्वत: प्रतिबम्बित रहती है । आवृत चेतना में अवबोध के अनेक स्तर बन जाते हैं । अनावृत चेतना द्वारा और आवृत चेतना के संभावित अनावरण द्वारा वस्तु ज्ञान का जो क्रम बनता है वह भावज्ञप्ति है ।
न्यायशास्त्र अर्थसिद्धि के इन तीनों उपायों में भाव-ज्ञप्ति से ही सीधा सम्बन्धित है । भाव-ज्ञप्ति के दो माध्यम हैं - लक्षण और प्रमाण । लक्षण व्यवच्छेदक होता है । वस्तु की व्यवस्था में हेतुभूत जो धर्म अपने लक्ष्य का व्यवच्छेद करता है, उसे दूसरी वस्तुओं से अलग करता है, वह लक्षण कहलाता है । प्रमाण के द्वारा वस्तु के स्वरूप का निर्णय होता है और लक्षण निर्णीत स्वरूप वाली वस्तुओं को श्रेणीबद्ध करता है । उष्णता अग्नि का लक्षण है, साना गौ का लक्षण है, चैतन्य जीव का लक्षण है । यहाँ उष्णता और चैतन्य क्रमशः अग्नि और जीव के स्वभावगत धर्म हैं । सास्ना गौ का अवयवगत धर्म है ।
प्रमाण की भांति लक्षण भी दो रूप बनते हैं -- प्रत्यक्ष और परोक्ष । ताप के द्वारा अग्नि का ज्ञान करना प्रत्यक्ष लक्षण है और जहाँ धूम के माध्यम से अग्नि का ज्ञान किया जाता है वहाँ धूम अग्नि का परोक्ष लक्षण बनता है ।
भारतीय दर्शनों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन । सामान्य वर्गीकरण में चार्वाक नास्तिक दर्शन है तथा न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, जैन आदि आस्तिक दर्शन हैं । कुछ दार्शनिकों ने चार्वाक के साथ जैन और बौद्ध दर्शन को भी वेद विरोधी होने के कारण नास्तिक दर्शनों में परिगणित किया है ।
जैन दर्शन में न्याय के बीज आगम साहित्य में उपलब्ध हैं । भगवती, स्थानांग, नन्दी, अनुयोगद्वार आदि आगम इसके साक्ष्य हैं । इनमें प्रमाण विषयक चर्चा कहीं विस्तार से कहीं संक्षेप में प्राप्त होती है । इस चर्चा का मूल उत्स ज्ञान प्रवाद पूर्व रहा हो, ऐसा संभव लगता है। ज्ञान विषयक इस चर्चा को दार्शनिक रूप में प्रस्तुत उत्तरवर्ती आचार्यों ने किया । जैन आगम प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं । 3 अन्य दर्शनों के न्याय ग्रन्थ संस्कृत में हैं । अतः तत्कालीन आचार्यों के लिये, जिनमें उमास्वाति अग्रगण्य हैं यह
खण्ड ४, अंक २
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आवश्यक हो गया था कि जैन न्याय को भी संस्कृत में प्रस्तुत करें । जैन न्याय तत्कालीन प्रबुद्ध विचारकों के सामने आया तब तक अन्य दार्शनिकों के न्याय ग्रन्थ काफी प्रसिद्ध हो
। ऐसी स्थिति में जैन दार्शनिकों पर यह विशेष दायित्व था कि वे न्याय के क्षेत्र में मौलिक स्थापना करके जैन न्याय को लोक जीवन में प्रतिष्ठित करें। अन्यथा बहुचर्चित बहुप्रचलित दार्शनिक मन्तव्यों के बीच में नवोदित जैन न्याय पर किसी विद्वान् का ध्यान आकृष्ट कैसे हो सकता था ?
कोई भी दर्शन स्वतन्त्र रूप में अपने अस्तित्व को प्रस्तुत करने या स्थिर रखने के लिये कुछ मौलिक स्थापना करे, यह नितान्त अपेक्षित हो जाता है । जैन दार्शनिकों ने सबसे विलक्षण स्थापना - अनेकान्तवाद - की। अनेकान्तवाद दर्शन जगत के लिये नयी उपलब्धि थी, इसलिए वह ऊहापोह और आकर्षण का विषय बना । विद्वानों का ध्यान इस ओर केन्द्रित होने लगा, इस घटना ने परम्परावादी विद्वानों को चौंका दिया। उन्होंने अनेकान्तवाद के विरोध में लिखना शुरू कर दिया। दार्शनिक युग के प्रारम्भ में तर्कवाद का प्राबल्य था । उस समय दार्शनिक चर्चाओं के लिये अखाड़ेबाजी होती थी । उसमें ज्ञान चर्चा का पक्ष गौण था और जय-पराजय की भावना मुख्य रूप से काम करती थी । यही कारण था कि न्याय ग्रन्थों में छल, जाति, निग्रह स्थान जैसे तत्त्वों को स्थान मिला ।
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भगवान् महावीर का तत्त्व-निरूपण ज्ञान की उपलब्धि के लिये था । इसलिये उन्होंने न वितर्क को स्थान दिया और न छल, जाति आदि तत्त्वों को । भगवान् महावीर स्वतन्त्र चिन्तन के पक्षपाती थे । उन्होंने अपने शिष्य समुदाय को अपने केवलज्ञान की आलोक धारा में अवगाहन कराया किन्तु किसी भी शिष्य पर कोई चिन्तन थोपा नहीं । उनको सत्य का साक्षात्कार हो चुका था किन्तु उनके जो शिष्य सत्य के अन्वेषी थे, उनको अपने आलोक में सत्य का दर्शन नहीं कराया । तत्त्व का सम्यग् प्रतिपादन कर उन्होंने कहा - 'मइमं पास', मतिमान् ! मैंने जो कुछ कहा है वह पूर्ण रूप से ज्ञात, दृष्ट और परीक्षित है किन्तु तुम इस पर चिन्तन करो। अपने विवेक के तराजू पर इसे तोलो। ऐसा करके ही तुम सत्य के साथ सीधा सम्पर्क कर सकते हो ।
भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा गणधरों ने उसका संकलन किया । वर्तमान में भगवान् महावीर की वाणी का जो संकलन हमें उपलब्ध है वह गणधर सुधर्मा का है । उस सम्पूर्ण संकलन को "जैन वाङ् मय" के रूप में पहचाना जाता है। इसकी मुख्य चार शाखाएं हैं
1. द्रव्यानुयोग
2. चरण करणानुयोग
3. गणितानुयोग
4. धर्मकथानुयोग
इनमें जैन न्याय का प्रवेश द्रव्यानुयोग में होता है । जैन न्याय का विषय बहुआयामी है । प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा समालोच्य विषय है— प्रमाण ।
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प्रमाण-प्रमाण को भिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है। कुछ दार्शनिक इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष मात्र को प्रमाण मानते हैं । कुछ दार्शनिक अर्थ की उपलब्धि में हेतुभूत तत्त्व को प्रमाण मानते हैं। जहाँ स्व-पर-प्रकाशक प्रत्यक्षादि ज्ञान प्रमाण की संज्ञा प्राप्त करते हैं, वहाँ 'यथार्थज्ञानं प्रमाणम्,' यथार्थ ज्ञान प्रमाण है इस छोटी सी परिभाषा में वे सारी अपेक्षाएं समाहित हो जाती हैं, जो अन्य-अन्य विशेषणों से परिभाषित की जाती है । बौद्ध दार्शनिक सारूप्य और योग्यता को प्रमाण मानते हैं।
प्रमाण की निरुक्ति कई प्रकार से की जाती है :(i) प्रमिणोति इति प्रमाणम् । (ii) प्रमीयतेऽनेन तत् प्रमाणम् । (iii) प्रमितिमानं प्रमाणम् । विभिन्न दार्शनिक प्रमाण की भिन्न-भिन्न परिभाषा करते हैं :आचार्य विद्यानन्द ने व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य अकलंक अनधिगत अर्थग्राही ज्ञान को प्रमाण मानते हैं। माणिक्य नन्दी अपूर्व अर्थबोधक व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं । वादिदेवसूरि की दृष्टि में स्व-पर-व्यवसायी ज्ञान प्रमाण है। आचार्य हेमचन्द्र सम्यग अर्थ निर्णीति को प्रमाण की परिधि में सम्मिलित करते हैं । न्याय-वैशेषिक और मीमांसक धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं ।
आचार्य श्री तुलसी ने प्रमाण की उक्त सभी परिभाषाओं का सार संग्रहीत कर एक नई परिभाषा दी-यथार्थ ज्ञान ही प्रमाण है ।
ज्ञान के साथ यथार्थ विशेषण इस तथ्य को सूचित करता है कि ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का हो सकता है । प्रमाण वही ज्ञान है जो यथार्थ है।
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि ज्ञान के माध्यम हैं पर ये यथार्थ नहीं है, अतः अप्रमाण हैं।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि प्रमाण का आधार प्रमाता है । प्रमाता का दृष्टिकोण सही है तो उसका ज्ञान अप्रमाण कैसे हो सकता है ?
इस प्रश्न को दो प्रकार से उत्तरित किया जा सकता है। हमारे आचार्यों ने अयथार्थ ज्ञान के दो रूप माने हैं-आध्यात्मिक और व्यावहारिक ।
आध्यात्मिक अयथार्थ ज्ञान (विपर्यय और संशय) का सम्बन्ध मोहनीय कर्म के उदय से है । आध्यात्मिक विपर्यय मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से होता है और आध्यात्मिक संशय मिश्र मोहनीय के उदय से होता है।
व्यावहारिक अयथार्थज्ञान समारोपात्मक ज्ञान है। यह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है । इस उदय जनित अवस्था को भी विपर्यय और संशय का रूप दिया जा सकता है।
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प्रमाण की संख्या निर्धारण करने में सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं। इसका कारण है उन-उन दार्शनिकों की परम्परागत सैद्धान्तिक धारणाएं। उन धारणाओं के आधार पर प्रमाण संख्या का क्रम इस प्रकार बनता है: ...--
नास्तिक- 1. प्रत्यक्ष वैशेषिक-- 2. प्रत्यक्ष, अनुमान सांख्य- 3. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम नैयायिक .- 4. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान मीमांसक (भट्ट) 5. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति मीमांसक (प्रभाकर) प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव जैन- 2. प्रत्यक्ष, परोक्ष पौराणिक- 8. प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, संभव,
ऐति ह्य। प्रमाण के सन्दर्भ में यह संख्या-भेद चिन्तन-भेद का प्रतीक है। वस्तुतः पदार्थ के प्रति ज्ञान के सही व्यापार का नाम प्रमाण है इस दृष्टि से प्रमाण एक ही है, किन्तु अवबोध की प्रक्रिया के भेद से प्रमाण से एकाधिक भेद स्वतः प्राप्त हैं। यदि हम विलयीकरण की दृष्टि से सोचें तो लगभग प्रमाण एक दूसरे में अन्तनिहित हो सकते हैं।
उपमान प्रमाण सादृश्य प्रत्यभिज्ञा में समाविष्ट हो जाता है। अर्थापत्ति अनुमान प्रमाण का अंग है । अभाव का समावेश स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क अनुमान आदि प्रमाणों में हो जाता है। संभव प्रमाण अनुमान के अन्तर्गत आता है । ऐतिह्य के दो रूप हैं .- यथार्थ और अयथार्थ । अयथार्थ ज्ञान अप्रमाण है । यथार्थ प्रवाद परम्परा आगम में अन्तनिहित है।
इन सबका और संक्षेपीकरण करें तो इनमें से कुछ का समावेश सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में और शेष का परोक्ष में हो जाता है । जैन दर्शन में प्रमाण वर्गीकरण में ज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । ज्ञान पांच हैं-i) मतिज्ञान (iv) मनःपर्यवज्ञान
(ii) श्रुतज्ञान (v) और केवलज्ञान
(iii) अवधिज्ञान इन में अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष प्रमाण है। मति और श्रुत परोक्ष प्रमाण हैं।
दूसरे अभिक्रम में प्रत्यक्ष के दो भेद किये जाते हैं :-सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है तथा अवधि और मनःपर्यवज्ञान विकल या अपूर्ण प्रत्यक्ष हैं।
प्रकारान्तर से प्रत्यक्ष प्रमाण के दो और भेद किये गये हैं(i) पारमार्थिक प्रत्यक्ष (ii) और सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष आत्म सापेक्ष होता है और सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष आत्मा और
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ज्ञातव्य पदार्थ के बीच में व्यवधान रहता । व्यवधान से होने वाला ज्ञान परमार्थत: परोक्ष होता है पर प्रत्यक्ष की परिभाषा व्यापक होने के कारण उसमें उसका समावेश कर लिया गया है। प्रत्यक्ष का निरुक्त है—अक्षम् इन्द्रियम् अक्षो जीवो वा। अक्षम् प्रतिगतम् प्रत्यक्षम् । इस निरुक्त से इन्द्रियजन ज्ञान भी प्रत्यक्ष में अन्तर्गभित हो जाता है।
भगवती सूत्र में ज्ञान के साथ प्रमाण की भी चर्चा है। वहाँ नैयायिक सम्मत चार प्रमाणों--प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान का उल्लेख है ।
स्थानांग में प्रमाण के स्थान पर हेतु शब्द प्रयुक्त हुआ है। हेतु (प्रमाण) की संख्या भगवती की भांति चार ही रखी गयी है।
चरक में हेतु शब्द के प्रयोग से चार प्रमाण बताये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य और औपम्य ।
___ स्थानांग में प्रमाण को अति व्यापक प्रस्तुति देते हुए उसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार भेद किये गये हैं।
कुछ ग्रन्थों में प्रमाण के स्थान पर व्यवसाय शब्द का प्रयोग हुआ है। न्यायावतार में प्रत्यक्ष, प्रात्ययिक और आनुगामिक इन तीन व्यवसायों का उल्लेख है। स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थान में व्यवसाय के इन्हीं तीन भेदों का उल्लेख है।
भेद परक बुद्धि के द्वारा हम कितने ही भेदों की परिकल्पना करें। इन सबमें सामञ्जस्य स्थापित करने के लिये अभेद की ओर गति करनी ही होगी। अभेद बुद्धि में न किसी के प्रमाण का निर से भी - कोई मानी।
प्रत्यक्ष और परोक्ष में किसी भी प्रमाण की अवस्थिति हो सकती है। इस दृष्टि से यह जैन न्याय की विलक्षणता है। - अन्य दार्शनिक स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, आगम और अनुमान प्रमाण के प्रामाण्य में संदिग्ध
थे। उस स्थिति में जैन दर्शन ने इन सबको परोक्ष प्रमाण में स्वीकृति देकर अपनी उदारता . और समन्वयमूलक दृष्टि का परिचय दिया है।
__न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम ने संशय, विपर्यय को तो अप्रमाण माना ही है, इसके साथ ही स्मृति, तर्क आदि को भी अप्रमाण माना है । इनके अभिमत में यथार्थ-स्मृति
और तर्क प्रमाण हैं तथा अयथार्थ स्मृति और तर्क अप्रमाण है । जैन दर्शन ने प्रमाण की परिभाषा में ही यथार्थ शब्द योजित कर दिया है, अतः अयथार्थ को प्रमाण मानने का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता।
प्रमाण की उपयोगिता के सन्दर्भ में उसके दो भेद हैं- स्वार्थ और परार्थ । ज्ञानात्मक प्रमाण स्वार्थ होता है, वचनात्मक परार्थ । इस परिभाषा से मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान स्वार्थ प्रमाण है, क्योंकि इनका उपयोग व्यक्ति के अपने लिये होता है । श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों हैं ।
श्रतज्ञान के दो भेद हैं—अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत । अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव प्रमाण श्रुतज्ञान के अतर्गत हैं । ये स्व प्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत में आते हैं और पर प्रतिपत्ति काल में अक्षर श्रुत में चले जाते हैं।
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ज्ञान को प्रमाण मानकर उसके भेद प्रभेदों की लम्बी चर्चा की गयी है पर कुछ आचार्यों ने ज्ञान और ज्ञानी में अभेद कल्पना करके ज्ञानी को ही प्रमाण कह दिया है
"निर्बाध-बोध-विशिष्ट आत्मा प्रमाणम्"
संशय, विभ्रम और विमोह से ऊपर उठी हुयी आत्मा ही वस्तु का यथार्थ ज्ञान करती है और वह ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है।
प्रमाण यथार्थ ज्ञान है, अत: वह सत्य ही होता है, किन्तु उसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिये कुछ हेतुओं की अपेक्षा रहती है । तथ्य के साथ सांगत्य, अबाधि-तत्त्व, अप्रसिद्ध-अर्थख्यापन या अपूर्व-अर्थप्रायण, अविसंवादित्व या संवादी-प्रवृत्ति, प्रवृत्ति-सामर्थ्य या क्रियात्मक-उपयोगिता ये सब हेतु हैं, जो दार्शनिकों द्वारा सम्मत रहे हैं।
प्रमाण (ज्ञान) के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है और निर्णीति स्वतः तथा परतः दोनों प्रकार से होती है। उत्पत्ति में निमित्त सामग्री प्रामाण्य और अप्रामाण्य का आधार बनती है । गुणवत् सामग्री प्रामाण्य और दोषवत सामग्री से अप्रामाण्य की उत्पत्ति होती है।
प्रामाण्य का निश्चय स्वत: भी हो सकता है और परतः भी। अभ्यास की परिपक्वता में वस्तु ज्ञान के साथ ही निश्चय हो जाए कि मेरा जानना सही है, यह स्वतः निश्चय है। जहाँ अपने ज्ञान के प्रति पूरा भरोसा नहीं होता वहाँ उसकी सत्यता प्रमाणित करने में संवादी प्रमाण अथवा बाधक के अभाव से प्रामाण्य का निर्णय होता है।
जैन दर्शन के अनुसार प्रमाणों का मौलिक वर्गीकरण इस प्रकार होता है-प्रमाण के दो भेद हैं -प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण वह होता है जो सहाय-निरपेक्ष होता है। उसके दो भेद हैं-व्यवहार प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । व्यवहार प्रत्यक्ष के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणा।
अवग्रह में वस्तु का सामान्य अवबोध होता है । संशय के उत्तरकाल में अन्वयव्यतिरेकात्मक निर्णयोन्मुख ज्ञान को ईहा कहते हैं । निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है और चेतना में उसकी अवस्थिति धारणा है । ये चारों ऋमिक होते हैं और उत्तरोत्तर विशद ज्ञान के निमित्त हैं।
परमार्थ प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं - सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । सकल प्रत्यक्ष पूर्ण प्रत्यक्ष है, यह केवल ज्ञान है। विकल प्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान कहलाता है।
__ परोक्ष प्रमाण वह है जिसका इन्द्रिय और मन के सहयोग से ज्ञान होता है। वह द्विविध है-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान ये मतिज्ञान के चार भेद हैं।
जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन में स्मृति आदि का प्रामाण्य नहीं है। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानते।
प्रत्यभिज्ञा के चार रूप हैं
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(i) एकत्व प्रत्यभिज्ञा (ii) सादृश्य प्रत्यभिज्ञा
(iii) वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञा (iv) प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञा
बौद्ध दर्शन तर्क को अप्रमाण मानता है । नैयायिक इसको प्रमाण के अनुग्राहक रूप में स्वीकार करते हैं । जैन तर्क पद्धति में यह परोक्ष प्रमाण का एक भेद है ।
प्रमाण चर्चा के प्रसंग में अनुमान का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इसमें तर्कशास्त्र के बीज अंकुरित होकर अपने अस्तित्व को दृढ़ता प्रदान करते हैं । अनुमान की पांच धाराएं हैं-पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन | स्वार्थानुमान में पक्ष और हेतु इन दो से ही काम चल जाता है, किन्तु परार्थानुमान में दृष्टान्त, उपनय और निगमन का भी सहारा लेना होता है । इस प्रकार अनुमान प्रमाण पंचात्मक हो जाता है ।
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अनुमान प्रमाण परोक्ष ज्ञान का अंग है । परोक्ष ज्ञान पांच इन्द्रियों व मन से अनुबन्धित है । छद्मस्थ व्यक्तियों के पदार्थज्ञान का माध्यम यही बनता है। कुछ विचारक परोक्ष ज्ञान को इन्द्रियग्राही और अविशद होने के कारण अप्रमाण मानते हैं । किन्तु अधिकांश विद्वान् इसे प्रमाण मानने के पक्ष में है, क्योंकि पदार्थ ज्ञान में पराधीन होने पर भी यह प्रत्यक्ष ज्ञान जितना ही सुदृढ़ होता है, अर्थ की निर्णीति का माध्यम बनता है । अत: परोक्ष ज्ञान के प्रामाण्य में सन्देह का अवकाश नहीं है ।
परोक्ष ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा गया है— परदो विण्णाणं परोक्खं' जो ज्ञान पर द्रव्य अन्तःकरण, इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार प्रकाश आदि बाह्य निमित्तों के योग से प्राप्त होता है, वह परोक्ष ज्ञान है ।
इन्द्रिय ज्ञान व्यवहार में प्रत्यक्ष जैसा प्रतीत होता है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से वह परोक्ष है । उसका परोक्षत्व केवलज्ञान की अपेक्षा से है ।
प्रत्यक्ष ज्ञान असहाय होता है । उसे वस्तु के अवबोध में किसी अन्य साधन के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती । प्रत्यक्ष ज्ञान के सकल, विकल, पारमार्थिक, सांव्यावहारिक; इन्द्रिय- प्रत्यक्ष, अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष आदि भेदों के साथ सैद्धान्तिक दृष्टि से भी दो भेद हैंक्षायिक प्रत्यक्ष और क्षायोपशमिक प्रत्यक्ष |
केवलज्ञान क्षायिक प्रत्यक्ष है । इसमें ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होता है । सार्वदिक् और सम्पूर्ण क्षय सर्वग्राही ज्ञान अनावृत हो जाता है । केवलज्ञान की तुलना में अन्य सभी ज्ञान विकल हैं, अत: सकल प्रत्यक्ष की संज्ञा का अधिकारी एक मात्र केवलज्ञान ही है ।
अवधिज्ञान और मन. पर्यवज्ञान को विकल इस दृष्टि से कहा जाता है कि वे मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों तथा पर्यायों के अवबोधक नहीं बनते, किन्तु ये भी अपारमार्थिक ज्ञान नहीं है क्योंकि इनका विषय है मूर्त द्रव्यों और पर्यायों का अवबोध करना । अपने विषय के ग्रहण में इनकी किचित् भी अक्षमता नहीं है इसलिये ये पारमार्थिक ज्ञान हैं । इस सन्दर्भ में पारमार्थिकता का अर्थ सब अर्थों को अपना विषय बनाना नहीं है, किन्तु जो अपना विषय
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है उसकी परिपूर्णता और निर्मलता है । अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान अपने विषय की पूर्ण निर्मलता में प्रतिष्ठित है, अतः दोनों पारमार्थिक हैं।
पारमार्थिक ज्ञान के प्रसंग में यह बताया गया है कि इन्द्रिय और अन्तःकरण-निरपेक्ष ज्ञान पारमार्थिक है। एक प्रश्न उठ सकता है कि उपकरण सामग्री के अभाव में ज्ञान कैसे हो सकता है ? क्या कोई शिल्पी छैनी के बिना मूर्ति को तराश सकता है ? तूलिका के बिना चित्र बना सकता है ? और कलम के बिना लिख सकता है ?
सामान्यत: ये तर्क सही प्रतीत होते हैं । प्रतिमा, चित्र और लेखन के लिये छैनी, तूलिका, कलम आदि साधन सामग्री अपेक्षित रहती है पर विशिष्ट व्यक्ति अपनी साधना के बल से संकल्प द्वारा भी इन वस्तुओं को निर्मित कर सकते हैं । इसी प्रकार साधारण आत्माएं इन्द्रियों और मन के सहयोग के बिना ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकतीं, किन्तु जिन आत्माओं के ज्ञानावरण का क्षय या विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है वे इन्द्रिय और मन आदि बाह्य सामग्री के सहयोग के बिना भी स्वसापेक्ष सम्पूर्ण अवबोध की यात्रा कर सकती हैं।
पापायतन पद णव पावसायतणा पण्णता, तं जहा-पाणातिवाते, मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे ।
पाप के आयतन (स्थान) नौ हैं :-(1) प्राणातिपात (2) मृषावाद, (3) अदत्तादान, (4) मैथुन, (5) परिग्रह, (6) क्रोध, (7) मान, (8) माया, और (७) लोभ ।
-ठाणं 9/26
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आचार्य कुन्दकुन्द जैन दार्शनिक साहित्य के पुरस्कर्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । विद्वानों इनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी निश्चित किया है । अतः शौरसेनी प्राकृत में ग्रन्थ लिख कर जैन दर्शन को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने वाले ये प्रथम आचार्य हैं। इनकी अब तक 20-25 रचनाएं प्राकृत भाषा में उपलब्ध हो चुकी हैं। उनमें 'प्रवचनसार ' ' समयसार' एवं 'पंचास्तिकाय' ये तीन ग्रन्थ विशाल हैं और जैन दर्शन को समझने की कुंजी हैं । विद्वत् जगत् में इनका पर्याप्त प्रचार हुआ है । कुन्दकुन्द की अन्य रचनाएं भी यद्यपि अध्यात्म की दृष्टि से पर्याप्त महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु उनका अधिक प्रचार नहीं हुआ है । 'नियमसार' उनमें से एक है ।
'नियमसार' का वैशिष्ट्य +
डा० प्रेम सुमन जैन
'नियमसार' के यद्यपि तीन संस्करण उपलब्ध हैं, किन्तु इसकी मूल गाथाओं का आलोचनात्मक संशोधन अभी तक नहीं हुआ है । डा० उपाध्ये ने 'प्रवचनसार' की भूमिका में इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में संक्षेप में कुछ परिचय दिया है । उसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ के विषय में कोई गवेषणात्मक लेख भी मेरे देखने में नहीं आया । जबकि 'प्रवचनसार' आदि ग्रन्थों पर भारतीय एवं विदेशी विद्वानों ने पर्याप्त प्रकाश डाला है । कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकारों ने भी इस ग्रन्थ पर टीका नहीं लिखी और न ही अपनी टीकाओं में 'नियमसार' का कहीं उल्लेख किया है । ग्रन्थभण्डारों में भी 'नियमसार' की हस्तलिखित प्रतियों की संख्या अत्यल्प है । राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों में दो मूलप्रतियां एवं तीन प्रतियां टीका सहित उपलब्ध हैं । इससे स्पष्ट है कि 'नियमसार' किन्हीं कारणों से पठन-पाठन के आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा है । फिर भी विषय की मौलिकता और प्रतिपादन में नियमसार का महत्त्व कम नहीं है ।
ग्रन्थकार :
नियमसार में कुल 187 प्राकृत की गाथाएं हैं। गाथाओं की भाषा, शैली एवं विषय + जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित अ० भा० संगोष्ठी में पठित अंग्रेजी लेख का रूपान्तर ।
1. डॉ० उपाध्ये, प्रवचनसार, भूमिका, पृ० 23-24
2. (i) जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई (ii) सेक्रेड बुक्स आफ दी जैन एवं (iii) स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ द्वारा प्रकाशित ।
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के प्रवर्तन आदि के आधार पर इसके लेखक कुन्दकुन्द ही जान पड़ते हैं । इस ग्रन्थ के एक मात्र टीकाकार पद्मप्रभमलधारी देव का भी यही मत है। 'नियमसार' की गाथा नं0 9, 15, 34, 45, 46, 78 एवं 175 शब्द और अर्थ की दृष्टि से 'प्रवचनसार' की गाथाओं से मिलती जुलती है । समयसार की तीन गाथाएं (49, 234 एवं 277) 'नियमसार' की गाथाओं (46, 86 एवं 100) के अनुरूप हैं। कुछ गाथाओं का विषय 'अष्टपाहुड़' आदि से भी मिलताजुलता है । अत: 'नियमसार' को कुन्दकुन्द का ग्रन्थ मानने में संकोच नहीं है । टीकाकार:
'नियमसार' के टीकाकार पद्मप्रभमलधारी देव विद्वत-जगत् में प्रसिद्ध नहीं हैं । इस संस्कृत टीका के अतिरिक्त उनका कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। किन्तु पद्मप्रभमलधारी देव ने प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर कन्नड़ में टीकाएं लिखी हैं, जो अभी तक अप्रकाशित हैं। इन टीकाओं की प्रशस्ति में पद्मप्रभ का स्मरण प्रकाण्ड विद्वान् एवं एक साधक के रूप में किया गया है। संभव है कि नियमसार के संस्कृत टीकाकार एवं उपर्युक्त कन्नड़ टीकाकार दोनों पद्मप्रभमलधारी एक ही व्यक्ति हों। कन्नड़ की टीकाओं के अध्ययन से इस पर अधिक प्रकाश पड़ सकेगा।
संस्कृत में पद्मप्रभमलधारी ने अपनी संस्कृत टीका में कई प्राचीन जैनाचार्यों का एवं उनके उद्धरणों का उल्लेख किया है। उस आधार पर उन्हें बारहवीं शताब्दी का विद्वान् स्वीकार किया जा सकता है। नियमसार की संस्कृत टीका गद्य और पद्य में लिखी गयी है, जो टीकाकार के कवित्व और पाण्डित्य की द्योतक है। टीका का गद्य भाग नियमसार की मूलगाथाओं को प्राय: स्पष्ट करता है। किन्तु पद्य भाग कई स्थानों पर अप्रासंगिक हो गया है । टीकाकार ने अपने कवित्व को प्रगट करने के लिये प्राकृत की एक मूलगाथा की व्याख्या में 8 या 9 श्लोक संस्कृत के दे दिये हैं, जिनका मूलगाथा से कोई स्पष्ट सम्बन्ध नहीं है । जैसे 71वीं गाथा में अर्हत का स्वरूप वर्णित है । टीकाकार ने यहां 5 श्लोक पद्मप्रभ तीर्थंकर की स्तुति में दे दिये हैं इत्यादि ।
'नियमसार' का विषय निश्चयनय एवं शुद्ध अध्यात्म से सम्बन्धित है, किन्तु टीकाकार ने अनेक स्थानों पर स्त्री-सम्बन्धी उपमाएं देकर विषय को समझाया है । यथा-समिति मुक्तिकान्ता की सखी है (श्लोक 81, 89, 141); प्रत्याख्यान समतादेवी के कान का आभूषण है एवं दीक्षाप्रिया का यौवन है (142), वह समता सदा जयवन्त हो जो परमसंयमियों की दीक्षारूपी स्त्री के मन की प्यारी सखी है (141),-उन सिद्धों को नमस्कार है जो निर्वाणवधू के पुष्टस्तनों के आलिंगन से उत्पन्न सुख की खान हैं (224) । इत्यादि । "स भवति परमश्रीः कामिनीकामरूपः" पंक्ति तो टीका के कई श्लोकों में प्रयुक्त हुई है, जिसका
1. डॉ० नेमीचन्द शास्त्री- तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा में
पार्श्वनाथस्तोत्र (9 श्लोक) का उल्लेख है । (भा० 3, पृ० 146-47) 2. दृष्टव्य-प्रो० शुभचन्द्र, जैनालाजी एवं प्राकृत विभाग, मैसूर का कन्नड़ लेख
(अप्रकाशित)। 3. पी. बी. देशाई-जैनिज्म इन साउथ इंडिया एण्ड सम जैन एपीग्राफ्स .
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अर्थ है कि जो समता आदि धारण करता है वह मुक्ति-वधू का वल्लभ होता है।
मध्ययुग में अध्यात्म एवं भक्ति विषय को पति-पत्नि अथवा प्रेमी-प्रेमिका की प्रेमक्रीड़ाओं के दृष्टान्त द्वारा प्रस्तुत करने का प्रचलन हो गया था। पद्मप्रभ 12वीं शताब्दी के कवि हैं । अतः उन्होंने भी उक्त उपमाओं द्वारा निर्वाण के सुख आदि को स्पष्ट किया है । इस प्रकार के प्रयोगों से यह संभावना की जा सकती है कि पद्मप्रभ दक्षिण भारत के निवासी हों। क्योंकि 11वीं शताब्दी के बाद रामानुज भक्ति सम्प्रदाय दक्षिण में अधिक प्रचलित था, जिसमें इस प्रकार की उपमाएं दी जाती थीं। इसे माधुर्य भक्ति कहा जाता था।
इस टीका में टीकाकार ने प्राकृत की अन्य 21 गाथाओं को भी उद्धृत किया है। प्रवचनसार से 9, समयसार से 4, पंचास्तिकाय से 3, मूलाचार से 1 एवं द्रव्य संग्रह से 2 गाथाएं-कुल 19 गाथाओं का स्रोत तो ज्ञात हो चुका है। किन्तु निम्न दो गाथाओं के संदर्भ का पता नहीं चला है, जो किसी सिद्धान्त ग्रन्थ से ही होनी चाहिए ।
सो धम्मो जत्थ दया सोवितवो विसयणिग्गहो जत्थ । दसअट्ठदोस रहिओ सो देवोणत्थि संदेहो । णाणं अब्बिदिसिकं जीवादो तेण अप्पगं मुणई।
जदि अप्पंग ण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो ॥ यद्यपि नियमसार' की यह टीका पाण्डित्य पूर्ण है, किन्तु अमृतचन्द्र एवं जयसेन की टीकाओं जैसी विशद एवं अर्थपूर्ण नहीं है । सम्भवतः इस प्रकार की टीका के कारण भी 'नियमसार' टीका सहित अधिक प्रचारित नहीं हो सका है। इसमें टीका में प्रयुक्त स्त्री सम्बन्धी इतनी अधिक उपमाएं भी इसका कारण हो सकती हैं। विषयवस्तु :
जैन तत्त्वज्ञान के विभिन्न पक्षों पर आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रन्थ लिखे हैं । 'नियमसार' में उन्होंने मुख्य रूप से त्रिरत्न की व्याख्या की है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यगचारित्र पर स्वतन्त्र रूप से लिखा गया यह सर्व प्राचीन ग्रन्थ है । 'नियमसार' पद का प्रयोग भी कुन्दकुन्द ने विशेष अर्थ में किया है । “नियमसार" केवली एवं श्रुतकेवली द्वारा कहा गया है (1)। नियम से जो कार्य करने योग्य हो वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्न ही "नियम" है । तथा उसकी शुद्धता के लिए सार" शब्द कहा गया है (3) । अतः "नियमसार" का अर्थ हुआ-विशुद्ध रत्नत्रय । यह रत्नत्रय (नियम) मोक्ष का उपाय है, जिसका फल परम निर्वाण है (4) । अतः इस ग्रन्थ में इसी रत्नत्रय का निरूपण है।
'नियमसार' की प्रारम्भिक गाथाओं में कहा गया है कि आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । तथा समस्त दोषों से रहित एवं सकल गुणों से युक्त आत्मा आप्त कहलाता है। (5) । केवल ज्ञान आदि से युक्त वही परमात्मा है (6)। उसके मुख से निकले हुए पूर्वापर दोषों से रहित शुद्ध वचन आगम हैं जिसमें तत्त्व कहे जाते हैं (8)।
1. नियमसार, गा० 60 की टीका में उद्ध त । 2. नियमसार, गा. 170 की टीका में उद्धत ।
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इसके बाद ग्रन्थ में जीवादि छह पदार्थों का निरूपण है । (9-49) । फिर सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र का कथन किया गया है (51-55)।
व्यवहार चारित्र का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने व्रत, समिति, गुप्ति और पंचपरमेष्ठी के स्वरूप को कहा है (56-76) । तथा निश्चयनय से चारित्र के वर्णन में प्रतिक्रमण (77-94), प्रत्याख्यान (95-106), आलोचना (107-112), प्रायश्चित (113-121), परमसमाधि (122-133), परमभक्ति (134-140) तथा परम आवश्यक (141-158) का निरूपण किया गया है। ग्रन्थ के अंतिम अधिकार में शुद्धोपयोग का वर्णन है। जिसमें अतीन्द्रिय ज्ञान, निर्वाण आदि का स्वरूप कहा गया है (159-181) अन्त में ग्रन्थ का फल कहा गया है कि जिनमागं के प्रति कभी भी अभक्ति नहीं करना चाहिए (186)। वैशिष्ट्य :
'नियमसार' की उपर्युक्त विषयवस्तु जैन परम्परा के ग्रन्थों में पर्याप्त प्रचलित है। टीकाकार ने उसे 12 अधिकारों में विभक्त कर प्रस्तुत किया है। यह विभाजन ग्रन्थकार के द्वारा नहीं किया गया है । क्योंकि कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में यह प्रवृत्ति नहीं है । ग्रन्थ का अधिकांश विषय परम्परा से गृहीत है। अतः उतने भाग में कुछ नवीनता नहीं है। किन्तु कुछ दार्शनिक तत्त्व ऐसे हैं, जिनका वर्णन पहली बार नियमसार' में ही किया गया है। अतः ऐसे विषय मौलिक और महत्त्वपूर्ण हैं ।
रत्नत्रय का स्वरूप यद्यपि आगमों में एवं तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में 'तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना' यह सम्यग्दर्शन की परिभाषा है ।1 उत्तराध्ययन में भी नौ पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा गया है। जबकि कुन्दकुन्द के नियमसार में कहा है 'अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं' (5)। यहां तत्त्वों के अतिरिक्त आप्त और आगम का श्रद्धान करना भी आवश्यक माना गया है । तत्त्वों में सात पदार्थ न लेकर छह द्रव्यों को ही तत्त्वार्थ कहा गया है (9) । श्रद्धान को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि विपरीत आग्रह से रहित एवं मलिनता व अस्थिरता से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है (51-52) । यहां यह ज्ञातव्य है कि नियमसार में सम्पग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्रयोग तो हुआ, किन्तु 'सम्यग्दर्शन' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है । उसके स्थान पर 'सम्यक्त्व' ही कहा गया है। नियमसार के सम्यक्त्व की इसी परिभाषा को समन्तभद्र एवं वसुनन्दि ने भी आगे चल कर स्वीकार किया है। यद्यपि विभिन्न आचार्यों ने सम्यग्दर्शन की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं ।
आप्त की परिभाषा देने में भी नियमसार ने पहल की है (5-7)। जिन 18 दोषों से आप्त को रहित होना चाहिए उनके नाम भी यहां दिये गये हैं (6) । सम्भवतः समन्तभद्र ने आप्त की परिभाषा कुन्दकुन्द के इस सन्दर्भ के आधार पर ही दी है। आगे चलकर वसुनंदि श्रावकाचार में 'अत्ता दोस विमुक्को' (7) कह कर इसका समर्थन किया गया है।
1. तत्त्वार्थ सूत्र, 1-2 2. उत्तराध्ययन, 28114-15 3. डॉ० के० सी० सोगानी, एथीकल डॉक्टराइन इन जैनिज्म, पृ० 62
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दिगम्बर ग्रन्थों में आगम की परिभाषा भी संभवतः कुन्दकुन्द ने सर्वप्रथम दी है। बाद में इस परम्परा में शास्त्र अथवा आगम के स्वरूप का विस्तार हुआ है । छह द्रव्यों के विवेचन में कोई नयी बात नहीं है । कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में भी उन पर प्रकाश डाला गया है। नियमसार में पर्याय के दो भेद वणित हैं- स्वपरापेक्ष पर्याय और निरपेक्षपर्याय (14)। कुन्दकुन्द ने यहां चार गतियों को विभाव पर्याय एवं कर्म-उपाधि रहित पर्याय को स्वभाव पर्याय कहा है (15) । आलाप पद्धति में नियमसार के उक्त विभाजन का समर्थन किया गया है, किन्तु वसुनंदि श्रावकाचार में अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय के रूप में पर्याय का विभाजन किया गया है।
व्यवहार चारित्र्य के वर्णन में भी नियमसार' में कई बातें महत्त्वपूर्ण कही गयी हैं । तीनों गुप्तियों की सामान्य परिभाषा देकर फिर निश्चयनय की दृष्टि से उनका स्वरूप कहा गया है । मन से रागादि की निवृत्ति मनोगुप्ति, असत्यादि की निवृत्ति अथवा मौन वचनगुप्ति एवं कायोत्सर्ग अथवा हिंसादि की निवृत्ति को शरीरगुप्ति कहा गया है (69-70) कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में पांच समितियों के नाम आये हैं, किन्तु नियमसार में उनकी परिभाषाएं भी दी गयी हैं (61-65)। निश्चयनय से प्रत्याख्यान का स्वरूप कहा गया है कि समस्त वचन-व्यापार को छोड़कर और अनागत शुभ-अशुभ का निवारण कर जो आत्मा को ध्याता है उसे प्रत्याख्यान होता है (95) । इस ग्रन्थ में समताभाव को समाधि में सर्वोपरि स्थान दिया गया है। बिना समता के सभी प्रकार की तपस्या व्यर्थ है (124)।
नियमसार में परमभक्ति का विवेचन नितान्त मौलिक विषय है। सात गाथाओं में निर्वाणभक्ति और योगभक्ति का स्वरूप कहा गया है। रत्नत्रय की भक्ति (134), सिद्धों की भक्ति (135) तथा मोक्षमार्ग की भक्ति को निर्वाण भक्ति कहा गया है, जिसके करने से जीव निजात्मा को प्राप्त करता है (136) । रागादि के परिहार में, विकल्परहित आत्मा में तथा तत्त्वार्थ में आत्मा को लगाना योगभक्ति है (137-139) । यह योगभक्ति परम वीतराग सुख को देने वाली है। नियमसार की इस भक्तिचर्चा का प्रभाव पूज्यपाद के 'दसभक्त्यादि संग्रह' आदि पर देखा जा सकता है।
आवश्यक कर्म की परिभाषा भी नियमसार में नये ढंग से दी गयी है । आवश्यक कर्म का अर्थ यहां दैनिक कर्म नहीं है बल्कि यह कहा गया है कि जो किसी के वश में नहीं है वह अवश है । अवश का जो कर्म है वह 'आवश्यक' है (142)। जो श्रमण अशुभ एवं शुभ भाव के कारण अन्यवश है, उसके आवश्यक कर्म नहीं है । (143-44) । तथा जो परभाव को त्यागकर आत्मा को ध्याता है वही 'आत्मवश' है और उसी के आवश्यक कर्म होते हैं (146) । नियमसार में आवश्यक के जो ये छह भेद कहे हैं-प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कार्यात्सर्ग, सामायिक और परमभक्ति-वे परम्परा के अन्य ग्रंथों में नहीं हैं। आलोचना और भक्ति के स्थान पर वहां स्तुति और वन्दना को रखा गया है।
नियमसार में स्वाध्याय की परिभाषा भी नवीनता लिये है। वचनमय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना यह सब स्वाध्याय है। (153)। जबकि मूलाचार में
1. आलाप पद्धति, पृ० 20।
2. वसुनंदि श्रावकाचार, गा० 25 खण्ड ४, अंक २
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वाचना, पृच्छना, स्तुति आदि को स्वाध्याय कहा गया है (मूलाचार, गा० 219 )
कुन्दकुन्द ने यद्यपि निश्चयनय को ही प्रमुखता दी है, किन्तु व्यवहारनय से भी उपदेश दिया है । उनके अन्य ग्रन्थों की भांति नियमसार में भी अधिकतर निश्चयनय और शुद्धोपयोग का कथन है । किन्तु एक स्थान पर आचार्य यह भी कहते हैं कि यदि तुम करने में समर्थ हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो । किन्तु यदि तुम में शक्ति नहीं है तो तब तक उनका श्रद्धान ही करना चाहिए (154) | इससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द ने व्यवहारनय की सर्वथा उपेक्षा नहीं की है ।
नियमसार पर किसी प्राचीन ग्रन्थ का प्रभाव खोज पाना कठिन है । क्योंकि कुन्दकुन्द के बाद जैन सिद्धान्त के स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना प्रारम्भ हुई है । दूसरी बात यह कि कुन्दकुन्द के किसी ग्रन्थ में भी किसी पूर्ववर्ती ग्रन्थ का सन्दर्भ नहीं मिलता | नियमसार में अवश्य दो स्थलों पर प्राचीन ग्रन्थों के संकेत मिले हैं। चारगतियों के जीवों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है कि इनका विस्तार लोकविभाग में से जान लेना चाहिए ( 17 ) । यह लोकविभाग नामक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ की ओर संकेत नहीं है, अपितु जिन ग्रन्थों में लोक का वर्णन है, उन ग्रन्थों से यह सामग्री जानने को कहा गया है । दूसरे सन्दर्भ में स्पष्टरूप से 'प्रतिक्रमण' नामक सूत्र ग्रन्थ का उल्लेख है, जिससे प्रतिक्रमण का ज्ञान प्राप्त करने को कहा गया है (94) । दिगम्बर परम्परा में अतिक्रमण सूत्र नामक कोई ग्रन्थ आज तक प्राप्त नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में इस नाम का ग्रन्थ है, किन्तु कुन्दकुन्द से ऐसी आशा करना कि उन्होंने इस श्वेताम्बर प्रतिक्रमण सूत्र का सन्दर्भ दिया होगा, उचित नहीं है । अतः हो सकता है कि दिगम्बर परम्परा में भी कोई प्रतिक्रमण सूत्र ग्रन्थ रहा हो जो आज उपलब्ध नहीं है ।
नियमसार की 9 गाथाएं ( 125-133) प्रचलित गाथाओं के छन्द की दृष्टि से ये गाथाएं विचारणीय हैं । अष्टपाहुड़ में इस मिलती हैं ।
नियमसार की भाषा जैन शौरसेनी प्राकृत है । कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों के समान ही इसकी शब्दावलि है । किन्तु इस ग्रन्थ का आलोचनात्मक संस्करण न होने से ग्रन्थ के कुछ शब्द प्राकृत की प्रकृति से भिन्न दिखलायी पड़ते हैं। हो सकता है कि ग्रन्थ की मूलप्रतियों के पाठान्तर का मिलान करने पर उपयुक्त शब्द मिल जाय । अथवा नियमसार में प्रयुक्त ये विशिष्ट शब्द भी हो सकते हैं । अकारादिक्रम से सन्दर्भ सहित उनकी सूची यहां प्रस्तुत है—
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1. अलुच्छण ( गा० 108) 2. अवगणं ( 30 )
3. खुए ( 115 )
4. चउन्नाणं (33)
5. alfare (71) 6. जौह (139) 7. Tarterer (45)
अलुंच्छण
अवगहणस्स
खु (खलु)
चउन्हं
चउतीसा
जैन अर्थ में प्रयुक्त
सय
स्वरूप से भिन्न हैं । प्रकार की गाथाएं
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% 3D
% 3D
% 3D
8. णादव्वं (17)
णायव्वं 9. णादव्यो (25)
णायव्वं 10. णिज्जेत्ती (142)
णिरुक्ति 11. तइया (162)
तइआ 12. तागो (60)
चागो 13. ताव (36)
तारिसो 14. तीदो (31)
तीओ 15. तुरीय (59)
तुरिअ 16. देहो (36)
देसो (पयेसो) 17. धरिदे (106)
धरेंत 18. धरु (140)
धारय 19. पावोग्गा (24)
पाओग्गा 20. पिज्जुत्तो (141)
परुविओ 21. मणुव (77)
मणुअ 22. मुचदि (58)
मुंचइ (मुअइ) 23. मुच्चइ (97)
मुचइ (मुअइ) 24. वचगुत्ती (67)
वयणगुत्ती 25. वदिगुत्ती (69)
वयणगुत्ती 26. विगडि (128)
विडि 27. संठवित्त (109)
संठवेऊण (ठविऊण) 28. संपदा (32) 29 सज्झाउ (153)
सज्झायं 30. साकट्ठ (175)
साक्खत्थं 31. सुण (54)
सुणउ ___ इन शब्दों में 'जोण्ह' शब्द का टीकाकारों ने जैन' अर्थ किस प्रकार किया है, यह ज्ञात नहीं होता। संभवतः 'जोण्ह' शब्द पूर्ण ज्ञानी के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला कोई देशी शब्द है, जो कुन्दकुन्द के समय में प्रचलित रहा होगा। धरु एवं सज्झाउ जैसे अपभ्रंश शब्दों के प्रयोग भी विचारणीय हैं।
संपइ
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जैन दर्शन में नैतिक मूल्यांकन का विषय : एक तुलनात्मक अध्ययन
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कर्त्ता का प्रत्येक कर्म जो नैतिक मूल्यांकन का विषय बनता है, किसी हेतु से अभिप्रेरित होकर प्रारम्भ होता है और अन्त में किसी परिणाम को निष्पन्नकर परिसमाप्त होता है । इस प्रकार कार्य का विश्लेषण हमें यह बताता है कि प्रत्येक कार्य में एक हेतु (उद्देश्य) होता है, जिससे कार्य का प्रारम्भ होता है और एक फल होता है जिसमें कार्य की परिसमाप्ति होती है । दूसरे शब्दों में हेतु को कार्य का मानसिक पक्ष और फल को उसका भौतिक परिणाम कहा जा सकता है। हेतु का निकट संबंध कर्ता के मनोभावों से है, जबकि फल का निकट सम्बन्ध कर्म से है । हेतु पर दिया निर्णय वस्तुतः कर्ता के सम्बन्ध में होता है जबकि फल पर दिया हुआ निर्णय वस्तुतः कर्म के सम्बन्ध में होता है । नीतिज्ञों के लिए यह प्रश्न विवाद का रहा है कि कार्य शुभत्व एवं अशुभत्व का मूल्यांकन उसके हेतु के सम्बन्ध में किया जाए या उसके फल के सम्बन्ध में, क्योंकि कभी कभी शुभत्व एवं अशुभत्व की दृष्टि से हेतु और फल परस्पर भिन्न पाए जाते हैं - शुभ हेतु में भी अशुभ परिणाम की निष्पत्ति और अशुभ हेतु में भी शुभपरिणाम की निष्पत्ति देखी जा सकती है । यद्यपि ग्रीन यह मानते हैं कि शुभेच्छा या शुभ हेतु से किया गया कार्यं सर्वदा शुभ परिणाम देने वाला होता है, लेकिन जागतिक अनुभव हमें यह बताता है कि कभी कभी कर्त्ता द्वारा अनपेक्षित कर्म - परिणाम भी प्राप्त हो जाते हैं । और अनपेक्षित कर्म-परिणाम को परिणाम मानने पर ग्रीन की कर्म के उद्देश्य और फल में एकरूपता की धारणा टिक नहीं पाती है । यदि कार्य के हेतु और कार्य के वास्तविक परिणाम में एकरूपता नहीं हो तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि इनमें से किसे नैतिक निर्णय का विषय बनाया जाये। पाश्चात्य नैतिक चिन्तना में इस समस्या को लेकर स्पष्टतया दो प्रमुख मतवादों का निर्माण हुआ है, जो फलवाद और हेतुवाद के नाम से जाने जाते हैं । फलवादी धारणा का प्रतिनिधित्व बेन्थम और मिल करते हैं । बेन्थम की मान्यता में हेतुओं का अच्छा या बुरा होना उनके परिणामों पर निर्भर है । मिल की दृष्टि में 'हेतु' के सम्बन्ध में विचार करना यह नैतिकता का प्रश्न ही नहीं है, उनका कथन है कि हेतु को कार्य की नैतिकता से कुछ भी करना नहीं होता । 1 दूसरी ओर हेतुवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व कांट, बटलर आदि करते हैं । मिल के ठीक विपरीत कांट का कहना है कि "हमारी क्रियाओं के परिणाम उनको नैतिक
1. नीति शास्त्र की रूप रेखा पृ० 75
( कर्म-मीमांसा)
डॉ० सागरमल जैन
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मूल्य नहीं दे सकते ।"2 बटलर कहते हैं कि किसी कार्य कि अच्छाई या बुराई बहुत अधिक उस हेतु पर निर्भर है जिससे वह किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि नैतिक निर्णय के विषय को लेकर स्पष्ट रूप से दो दृष्टिकोण हैं - 1. फलवाद की दृष्टि में नैतिक निर्णय कृत्य के सम्बन्ध में होते हैं जबकि हेतुवाद की दृष्टि में नैतिक निर्णय का सम्बन्ध कर्ता से होता है । फलवाद की दृष्टि में परिणाम ही नैतिक मूल्य रखते हैं । फलवाद सारा बल कार्य के उस वस्तुनिष्ठ तत्त्व पर, जो वास्तव में क्रिया है, देता है । उसके अनुसार नैतिकता का अर्थ ऐसे परिणामों को उत्पन्न करना है, जिससे जन साधारण के कल्याण में अभिवृद्धि हो । फिर भी यहां हमें इस सम्बन्ध में स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पाश्चात्य फलवाद की दृष्टि में नैतिक मूल्यांकन के लिए परिणाम की भौतिक परिनिष्पत्ति उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी कि परिणाम की वांछितता अथवा परिणाम का अग्रावलोकन । बेंथम और मिल भी यह नहीं कहते कि यदि किसी सर्जन द्वारा किये गये आपरेशन से रोगी की मृत्यु हो जाए तो उसका कार्य निन्दनीय है; यदि सर्जन का वांछित परिणाम या अग्रावलोकित परिणाम आपरेशन के द्वारा उसकी जीवन रक्षा करना था तो उसका वह कार्य नैतिक दृष्टि से उचित ही था चाहे वह उसमें सफल नहीं हुआ हो। किन्तु मिल एवं बेन्थम के अनुसार इस बात से सर्जन की नैतिकता में कोई अन्तर नहीं पड़ता कि उसने वह कार्य धनार्जन के लिए किया अथवा अपनी प्रतिष्ठा के लिए किया अथवा दया से प्रेरित होकर किया। फलवाद के अनुसार धन, यश और दया के प्रेरक नैतिक मूल्यांकन की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं रखते । इस धारणा के विपरीत हेतुवाद में संकल्प अथवा प्रेरक ही नैतिक मूल्य रखते हैं । हेतुवाद के अनुसार यदि प्रेरक अशुभ था, तो कार्य भी अशुभ ही माना जायेगा । यदि कोई डाक्टर किसी सुन्दर स्त्री की जीवन रक्षा इस भाव से प्रेरित होकर करता है कि वह उसे वासनापूर्ति का साधन बनाएगा, तो हेतुवाद की दृष्टि में परिणाम के शुभ होने पर भी डाक्टर का वह कार्य नैतिक दृष्टि से अशुभ ही होगा। इस प्रकार पाश्चात्य नैतिक विचारणा में यह दोनों वाद कार्य के दो भिन्न सिरों पर अनावश्यक बल देकर एक पक्षीय धारणा का विकास करते हैं । हेतुवाद के लिए कार्य का आरम्भ ही सब कुछ है जबकि फलवाद के लिए कार्य का अन्त ही सब कुछ बन गया है । ये विचारक यह भूल जाते हैं कि आरम्भ और अन्त अन्ततोगत्वा सिक्के के पहलुओं के समान कार्य के ही दो पहल हैं, जिन्हें अलग अलग देखा जा सकता है, लेकिन किया नहीं जा सकता। इन विचारकों की भ्रान्ति यह नहीं है, कि इन्होंने कार्य के इन दो पहलुओं पर गहराई से विचार किया, वरन् भ्रान्ति यह है, कि इन्होंने इन्हें अलग अलग करने का असफल प्रयास किया। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों को अलग अलग करके ठीक रूप से समझा नहीं जा सकता उसी प्रकार कर्म-प्रेरक को कर्म-परिणाम से और कर्म-परिणाम को कर्म-प्ररक से अलग करके ठीक रूप से समझा नहीं जा सकता । यही उनके सिद्धान्तों की अपूर्णता थी। भारतीय चिन्तन में भी कर्म-परिणाम और कर्म-हेतु पर विचार तो हुआ लेकिन उसमें इतनी एकांगिता कभी नहीं आई। आइए भारतीय संदर्भ में इस समस्या पर विचार करें।
2. नीति शास्त्र की रूपरेखा पृ० 75 3. नीति शास्त्र की रूपरेखा पृ० 76
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पाश्चात्य आचार विज्ञान का यह विवादात्मक प्रश्न भारतीय नैतिक चिन्तना के प्रारंभिक युग से ही विवाद का विषय रहा है । यद्यपि इस सम्बन्ध में भारत में उतनी बाल की खाल नहीं उतारी गई, जितनी की पश्चिम में । जैनागम सूत्रकृतांग में बौद्ध विचारणा की हेतुवाद सम्बन्धी धारणा का रोचक उपहास प्रस्तुत किया गया है । बौद्धागम मज्झिमनिकाय में भी बुद्ध ने स्वयं को हेतुवाद का समर्थक माना है और निर्ग्रन्थ (जैन) परम्परा को फलवाद का समर्थक बताया है । यद्यपि निर्ग्रन्थ परम्परा को एकांत में फलवादी मानना एक असंगत धारणा है; क्योंकि पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती जैनागमों में हेतुवाद का भी प्रबल समर्थन किया गया है, जिस पर प्रमाणपूर्वक थोड़ी गहराई से विचार करना आवश्यक है ।
यह तो निर्विवाद सत्य है कि बौद्ध दर्शन हेतुवाद का समर्थक है। बौद्ध विचारणा नैतिक मूल्यांकन की दृष्टि से कर्ता के हेतु अथवा कार्य के मानसिक प्रत्यय को ही प्रमुखता देती है । धम्मपद के प्रारम्भ में ही बुद्ध कहते हैं – “सभी प्रकार के शुभाशुभ आचरण में मानसिक व्यापार ( हेतु ) ही प्राथमिक हैं, मन की दुष्टता और प्रसन्नता अर्थात् मन के भले बुरे होने पर ही कर्म भी शुभाशुभ हुआ करते हैं, और उसी से सुख-दुःख मिलता है । (धम्मपद १.२ ) । यही नहीं मज्झिमनिकाय में एक और प्रबल प्रमाण है जहाँ बुद्ध कर्म के मानसिक प्रत्यय की प्रमुखता के आधार पर ही बौद्ध परम्परा और निर्ग्रन्थ परम्परा में अन्तर भी स्थापित करते हैं । बुद्ध कहते हैं " मैं (निर्ग्रन्थों के) काय-दण्ड, वचन दण्ड और मन-दण्ड के बदले काय-कर्म, वचन - कर्म और मन कर्म कहता हूं और निर्ग्रन्थों की तरह काय- कर्म (कर्म के बाह्य स्वरूप) की नहीं, वरन् मन- कर्म ( कर्म के मानसिक प्रत्यय ) की प्रधानता मानता हूं 14
जैनागम सूत्रकृतांग भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि बौद्ध परम्परा हेतुवाद की समर्थक है । ग्रन्थकार ने बौद्ध हेतुवाद का उपहासात्मक चित्र प्रस्तुत किया है । सूत्रकार प्रव्रज्या ग्रहण करने को तत्पर आर्द्रक कुमार के सम्मुख एक बौद्ध श्रमण के द्वारा ही बौद्ध दृष्टिकोण को निम्न शब्दों में प्रस्तुत करवाते हैं
"खोल के पिण्ड को मनुष्य जानकर भाले से छेद डाले और उसको आग पर सेके अथवा कुमार जानकर तुमड़े को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार प्राणिवध का पाप लगता है । परन्तु खोल का पिण्ड मानकर कोई श्रावक मनुष्य को भाले से छेदकर आग पर सेकें अथवा तुमड़ा मानकर कुमार को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार उसको प्राणिवध का पाप नहीं लगता है" ।
मज्झिमनिकाय और सूत्रकृतांग के उपरोक्त सन्दर्भों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि बौद्ध नैतिकता हेतुवाद का समर्थन करती है, दूसरे शब्दों में उसके अनुसार कर्म की शुभा - शुभता का आधार कर्ता का आशय है, न कि कर्म परिणाम । फिर भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का समर्थन करते हुए भी व्यवहारिक रूप में बौद्ध
4. मज्झिमनिकाय, सुत्त 56
5. सूत्रकृतांग - नालन्दा का एक प्रसंग
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नैतिकता फलवाद की अवहेलना नहीं करती। विनय पिटक में ऐसे अनेकों प्रसंग है जहां कर्म के हेत को महत्त्व नहीं देकर मात्र कर्म परिणाम के लोक निन्दनीय होने के आधार पर ही उसका आचरण भिक्षुओं के लिए अविहित ठहराया गया है । भगवान बुद्ध के लिए कर्म परिणाम का अग्रावलोकन उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि वह मिल और बेन्थम के लिए है।
जहां तक गीता की विचारणा का प्रश्न है, अपने आचार दर्शन में वह भी हेतुवाद का समर्थन करती है। गीताकार की दृष्टि में भी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार कर्म का परिणाम न होकर उसका हेतु ही है । गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धांत “कर्मपरिणाम" की अपेक्षा कर्म-हेतु पर ही अधिक बल देता है । गीता में जिस आधार पर अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन किया गया है उसमें कम-हेतु को ही प्रमुखता दी गई है कर्म-परिणाम को नहीं । गीता में कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि "(हे अर्जुन) अमुक कर्म का यह फल मिले यह हेतु (मन में) रखकर कर्म करने वाला न हो।" कार्य के परिणाम पर दृष्टि रखकर आचरण करना गीताकार को अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि वह तो कर्म फल पर व्यक्ति का अधिकार ही नहीं मानता है । गीताकार की दृष्टि में कर्मफल पर दृष्टि रखकर आचरण करने वाले कृपण अर्थात् दीन या निचले दर्जे के हैं ।' बालगंगाधर तिलक भी गीता के आचार दर्शन को हेतुवाद का समर्थक मानते हैं, उनके अनुसार कर्म के बाह्य परिमाण के आधार पर नैतिक निर्णय देना असंगत है । वे लिखते हैं - कर्म छोटे बड़े हो या बराबर हो उनमें नैतिक दृष्टि से जो भेद हो जाता है, वह कर्ता के हेतु के कारण ही हुआ करता है। - (गीता में) भगवान ने अर्जुन से कुछ यह सोचने को नहीं कहा, कि युद्ध करने से कितने मनष्यों का कल्याण होगा और कितने लोगों की हानि होगी; बल्कि अर्जुन से भगवान यही कहते हैं; इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से भीष्म मरेंगे या द्रोण। मुख्य प्रश्न यही है कि तुम किस बुद्धि (हेतु या उद्देश्य) से युद्ध करने को तैयार हुए हो यदि तम्हारी बुद्धि स्थित प्रज्ञों के समान शुद्ध होगी और यदि तुम उस पवित्र बुद्धि से अपना कर्तव्य करने लगोगे तो फिर चाहे भीष्म मरे या द्रोण; तुम्हें उसका पाप नहीं लगेगा। गीता कांट के समान संकल्प को ही समस्त कार्यों का मूल मानती है। गीता शांकर भाष्य में कहा गया है "सभी कामनाओं का मूल संकल्प है।"9 आचार्य शंकर ने मनुस्मृति (213) तथा महाभारत से उद्धरण देकर भी इसे सिद्ध किया है । महाभारत शान्ति पर्व में कहा गया है, . हे काम । मैं तेरे मूल को जानता हूं, तू निस्संदेह "संकल्प" से ही उत्पन्न होता है मैं तेरा संकल्प नहीं करूंगा, अत: फिर तू मुझे प्राप्त नहीं होगा।"10
यद्यपि अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन करते समय गीता कर्म के नैतिक मूल्यांकन के लिए बाह्य परिणाम पर विचार करने की दृष्टि को ओझल कर देती है और
6. मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफल हेतुर्भूमा-गीता 2147 7. कृपणा:फलहेतवः - गीता 2149 8. गीता रहस्य, पृष्ठ 481।। 9. संकल्प मूलाहि सर्वकामाः । -गीता शांकर भाष्य 614 10. काम जानामि ते मूलं संकल्पान्त्वं हि जायसे ।
न त्वां संकल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि ।।—महा० शान्ति० 177125
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ऐसा प्रतीत होता है कि गीता एकांत हेतुवाद का समर्थन करती है । लेकिन यदि गीता के समग्र स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाए तो हमें अपनी इस धारणा के परिष्कार के लिए विवश होना पड़ता है । यदि गीता की दृष्टि में कर्म का बाह्य परिणाम अपना कोई नैतिक मूल्य नहीं रखता है तो फिर गीता के कर्मयोग और लोक संग्रह के हेतु कर्म करते रहने के उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता । चाहे कृष्ण ने अर्जुन के द्वारा प्रस्तुत युद्ध के परिणाम स्वरूप कुलक्षय और वर्ण संकरता की उत्पत्ति के विचार की एक बारगी उपेक्षा कर दी हो, लेकिन अन्त में उन्हें स्वयं ही यह स्वीकार करना पड़ा कि "यदि मैं कर्म न करूं तो यह लोक भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊं तथा इस सारी प्रजा का मारने वाला बनूं ।" क्या यह कृष्ण की फल दृष्टि नहीं है ? स्वयं तिलकजी भी गीता रहस्य में इसे स्वीकार करते हैं, उनके शब्दों में गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य कर्मों की ओर कुछ भी ध्यान न दो । - किसी मनुष्य की विशेषकर अनजाने मनुष्य की बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिए यद्यपि केवल उसका बाह्य कर्म या आचरणप्रधान साधन है; तथापि केवल इस बाह्य आचरण द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती । 11 इस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद की समर्थक होते हुए भी गीता व्यावहारिक दृष्टि से कर्म के बाह्य परिणाम की उपेक्षा नहीं करती है। गीता कर्मफलाकांक्षा का, या कर्मफलासक्ति का निषेध करती है, न कि कर्म परिणाम के अग्रावलोकन या पूर्व विचार का, यद्यपि यह ठीक है कि उसकी दृष्टि में शुभाशुभत्व के निर्णय का विषय कर्म संकल्प है ।
अब यदि हम कार्य के मानसिक हेतु और भौतिक परिणाम में कौन नैतिक मूल्यांकन का विषय है ? इस समस्या पर जैन दृष्टि से विचार करें तो हम पाते हैं कि जैन दृष्टिकोण ने इस समस्या के निराकरण का समुचित प्रयास किया है। जैन दृष्टि एकांगी मान्यताओं की विरोधी रही है और यही कारण है कि प्रथमत: उसने हेतुवाद की एकांगी मान्यता का खण्डन किया है ।
जैनागम सूत्रकृतांग में हेतुवाद का जो खण्डन किया गया है वह एकांगी हेतुवाद का है । जैन दार्शनिकों द्वारा किए गए हेतुवाद के खण्डन के आधार पर उसे फलवादी परम्परा का समर्थक मान लेना स्वयं में सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। जैन चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से भी अधिक समर्थन किया गया है, जिसे अनेक तथ्यों से परिपुष्ट किया जा सकता
है | आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दी की अष्टसहस्त्री टीका में फलवाद का
से
लिखते हैं कि
पाया जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट रूप अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बंधन का कारण है चाहे या न हुई हो । 12 वस्तु (घटना) नहीं वरन् संकल्प ही बंधन का कारण है । 13 दूसरे शब्दों में
( बाह्य रूप में)
हिंसा हुई हो
११४
खण्डन और हेतुवाद का मण्डन
( हिंसा का )
11. गीता रहस्य 3124 की टीका
12. अज्भवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ - समयसार 262 13. ण य वस्थुदो दु बंधो अज्भवसाणेण बंधोत्थि - समयसार - 265
"
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बाह्य रूप में घटित कर्म परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं है, वरन् व्यक्ति का कर्म संकल्प या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है । इसी सन्दर्भ में आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दी के दृष्टिकोणों का उल्लेख सुशीलकुमार मैत्रा और यदुनाथसिन्हा ने भी किया है । 11 जैन दार्शनिक समंतभद्र बताते हैं कि कार्य का शुभत्व केवल इस तथ्य में निहित नहीं है कि उससे दूसरों को सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है । इसी प्रकार कार्य का अशुभत्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल निष्पत्ति के रूप में दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है। क्योंकि यदि शुभ का अर्थ दूसरों का सुख और अशुभ का अर्थ दूसरों का दुःख हो तो हमें अचेतन जड़ पदार्थ और वीतराग संत को भी बन्धन में मानना पड़ेगा, दूसरे शब्दों में उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना होगा, क्योंकि उनके क्रिया कलाप भी किसी के सुख और दुःख का कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें शुभाशुभ का बंध भी होगा ही । दूसरे यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ का अर्थ स्वयं का सुख हो तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बंध करेगा एवं ज्ञानी आत्म संतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या पाप का बंध करेगा ।
अतः सिद्ध यह होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख अथवा दुःख रूप परिणाम शुभाशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, वरन् उनके पीछे रहा हुआ कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य के शुभत्व और अशुभत्व का निश्चय करता है ।
अष्टसहस्री में आचार्य विद्यानन्दी फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम के आधार पर नैतिक मूल्यांकन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध करते हैं । वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य पाप का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ तत्त्व तो पुण्य-पाप के इस माप से नीचे हैं, जैसे जड़ पदार्थ और कुछ पुण्य पाप के इस माप के ऊपर हैं जैसे अर्हत् । पुण्य-पाप के क्षेत्र में अपनी क्रियाओं के आधार पर वे ही लोग आते हैं जो वासनाओं से युक्त हैं। दूसरे शब्दों में बन्धन के हेतु रूप में वासना ही सामान्य तत्त्व है । अत: मात्र किसी को सुख देने या दुःख देने से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य को शुभाशुभ बनाती है। वीतराग के कारण किसी को सुख या दुःख हो सकता है, लेकिन उसकी अपनी कोई वासना या प्रयोजन नहीं होता, अतः उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता है ।
fronर्ष यह है कि जैन दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन या अभिसंधि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख के परिणाम ।
भारतीय दर्शन के अधिकारी विद्वान् श्री यदुनाथ सिन्हा भी जैन नैतिक विचारणा को इसी रूप में देखते हैं, वे लिखते हैं कि “जैन आचार दर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देती है । उसके अनुसार यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है तो वह शुभ ही होगा चाहे उससे दूसरों को दुःख क्यों नहीं पहुंचा
14. ( अ ) एस० के० मैत्रादि ऐथिक्स आफ दि हिन्दूज़, पृष्ठ 321-323 (ब) जे० एन० सिन्हा - इन्डियन फिलासफी, जैन फिलासफी
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हो और कार्य यदि अशुभ प्रयोजन से किया गया है तो अशुभ ही होगा चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों को सुख हुआ हो ।"15 श्री सुशीलकुमार मैत्रा भी लिखते हैं- "शुभाशुभ का विनिश्चय बाह्य परिणामों पर नहीं वरन कर्ता के आत्मगत प्रयोजन की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए।"16 तुलनात्मक दृष्टि से अपने-अपने हेतुवाद के समर्थन में जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों में अद्भुत साम्य परिलक्षित होता है। हम विषय की गहराई में प्रवेश नहीं करते हुए मात्र तुलना की दृष्टि से धम्मपद और गीता के एक एक श्लोक को प्रस्तुत करेंगे। जैन ग्रन्थ पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-"रागादि से रहित अप्रमाद युक्त आचरण करते हुए यदि प्राणघात हो जाए तो वह हिंसा हिंसा नहीं है अर्थात् ऐसा व्यक्ति निष्पाप होकर बन्धन में नहीं आता ।"17 बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा गया है-"माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र का हनन करने पर भी वीततृष्ण ज्ञानी (ब्राह्मण) निष्पाप ही होता है ।"18 गीता कहती है जिसमें आसक्ति और कर्तृत्व भाव नहीं है वह इस समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बंधन में आता है।" वस्तुतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है ।19 यद्यपि समालोच्य आचार दर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है फिर भी जहां तक गीता और जैनाचार दर्शन का प्रश्न इस एकरूपता के होते हुए भी एक अन्तर है और वह अन्तर यह है कि गीता के अनुसार स्थित-प्रज्ञ अवस्था में रहकर हिंसा की जा सकती है जबकि जैन विचारणा कहती है कि इस अवस्था में रह कर हिंसा की नहीं जा सकती है, मात्र वह हो जाती है।
प्रश्न होता है कि यदि जैन चिन्तना को प्रयोजन या हेतुवाद स्वीकार्य है तो फिर उसे हेतुवाद के समर्थक बौद्ध दर्शन का उपहास करने या उसकी आलोचना करने का क्या अधिकार रह जाता है। लेकिन वस्तु स्थिति ऐसी नहीं है। यदि जैन चिन्तना को केवल हेतुवाद स्वीकार्य होता तो वह बौद्ध दार्शनिकों का उपहास नहीं करती। जैन विचारणा सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का विरोध नहीं करती है, उसका विरोध उस एकांगी हेतुवाद से है जिसमें व्यवहार की अवहेलना की जाती है। एकांगी हेतुवाद में जैन विचारणा ने जो
15. The Jain Ethics emphasiyes purity of motives as distinguished
from consequences of action. It considers an action to be right if it is actuated by good intention (37fHifa) though it leads to unhappiness to others. It considers an action to be wrong if it is actuated by bad intention though it leads to happiness
of others. History of Indian philosophy. 16. Hence right and wrong are to be determined not by objective
consequences but by the nature of the subjective intention of
the agent. Tne Ethics of the Hindus P. 289. 17. युक्ताचरणस्य सतो रागद्याबशमन्तरेणाऽपि ।
नहि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।।-पु० सि0 45 18. मातर पितरं हन्त्वा राजानो द्वे च खत्तिये।,
रठं सानुचरं हन्त्वा अनिघो याति ब्राह्मणो – धम्मपद, 294 19. यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। -गीता, 18117
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सबसे बड़ा खतरा देखा, वह यह था कि एकांगी हेतुवाद नैतिक मूल्यांकन की वस्तुनिष्ठ कसोटी को समाप्त कर देता है फलस्वरूप हमारे पास दूसरे के कार्यों का नैतिक मूल्यांकन या माप करने की कोई कसौटी ही नहीं रह जाती है । यदि अभिसंधि या कर्ता का प्रयोजन ही हमारे कर्मों की शुभाशुभता का एक मात्र निर्णायक है, तो फिर कोई भी व्यक्ति दूसरे के आचरण के सम्बन्ध में कोई भी नैतिक निर्णय नहीं दे सकेगा, क्योंकि कर्ता का प्रयोजन जो कि एक वैयक्तिक तथ्य है, दूसरे के द्वारा जाना नहीं जा सकता है। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में तो नैतिक निर्णय उसके कार्य के बाह्य परिणाम के आधार पर ही दिया जा सकता है । साथ ही लोग बाह्य रूप से अनैतिक आचरण करते हुए भी यह कहकर कि उसमें हमारा प्रयोजन शुभ था, स्वयं के नैतिक या धार्मिक होने का दम्भ कर सकते हैं । स्वयं महावीर के युग में भी बाह्य रूप में अनैतिक आचरण करते हुए, अनेक व्यक्ति स्वयं के धार्मिक या नैतिक होने का दम्भ करते थे। यही कारण था कि सूत्रकृतांग में महावीर को यह कहना पड़ा कि “मन से सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें करना क्या यह संयमी पुरुषों का लक्षण है ?"20 हेतुवाद का सबसे बड़ा दोष यही है कि उसमें नैतिकता का दम्भ पनपता है । दूसरे एकांत हेतुवाद में मन और कर्म की एकरूपता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । हेतुवाद यह मान लेता है कि कार्य के मानसिक पक्ष और उसके परिणामात्मक पक्ष में एकरूपता आवश्यक नहीं है, दोनों स्वतंत्र है, उनमें एक प्रकार का द्वत है। जबकि सच्चे नैतिक जीवन का अर्थ है, मनसा वाचा कर्मणा व्यवहार की एकरूपता 121 नैतिक जीवन की पूर्णता तो मन और कर्म के पूर्ण सामञ्जस्य में है । यह ठीक है कि कभी कभी कर्म के कर्ता के हेतु और उसके परिणाम में एकरूपता नहीं रह पाती है, लेकिन यह अपवादात्मक स्थिति ही है और अपवाद के आधार पर सामान्य नियम की प्रतिस्थापना नहीं की जा सकती है । जन साधारण की मान्यता तो यह है कि बाह्य आचरण कर्ता की मनोदशाओं का ही प्रतिबिम्ब है।
यही कारण था कि जैन नैतिक विचारणा ने कार्य के नैतिक मूल्यांकन के लिए सैद्धान्तिक दृष्टि से जहां कर्ता के मानसिक हेतु का महत्त्व स्वीकार किया, वहां व्यावहारिक दृष्टि से कार्य के बाह्य परिणाम की अवहेलना भी नहीं की है। श्री सिन्हा भी लिखते हैं कि "जैन-आचार दर्शन व्यक्तिनिष्ठ नैतिकता पर बल देते हुए भी कार्यों के परिणामों पर भी समुचित रूप से विचार करता है ।"22 जैनाचार दर्शन के अनुसार यदि कर्ता मात्र अपने उद्देश्य की शुद्धता की ओर ही दृष्टि रखता है और कर्म परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व से ही विचार नहीं करता है तो उसका वह कर्म अयतना (अविवेक) और प्रमाद के कारण अशुभता की कोटि में ही माना जाता है और साधक प्रायश्चित का पात्र बनता है। कर्म परिणाम का अग्रावलोकन या पूर्व विवेक जैन नैतिकता में आवश्यक तथ्य है।
20. सूत्रकृतांग 21. मनस्यैकं वचस्यैकं कायस्यैकं साधुनाम । 22. The Jain Ethics stresses subjective morality though it gives due
consideration to the consequences of actions.--History of Indian Philosophy.
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वास्तविकता यह है कि नैतिक मूल्यांकन सामाजिक और वैयक्तिक इन दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है, जब हम सामाजिक दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक मूल्यांकन करते हैं तो हमें तथ्य परक दृष्टि से ही मूल्यांकन करना है और उस अवस्था में कार्य के परिणाम ही नैतिक निर्णय का विषय होंगे। लेकिन जब वैयक्तिक दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक मूल्यांकन करते हैं, तो हमें आत्मपरक दृष्टि से मूल्यांकन करना होगा और उस अवस्था में कार्य के प्रेरक ही नैतिक निर्णय का विषय होंगे। जैनाचार दर्शन की भाषा में यदि कहें तो फल के आधार पर कर्म का नैतिक मूल्यांकन करना यह व्यवहार दृष्टि है और कर्ता के हेतु के आधार पर नैतिक मूल्यांकन करना यह निश्चय दृष्टि या परमार्थ दृष्टि है। जैनाचार दर्शन के अनुसार दोनों ही अपने अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं और आचार दर्शन के समग्र स्वरूप की दृष्टि से किसी की भी अवहेलना नहीं की जा सकती। लेकिन जहां तक आत्मनिष्ठ नैतिकता का प्रश्न है हमें यह स्वीकार करना होगा कि नैतिक निर्णय का विषय कोई आत्मपरक तथ्य ही हो सकता है वस्तुपरक तथ्य नहीं हो सकता । आत्मनिष्ठ नैतिकता में निर्णय का विषय कर्ता की मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य घटनाएं नहीं पाश्चात्य विचारक मिल को भी अन्त में यह स्वीकार कर लेना पड़ा कि नैतिक निर्णय का विषय कर्ता द्वारा अभीप्सित फल (वांच्छित परिणाम) है न कि बाह्य घटित भौतिक परिणाम । लेकिन जैसे ही हम कर्ता के वांच्छित परिणाम की बात करते हैं, किसी आन्तरिक तथ्य की ओर संकेत करते हैं और नैतिक निर्णय के विषय के रूप में बाह्य घटनाओं या फल के स्थान पर कर्म के मानसिक पक्ष को स्वीकार कर लेते हैं. वैसे ही हम कर्म के भौतिक पहलू से मानसिक पहलू की ओर बढ़ते हैं, हमारी विवेचना का केन्द्र कर्म के स्थान पर कर्ता बन जाता है। बाह्य घटित भौतिक परिणाम कर्ता के मानस का प्रतिबिम्ब अवश्य हैं, लेकिन वह सदैव ही उसे यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित नहीं करता। अतः अभ्रान्त नैतिक निर्णय के लिए कर्म के चैतसिक पक्ष या कर्ता की मानसिक अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक हो जाता है। जैन-आचार दर्शन यह स्वीकार करता है कि नैतिक निर्णय का विषय कर्ता की मनोदशाएं है, बाह्य परिणाम उसी अवस्था तक नैतिक निर्णय का विषय माने जा सकते हैं, जब तक कि वे कर्ता की मनोदशा को यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित करते हैं। लेकिन आचरण का मानसिक पक्ष भी इतना अधिक व्यापक है कि पाश्चात्य विचारकों ने उसके एक एक पहलू को लेकर नैतिक निर्णय के विषय की दृष्टि से उस पर गहराई से विचार किया। इसके फलस्वरूप चार विभिन्न दृष्टिकोण सामने आते हैं ।
(1) मिल का कहना था कि “कार्य की नैतिकता पूर्णतः अभिप्राय पर अर्थात कर्ता जो कुछ करना चाहता है, उस पर निर्भर है।" मिल की दृष्टि में अभिप्राय (इरादा) से तात्पर्य कर्म के उस रूप से है, जिस रूप में कर्ता उसे करना चाहता है। मान लीजिए कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति विशेष की हत्या करने के लिए उस सवारी गाड़ी को उलटना चाहता है, जिससे वह व्यक्ति यात्रा कर रहा है। उसका प्रयास सफल होता है; और उस व्यक्ति के साथ-साथ और भी अनेकों यात्री मारे जाते हैं। इस घटना में मिल के अनुसार उस व्यक्ति को केवल एक व्यक्ति की हत्या में दोषी नहीं मानकर सभी की हत्या का दोषी माना जायेगा; क्योंकि वह गाड़ी को ही उलटना चाहता था।
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( 2 ) कांट के अनुसार नैतिक निर्णय का विषय मात्र कर्ता का संकल्प है । यदि उपर्युक्त घटना क्रम के सम्बन्ध में विचार करें तो कांट के अनुसार वह व्यक्ति केवल उस व्यक्ति विशेष की हत्या का दोषी होगा, न कि सभी की हत्या का, क्योंकि उसे केवल उसी व्यक्ति की मृत्यु अभीप्सित थी ।
(3) इस सम्बन्ध में एक तीसरा दृष्टिकोण मार्टिन्यू का है, उनके अनुसार नैतिक निर्णय का विषय वह अभिप्रेरक है जिससे प्रेरित होकर कर्ता ने वह कार्य किया है। उपर्युक्त दृष्टान्त के आधार पर मार्टिन्यू के मत का विचार करे तो मार्टिन्यू कहेंगे कि यदि कर्ता उसकी हत्या वैयक्तिक विद्वेष या स्वार्थ से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह दोषी होगा, लेकिन यदि वह राष्ट्रभक्ति या लोकहित से प्रेरित होकर करना चाहता था तो वह निर्दोष ही माना जायेगा ।
(4) चौथा दृष्टिकोण मैकन्जी का है, उनके अनुसार उस कर्म के सम्बन्ध में कर्ता का चरित्र ही नैतिक निर्णय का विषय है । मान लीजिए कोई व्यक्ति नशे में गोली चला देता है और उससे किसी की हत्या हो जाती है । सम्भव है कि कांट और मार्टिन्यू की धारणा में वह निर्दोष हो, लेकिन मैकन्जी की दृष्टि में तो वह अपने चरित्र की दुषितता के कारण दोषी ही माना जायेगा ।
नीतिवेत्ताओं ने उपर्युक्त चारों मतों की परीक्षा की और उन्हें एकांगी एवं दोष पूर्ण पाया है, यहां पर विस्तार भय से यह सब देना सम्भव नहीं है । इस विवेचना से हमारा तात्पर्य मात्र यह दिखा देना है कि किस प्रकार जैन विचारणा इन चारों विरोधी मतवादों के समन्वय के द्वारा उनकी एकांगिता को दूरकर एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है ।
जैन विचारणा में शुभत्व और अशुभत्व का निकटस्थ सम्बन्ध क्रमशः संवर और आस्रव से माना जा सकता है । हम कह सकते हैं कि जिससे आस्रव होकर कर्म बन्ध हो वह अशुभ है और जिससे संवर होकर बंधन नहीं होता हो वह शुभ है। जैन विचारणा में आस्रव के पांच कारण हैं - 1. मिथ्या दृष्टि 2. कषाय 3. अविरति 4. प्रमाद और 5. योग । इसी प्रकार संवर के 5 कारण हैं - 1. सम्यकदृष्टि 2. अकषाय 3 विरति 4. अप्रमाद और 5. अयोग । पाश्चात्य विचारणा के 1. संकल्प 2. प्रेरक 3. चरित्र 4. अभिप्राय ( इरादा ) अपने लाक्षणिक अर्थों में निम्न प्रकार से इनके समानार्थक माने जा सकते हैं ।
1. संकल्प
2. प्रेरक
3. चरित्र
4. अभिप्राय -
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मिथ्या दृष्टि सम्यक दृष्टि
1. दृष्टि <
2. कषाय (वासना)
3.
4. प्रमादति ] दुश्चरित्र
→>>
5. योग ( मनोयोग )
टिप्पणी - जैन दर्शन में जिस प्रकार योग मानसिक और शारीरिक कृत्यता है । उसी प्रकार मिल के अनुसार अभिप्राय भी कृत्यता है अतः दोनों ही समान जा सकते हैं ।
विरति
अप्रमाद
] → सच्चरित्न
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क्योंकि पाश्चात्य विचारणा के 1. संकल्प 2. प्रेरक 3. चरित्र और 4. अभिप्राय क्रमशः जैन दर्शन के आस्रव एवं संवर के 5 मूल कारणों के पर्यायवाची हैं और जैन दर्शन में शुभाशुभता का निर्णय उन पांचों पर ही होता है । तो हमें यह मानना पड़ेगा कि जैन दर्शन में पाश्चात्य विचारणा के यह चारों मतवाद अविरोधपूर्वक समन्वित हैं।
उपर्युक्त चार मतवादों के आधार पर यदि समालोच्य आचार दर्शनों की तुलना करें तो हम कह सकते हैं कि गीता का दृष्टिकोण कांट के संकल्पवाद और बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अभिप्रेरकवाद के अधिक निकट है । क्योंकि गीता के अनुसार नैतिक निर्णय का विषय कर्ता की व्यवसायिक बुद्धि को माना गया है, जो कि कांट के संकल्प के निकट ही नहीं वरन् समानार्थक भी है। इसी प्रकार बौद्ध विचारणा में शुभाशुभता के निर्णय का आधार प्राणी की वासना (तृष्णा) को माना गया है। यही तृष्णा सारी जागतिक प्रवृतियों की प्रेरक है इस प्रकार तष्णा प्रेरक की समानार्थक है, अत: कहा जा सकता है कि बौद्ध दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अधिक निकट है। जहां तक जैन दृष्टिकोण का प्रश्न है उसे किसी सीमा तक मैकेन्जी के चरित्रवाद के निकट माना जा सकता है, क्योंकि चरित्न शब्द में जो अर्थ विस्तार है वह जैन समन्वयवादी दृष्टि के अनुकूल है, फिर भी इन विवेच्य आचार दर्शनों को किसी एक मतवाद के साथ बांध देना संगत नहीं होगा, क्योंकि उनमें सभी विचारणाओं के तथ्य खोजे जा सकते हैं । गीता में काम और क्रोध के अभिप्रेरक और बौद्ध विचारणा की निराकार अविद्या भी नैतिक निर्णय के महत्त्वपूर्ण विषय हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय विचार दृष्टि समस्या के किसी एक पहलू को अन्य से अलग कर उस पर विचार नहीं करती वरन् सम्पूर्ण समस्या का उसके विभिन्न पहलुओं सहित विचार करती है। यही कारण था कि जब बौद्ध विचारणा ने बन्धन के कारण पर विचार किया तो अविद्या, तृष्णा आदि में से किसी एक को कारण नहीं माना, वरन उनकी प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में शृंखला खड़ी कर दी। जैन विचारणा ने जब आस्रव के कारण पर विचार किया तो केवल मिथ्यात्व या कषाय में से किसी एक पर बल नहीं दिया, पर मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद और योग के पंचक को स्वीकार किया । यह सम्भव है कि किसी एक दृष्टि विशेष से विचार करते समय एक पक्ष को प्रमुखता दी गई हो, लेकिन दूसरे तथ्यों को झुठलाया नहीं गया है।
संवर-पद पंच संवरवारा पण्णत्ता, तं जहा-संमत्तं, विरती, अपमादो, अकसाइत्तं प्रजोगित्तं ।
संवर-द्वार पाँच हैं :-(1) सम्यक्त्व (सम्यक् तत्त्व श्रद्धा), (2) विरति (त्यागभाव), (3) अप्रमाद (आत्मिक उत्साह) (4) अकषाय (राग-द्वेष से निवृत्ति, (5) अयोग (प्रवृत्ति-निरोध)।
-ठाणं, 5/110
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हिंसा के चार भंग
(श्रीचन्द रामपुरिया, बी० कॉम, बी० एल०)
दशवकालिक की श्रीमद् भद्रबाहु कृित नियुक्ति में उल्लेख है कि हिंसा चार प्रकार की होती है, जैसे द्रव्यत: हिंसा, भावतः हिंसा आदि । बृहद् कल्पसूत्र भाष्य में श्री संघदास गणि क्षमाश्रमण ने द्रव्य और भाव के योग से संभव चार भंगों के नाम इस प्रकार बताये हैं : 1. द्रव्यतः हिंसा भावत: हिंसा नहीं 2. भावत: हिंसा द्रव्यतः नहीं, 3. द्रव्यतः हिंसा भावतः हिंसा और 4. न द्रव्यतः हिंसा न भावतः हिंसा । दशवकालिक की चूणि में जिनदास गणि ने भंगों का क्रम इस प्रकार रखा है : 1. द्रव्यत: हिंसा भावतः हिंसा, 2. द्रव्यतः हिंसा भावत: नहीं, 3. भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं और 4. न भावतः हिंसा न द्रव्यत: हिंसा । आचार्य हरिभद्र सूचित क्रम जिनदास गणि के अनुसार है ।
आगमों में द्रव्य हिंसा, भाव हिंसा शब्द प्राप्त नहीं हैं । अत: हिंसा के इन चार प्रकारों का उल्लेख भी वहाँ नहीं है। उक्त भंगों की विस्तृत व्याख्या नीचे दी जा रही है : 1. द्रव्यतः हिंसा भावत: नहीं :
संघदास गणि के अनुसार समिति-युक्त साधु द्वारा जो कदाचित् हिंसा हो जाती है वह द्रव्यतः हिंसा है. भावतः नहीं । जिनदास गणि ने इस भंग को समझाने के लिए केवल
1. द० नि० 45: हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा चउम्विहा सा उ ।
दव्वे भावे अ तहा, अहिंस जीवांइवाओ ति ॥ 2. भाष्य गा० 3932 से 3934 3. दश० 111 चू० पृ० 20 :
तत्थ भंगा चत्तारि-दव्वतोवि एगा हिंसा भावओवि, एगा हिंसा दवओ न भावओ, एगा भावओ न दवओ, अण्णा ण दव्वओ न भावओ। 4. दश० 111 हारि० पृ० 48 : द्रव्यतो भावश्चेत्येको भङ्गः, तथा द्रव्यतो नो भावतः,
तथा न द्रव्यतो भावतः, तथा न द्रव्यतो न भावत:। 5. भाष्य गा० 3933 :
आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ।।
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भद्रबाहु विरचित ओघनियुक्ति की दो गाथाओं को उद्धृत कर दिया है। हरिभद्र के अनुसार यह भंग ईय-समिति युक्त साधु के कारणवश गमन करते समय घटित होता है। उन्होंने भी दो श्लोक उद्धृत किये हैं, जो प्रायः ओधनियुक्ति के श्लोकों से मिलते हैं, केवल दूसरे श्लोक के अन्तिम दो चरण भिन्न हैं।'
गंधहस्ति सिद्धसेन ने भी तत्त्वार्थ सूत्र 718 के भाष्य की टीका में इस भंग का सम्बन्ध साधु के साथ ही जोड़ा है। उन्होंने कहा है-जो ज्ञानवान् है, जो जीव अथवा स्व तत्त्व को जानता है, श्रद्धालु है. कर्म-क्षयहेतु चरण-विन्यास करता है, किसी धार्मिक क्रिया में अधिष्ठित है, प्रवचन माताओं से अनुग्रहीत है, मार्ग में पिपीलिकादि जीवों का अवलोकन करता हुआ पाद-न्यास करता है ऐसा मुनि उठाए हुए चरण को विवश होकर पिपीलिकादि के ऊपर रखने से अपने को बचाने में असमर्थ है और पिपीलिकादि के ऊपर पैर रख देता है, जिससे प्राणी उत्क्रान्त प्राण हो जाता है तो यहाँ द्रव्यतः हिंसा है, भावत: हिंसा नहीं । द्रव्य प्राणव्यपरोपण मान से शुद्धाशय वाले विमलचेता मुनि के भावतः हिंसा नहीं होती।
उपर्युक्त विवेचन से समझ में आ जाता है कि द्रव्य हिंसा क्या है और भाव हिंसा क्या ? द्रव्यतः हिंसा का अर्थ है - प्राण-व्यपरोपण, प्राणी-घात, जीव-वध । भावतः हिंसा का अर्थ है-आत्मत: शुद्ध न होना, आत्मा में जीव-वध का परिणाम-भाव होना अथवा उसकी विधि और उपक्रम से युक्त होना ।
6. ओघनियुक्ति 749-750, दश० 111 चू० पृ० 20 :
तत्थ जा सा दव्वओ न भावओ सा इमा, उक्तं चःउच्चालियम्मि पाए ईरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिङगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज । न य तस्सतन्निमित्तो बन्धो सुहुमोवि देसिओ समए ।
अणवज्जो उपओगेण सवभावेण सो जम्हा ।। 7. दश० 111 हारि० पृ० 48 :
या पुनर्द्रव्यतो न भावतः सा खल्वीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे गच्छत इति, उक्तं चउच्चालिअम्मि पाए इरियास मिअस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरिज्ज तं जोगमासज्ज । न य तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए ।
जम्हा सो अपमत्तो सा य पमाओत्ति निद्दिट्ठा ।। 8. तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम् 718 भाष्य की टीका भाग 2 पृष्ठ 64 : तत्र यदा ज्ञानवानभ्युपेतजीवस्वतत्व: श्राद्धः कर्मक्षपणायैव चरणसम्पदा प्रवृत्तः काञ्चिद्धयां क्रियामधितिष्ठन प्रवचनमातृभिरनुगृहीतः पादन्यासमार्गावलोकितपिपीलिकादिसत्व: समुत्क्षिप्तं चरणमाक्षेप्तुमसमर्थः पिपीलिकादेरुपरि पादंन्यस्यति उत्क्रान्तप्राणश्च प्राणी भवति तदास्य द्रव्यप्राणव्यपरोपणमात्रादत्यन्तशुद्धाशयस्य वाक्यपरिजिहीर्षाविमलचेतसो नास्ति हिंसकत्वम् ।
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समिति युक्त साधु के पैर से प्राणी-वध हुआ, जीव-धात हुआ अत: द्रव्यतः हिंसा है। पर साधु सर्व भाव से अपने प्रयोग में अनवद्य है अत: भावतः हिंसा नहीं है । प्रमाद के योग से प्राणों का व्यपरोपण हिंसा है । चूकि साधु अप्रमत्त है अत: जीव-घात-द्रव्यत: हिंसा होने पर भी भावतः हिंसा नहीं है।
अभयदेव सूरि ने इस भंग के विषय में एक शंका उठाकर उसका निवारण इस रूप में किया है : "चार भंगों में यह पहला भंग युक्त नहीं है। क्योंकि इस भंग में हिंसा का लक्षण नहीं घटता । द्रव्य हिंसा अर्थात् ईर्यासमिति पूर्वक गमन करने वाले जीव द्वारा चींटी आदि जीवों का व्यापादन । ऐसे लक्षण वाली द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण ही नहीं घटता। कहा है - जो मनुष्य प्रमत्त होता है उसकी क्रिया से जीवों का हनन हो तो उन जीवों का हनन करने वाला वह प्रमत्त पुरुष कहलाएगा।' यह लक्षण प्रथम भंग में नहीं जाना जाता अतः उसे हिंसा कैसे कहा जाय ? समाधान—यह शंका युक्त नहीं । कारण उक्त गाथा में हिंसा का जो लक्षण बताया गया है वह द्रव्य हिंसा का नहीं पर द्रव्य और भाव हिंसा का है। द्रव्य हिंसा का लक्षण मात्र मरण है और वह प्रथम भंग में घट जाता है अतः शंका के. लिए कोई स्थान नहीं।"
ओघनियुक्ति में भद्रबाहु ने इस भङ्ग की मार्मिक व्याख्या देते हुए लिखा है : ईर्यासमिति से युक्त साधु द्वारा संक्रमण के लिए पैर उत्पाटित करने पर कुलिंगी-द्वीन्द्रिय जीव को व्यापाद-परिताप पहंचने या उस व्यापादन योग से वह मारा जाय तो भी उस वध के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म बंध भी नहीं कहा है। क्योंकि वह साधु प्रयोगतः—व्यापारत:- क्रिया में सर्व भाव से-मन, वचन, काय से अनवद्य-निष्पाप होता है । जो ज्ञानी कर्मक्षयार्थ उद्यत है, हिंसार्थ उद्यत नहीं, अशठभाव से सदा यत्नवान् है तथा सदा अहिंसा के लिए उत्थित है, उस साधु से कदाचित् प्राणी-घात हो भी जाय तो भी वह साधु अवधक ही है । ऐसे साधु के योग से- निमित्त से, जान या अजान में जो भी सत्त्व विनाश को प्राप्त होते हैं, उसे उस विनाश का हिंसा फल नहीं होता है । हिंसामान और सावध से उक्त० पुरुष हिंसक नहीं होता। क्योंकि जिनवर के द्वारा शुद्ध पुरुष की कर्म सम्प्राप्ति अफल कही गई है। सूत्र विधि से समग्र अध्यात्म विशोधि से युक्त यत्न करते
9. भगवती श० 1 उ० 3 सू० 38 की टीका पृ० 106 : तत्र च द्रव्यतो नाम एका हिंसा, न भावत इत्यादिचतुर्भङ ग्युक्ता, न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा ईसिमित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनम्, न चेयं हिंसा तल्लक्षणायोगात् । तथाहि :-"जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता, वावज्जति नियमा तेसि सो हिंसओहोइ", त्ति । उक्ता चेयम्, अतः शङ्का, न चेयं युक्ता, एतद् गाथोक्त हिसालक्षणस्य
द्रव्य-भावहिंसाश्रयत्वात्, द्रव्यहिंसायास्तु मरणमानतयारूढत्वादिति । 10. 'हिंसा मात्र और सावध से' – साधु के निमित्त से होने वाले बाह्य जीवघात या
पाप-कार्य से । देखिये टि० 6
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हुए संयती-द्वारा जो विराधना होती है वह निर्जरा फल की देने वाली होती है ।।
सूक्ष्म भी बंध नहीं होता-इसका अर्थ है सूक्ष्म भी पाप का बन्ध नहीं होता। उसे जीव-घात से हिंसा का फल नहीं होता अर्थात् हिंसा-जन्य पाप-फल नहीं होता। टीकाकार द्रोणाचार्य ने लिखा है : कभी-कभी ऐसा होता है कि विधि से यत्नपूर्वक कार्य करते हुए साधु से भी किसी अदृष्ट प्राणी की घात हो जाती है और कभी ऐसा होता है कि प्राणी दिखाई देता है पर यत्न करने पर भी साधु उसकी रक्षा नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति में शुद्ध के निमित्त से जो जीव-विनाश होता है, उसका उस साधु को हिंसा-फल नहीं होता अर्थात उसके साम्परायिक-संसार को उत्पन्न करने वाले -दु:ख को उत्पन्न करने वाले कर्मों का बन्ध नहीं होता, पर ईप्रित्ययिक-कर्म बन्ध होता है, जो एक समय में वन्ध और दूसरे समय में क्षय को प्राप्त हो जाता है ।12
भद्रबाहु ने जो कहा है- उसका आधार आगम है। भगवती सूत्र में निम्नलिखित प्रश्नोत्तर प्राप्त हैं :
'भगवन् ! आगे और दोनों ओर युग-प्रमाण भूमि को देखकर गमन करते हुए भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे कूकड़ी का बच्चा, बतक का बच्चा अथवा कुलिंगी आकर मरण प्राप्त करे तो उस अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है अथवा साम्परायिकी क्रिया ?'
गौतम ! उस अनगार को ऐर्यापथिक क्रिया लगती है पर साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती।'
'भगवन ! ऐसा आप किस हेतु से कहते हैं ?'
'गोतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नाश को प्राप्त हो गये हैं उसे ऐर्या. पथिकी क्रिया लगती है पर साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। जिसके क्रोध, मान, माया, लोभ व्युच्छिन्न नहीं हुए हैं उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है पर ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती।
11. ओघनियुक्ति गा० 751 से 752; 759-760 :
नाणी कम्मस्स खयद्वमुट्ठिओऽणुट्ठिओ य हिंसाए। जयइ असढं अहिंसत्थमुट्ठिओ अवहओ सो उ ।। तस्स असंचेअयओ संचेययतो य जाइ सत्ताई। जोगं पप्प विणस्संति नत्थि हिंसाफलं तस्स ।। न य हिंसामित्तेणं सावज्जेणावि हिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहि ।। जा जयमाणस्स भवे विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स ।
सा होइ निज्जरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥ 12 टीका पत्र 220 :
तव नास्ति तस्य साधोहिंसाफलं-साम्परायिकं संसारजननं दुःखजननमित्यर्थः, यदि परमीर्याप्रत्ययं कर्म भवति, तच्चकस्मिन समये बद्धमन्यस्मिन समये क्षपयति।
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सूत्र-अनुसार वर्तन करने वाले साधु को ऐपिथिकी क्रिया लगती है और सूत्र विरुद्ध वर्तन करने वाले को साम्परायिकी क्रिया लगती है । उपर्युक्त संवरयुक्त अनगार सूत्र के अनुसार वर्तन करता है इसलिए उसे ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती 113
__यह भङ्ग सापेक्ष है । निम्न लिखित शर्ते पूरी होने पर ही यह घटित होता है, अन्यथा नहीं ।
2. व्यक्ति संवृत अनगार-साधु-मुनि होना चाहिए । संसार से विरक्त हो, सर्व का परित्याग कर, अठारह पापों का त्याग कर यावज्जीवन के लिए सर्व प्राणातिपात विरमण महाव्रत, सर्व मृषावाद विरमण महाव्रत, सर्व अदत्तादान विरमण महाव्रत, सर्व मैथुन विरमण महाव्रत, सर्वपरिग्रह विरमण महाव्रत, सर्व रात्रि विरमण व्रत को धारण करने वाला गृह रहित भिक्षु होना चाहिए।
2. पांच समिति और तीन गुप्ति- इन आठ प्रवचन माताओं का पालन करने वाला होना चाहिए अर्थात् चलने-फिरने, बोलने आहार आदि प्राप्त करने, वस्तुओं को रखने-उठाने तथा मल-मूत्र आदि व्युत्सर्ग करने की क्रिया में सूत्र विधि के अनुसार वर्तन करने वाला चाहिए। साथ-साथ मन, वचन, काय से गुप्त होना चाहिए।
3. जिस कार्य अथवा उद्देश्य के लिए उठा हो वह कार्य अथवा उद्देश्य साधु-जीवन के साथ संगति रखने वाला अर्थात् कल्प्य होना चाहिए।
4. कार्य करते समय यतना होनी चाहिए, कषाय नहीं होना चाहिए, हिंसा के लिए उत्थान नहीं होना चाहिए। सूत्र विधि की सुरक्षा होनी चाहिए।
आदि-आदि शतों में से यदि किसी की पूर्ति या पालन नहीं होता हो तो उस हालत में भावतः हिंसा का अभाव नहीं कहा जा सकेगा।
13. भगवती शतक 18 उद्देश : 8 सू० 159-161 :
अणगारस्स णं भंते। भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावज्जेज्जा, तस्स णं भंते । किं ईरियावहिया किरिया कज्जइ ? सपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! अणगारस्स णं भावियप्पणो जोवि-तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । से केणढेणं भंते । एवं वुच्चइ ? अणगारस्स णं भवियप्पणो जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कज्ज इत्ति । गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-मायालोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ । अहासुत्तं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ, से णं अहासुत्तम् रीयइ से तेण→णं । गोयमा ! जाव नो संपराईया किरिया कज्जइ॥
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भद्रबाहु ने इसी दृष्टि से कहा है कि जो प्रमत है उसके योग निमित्त से जिन सत्त्वों का व्यापादन होता है नियम से वह उनका हिंसक है। (इतना ही नहीं) जिन सत्त्वों का वह व्यापादन नहीं करता नियम से वह उनका भी हिंसक होता है, क्योंकि वह पुरुष प्रयोगतः --मन-वचन-काय से सावध-पापी होता है। निश्चय से आत्मा ही अहिंसा और आत्मा ही हिंसा है । जो अप्रमत्त होता है वह अहिंसक है । जो उससे भिन्न है अर्थात् प्रमत्त है वह हिंसक है।14
यह लोक जीवों से खचाखच भरा है । तब महाव्रतधारी सर्वगुण सम्पन्न नग्न मुनि भी हिंसक कैसे नहीं होगा ? इस शंका का उत्तर देते हुए भद्रबाहु ने कहा है-'त्रिलोकदर्शी जिनों ने जीव-निकाय से संस्तृत-व्याप्त इस लोक में अध्यात्म-विशुद्धि से ही अहिंसकत्व की देशना की है ।'15 कहने का आशय यह है कि मुनि के लिए अहिंसकत्व अनहिंसकत्व की कसौटी अध्यात्म-शुद्धि है। जिसके अध्यात्म-शुद्धि है वह मुनि जीवों से खचाखच भरे लोक में अहिंसक है, जिसके अध्यात्म-विशद्धि नहीं वह यदि जीवों से शून्य लोक में भी हो तो हिंसक होगा। कहा भी है-पुण पमत्तोऽवि देव जोगेता कहपि तप्पएसे पाणिणो नासी, एस तइयो अशुद्धो य ।' यदि कोई मनुष्य देव प्रयोग से ऐसे प्रदेश में भी पहुंच जाए जहां कोई जीव न हो तो भी यदि वह प्रमत्त है तो वह अशुद्ध है-हिंसक है।
आगे जाकर भद्रबाहु ने एक बड़ी गंभीर बात कही है । वे कहते हैं- 'समस्त गणिपिटक के खींचे हुए सार से जो युक्त है, जो निश्चय का अवलम्बन कर चलने वाले हैं उन ऋषियों का यही परम रहस्य है कि पारिणामिक भाव, शुद्ध-अशुद्ध चित्त परिणाम, ही प्रमाण है- वही हिंसा अहिंसा का निर्णायक है । पर कई निश्चय का अवलम्बन कर निश्चय को निश्चयपूर्वक नहीं जानते हुए बाह्यकरण में-बाह्यक्रिया में- आलसी- अयत्नवान् हो चरणकरण का नाश कर डालते हैं ।'16
14. ओघनियुक्ति गा० 753 से 755 :
जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड्डुच्च जे सत्ता। . वावज्जते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ । जेवि न वावज्जती नियमा तेसिपि हिंसओ सो उ । सावज्जो उ पओगेण सव्वभावओ सो जम्हा ।। आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एसो।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो॥ 15. ओघनियुक्ति गा० 748 :
अज्झप्पविसोहीए जीवनिकाएहिं संथडे लोए।
देसियमहिंसगत्तं जिणेहिं तेलोक्कदंसीहिं ॥ 16. ओघनियुक्ति गा० 761-62
परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरितसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयम वलं बमाणाणं ।। निच्छयमवलंबंता निच्छयओ निच्छयं अयाणंता । नासंति चरण करणं बाहिरकरणालसा केइ ।
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इसका तात्पर्य है - यह ठीक है कि विहित कार्य करने वाले साध को उसके निमित्त से हो जाने वाले प्राणि-घात का पाप नहीं लगता, क्योंकि अध्यात्मतः वह निष्पाप होता है, उसके हिंसा का परिणाम नहीं होता । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह बाह्यघात से बचता हुआ न चले । अगर वह अपनी क्रिया में आलसी-पूर्ण यतनावाला नहीं होता तो उस हालत में परिणाम-शुद्धि की दलील उसके लिए काम नहीं दे सकती । कहा भी है -"परिणाम एव बाह्यक्रिया रहितः शुद्धो न भवति"- बाह्य क्रिया रहित केवल परिणाम भी शुद्ध नहीं होता। ऐसी स्थिति में जहाँ निश्चय नय से यह मानना उचित है कि जीवों से व्याप्त इस लोक में अध्यात्म-विशुद्धि से ही हिंसा-अहिंसा का निर्णय होता है। वहां यह भी समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि जो बाह्य वध से बचने में प्रमाद दिखाता है, अपनी यतना में आलसी या प्रमादी है, सूत्र विधि से वर्तन नहीं करता, अविहित कार्य करता है वह साधु भी निश्चय से हिंसक है और पाप-भाक् है । इस तरह प्रथम भंग का पात्र साधु भी निश्चय-व्यवहार दोनों को स्वीकार कर चले। 2-भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं :
___ इस भंग को प्राचीन आचार्यों ने भिन्न-भिन्न रूप से समझाया है । थोड़े से अभिप्राय नीचे दिए जा रहे हैं :
(1) भद्रबाहु के अनुसार जो पुरुष प्रमत्त है वह सदा हिंसक अथवा वधिक है। जिन सत्त्वों का व्यापादन नहीं करता वह नियम से उनका भी हिंसक होता है क्योंकि वह प्रयोगतः सर्वभाव से सावध होता है ।17 उनके मत से जहां प्रमाद है वहां द्रव्य हिंसा न होते हुए भी भाव हिंसा अवश्य होती है।
(2) संघदास गणि ने लिखा है : "भावतः हिंसा असंयतियों के तथा उन संयतियों के जो समितियुक्त नहीं होते, उन जीवों के प्रति होती है जिनका वे कभी वध नहीं करते।"18
जैन शास्त्रों में मनुष्यों की तीन श्रेणियां की गई हैं-(1) संयती (2) असंयती और (3) संयता संयती । संयती अर्थात् सर्वविरत साधु । असंयती अर्थात् जिसके पापों की थोड़ी भी विरति न हो । संयतासंयती अर्थात कुछ विरति हो, कुछ विरति न हो। संघदासगणि के अनुसार दूसरा भंग इस प्रकार घटित होता है।
(अ) जो संयती है पर समितियुक्त नहीं उससे किसी जीव की हिंसा न होती हो अर्थात् द्रव्य हिंसा न देखी जाती हो तो भी भाव हिंसा निरन्तर होती है । अर्थात् प्राणी की 17. ओघनियुक्ति गा० 753-54
जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड्ड च्च जे सत्ता। वावज्जते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ।। जेवि न वावज्जति नियमा तेसिपि हिंसओ सोउ ।
सावज्जो उ पओगेण सव्वभावओ सो जम्हा ।। 18. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य (3933) ___ भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जेवावि सत्ते ण सदा वधेति ।। 19. सूत्रकृताङ्ग 1, श्रुतस्कन्ध 2, अध्ययन 2
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हत्या न होने पर भी वह घातक है और पाप कर्मों का बन्धन करता है।
(आ) जो असंयती है उसके द्वारा किसी जीव को घात न भी हो तो भी वह निरन्तर हिंसक है । प्राणी-धात अर्थात् द्रव्य हिंसा न होने पर भी अविरति के कारण वह निरन्तर शस्त्र-धारी है अतः भावतः हिंसक है और पाप-भाक् है ।
(इ) जो संयतासंयती है उसके जिन जीवों की हिंसा का त्याग नहीं होता वह उनका निरन्तर, भावतः हिंसक है, और पापार्जन करता है। जिन जीवों की हिंसा का त्याग है उनके प्रति भी वह भावतः हिंसक है । यदि वह प्रमत्त है अर्थात जीवन-वर्तन में सावधान अथवा विधि-युक्त नहीं वह भी पापार्जन करता है ।
(3) जिनदास ने दशवकालिक सूत्र की अपनी चूर्णि में लिखा है :
कोई मनुष्य सर्प को तलवार से मारूगा ऐसा विचार कर रज्जु का छेदन करता है वहां भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं वाला भङ्ग घटित होता है । 20
उक्त उदाहरण को पल्लवित करते हुए हरिभद्र लिखते हैं : “कोई पुरुष मन्द प्रकाश वाले स्थान में रखी हुई काली रस्सी को देखकर यह सर्प है ऐसा सोच कर उसको वध करने के परिणाम से परिणत हो तलवार से उसका शीघ्र-शीघ्र छेदना करता है यह भावतः हिंसा है द्रव्यत: नहीं । 21
इस भंग में प्राणि-घात न होने पर भी वध का परिणाम होता है, अत: तत्त्वतः उस परिणाम के कारण मनुष्य वधक ही होता है और उसके साम्परायिक वध होता है, जो भव परम्परा का कारण होता है । 22
(4) इस भंग को समझाने के लिए सिद्धसेन ने भिन्न ही उदाहरण दिया है : कषायादि प्रमाद के वशवर्ती, शिकार के प्रति आकृष्ट, कठिन धनुष्य को धारण करने वाला, निशाना लगाकर किसी मृग-शावक पर बाण छोड़ देता है । पर मृग-शावक लक्ष्य-स्थान से दूर भाग जाता है जिससे मारा नहीं जाता है। यहां प्राणी-वध न होने से द्रव्यत: हिंसा नहीं है परन्तु अशुद्ध चेता शिकारी की हिंसा में परिणति होने से भावतः हिंसा है । दृढ़ आयुष्य वाला मृग अपने कर्मों के कारण अथवा पुरुषार्थ के कारण बच गया, परन्तु व्याध का चित्त हनन क्रिया युक्त था अतः द्रव्यतः हिंसा न होने पर भी व्यापादक भाव से भावतः 20. दश० 111 चू प० 20 :
तत्थ जा सा भावओ न दव्वओ जहा केइ पुरिसे असिणा अहिं छिदिस्सामित्तिकट्ट.
रज्जुछिदिज्जा एसा भावओ। 21. दश० 111 हारि० पृ. 48-49
या पुनर्भावतो न द्रव्यतः, सेयम् जहा के पिपुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकायं रज्जुपासित्ता एस अहित्ति तव्वहपरिणामपरिणए णिकढ्ढियासिपत्ते
दुअं दुअं छिदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दव्वओ। 22. मंदपगासे देसे रज्जुकिना हिसरिसयंदट्ट, ।
अच्छित्तु तिक्खखग्ग वहिज्ज तं तप्परीणामो ॥22511 सप्पवहाभावपि वि वहपरिणामाउ चेव एयस्स। नियमेण संपराइयबंधो खलु होइ नायव्वो ॥226।।
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हिंसा हुई | 2
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(5) प्रथम और द्वितीय भङ्ग को लक्ष्य में रख कर ही जिन भद्र गणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में कहा है- "कोई घातक है, इतने से ही हिंसक नहीं हो जाता । कोई घातक नहीं इससे वह निश्चय ही अहिंसक है ऐसा भी नहीं । जो पांच समिति से समित है, तीन गुप्ति से गुप्त है और ज्ञानी है ( जीव- अजीव को जानने वाला, जीव-रक्षा की क्रिया अभिज्ञ, सर्वथा जीवरक्षा के परिणामों से परिणत - भावितात्मा है) वह ( जीव घात होने पर भी ) हमेशा हिंसा नहीं करने वाला है । जो इसके विपरीत है वह ( जीव-घात नहीं करता हुआ भी) अहिंसक नहीं । जीवघात द्वारा बाह्य हिंसा हो या न हो संयमी हमेशा अहिंसक है और असंयमी हमेशा हिंसक । हनन नहीं करता हुआ भी दुष्ट भाव के कारण मनुष्य हिंसक कहा गया है जैसे कि व्याध । जो अशुभ परिणाम है वास्तव में वही हिंसा है । अशुभ परिणाम रूप हिंसा बाह्य-निमित्त बाह्य जीव घात की अपेक्षा रखती है और नहीं भी रखती है; क्योंकि बाह्य जीवघात अनेकान्तिक होता है । जो जीवघात अशुभ परिणाम के फलस्वरूप होता है वह हिंसा कही गयी है। जिसके ऐसे परिणामों का निमित्त नहीं होता, उस साधु से जीवघात होने पर भी वह उसके लिए हिंसा नहीं है । जिस तरह शुद्ध भावशुचि के कारण वीतराग के लिए शब्दादि विषय रागजनक नहीं होते उसी तरह शुद्ध मनवाले संयमी द्वारा जीवघात होने पर भी वह उसके लिए हिंसा नहीं होती । 24 इस भंग के विषय में एक शंका उठाई गई है -- एक वीतराग मुनि है । कोई उस पर आक्रोश करता है—उसे पीटता है फिर भी उसे क्रोध नहीं आता। दूसरे को दुःख होता है तभी हिंसा होती है । वीतराग मुनि को पीटने पर भी पीटने वाला हिंसक नहीं क्योंकि मुनि
23
23. कदाचिद् भावतः प्राणातिपातः, न द्रव्यतः । कषायादि प्रमादवशवर्तिनः खलु
मृगकृष्ट कठिन कोदण्डस्य शरगोचरवर्तनमुद्दिश्यैणकं विसर्जितशिलीमुखस्य शरपातस्थानादपसृते सारङ्ग चेतसोऽशुद्ध त्वादकृतेऽपि प्राणापहारे द्रव्यतोऽप्रध्वतेष्वपि प्राणिषु भवत्येव हिंसा, हिंसारूपेण परिणत्वात् काण्डक्षेपिणः स्वकृतदृढायुष्यकर्म शेषादपसृतो मृगः पुरुषकाराच्च, चेतस्तु हन्तुरतिक्लिष्ट मेवातो व्यापादकम् ।
24. विशेषावश्यक भाष्य 1763-68
णय घायत्ति हिंसो णाघातेंतोति णिच्छित महिसो । अहणतो विहु हिंसो दुट्टत्तणओ मतो अहिमरो व्व । वाधेतो वि ण हिंसो सुद्धत्तणतो जवा विज्जो ॥ पंचसमितो तिगुत्तोणाणी अविहिंस ओ ण विवरीतो । होतु व संपत्ती से मा वा जीवोवरोधेणं ॥ असुभो जो परिणामोसा हिंसा सो तु बाहिर णिमितं । को वि अवेक्खेज्ज णवा जम्हाऽणेगंतियं बज्झं | असुभ परिणामहेऊ जीवाबाहो त्ति तो मतं हिंसा । जस्स तु ण सो णिमितं संतो वि ण तस्स सा हिंसा ॥ सद्दातयो रतिफला ण वीतमोहस्स भावसुद्धीतो । जध तव जीवाबाहो ण सुद्धमणसो विहिंसाए ।
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को दुःख उत्पन्न नहीं होता फिर केवल दुष्ट परिणामवाला-केवल चिन्तन करने वाला कसे हिंसक है ? क्षमाश्रमण ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया है – “ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि रागद्वेष रहित मुनि को पीटने वाला दुष्टात्मा है । मुनि कोप-प्रसाद रहित है। इससे दुष्टात्मा अधर्म से कैसे बचेगा ? मैं अमुक प्राणो की हिंसा करूंगा, मैं अमुक से झूठ बोलूंगा (उसकी वंचना करूंगा), अमुक का धन हरण करूंगा, मैं परदारा का सेवन करूंगा इत्यादि चिन्तन कोई करे तो जिसके प्रति वैसा चिन्तन किया जाता है उसके कोपादि उत्पन्न होने की कोई संभावना न हो तो भी हिंसादि का चिन्तन करने वाले दुष्टात्मा को उससे अधर्म और दयादि का संकल्प करने वाले धर्मात्मा को उससे धर्म होता है । निश्चय से आत्मा ही अहिंसा है; और आत्मा ही हिंसा । जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है और इतर-प्रमत्त हिंसक है ।" 25
(6) कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है : “सोने, बैठने, खड़े होने, चलने आदि में जो यत्न रहित चर्या - प्रवृत्ति होती है वह मुनि के सर्वकाल में हर समय होने वाली-निरन्तर हिंसा है, इस प्रकार सर्वज्ञ देव ने कहा है-दूसरा जीव मरे या जीवित रहे जिस मुनि का आचार यत्नपूर्वक नहीं है, उसके हिंसा निश्चित है। पांचों समितियों से युक्त यत्नपूर्वक क्रिया करने वाले मुनि के हिंसा मात्र से-जीव-घात हो जाने मात्र से-बंध नहीं होता। जो श्रमण अयत्नाचारी होता है वह छहों पृथ्वी आदि कायों के प्रतिवध कर-हिंसा करने वाला है, ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है । यदि मुनि नित्य ही यत्नपूर्वक आचरण करता है, तो वह जीव घात हो जाने पर भी जल में कमल की तरह निरुपलेप-कर्मबन्धन से रहित होता है । 25. विशेषावश्यकभाष्य 3257,3259-60,3536
जइ वीयराग-दोसं मूणिमक्कोसिज्ज कोइ दुट्टप्पा । कोवप्पसायरहिओ मुणित्ति कि तस्स नाधम्मो ?॥ हिंसामि मुसं भासे हरामि परदारमाविसामि त्ति। चितेज्ज कोइ न य चितियाण कोवाइ संभूई ।। तहवि य धम्माऽधम्मोदयाइ संकप्पओ तहेहावि । आया चेव अहिंसा आया हिंस त्ति निच्छओ एस ।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो ।। 26. प्रवचनसार : 31216-18
अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाण चंकमादीसु। समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ।। मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स ण त्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। (उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तोबंधो सुहुमो य देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो।] अयदाचारो समण्णो छस्सु वि कायेसु वध करो त्ति मदो। चरदि जद जदि णिच्च कमलं व जले णिरूवलेवो ।
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(7) अमृतचन्द्र सूरि ने कुन्दकुन्दाचार्य के श्लोकों की वृत्ति करते हुए लिखा है : "अशुद्ध उपयोग ही (संयम) का छेद है। शुद्ध उपयोग रूप संयम (श्रामण्य) का छेद करने से-उसकी हिंसा-घात करने से अशुद्ध उपयोग ही हिंसा है। श्रमण की यत्नरहित चर्या अशुद्ध उपयोग के बिना नहीं होती । अशद्ध उपयोग रूप प्रमत्त चर्या द्वारा संयम का हर समय घात होता रहता है, जिसमें सतत हिंसा होती रहती है । अशुद्ध उपयोग अन्तरङ्गच्छेद-अन्तरङ्ग हिंसा है । पर-प्राण-व्यपरोपण हो अथवा न हो, अयत्न पूर्वक आचार से अशुद्ध उपयोग का होना प्रसिद्ध है और उससे हिंसा का होना सुनिश्चित है । अतः अयत्नाचार का हिंसा के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है (अर्थात् जहां अयत्ना होगी वहां हिंसा होगी ही—यह नियम है) यत्नपूर्वक आचरण से अशुद्धोपयोग का न होना प्रसिद्ध है । अत: पर-प्राण-व्यपरोपण होने पर भी बन्ध का न होना सब का जाना हुआ है । अतः हिंसा का यत्ना के साथ विनाभावी सम्बन्ध है । अर्थात् जहाँ यत्ना है वहां हिंसा नहीं होती। इस तरह अन्तरङ्गछेद ही बलवान है न कि बहिरङ्गछेद । अयत्नाचार से अशुद्ध उपयोग का होना प्रसिद्ध है, क्योंकि उसके साथ उस का (अशुद्ध उपयोग का) अविनाभावी सम्बन्ध है । जिसके अशुद्ध उपयोग है वह हिंसक ही है और उसके षट्काय के व्यपरोपण प्रत्ययिक बन्ध प्रसिद्ध है । जो यत्नाचारी है उसके अशुद्ध उपयोग का असद्भाव प्रसिद्ध है; क्योंकि यत्नाचार के साथ अशुद्ध उपयोग का विनाभावी सम्बन्ध है। जिसके शुद्ध उपयोग है वह अहिंसक है और परजीव व्यपरोपण विषयक लेशमात्र भी बन्ध उसके नहीं होता। इस कारण से जल में निर्लिप्त कमल की तरह उसका निरुपलेप होना प्रसिद्ध है। इसलिए सर्वज्ञों ने अशुद्ध उपयोग रूप अन्तरङ्ग छेद का सर्व प्रकार से प्रतिषेध किया है। क्योंकि अन्तरङ्गछेद के न होने से परप्राण-व्यपरोपण रूप बहिरङ्ग छेद दूर से ही प्रतिषिद्ध हो जाता है ।27 27. प्रवचनसार: तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति : 31216-18
अशुद्धोपयोगो हि छेद:, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्; तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा । अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचङ क्रमणा दिष्वप्रयता या चर्या सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिसैव ।। अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः । तत्र परप्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्ध स्तथा तद्विनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदश द्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्ध श्चान्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरङ्गः एव मप्यन्तरङ्गच्छेदायतनमात्रत्वाद्वहिरङ्गच्छेदोऽभ्युयपम्येतैव ।।217।। यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाज्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्ध रहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गछेदः प्रतिषेध्यो यैर्यस्तदायतनमानभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो
बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्ध: स्यात् ।।218॥ खण्ड ४, अंक २
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(8) आचार्य जयसेन लिखते हैं-"जो कायादि की चेष्टा कषायरहित भाव या बुद्धिपूर्वक नहीं होती अर्थात् संक्लेश सहित होती है वह अप्रयत्नाचर्या है । जो निर्विकार स्वसंवित्तिरूप प्रयत्न से रहित होता है उसके शुद्ध चैतन्य रूप अपने प्राणों का व्यपरोपण निरन्तर होता रहता है। फिर बाह्य में अन्य जीव का मरण हो या न हो उसके निश्चय हिंसा होती है । द्रव्य हिंसा मान्न से, बाह्य अभ्यन्तर में जो प्रयत्न परायण है, उसके बंध नहीं होता। जो शुद्ध आत्मस्वरूप में सम्पक रूप से गत-अवस्थित-परिणत है, जो व्यवहार में ईर्या आदि पांच समितियों से युक्त है तथा जो सदा प्रयत्नवान् है ऐसे मुनि के द्रव्य हिंसा मात्र से बन्ध नहीं होता। क्योंकि वह निर्विकार है । हिंसा दो प्रकार की कही गई है-एक निश्चय हिंसा और दूसरी व्यवहार हिंसा । स्व स्वभावरूप निश्चय प्राणों के विनाश की कारणभूत रागादिरूप परिणति निश्चय हिंसा कही गई है। रागादि के उत्पन्न होने पर निमित्त रूप से बहिरङ्ग में जो परजीवघात होता है वह व्यवहार हिंसा है। जानने की विशेष बात यह है कि बहिरङ्ग हिंसा हो या न हो स्व स्वभावरूप निश्चय प्राण के घात से निश्चय हिंसा नियम से होती है। इस कारण से वही मुख्य है। शुद्धात्मसंवित्ति लक्षण रूप शुद्ध उपयोग से परिणत पुरुष द्वारा षड्जीव से व्याप्त इस लोक में विचरण करते हुए बहिरङ्ग द्रव्य हिंसा हो जाय तो भी इतने भर से निश्चय हिंसा नहीं होती। यहां सूक्ष्म जीवघात में जितने अंश से स्वभाव से चलनरूप रागादि परिणति रूप लक्षण वाली भाव हिंसा होती है उतने ही अंश में बंध होता है । पाद-संघट्ट मात्र से उस तपोधन के रागादि परिणति लक्षण रूप हिंसा नहीं होती इसी कारण उसके बंध भी नहीं होता।
(9) पाण्डे हेमराज जी लिखते हैं : “संयम का घात ही अशुद्ध उपयोग है क्योंकि मुनिपद शुद्धोपयोग रूप है। अशुद्धोपयोग से मुनिपद का नाश होता है। अशुद्धोपयोग का होना ही हिंसा है । सब से बड़ी हिंसा ज्ञानदर्शन रूप शुद्धोपयोग के घात से होती है । वह अशुद्धोपयोग मुनि के निरन्तर उस समय ही समझना चाहिए, जिस समय मुनि सोना, बैठना, चलना इत्यादि क्रियाओं में यत्नपूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता। यत्न के बिना मुनि की क्रिया अट्ठाईस मूलगुण की घातिनी है । यत्न उस समय नहीं होता, जिस समय उपयोग की चंचलता 28. प्रवचनसार : तात्पर्यवृत्तिः 31216-18 :
बाह्यव्यापाररूपा: शत्रवस्तावत्पूर्वमेव व्यक्ताः तपोधनः, अशनशयनादिव्यापारैः पुनस्त्यक्तं नायाति । तत: कारणादन्तरङ्गक्रोधादिशनिग्रहार्थं तत्रापि संक्लेशो न कर्तव्य इति ॥2161 स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिनिश्चयहिंसा भण्यते रागाद्युत्पत्तेर्बहिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवधातोव्यवहारहिसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या। किन्तु विशेषः बहिरङ्गहिंसा भवतु वा मा भवतु, स्वस्थभावनारूपनिश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति । ततः कारणात्सव मुख्येति ॥ शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः षड्जीवकुले लोके विचरन्नपि यद्यपि बहिरङ्गद्रव्य हिंसामात्रमस्ति, तथापि निश्चयहिंसा नास्ति । ततः कारणाच्छुद्धपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ।।218।।
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होती है । यदि उपयोग की चंचलता न हो तो यत्न अवश्य हो। इसलिए उपयोग की निश्च
ता है, वही शुद्धोपयोग है । यत्न सहित क्रिया से भंग नहीं होता और यत्न रहित क्रिया से भंग होता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि मुनि की जो यत्नरहित क्रियाओं में प्रवृत्ति है, वह सब निरन्तर शुद्धोपयोग रूप संयम की घात करने वाली हिंसा ही है । हिंसा दो प्रकार की है, एक अन्तरङ्ग और दूसरी बहिरङ्ग । ज्ञान प्राण का घात करने वाली अशुद्धोपयोग— रूप प्रवृत्ति को 'अन्तरङ्ग हिंसा' कहते हैं । बाह्य जीव के प्राणों का घात करने को बहिरङ्ग हिंसा कहते हैं । इन दोनों में अन्तरङ्ग हिंसा बलवती है, क्योंकि बाह्य में दूसरे जीवों का घात हो या न हो, मुनि की यत्नरहित हलन चलनादि क्रिया हो तो मुनि के यत्नरहित आचार से अवश्यमेव उपयोग की चंचलता होती है । अतएव अशुद्धोपयोग होने से आत्मा के चैतन्यप्राण का घात होता है । इसलिए हिंसा अवश्यमेव है और यदि मुनि यत्न से पांच समितियों में प्रवृत्ति करे तो वह मुनि उपयोग की निश्चलता से शुद्धोपयोग रूप संयम का रक्षक होता है । इसलिए बाह्य में कदाचित् दूसरे जीव का घात भी हो, तब भी अन्तरङ्ग अहिंसक भाव के बल से बन्ध नहीं होता। इसलिए शुद्धोपयोग रूप संयम की घात करने वाली अन्तरङ्ग हिंसा ही बलवती है । अन्तरङ्ग हिंसा से अवश्य ही बंध होता है । किन्तु बाह्य हिंसा से बन्ध होता भी है और नहीं भी होता । यदि यत्न करने पर भी बाह्य हिंसा हो जाय तो बन्ध नहीं होता और जो यत्न न हो तो अवश्य ही बाह्य हिंसा बन्ध का कारण होती है । बाह्य हिंसा का जो निषेध किया है, सो भी अन्तरङ्ग हिंसा के निवारण के लिए ही । इसलिए अन्तरङ्ग हिंसा त्याज्य है | और शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भाव उपादेय है । जिस समय उपयोग रागादि भाव से दूषित होता है, उस समय अवश्यमेव यति क्रिया में शिथिल होकर गुणों में यत्न रहित होता है । जहाँ यत्न रहित क्रिया होती है, वहां अवश्यमेव अशुद्धोपयोग का अस्तित्व है । यत्न रहित क्रिया से षट्काय की विराधना होती है । इससे अशुद्धोपयोगी मुनि के हिंसक भाव से बन्ध होता है । जब मुनि का उपयोग रागादि भाव से रंजित न हो, तब अवश्य ही यति क्रिया में सावधान होता हुआ यत्न से रहता है, उस समय शुद्धोपयोग का अस्तित्व होता है, और यत्नपूर्वक क्रिया से जीव की विराधना का उसके अंश भी नहीं है । अतएव वह अहिंसाभाव से, कर्ममल से रहित है और यदि यत्न करते हुए भी कदाचित् परजीव का घात हो जाय तो भी शुद्धोपयोग रूप अहिंसक भाव के अस्तित्व से कर्मलेप नहीं लगता । जिस प्रकार कमल यद्यपि जल में डूबा रहता है, तथापि अपने अस्पृश्य स्वभाव से निर्लेप ही है, उसी तरह यह मुनि भी होता है । इसलिए जिन-जिन भावों से शुद्धोपयोग रूप अन्तरङ्ग संयम का सर्वथा घात हो, उन-उन भावों का निषेध है, और अन्तरङ्ग संयम के घात का कारण, परजीव के बाधारूप बहिरङ्ग संयम का भी घात सर्वथा त्याज्य है 129
( 10 ) पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है - निश्चयकर कषायरूप परिणमन हुए मन वचन काय के योगों से जो द्रव्य और भाव रूप दो प्रकार के प्राणों काव्यपरोपण करता है, वह अच्छी तरह निश्चय की हुई हिंसा होती है । निश्चय करके रागादि भावों का प्रकट न होना यह अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होना
29. प्रवचनसार, बालावबोध भाषा टीका 31216-18
खण्ड: ४, अंक २
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हिंसा होती है, ऐसा जिन सिद्धान्त का संक्षिप्त रहस्य है । निश्चय कर योग आचरण वाले सन्त पुरुष के रागादि भावों के अनुप्रवेश बिना केवल प्राणपीडन से हिंसा कदाचित् भी नहीं होती । रागादि भावों के वश में प्रवृत्ति रूप अयत्नाचार रूप प्रमाद अवस्था में जीव मरे अथवा न मरे हिंसा तो निश्चय कर आगे ही दौड़ती है । क्योंकि जीव कषाय भावों सहित होने से पहले आपके ही द्वारा आप की घात करता है फिर पीछे से चाहे अन्य जीवों की हिंसा हो अथवा नहीं। हिंसा में विरक्त न होना, हिंसा और हिंसा रूप परिणमना भी हिंसा होती है । इसलिए प्रमाद के योग में निरन्तर प्राण घात का सद्भाव है । निश्चय कर कोई जीव हिंसा को नहीं करके भी हिंसाफल के भोगने का पात्र होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता है 130
( 3 ) द्रव्यतः हिंसा भावतः हिंसा :
इस भंग को समझने के लिए आचार्यों के निम्न मन्तव्य सहायक होंगे ।
(1) भद्रबाहु लिखते हैं यदि कोई पुरुष प्रमत्त है और उसके योग से सत्त्वों का व्यापादन होता है तो नियम से वह उनका हिंसक है । 31 यहां प्रमाद होने से भावतः हिंसा है । साथ-साथ प्राणघात भी है अतः द्रव्यतः हिंसा है ।
(2) संघदास गणि ने लिखा है : "असंयती या संयंती जो समितियुक्त नहीं होते उन
30. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय 43-48, 51
यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा || अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्य हिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हि सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राण व्यपरोपणादेव || व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वश प्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥ यस्मात्कषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥ हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥ अविधायापि हि हिंसा हिंसा फल भुग् भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिसाफलभाजनं न स्यात् ॥
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31. atafag ft 752
जो य पत्तो तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता | वावज्जते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ ॥
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के द्वारा प्राणातिपात हो जाता है तब वहां द्रव्यतः भावतः दोनों हिंसाएँ होती हैं ।32
इसका तात्पर्य है :
(अ) जब संयती समितियुक्त नहीं होता और प्राणि-घात हो जाता है तो द्रव्यतःभावत: हिंसावाला भङ्ग घटता है क्योंकि द्रव्य प्राण-हरण के साथ-साथ प्रमाद भाव होने से द्रव्य और भाव दोनों हिंसाएं विद्यमान होती हैं।
(आ) असंयती में भाव हिंसा का सदा सद्भाव रहता है क्योंकि उसके निरन्तर अविरति रूप शस्त्र रहता है। प्राणिघात हो जाने से द्रव्य हिंसा का भी सद्भाव हो जाता है ।
(इ) संयतासंयती के देश अविरति की अपेक्षा भावहिंसा का सर्वदा सद्भाव होता है । प्राणिवध होने पर द्रव्य हिंसा भी वर्तमान होती है ।
(3) इस भङ्ग को समझने के लिए जिनदास और हरिभद्र ने एक-सा ही उदाहरण दिया है। कोई पुरुष मृग को मारने के परिणाम से परिणत हो मृग को देख कानों तक आकृष्ट को दण्ड की रस्सी से बाण को छोड़ता है । मृग उस बाण से विद्ध हो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । यह द्रव्यतः हिंसा है और भावत: भी हिंसा है।
सिद्धसेन कहते हैं
“मलिन भाववाले जिघांसु के जिसने बहुत-से जीवों को प्राणों से उत्क्रान्त कर दिया है भाव और द्रव्य से हिंसा होती है ।"34
' जहाँ द्रव्यत: और भावत: हिंसा होती है अर्थात हिंसा के परिणाम हैं और साथ-साथ जीव-घात भी है वहां मनुष्य प्रकटतः ही हिंसक है और वह पाप का भागी है । 35
32. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य 3934 __ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दवहिंसा खलुभावतो य । 33. दश० 111 चू० पृ० 20 : (क) तत्थ दव्वओपि भावओपि जहा केइ पुरिसे मियवधाते परिणामपरिणए मियव
धाय उसु निसिरेज्जा, सेय मिए तेण उसुणावि विद्ध', एसा दव्वओ भावओवि
हिंसा। (ख) दश० 111 हा० पृ० 48 :
जहा केइ पुरिसे मिअवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयन्नाइड्डियकोदंडजीये सरं णिसिरिज्जा, से अ मिए तेण सरेण विद्ध' मए सिआ, एसा दव्वओ हिंसा
भावओवि । 34. तत्वार्थ 718 सिद्धसेन टीका पृ० 65 : .
तथा तस्यानवदात्तभावस्य जिघांसोरुत्कान्तजन्तुप्राणकलापस्य भावतो द्रव्यतश्च हिंसेत्येवम् । 35. मिगवहपरिणामगओ आयण्णं कड्डिऊण कोदंडं ।
मुत्तूण मिसु उमओ वहिज्ज तं पागडो एस ।।22711 खण्ड ४, अंक २
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(4) न द्रव्यतः हिसा न भावतः हिंसाः जिनदास कहते हैं- “जहां यह भङ्ग घटता है वहाँ हिंसा नहीं कहना चाहिए ।
हरिभद्र कहते हैं - "यह चरम भङ्ग शून्य है ।"37 यह भङ्ग तब घटता है जब सर्व संवृत्त साधु के योगों से जीव-वध नहीं होता ।
संघदास गणि लिखते हैं : “अध्यात्म से शुद्ध साधु के जब वध के साथ योग सम्बन्ध नहीं होता तब द्रव्यत: और भावत: दोनों प्रकार से अहिंसा होती है।"38
जहाँ दोनों प्रकार की हिंसा का अभाव है वहां हिंसा ध्वनि मात्र समझना चाहिए। यह भङ्ग मात्र आनुपूर्वी से प्राप्त है और शिष्य के बुद्धि-विकास के लिए कहा गया है। यह अदुष्ट है-दोष-रहित है। इस भङ्ग में अहिंसा है अत: पाप का बंध नहीं है । सिद्धसेन ने कहा है-प्रथम तीन विकल्पों में दूसरे और तीसरे इन दो विकल्पों में ही प्रमत्त योग है अत: वहीं अहिंसकत्व है ।
36. दश० चू० पृ. 20 :
सा अ हिंसा चेव ण भण्णइ । 37. दश० हा० पृ० 49 :
चरमभङ्गस्तु शून्य इति । 38. अज्झत्थसुद्धस्स जदा ण होज्जा, वधेण जोगो दुहतो वऽहिंसा ॥ (3934) 39. उभयाभावे हिंसा धणिमित्तं भंगयाणुपुत्वीए। ... तहवि य दंसिज्जती सीसमइ विजोवणमदुट्ठा ।।228॥ 40. तत्त्वार्थाधिगम् सूत्र 718 भाष्य टीका :
विकल्पनये प्रमत्तयोगत्वं द्वितीयतृतीयविकल्पयोः अतस्तयोरेव हिंसकत्वं, न प्रथमस्येति।
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चार प्रकार के साधक
आचार्य श्री तुलसी
मानवीय मनोवृत्ति की सबलता और निर्बलता को परिलक्षित कर अथवा साधना की क्षमता और अक्षमता का चिन्तन कर शास्त्रकारों ने चार प्रकार के साधक बताए हैं
(1) सीहत्ताए णाममेगे णिक्खंते सीहत्ताए विहरइ। (2) सीहत्ताए णाममेगे णिक्खंते सियालत्ताए विहरइ । (3) सियालत्ताए णाममेगे णिक्खंते सीहत्ताए विहरइ । (4) सियालत्ताए णाममेगे णिक्खंते सियालत्ताए विहरइ ।
कुछ साधक अमित वैराग्य व असीम उत्साह के साथ संयम पथ पर आरूढ़ होते हैं और आजीवन उसी उत्साह, श्रद्धा व विरक्ति से स्वीकृत पथ पर गति करते रहते हैं। कुछ साधक जब संयम जीवन स्वीकार करते हैं, उस समय उनमें अत्यन्त उत्साह होता है एवं वे विरक्ति की चरम पराकाष्ठा पर पहुंचे होते हैं। पर धीरे-धीरे उत्साह क्षीण होता चला जाता है, विरक्ति मन्द पड़ जाती है और संयम के प्रति क्रमश: अश्रद्धा के भाव होते चले जाते हैं । कुछ व्यक्ति जब दीक्षित होते हैं, तब न उनमें उत्साह का अतिरेक होता है और न विरक्ति और श्रद्धा का अमित बल ही। किसी आकस्मिक निमित्त को पाकर संयम जीवन स्वीकार कर लेते हैं पर आगे जाकर उनमें विरक्ति का स्रोत फूट पड़ता है, उनकी डगमगाती आस्था को आधार मिल जाता है और वे अत्यन्त वैराग्य के साथ अपनी संयम यात्रा को निर्बाध सम्पन्न करते हैं। कुछ व्यक्ति दीक्षित होते समय भी अनुत्साही होते हैं और दीक्षित हो जाने के बाद भी संयम पालन में जीवन भर अनुत्साही ही रह जाते हैं।
इसीलिये उक्त ठाणं सूत्र का पाठ यह सूचित करता है किएक सिंहवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर सिंहवृत्ति से विचरण करता है। एक सिंहवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर सियालवृत्ति से विचरण करता है। एक सियालवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर सिंहवृत्ति से विचरण करता है। एक सियालवृत्ति से अभिनिष्क्रमण कर सियालवृत्ति से विचरण करता है ।
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चूणि-कथा :
कहं तुब्भे वंदियव्वा?
___ सं. मुनिश्री दुलहराज
एक्को खमतो चेल्लएण सह वासारत्ते भिक्खस्स हिंडति। तेण मंडक्कलिता मारिता। चेल्लगं पडिचोएंतं भणतिचिरमता।
- रत्ति आवस्सए अणालोएंतो चेल्लएण 'आलोएहि मंडुक्कलियं' ति भणिए रुट्टो खेलमल्लगं घेत्तु मुद्धावितो खंभस्स अंसीए वेगावडितो। मतो जोतिसिएसु उववण्णो। चइत्ता दिट्ठीविसकुले दिट्ठीविसो जातो।
तत्थ समीवणगरे रायपुत्तो सप्पेण खतितो। वालग्गाहिणा मंतेहिं मंडलं पवेसित्ता भणित्ता-'जेण खइतो सो अच्छतु, सेसा गच्छंतु ।' गतेसु एक्को ठितो। अंगाररासि समीवे का भणितो-विसं पडिपिब अग्गिं वा पविस ।'
सप्पा य गंधणा अगंधणा य । अगंधणा उत्तमा माणिणो । सो अगंधणो अग्गि पडितो, न पिबति।
__ मतो रायपुत्तो । रण्णा रु?ण घोसावियं-जो सप्पसीसमाणेति तस्स दीणारं देमि । लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेति ।
तं खमगसप्पकुलं जातीसरं । रत्ति चरति ‘मा दिया दहीहामो' । वालग्गाहीहिं सप्पे मग्गंतेहिं रत्ति परिमलेण खमगसप्पबिलं दिट्ठ। दारट्ठिएहि ओसहीहिं आवाहितो। विदितकोवविवागो ‘मा अभिमुहो डहिहामि' त्ति पतीवं निग्गच्छंतो पुंछादारब्भ कप्पितो जाव सीसं । सो देवतापरिग्गहितो। तीए रण्णो दरिसणं दिणं-'मा सप्पवहं करेहि, पुत्तो ते भविस्सति । णागदत्तं च से णामं करेहि ।'
खमगसप्पो सम्मं पाणपरिच्चागेण रायपुत्तो जातो नागदत्त इति । जातिसरो खुड्डुलओ चेव तहारूवाणं थेराणं अंतिए पव्वतितो। तिरियाण (भाव) त्ततेण छुहालू दोसीणवेलाए आढत्तो ताव भुंजति जाव सूरत्थमणं, उवसंतो धम्मसद्धिओ य ।
तत्थ गच्छे चत्तारि खमगा-चाउमासितखमतोतेमासिय० दोमासिय० एगमासितो।
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रत्ति देवया वंदिया आगता, एक्कमासितो बारमूले, तदणु दोमासितो, तदणु तेमासितो, तदणु चाउम्मासितो, पंचमओ खुड्डतो, ते वोलेउखुड्डओ वंदितो। खमगा रुट्ठा । निग्गच्छंती चाउमासितेण वत्थंते घेत्तुं भणिता
'कडपूयणे ! तवस्सिणो न वंदसि ? दोसीणविद्धसणं वंदसि ।' . सा भणति-भावखमगं वंदामि, ण पूयासक्कारमाणिणो।' ते वेगंतेण सामरिसिता । देवता चेल्लगरक्खणत्थं पडिचोयणत्थं च सण्णिहिता चेव ।
बितियदिवसे चेल्लओ दोसीणमाणेतुमालोएत्ता चाउम्मासितं णिमंतेति । तेसिं तदिवसं पारणगाणि, तेण पडिगहगे से निट्ट दं । मिच्छा दुक्कडं, तुब्भ मते खेलमल्लतो ण दिण्णो त्ति । तमणेण उप्परातो खेलमल्लए छुढं । एवं तेमासिय दोमासिएहिं जाव मासिएण अ। फेडेता कुसणियलंबणं गेण्हंतो खमएहिं हत्थे गहितो। तस्स चेल्लगस्स अदीणस्स विसुद्ध परिणामस्स केवलमुप्पण्णं ।
देवया भणति–'कोधाभिभूता कहं तुब्भे वंदियवा ?' [ताहेते] खमगा संवेगमावण्णा-मिच्छा मे दुक्कडं, अहो ! बालस्स माहप्पं, अम्हेहिं पुण आसातितो। तेसि पि सुहअज्झवसाणाणं केवलमुप्पण्णं ।
प्रशस्त पद ताओ ठाणा सुसीलस्स सुव्वयस्स सगुणस्स समेरस्स सपच्चक्लाणपोसहोवासस्स पसत्था भवन्ति, तं जहा- अस्सि लोगे पसत्थे भवति; उववाए पसत्थे भवति ; आजाती पसत्था भवति ।
शील, व्रत, गुण, मर्यादा, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से युक्त पुरुष के तीन स्थान प्रशस्त होते हैं :-(1) इहलोक प्रशस्त होता है। (2) उपपात प्रशस्त होता है, (3) आगामी जन्म (देवलोक या नरक के बाद होने वाला मनुष्य जन्म) प्रशस्त होता है।
-ठाणं, 3/316
खण्ड ४, अंक २
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पूणि-कथा: (हिन्दी भाषान्तर)
तम्हें वन्दना कैसे करें ?
अनु मुनिश्री दुलहराज
एक तपस्वी वर्षा ऋतु में अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिये निकले । उनके द्वारा एक मेंढकी मर गई। शिष्य ने उनका ध्यान उस ओर खींचा। तपस्वी ने कहा-'यह तो पहले से ही मरी हुई थी।'
रात्रि में प्रतिक्रमण करते समय तपस्वी ने आलोचना नहीं की । तब शिष्य ने कहा'मेंढकी की आलोचना कर लें।' इतना कहते ही तपस्वी कुपित हो गए। उन्होंने थूकने का पात्र उठाया और शिष्य पर प्रहार करने दौड़े। वे खम्भे के एक कोने से वेगपूर्वक जा टकराए और नीचे गिर पड़े। भूमि पर गिरते ही उनकी मृत्यु हो गई और वे ज्योतिष्क देव में जा उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे दृष्टिविष सों के कुल में दृष्टिविष सर्प हुए।
पार्श्ववर्ती नगर में राजपुत्र को एक सर्प ने डस लिया। एक गारुडिक ने मंत्रों द्वारा सों को एक मंडल में एकत्रित कर कहा - 'जिस सर्प ने राजकुमार को डसा है वह इस मंडल में रहे, शेष सब चले जायें ।' सब चले गये। एक सर्प वहाँ रहा । उसे अग्नि के पास ले जाकर गारुडिक ने कहा – 'या तो विष को पुनः चूस ले या अग्नि में प्रवेश कर जा।'
सर्प दो प्रकार के होते हैं - गंधन और अगंधन । अगन्धन सर्प उत्तम और अहंकारी होते हैं । वह अगन्धन सप था। वह अग्नि में कूद पड़ा, किन्तु उसने विष को नहीं चूसा।
राजपुत्र मर गया । कुपित होकर राजा ने यह घोषणा करवाई—'जो कोई सर्प का सिर लाएगा, मैं उसे एक दीनार (सिक्का) दूंगा।' दीनार के लोभ से लोग सों को मारने लगे। जिस सर्प-कुल में तपस्वी उत्पन्न हुआ था, उस कुल को जातिस्मति ज्ञान (पूर्वजन्मों का ज्ञान) उपलब्ध था। उस कुल के सर्प - दिन में हम किसी को भस्म न कर दें'- इस विचार से रात को बाहर निकलते थे । गारुडिक भी सों की खोज कर रहे थे। एक दिन रात्रि में उन्होंने गंध से पूर्वजन्म के तपस्वी सर्प का बिल देख लिया। उन्होंने बिल के पास
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बैठकर औषधियों के द्वारा सर्प को निमन्त्रित किया । वह सर्प क्रोध के परिणाम को जानता था। यदि मैं मुंह की ओर से बाहर निकलता हूँ तो मेरी दृष्टि पड़ते ही बाहर वाले भस्म हो जायेंगे' – यह सोचकर वह उसके विपरीत, पूंछ की ओर से बाहर निकलने लगा । गरुड ने उसे पूंछ से लेकर सिर तक काट डाला । सर्प का जीव एक देवता द्वारा परिगृहीत था । उसने राजा को दर्शन देकर कहा - 'साँपों को मत मार । तुझे पुत्रलाभ होगा,
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उसका नाम नागदत्त रखना ।
तपस्वी सर्प का जीव सम्यग् प्रकार से प्राण त्याग कर उस राजा का पुत्र हुआ । उसका नाम नागदत्त रखा । उसे जातिस्मृतिज्ञान प्राप्त था । बचपन में ही वह तथारूप श्रमणों के पास दीक्षित हो गया । पूर्वभव में तिर्यञ्च (पशु) योनि में होने के कारण उसे भूख बहुत लगती थी । वह प्रातःकाल से लेकर सूर्यास्त होने तक खाता रहता था । वह उपशांत और धर्म में श्रद्धानिष्ठ था ।
( जिस गण में वह प्रव्रजित हुआ था) उस गण में चार तपस्वी थे ।
1. चातुर्मासिक तप करने वाला ।
2. त्रैमासिक तप करने वाला ।
3. द्वं मासिक तप करने वाला ।
4. एक मासिक तप करने वाला ।
एक दिन रात में देवी वन्दना करने आई । दरवाजे के पास मासिक तप करने वाला तपस्वी बैठा था । उसके आगे द्वं मासिक तप करने वाला, फिर त्रैमासिक और चातुर्मासिक तप करने वाले तथा अंत में वह बाल मुनि बैठा था । सब का उल्लंघन कर देवी ने उस बाल मुनि को वंदना की। दूसरे तपस्वी मुनि रुष्ट हो गये वन्दना कर देवी जाने लगी, तब चातुर्मासिक तप करने वाले तपस्वी ने देवी के वस्त्र के अंचल को पकड़ कर कहा – 'हे कटपूतने ! तपस्वियों को वंदना नहीं करती ? प्रातः काल से सूर्यास्त तक खाने वाले को वन्दना करती हो ?'
।
देवी ने कहा
--
- " मैं भाव क्षपक ( आन्तरिक तपस्वी) को वन्दना करती हूँ, पूजासत्कार चाहने वाले अभिमानी तपस्वियों को वन्दना नहीं करती ।"
वे सभी तपस्वी बालमुनि के प्रति एकान्ततः ईर्ष्यालु हो गए। वह देवी उस बालमुनि की रक्षा के लिये तथा तपस्वियों को प्रतिबोध देने के लिये बाल मुनि की सन्निधि में रही ।
दूसरे दिन बालमुनि प्रातराश लेकर आया और ईर्यापथिकी आलोचना कर चातुर्मासिक तपस्वी को निमंत्रित किया । उस दिन तपस्वियों के तपस्या का पारणा था । उस तपस्वी ने बालमुनि के भोजन - पात्र में थूक दिया । बालमुनि तत्काल बोला- 'मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने ( समय पर ) आपको थूकने का पात्र नहीं दिया ।' उसने भोजन पात्र से ऊपर का हिस्सा निकाल कर थूकने के पात्र में डाल दिया । इसी प्रकार त्रैमासिक, द्वमासिक और मासिक तपस्या करने वाले तपस्वियों ने भी उसके भोजन-पात्र में थूक डाला । बालमुनि ने उस थूक को निकाल कर बाहर फेंक दिया। ज्योंही उसने कुसणियछाछ मिश्रित चावलों
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को निकालने के लिये हाथ बढाया, तपस्वियों ने उसके हाथ को पकड़ लिया। उस स्थिति में भी बालमुनि अदीन रहा और विशुद्ध परिणाम रखे । उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
देवी ने (तपस्वियों को लक्षित कर) कहा---'तुम सब क्रोध से अभिभूत हो। मैं तुम्हें वन्दना कैसे करूँ ?' (तब वे) तपस्वी वैराग्य को प्राप्त होकर बोले-'हमारा अपराध निष्फल हो। अहो ! बाल मुनि की कितनी महानता! हमने उसकी आशातना की है (उसे कष्ट पहुँचाया है।) उनकी भावना भी विशुद्ध होती गयी और उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
सुत पद
बत्तारि सुता पण्णत्ता, तं जहा–प्रतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले।
पुत्र चार प्रकार के होते हैं :-(1) अतिजात (पिता से अधिक), (2) अनुजात (पिता के समान), (3) उपजात (पिता से हीन), (4) कुलांगार (कुल के लिए अंगारे जैसा; कुल दूषक)।
-ठाणं, 4/34
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आगम अनुसंधान :
सूत्रकृताङ्ग के आधार परआगमकालीन सभ्यता और संस्कृति
मुनि श्री दुलहराज ज्ञान अनन्त है, ज्ञेय भी अनन्त है । दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ज्ञान की अनन्तता ज्ञेय के आनन्त्य को सूचित करती है और ज्ञेय की अनन्तता ज्ञान के आनन्त्य को बताती है। आत्मा अनन्त ज्ञानमय चेतना-पिण्ड है। यह उसका स्वाभाविक स्वरूप है । परन्तु जब वह कम-बद्ध होती है तब उसके आवरण की तरतमता से ज्ञान का तारतम्य प्रगट होता है और उसी के अनुसार व्यक्ति ज्ञय का परिच्छेद करता है।
जैन दर्शन ज्ञान की अनन्त उपलब्धि में विश्वास करता है। यह आत्मशुद्धि सापेक्ष है। जब तक घाति-कर्म चतुष्टय का सर्वथा विनाश नहीं होता, आत्मा में अनन्त-ज्ञान की स्फुरणा नहीं होती। इसके बिना सर्वज्ञता नहीं आती । सर्वज्ञता ज्ञान का चरम विकास है । ज्ञान का तरतमभाव हमें यह मानने के लिये प्रेरित करता है कि ज्ञान की चरम-अवस्था भी होनी चाहिये, जिसे पा लेने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। यह वीतराग अवस्था की चरम परिणति है । तदनन्तर साधक निर्द्वन्द्व हो, संकल्प-विकल्पों से सर्वथा छुटकारा पा अननुभूत समाधि-अवस्था को प्राप्त कर लेता है। अध्यात्म का आदि-बिन्दु सत्प्रवृत्ति है और उसकी चरम परिणति है अक्रिया । यही निर्वाण है, मोक्ष है, शान्ति है ।
जैन-दर्शन आत्मा का दर्शन है। आत्मा को केन्द्र-बिन्दु मानकर, उसकी परिक्रमा किये वह चलता है और उसकी उपलब्धि में अपनी साधना की परिसमाप्ति मानता है।
जैन दर्शन की भित्ति आत्मवाद है । जब से आत्म-अस्तित्व का ज्ञान है, तब से जैन दर्शन है और जब से जैन-दर्शन है तब से आत्म-अस्तित्व का ज्ञान है। यह अनादि-अनन्त है । अनन्त कालचक्र बीत चुके हैं और भविष्य में अनन्त काल-चक्र होंगे उन सब में जैनप्रवचन का प्रज्ञापन होता रहेगा। काल की विचिन्न परिणति के कारण इसकी उदित या अस्तमित दशा अवश्य होगी, परन्तु यह सम्पूर्णत: नष्ट नहीं होगा।
जैन-दर्शन प्राचीन काल में निर्ग्रन्थ-प्रवचन' कहलाता था। आगमों में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। 'जैन' शब्द का प्रचलन कब से हुआ इसका निश्चित इतिहास नहीं खण्ड ४, अंक २
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मिलता। मेरे देखने में विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३८३ में केवली के लिये 'जन' (प्रा. 'जइण') शब्द प्रयुक्त हुआ है । सम्भव है यही सबसे प्राचीन उल्लेख हो।
जैन-धर्म-दर्शन के आधारभूत ग्रन्थ 'गणिपिटक' 'आगम' या सूत्र' कहलाते हैं । श्रुत के अनेक पर्याय हैं, जैसे- "श्र त, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम"" आगम भी 'श्रु त' का पर्याय है । आगम का अर्थ है-जो तत्त्व आचार्य-परम्परा से वासित होकर आता है, वह 'आगम' है ।'' इस प्रकार 'आगम' शब्द समग्र श्रुत-ज्ञान का परिचायक है। परन्तु जैन धार्मिक ग्रन्थों को जो आगम' संज्ञा प्राप्त है, वह कुछ विशेष ग्रन्थों के लिये ही है।
'गणिपिटक' शब्द द्वादश-अंगों के लिये प्रयुक्त होता है। जैन-सूत्रों में स्थान-स्थान पर 'दुवालसांगं गणिपिडगं' ऐसा उल्लेख आता है । प्राय: बारह अंगों का समुदायवाची शब्द है, परन्तु कहीं-कहीं इसे एक अंग का वाचक भी माना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-- [गणी-आचार्य, पिटक-सर्वस्व] आचार्य का सर्वस्व ।
सर्वसाधारण में जैन आगमों के लिये 'सूत्र' संज्ञा प्रचलित है। इसका कारण है कि आगम बहुलांश में 'सूत्र' की परिपाटी से लिखे गये हैं, अत: रचना के आधार पर उन्हें सूत्र कह दिया गया। आगम व्यवस्था
आगम के दो मुख्य भेद हैं --- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य अथवा अनंगप्रविष्ट ।' ये विभाग प्राचीनतम हैं। गणधर भगवान् महावीर से प्रश्न पूछते हैं -- 'भयवं ! किं तत्तं ? भगवान् कहते हैं – 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा।' इसे 'प्रश्नत्रितय', मातृपदिका, 'निषद्यानय' अथवा 'त्रिपदी' कहा जाता है। इनके फलस्वरूप जो ग्रन्थों की रचना होती है, वह 'अंग-प्रविष्ट' कहलाती है और इतर रचनाए अंग-बाह्य । द्वादशांगी अवश्य ही गणधर
1. जइणसमुग्घायगइए पत्र 1918 2. सुयसुत्तगंथसिद्धतपवयणेआणवयणउवएसे । पण्णवणआगमे या, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥
अनुयोगद्वार 4 । विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 897 । 3. आगच्छत्याचार्यपरम्परया वासनाद्वारेणेत्यागम:-सिद्धसेन-गणिकृत भाष्यानुसारिणी
टीका-पृ० 89 4. समवायांग 1,136। 5. तिण्हं गणिपिडगाणं आचारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्जयणा पन्नत्ता, तंजहा
आयारे, सूयगडे, ठाणे "समवाय 57 । 6. 'गणिपिटक'-गुणगणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटक-सर्वस्वं गणिपिटकम् __ अनुयोगद्वार सूत्र 612 मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत वृत्ति पत्र 38 । 7. नंदीसूत्र 616। 8. देखो--विशेषावश्यक भाष्य पर मलधारी हेमचन्द्र सूरि कृत बृहद्वृत्ति पत्र 2881
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कृत है क्योंकि यह त्रिपदी से उद्भूत होती है। परन्तु गणधरकृत समस्त रचनाएं अंग नहीं कहलातीं ।। अतः त्रिपदी के बिना, मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं होती हैं, चाहे फिर वे गणधरकृत हों या अन्य स्थविरकृत, उन सबका समावेश 'अंगबाह्य' में होता है।
आगम-रचना
आगम-रचना के विषय में मतभेद है । कई यह मानते हैं कि गणधर सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना करते हैं और तदनन्तर 'आचार' आदि अंगों की रचना होती है। दूसरा मत यह है कि गणधर सर्वप्रथम 'आचार' आदि अंगों की रचना करते हैं और अंत में चौदह पूर्वो की । पहला मत उचित प्रतीत होता है । उसके औचित्य का निम्नोक्त आधार है।
पूर्वो में सारा श्रु त समा जाता है, किन्तु साधारण लोग पूर्वो को समझ नहीं सकते। उनका विषय अत्यन्त दुरूह और क्लिष्ट होता है। स्त्रियों को पूर्वो का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है क्योंकि उनमें तुच्छत्व, अभिमान, चञ्चलता, धृति-दौर्बल्य आदि दूषणों की अधिकता होती है। अतः मंद बुद्धि वाले लोगों और स्त्रियों के लिये द्वादशाङ्गी तथा अंगबाह्य ग्रन्थों की रचना हुई।
आगम साहित्य में अध्ययन परम्परा के तीन क्रम मिलते हैं। कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते थे, कुछ द्वादशाङ्गी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के पाठक होते
1-2 यद् गणधरैः साक्षाद् दृब्धं तदङ्गप्रविष्टं, तच्च द्वादशाङ्ग, यत्पुन: स्थविरै
भद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यरुपनिबद्ध तदनङ्गप्रविष्टं, तच्चावश्यक नियुक्त्यादि, अथवा वारनयंगणधरपृष्टेन सता भगवता तीर्थकरेण यत्प्रत्युच्यते 'उप्पज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इति पदत्रयं तदनुसृत्य यन्निष्पन्नं तदङ्गप्रविष्ट, यत्पुनर्गणधरप्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृतप्रश्नपूर्वकं वा भगवतो मुत्कलं व्याकरण तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादि, यच्च वा गणधरवचांस्येवोपजीव्य दृब्धमावश्यकनियुक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टं..."सर्वपक्षेषु द्वादशाङ्गान्यङ्गप्रविष्टं शेषमनङ्गप्रविष्ट, उक्त च “गणहरथेरक यं वा आएसा मुक्कवागरणतो वा । धुक्वल विसेसतो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं [विशेषा० गाथा 567/-मलयगिरिकृत
आवश्यक सूत्र वृत्ति-पत्र 48 । 3. .. आचारो... अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्ग स्थापना-मधिकृत्य, रचनाऽ.
पेक्षया तु द्वादशमङ्गम्-समवायाङ्ग, अभयदेवसूरीकृतवृत्ति, पन 108 । 4. .. ."ये दुर्मेधस: ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च
दुर्मेधस्त्वात् । स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषबहुलत्वात्, उक्त च -- 'तुच्छा गारवबहुला चलिदिया दुब्बलाधिईए य । इति अइसेसज्जयणा भूयावायो न इत्थीणं।' ( विशेषा० भाष्य गाथा 555] ततो दुर्मेधसां स्त्रीणां चानुग्रहाय शेषाङ्गानामङ्गबाह्यस्य च विरचनमिति-उक्तं च "जइविय भूयावाए सव्वस्सवयोगयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहाविऊ दुम्मेहे पप्प इत्थी य" [विशे० भा० गा० 554]]
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थे। चतुर्दशपूर्वी का अधिक महत्व था, उन्हें 'श्र त-केवली' कहा गया है।
जिस प्रकार चतुर्दशपूर्वी हैं, क्या उसी तरह 11,12,13 पूर्वी भी होते हैं ? आचार्य द्रोण ने कहा है कि इस अवसर्पिणी में चौदह पूर्वधर के बाद दस पूर्वी ही होते हैं, 11,12,13 पूर्वी नहीं।
सेनप्रश्न {पत्र 106] में कहा गया है कि जिस प्रकार चौदह पूर्वधर, दस पूर्वधर, नो पूर्वधर हुए हैं, उसी प्रकार एक से आठ पूर्वधर भी होने चाहिये। क्योंकि जीतकल्प की वत्ति में आचार-प्रकल्प से आठ पूर्व तक के धारक को 'श्र त-व्यवहारी' कहा गया है। आगमों की भाषा
आगमों की भाषा अर्ध-मागधी है। जैन तीर्थंकर अर्ध-मागधी में उपदेश देते हैं। इसे उस समय की दिव्य-भाषा माना है। यह प्राकृत का ही एक रूप है। यह मगध के एक भाग में बोली जाती थी, इसलिये अर्ध-मागधी कहलायी। इसमें मागधी और दूसरी 18 भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं, इसलिये भी इसे अर्ध-मागधी कहा गया । इसमें देश्यशब्दों की भी बहुलता है। यह इसलिए कि विभिन्न जाति, देश और कुल के व्यक्ति भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवजित हुए, अत: उनकी भाषाओं का मिश्रण स्वाभाविक था। मागधी और देश्य-शब्दों का मिश्रण अर्ध-मागधी है । इसे 'आर्ष' या 'आर्य' भी कहा जाता है।'
1. जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व, भाग 1, पृ० 62। 2. ओघनियुक्ति वृत्ति-पत्र 3। 3. प्राकृत आदि छह भाषाओं में ‘मागधी' भी एक है। इसमें 'र' और 'स' को 'ल'
और 'स' मागध्यां रसौ लसौ] हो जाता है। यह मागधी का लक्षण है। जो भाषा इस समग्र लक्षण से युक्त नहीं होती उसे अर्ध-मागधी कहा गया है।
(समवायांग सूत्र-अभयदेवसूरी कृत वृत्ति-पत्र 59 4. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ-समवायांग वृत्ति-पत्र 60 । 5. देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति - भगवती 514। 6. देखो जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व, भाग 1, पृ० 430 का टि. 10 ।
प्राकृत को स्वाभाविक और संस्कृत को विकृत, आगंतुक भाषा माना जाता था। तित्थगरेहिं वइजोगेण पभासिते हि गणधरेहिं वइजोगेण चेव सुत्तीकतं, तं पुण गहितं.... पागत-भासाए, स सभावगुण:, वैकृत स्तु संस्कृतभाषा, आगंतुक इत्यर्थ ।
. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 17। 7. मगधविसयभासाणिबद्ध अद्धमागई - निशीथ चणि 8. अट्ठारसदेसीभासाणिबद्ध वा अद्धमागइं-निशीथ चूर्णि 9. (क) सक्कता पागता चेव दुहा भणितीओ आहिया। सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिया ॥
[स्थानांग 71394] (ख) हेम 81113
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भाषा की दृष्टि से आगमों को दो युगों में विभक्त किया जा सकता है—ई०पू०-400 से ई० 100 तक का पहला युग है। इसमें रचित अंगों की भाषा अर्ध-मागधी है। दूसरा युग ई० 100 से ई० 500 तक का है । इसमें रचित या नि'ढ आगमों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। आगमों के भेद
प्राचीन व्यवस्था में आगम के दो ही भेद थे-अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य । वर्तमान में मूर्तिपूजक श्वेताम्बर आगमों के छः विभाग मानते हैं-(1) अंग (2) उपांग (3) प्रकीर्णक (4) छेदसूत्र (5) मूलसूत्र (6) चूलिकासूत्र । स्थानकवासी तथा तेरापन्थी सम्प्रदाय प्रधानतया आगम के चार विभाग करते हैं--(1) अंग (2) उपांग (3) मूल (4) छेद।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार आगम-साहित्य का सर्वथा लोप, वीर निर्वाण के 683 वर्ष तक, हो गया ।
प्रस्तुत निबन्ध का विषय आगमों की रचना, व्यवस्था या मान्यता विषयक विस्तृत ऊहापोह या विचारणा करना नहीं है । उसका विषय है आगम ग्रन्थों व उनकी व्याख्याओं में 'महावीरकालीन भारत की सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन । सारी सामग्री आगम ग्रन्थों से लेनी है अतः उनकी संक्षिप्त जानकारी अस्थानीय नहीं मानी जानी चाहिये।
आगम-ग्रन्थ अत्यन्त विशाल और विस्तृत हैं। उनकी भाषा अर्धमागधी है। वे जन-भाषा में रचे गए । परन्तु जन-भाषा का परिवर्तन होने पर जब उन्हें समझने की दुरूहता प्रतीत हुई तब उन पर अनेक व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखे गये । नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका, दीपिका, अवचूरी, स्तबक और 'जोड़ हिन्दी में अनुवाद-ये इनके व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं . इनकी रचना यथा-क्रम हुई है। इनमें नियुक्ति और भाष्य की भाषा प्राकृत, चणि की संस्कृत मिश्रित प्राकृत, टीका-दीपिका और अवचूरि की संस्कृत, स्तबक' और जोड़ की की भाषा गुजराती-मिश्रित राजस्थानी है। इनका अध्ययन किये बिना हम आगमों में निर्दिष्ट तत्त्वों की यथार्थता को नहीं पकड़ सकते । आगमों की रचना सूत्र परिपाटी से हुई है, अतः उन सूत्रों को उन्हीं के व्याख्यात्मक ग्रन्थों के आधार पर समझा जा सकता है।
1. पाइयसहमहण्णव उपोद्घात, पृ० 30-31 2. वीर निर्वाण 62 वर्ष तक- केवली ।
" 162 , - चौदहपूर्वी " 345 , - दसपूर्वी , 565 , – ग्यारह अंगधर
683 , - आचारांगवित्
तत्पश्चात् समस्त विनाश । [जैन सत्य प्रकाश-वर्ष 1, अंक 7, पृ० 213-215-मुनि दर्शनविजयजी का लेख । ] 3. स्तबकों के प्रसिद्ध रचयिता धर्मदासगणि हैं ।
4. तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने अनेक आगमों पर 'जोड़ें रची। खण्ड ४, अंक २
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- प्रत्येक साहित्य अपने-अपने युग का प्रतिबिम्ब होता है । कवि हो या लेखक, इतिहासकार हो या प्रबन्धकार, वैज्ञानिक हो या और कोई, सब अपने-अपने युग का प्रतिनिधित्व करते हैं, और उनकी रचनाओं में युग की सभ्यता और संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। कौन कितनी यथार्थता से या तीव्रता से उनका स्पर्श करता है, यह उसकी अपनी मेधा पर आधारित है, परन्तु तरतमभाव से युग की मान्यताएं, रहन-सहन, खान-पान, मनन-चिन्तन, आचार-व्यवहार आदि-आदि के चित्र, स्फुट या अस्फुट, वहाँ अवश्य चित्रित होते हैं । जैन आगमों में तथा उनकी व्याख्याओं में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतिपादन हुआ है। इनका सर्वाङ्गीण अध्ययन किये बिना हम भारतीय सभ्यता और संस्कृति को समग्रता से नहीं जान सकते। अन्यान्य धर्म-ग्रन्थों में भी भारत का चित्रण हुआ है। शांतिकुमार नानूराम व्यास ने 'रामायणकालीन समाज और सभ्यता' के विषय में दो ग्रन्थ लिखे हैं । उनके अध्ययन से रामायणकालीन सभ्यता और संस्कृति का स्फुट चित्र सामने आ जाता है और लगता है कि उस समय का समाज कितना ऊँचा, शिक्षित और विज्ञ था। उसी प्रकार पाणिनिकालीन भारतवर्ष', 'कालिदास का भारत' आदि ग्रन्थ भी प्राचीन भारत के आचार-व्यवहार का प्रतिनिधित्व करते हैं । ग्रन्थ चाहे जनदर्शन के हों या बौद्ध दर्शन के या वैदिक-दर्शन के सब में भारतीय संस्कृति और सभ्यता का चित्रण समान है, यत्र-तत्र कुछ भिन्नता भी है । फिर भी उनमें जो एकरूपता, एक अनुस्यूति है, वह प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को समझने में बहुत सहायक है।
कई आलोचक यह भी आरोप लगाते हैं कि इन धार्मिक ग्रन्थों में कवि-कल्पना का अंश अधिक है और यथार्थता कम, यह ऊहापोह उचित नहीं है । कवि या लेखक हमारे जैसा ही प्राणी होता है। वह असत की कल्पना नहीं कर सकता। जो कुछ दृष्टपूर्व या श्रुतपूर्व है उसी को वह प्रभावोत्पादक ढंग से प्रस्तुत करता है ताकि पाठक उसकी भावना के साथ तन्मय हो जायें और उस भावना को यथार्थता से पकड़ सकें। वह प्रत्येक पाठक को आत्मविभोर और संवेदनशील करने में अपनी सार्थकता समझता है । “समृद्ध कल्पना चाहे कितनी ही अतिशयोक्ति क्यों न हो, वह ऐसी भौतिक वस्तुओं का कभी नामकरण नहीं करेगी, जिन्हें कभी देखा या सुना न गया हो । कोई कवि परी-लोक की किसी रानी को बसाने के लिये किसी काल्पनिक प्रासाद का क्यों न निर्माण कर ले, किन्तु उसके विचार तो सदैव पार्थिव एवं वास्तविक होंगे और उसकी अपनी जानी-पहचानी भौतिक वस्तुओं से संबद्ध होंगे।"
यद्यपि अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन से पाठक के मन में सन्देह उभर आता है और यथार्थता को पकड़ने में उसे कठिनाई प्रतीत होने लगती है, परन्तु वह यदि वर्णन को तत् तत्काकालीन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आलोचक में पढ़ता-समझता है तो उसके सामने कोई उलझन नहीं रहती । यह मानवीय दुर्बलता है कि वह प्रत्येक तत्त्व, प्राचीन या अर्वाचीन, के लिये अपनी ही बुद्धि को अन्तिम प्रमाण मानकर उसे तोलता-परखता है और साथ-साथ वर्तमान के आलोक में ही उसे समझने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में न वह अतीत को ही पकड़ पाता है और न वर्तमान को ही साध सकता है।
1. राजेन्द्रलाल मित्र-'इण्डो आर्यन्स', भाग'1, पृ० 23,24।
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प्रत्येक देश, काल और स्थिति में अन्तर होता है । सबका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है । कोई भी समसामयिक प्रणाली अपने वर्तमान से प्रभावित हुए बिना नहीं रहती । अतः उसे समझने का एकमात्र साधन है, उस उस तत्त्व को उसी परिस्थिति और देश, काल में समझने का प्रयत्न करना । इससे समस्त बौद्धिक उलझन समाप्त हो जाती है और व्यक्ति सत्य के निकट पहुंच जाता है
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आगम तथा उसका साहित्य अत्यन्त विशाल है । उसका पारायण समय सापेक्ष है । अन्यान्य दर्शनों के ग्रन्थों की जिस प्रकार छानबीन हुई है, वैसी जैन ग्रन्थों की नहीं हुई । इसके अनेक कारण हैं । उनमें ग्रन्थों की अनुपलब्धि, साम्प्रदायिक कट्टरता और उदासीनता मुख्य हैं । एक समय था जब जैन आचार्यों ने ग्रन्थ रचनाओं से श्रुतभाण्डागार को समृद्ध किया । पर उस समय यातायात की इतनी सहज सुलभता नहीं थी, अत: उनका प्रचारप्रसार कम हुआ । साथ-साथ जैन अनुयायी व्यापारी होते गए और इस ओर से उनकी सहज रुचि परिवर्तित होती गयी। जैन विद्वान् कम होने लगे ।
नो-सुलभ पद
छट्ठाणावं सब्वजीवाणं णो सुलभाई भवन्ति, तं जहा - माणुस्सए भवे । आरिए कैसे जम्मं । सुकुले पच्चायाती । केवजीपण्णत्तस्स धम्मस्स सवणता । सुत्तस्स वा सद्दहणता । सद्द हितस्स वा पत्तितस्स वा रोइतस्स वा सम्मं कारणं फासणता ।
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छ: स्थान सब जीवों के लिए सुलभ नहीं होते - ( 1 ) मनुष्य सव, (2) आर्य क्षेत्र में जन्म, (3) सुकुल में उत्पन्न होना, ( 4 ) केवलज्ञप्त धर्म का सुनना (5) सुने हुए धर्म पर श्रद्धा, ( 6 ) श्रद्धित प्रतीत और रोचित धर्म का सम्यक् कायस्पर्श (आचरण) ।
-ठाणं, 6/13
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— क्रमशः
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चैतन्य शक्ति का आदान-प्रदान : एक वैज्ञानिक परीक्षण
अनु०-श्री शुभकरण सुराणा और कु० इलाबहन जवेरी
चैतन्य शक्ति (Life force) या कोस्मिक ऊर्जा जिससे सभी सजीव वस्तुए परिव्याप्त हैं, का उपयोग पौधे, प्राणी और मनुष्य सभी मिलजुलकर करते हैं। उस सहोपयोग के द्वारा व्यक्ति और पौधा एक होता है। यह एकत्व पारस्परिक सजगता उभारता है, जिसके द्वारा मनुष्य और पौधे के बीच सम्पर्क ही नहीं बल्कि उस सम्पर्क का रेकार्ड पौधे के माध्यम से रेकार्डिंग चार्ट पर अंकित किया जा सकता है ।
क्योंकि उसके (वोगेल) के निरीक्षणों से स्पष्ट पता चल गया कि परस्पर ऊर्जा का आदान-प्रदान ही नहीं बल्कि मानवीय और पौधे की ऊर्जाओं का एकीकरण (Fusion) भी संभव है । वोगेल ने आश्चर्य किया कि क्या विशेष रूप से सजग व्यक्ति पौधे के अन्दर भी प्रवेश कर सकता है ? क्योंकि उसे (वोगेल) यह खबर प्राप्त थी कि 16वीं शताब्दी के जर्मन रहस्यवादी जैकब बोहेम जब तरुण था तो विशेष ज्ञान का प्रकाश हुआ, जिससे उसने बताया कि वह सामान्य भूमिका से अलग विशेष पार्श्व भूमिका में देखने को था । बोहेम ने बताया कि वह बढ़ते हुए पौधों को देखते-देखते एकाएक अगर वह चाहे तो उसी पौधे के साथ घुलमिल सकता था, पौधे का एक अंग बन सकता था, उसके जीवत्व का अहसास भी कर सकता था, जो कि (पौधा) प्रकाश की तरफ बढ़ने के लिए प्रयासरत था। उसने कहा कि वह पौधे की सामान्य अभिलाषाओं का सहभागी बन सकता है और आनन्द से फूटती हुई पत्तियों के साथ-साथ स्वयं भी आनन्दित हो सकता है। एक दिन डेब्बी सेप नाम की एक शान्त व सामान्य-सी प्रतीत होने वाली लड़की ने वोगेल से सेन्टजोसे में मुलाकात की। वोगेल अपने यन्त्रों से सज्जित फिलोडोल्ड्रन (Philodendron) पौधे के साथ उसकी तत्काल सम्पर्क करने की प्रारंभिक योग्यता से प्रभावित हुआ । जब पौधा एकदम शान्त था उसने उससे स्पष्ट पूछा- क्या तुम इस पौधे में प्रवेश कर सकती हो ? डेब्बी के स्वीकारात्मक सिर हिलाकर सम्मति देने पर उसके चेहरे पर एक निष्काम शान्ति, वैराग्य का भाव उठा जैसे कि वह दूर किसी अन्य जगत में विचरण करने चली हो । तत्काल रेकार्ड करने वाली सुई ने तरंगों का एक व्यवस्थित चित्र अंकित किया जिससे वोगेल ने यह समझा कि पौधा उससे (उस लड़की से) असामान्य मात्रा में ऊर्जा प्राप्त कर रहा था।
डेब्बी ने बाद में लिखित विवरण दिया कि वोगेल ने मुझे शिथिल होने और फिलोडोल्ड्रन (Philodendron) में अपने स्व (आत्म प्रदेशों) को फैलाने को कहा । उसके निवेदन को कार्यान्वित करते समय कुछ एक घटनाएं हुई।
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प्रथम-मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसे पौधे में एकदम ठीक से प्रवेश करू ? मैंने सजगता से निर्णय किया कि मेरी कल्पना इस उपरोक्त भाव को पकड़े । इतने में ही मैंने पाया कि मैं उसकी जड़ के द्वार से मुख्य शाखा के भीतर प्रवेश कर रही हूं। एक बार अन्दर हो जाने पर मैंने गतिशील सैल और जल को शाखा के भीतर उर्ध्व यात्रा करते हुए देखा और उस उर्ध्व गतिमान प्रवाह के भीतर स्वयं को गतिशील किया। कल्पना में विस्तृत होती हुई पत्तियों की ओर पहुंचने पर मैंने अनुभव किया कि मैं स्वयं कल्पना जगत से बाहर आकर एक ऐसी भूमिका पर पहुंची हूं जिस पर मेरा कोई नियन्त्रण या प्रभुत्व नहीं रह गया है। (उस अवस्था में) मानसिक चित्र नहीं थे बल्कि ऐसा अनुभव हुआ कि “मैं एक विस्तृत फैलती हुई चैतन्य भूमिका का एक अंग हूं और उसे भर रही हूं। यह मुझे ऐसा लगा कि मैं उसे शुद्ध चैतन्य ही कह सकती हूं। मैंने अहसास किया कि पौधे ने मुझे अपनाया तथा स्वीकारात्मक संरक्षण भी प्रदान किया। समय का विलय हो गया और मात्र यह अनुभव रहा कि सारे अस्तित्व में एकता है और सारे आकाश में एकता है। मुझे सहज मुस्कराहट हुई और मैंने अपने आपको पौधे के साथ एक होने दिया। उसके बाद श्री वोगेल ने जैसे ही मुझे शिथिल होने का आदेश दिया, कि मैंने पाया कि मैं बहुत थकी हुई किन्तु शांत हूं। मेरी सारी ऊर्जा (शक्ति) पौधे के साथ थी।"
. चार्ट पर अंकित होते हुए रेकार्डों का निरीक्षण करते हुए श्री वोगेल ने देखा कि जैसे ही लड़की पौधे के बाहर आ गई अचानक सुई रुक गई । दूसरे मौकों पर जब वह (लड़की) पुनः प्रविष्ट हुई (याने पौधे में) वह पौधे की सेल की जांतरिक बनावट और उसके ढांचे का पूर्ण विवरण बताने में समर्थ हुई। उसने विशेष रूप से बताया कि पौधे का पत्ता इलेक्ट्रोड से बुरी तरह जल गया है। जब वोगल ने इलेक्ट्रोड हटाया तो उसने देखा कि पत्ते के आरपार एक छेद हो गया है। उसके पश्चात् वोगल ने उसी प्रयोग को कई अन्य लोगों के द्वारा यह निर्देश करते हुए पुनः करवाया कि सिर्फ एक पत्ती में ही प्रवेश करो और उस पत्ती के प्रत्येक सेल का निरीक्षण करो । सभी ने सेल के विभिन्न अंगों का, सेल के ढांचे में स्थित डी० एन० ए० माल्यूक्यूल तक विस्तृत संगठनात्मक विवरण एक जैसा प्रस्तुत किया।
____ इस प्रयोग द्वारा श्री वोगल इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हम अपने शरीर के प्रत्येक सेल में जा सकते हैं और हमारी उस समय की मन:स्थिति के आधार पर उन्हें (उन सेलों को) अलग-अलग रूप से प्रभावित कर सकते हैं । एक न एक दिन शायद इससे रोग के मूल का निदान किया जा सके।
यह जानते हुए कि बच्चे, वयस्क लोगों से ज्यादा खुले दिमाग के होते हैं वोगल ने बच्चों को पौधों के साथ आदान-प्रदानात्मक सम्पर्क स्थापित करने की विधि सिखाने की शुरुआत की। प्रथम, वह उन्हें पत्तों का अनुभव करने को कहता ताकि वे उसके तापमान, ढांचों और स्पर्श का विस्तृत वर्णन कर सकें । उसके पश्चात् वह उन्हें पत्ते के ऊपरी और निचले हिस्से पर कोमलता से हाथ फिराने से पहले उन्हें मोड़ने के लिए कहता ताकि पत्तों की लचक के प्रति वे सजग हो सकें । अगर उसके शिष्य इनके स्पन्दनों के अनुभवों का वर्णन करते आनन्दित होते तो वोगल उन्हें अपने हाथों को पत्तियों से दूर कर उनसे निकलने वाली
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शक्ति या ऊर्जा को पकड़ने का प्रयास करने को कहता। बहुत सारे बच्चे लहरवत् अथवा गुदगुदाते स्पन्दनों का वर्णन उसी समय करते। वोगल ने यह विशेष रूप से जाना कि जिन बच्चों को स्पन्दनों का स्पष्ट अनुभव होता था वे पूर्णतया उस कार्य में लीन हो जाते थे। जैसे ही वे गुद्गुदाते हुए स्पन्दनों का अनुभव करते, वह उन्हें कहता कि अब पूर्णतया शिथिल (कायोत्सर्ग की तरह) हो जाओ और ऊर्जा के आदान-प्रदान करने का अनुभव करो। जब उसकी धड़कन को पकड़ सको तब अति कोमलता से पत्तों के ऊपर और नीचे हाथों को फिराओ या घुमाओ। उसके निर्देशानुसार प्रयोग करने वाले छोटे बच्चे आसानी से जान लेते कि जैसे ही वे अपना हाथ नीचे कर लेते, पत्ते भी निढाल हो जाते । जब बार-बार यही किया जाता तो पत्ते भी हिलोरें लेने लगते । दोनों हाथों से प्रयोग करने पर वे उन्हें वास्तविक रूप से झुलाते । जब उन्हें पूर्ण विश्वास जम जाता तो वोगल उन्हें पौधों से दूर, और दर जाने को कहता । ऊर्जा जो कि दृश्यमान नहीं है, के प्रति विस्तृत सजगता को विकसित करने का यह एक बुनियादी प्रशिक्षण है-ऐसा वोगल का कहना है। यदि उर्जा के साथ सजगता स्थिर हो गई तो उसके साथ वे प्रयोग भी कर सकते हैं। वोगल के मतानुसार वयस्क, इस प्रयोग में बच्चों के बनिस्पत कम सफल रहते हैं और इससे वह इस निष्कर्ष पर पहंचता है कि बहुत सारे वैज्ञानिक लोग प्रयोगशालाओं में बक्सटर एवं स्वयं उसके प्रयोगों की पुनरावृत्ति नहीं कर पाएंगे । अगर वे प्रयोग को यन्त्रवत् करें और पौधे के साथ मित्रवत् पारस्परिक आदान प्रदानात्मक जीवन्त सम्पर्क नहीं कर पायें तो वे निष्फल रहेंगे। सचमुच केलीफोर्निया साइकिकल सोसायटी में कार्यरत एक डॉक्टर ने वोगल से कहा कि उसे एक भी निष्कर्ष नहीं मिला यद्यपि उसने महीनों तक प्रयास किये थे। डेनवर के एक विख्यात मनोचिकित्सक का भी यही अनुभव रहा । वोगल का कहना है कि विश्व की हजारों प्रयोगशालाओं में काम करने वाले लोग अपने को बहुत ही निराश और दुःखित अनुभव करेंगे क्योंकि जब तक ये लोग पौधे और मनुष्य के बीच तादात्म्य (Empathy) स्थापित करने की कुंजी को नहीं जान लेते और यह नहीं सीख लेते कि यह सम्बन्ध कैसे स्थापित होता है तब तक प्रयोगशालाओं में किये जाने वाले सारे परीक्षण निष्फल रहेंगे बशर्ते कि ये सारे परीक्षण विशेष तथा प्रशिक्षित निरीक्षकों के द्वारा न किये जावें। आध्यात्मिक विकास का इसके साथ अन्योन्याश्रित संबंध है। यह नहीं जानने के कारण कि सृजतात्मक प्रयोग याने प्रयोगकर्ता स्वयं अपने प्रयोगों के अनिवार्य अंग बने, बहुत सारे वैज्ञानिकों का दर्शन ही उल्टा हो जाता है।
___वोगल का कहना है कि हालांकि मनुष्य पौधे को प्रभावित कर सकता है फिर भी उसके परिणाम सदा सुखद ही नहीं होते । मनोचिकित्सा का कार्य करने वाले अपने एक मित्र जो कि स्वयं यह जानने के लिए आये थे कि पौधों के अन्वेषण में कुछ सच्चाई भी है क्या? उन्हें वोगल ने फिलोडेल्ड्रोन पौधे पर पन्द्रह फीट की दूरी से गहरी भावनात्मक उमियां प्रसारित करने को कहा । पौधे में तत्काल बहुत गहरी प्रतिक्रिया उभर आई और तुरन्त पौधा मूछित हो गया । जब वोगल ने उस मनोचिकित्सक को पूछा कि आपके मस्तिष्क में क्या चिन्तन चला था तो उसने उत्तर दिया कि उसने अपने मानस में वोगल के पौधे की अपने घर के फिलोडेल्ड्रोन से तुलना की थी और सोचा था कि वोगल का पौधा उनके पौधे की १५२
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तुलना में कितना निकृष्ट है ? वोगल के पौधे की भावना को इतनी गहरी चोट लगी थी कि उसने शेष सारे दिन के लिए उत्तर देने से ही इन्कार कर दिया । सचाई तो यह है कि उसके बाद वह दो हफ्ते तक उद्विवग्न बना रहा ।
वोगल को यह सन्देह कतई नहीं है कि पौधों को कुछ विशेष प्रकार के मनुष्यों से अधिक स्पष्ट कहा जाय तो उन मनुष्यों के सोचने के प्रति परान्मुखता है । जब यह सत्य है तो वोगल का विचार है कि एक न एक दिन ऐसा हो सकता है कि मनुष्य के चिन्तन को पौधों के मार्फत पढ़ा जा सके या जाना जा सके। ऐसा ही कुछ वास्तव में हो भी चुका है। वोगल के निवेदन पर एक मित्र ने जो अणुभौतिकविद् था एक तकनीकी समस्या पर काम करना शुरू किया। जब उसका चिन्तन चल रहा था वोगल के पौधों न 118 सैकण्ड तक रेकार्डर पर अनेक संकेत अंकित किए। जब अंकन-संकेत पुनः अपनी मूल रेखा पर आकर रुक गए तो वोगल ने अपने मित्र को सूचित किया कि उसकी चिन्तनधारा रुक गई है। मित्र ने इसकी पुष्टि की । क्या वोगल वास्तव में एक चिन्तन धारा को पौधे के मार्फत चार्ट पर पकड़ पाया ? वोगल के निवेदन पर जब भौतिकविद कुछ मिनटों के बाद अपनी पत्नी के बारे में चिन्तन करने लगा तो पौधे ने पुनः 105 सैकण्ड तक संकेत अंकित करवाये । वोगल को लगा कि ठीक उसके सामने अपने ही निवास स्थान पर पौधा मनुष्य के अपनी पत्नी के बारे में मानसिक चिन्तन को पकड़ रहा था और अंकित करवा रहा था। अगर कोई इन अंकनों की व्याख्या कर सके तो क्या कोई यह नहीं जान सकता कि आदमी क्या सोच रहा है ?
कॉफी मध्यान्तर के बाद वोगल ने अपने मित्र से सहज ही कहा कि वह अपनी पत्नी के बारे में उसी तरह पुनः सोचे जैसा कि उसने पहले सोचा था। पौधे ने 105 सैकण्ड तक लगभग पहले जैसा ही अंकन करवाया । वोगल के लिए यह पहला अवसर था जबकि पौधे ने उसी चिन्तन का ग्राफ दुबारा उसी तरह अंकित करवाया था। वोगल ने सोचा कि मात्र समय की ही देर है कि उन चार्ट-अंकनों की यदि संदेश के रूप में व्याख्या की जाय तो मानवीय विचार-पद्धति का वर्णन हो सकेगा। यह प्रमाणित हो जाने के बाद कि पौधा व्यक्ति या दूसरे पौधों के साथ संवाद स्थापित कर सकता है वोगल ने आगे के प्रयोग व्यक्ति समुदायों के बीच किये । जब वह शंकाशील मनोवैज्ञानिकों, चिकित्सकों और कम्प्यूटर कार्यकर्ताओं का अपने घर पर स्वागत कर रहा था तो वोगल ने उन्हें अपने सारे यंत्रादि उपकरणों को दिखाया क्योंकि उन्हें संदेह ही नहीं विश्वास भी था कि उन यंत्रों में कुछ छिपाया हुआ है । तब उसने उन्हें चक्राकार बैठा कर बातें करने को कहा ताकि वे देख सकें कि पौधा कौन-सी प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करता है ? प्रायः एक घण्टे तक बातचीत करने पर भी पौधे ने कुछ विशेष अंकित नहीं करवाया। इसलिए वे सब इस नतीजे पर पहुंचे कि ये सब कपोल कल्पित चीजें हैं । इतने में ही उनमें से एक ने कहा “सेक्स के बारे में क्या ? उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि पौधा सजीव हो उठा और सुई त्वरित गति से हिलने लगी। इससे ऐसा अन्दाज लगा कि सेक्स संबंधी वार्तालाप से वातावरण में किसी किस्म की सेक्स ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है जैसे कि 'ओरगॉन' जिसकी खोज और वर्णन डा० विल्हम रीच ने किया है और यह भी बताया है कि पुरानी गर्भाधान विधियों (Ancient fertility rites)
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में ताजे बीजों से बोये हुए खेतों में मानवीय जोड़ों को संभोग करने की छूट थी ताकि पौधों 'बढ़ने की सृजनात्मक शक्ति में उभार सा आए ।
दूसरे अवसर पर एक ऐसे अन्धेरे कमरे में जिसमें सिर्फ लाल रोशनी की मोमबती जल रही थी और विचित्र-सी कहानी सुनी जा रही थी। पौधे ने उस सभा की प्रतिक्रियाओं के संवेदनों के प्रति सजगता प्रकट की । कहानी के कुछ विशेष स्थलों जैसे " जंगल में रहस्य - मय कमरे का दरवाजा धीरे से खुलना शुरू हुआ...." अथवा " चार्ल्स ने नीचे झुक कर कफन का ढक्कन उठाया ' अथवा “अचानक एक कौने में एक अजीब-सा मनुष्य हाथ में छुरा लिये हुए प्रगट हुआ" पर पौधा विशेष ध्यान देता हुआ लगा । वोगल के लिए यह एक प्रमाण था कि पौधा, समुदाय द्वारा कल्पनाओं के रूपान्तर में परिवर्तित हुई ऊर्जाओं को माप सकता था ।
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वोगेल जोर देकर कहता है कि वे लोग जिनमें अपनी चेतना की भूमिकाओं को पूरी तरह बदलने की क्षमता नहीं है, उन लोगों के लिए पौधों के साथ प्रयोग करना अत्यन्त खतरनाक भी हो सकता है । आगे वह कहता है कि “एकाग्र चिन्तन मनस की उच्चतर भूमिओं में स्थित मनुष्य के शरीर पर अत्यधिक प्रभाव डाल सकता है और यदि वह व्यक्ति अपने कषायों (Emotions) को उसमें हस्तक्षेप करने देता है ।'
किसी भी व्यक्ति, जिसका सुदृढ़ और स्वस्थ शारीरिक संहनन नहीं है, को पौधों के साथ अथवा अन्य किसी भी साइकिक अन्वेषणों की गहराई में नहीं उतरना चाहिए। हालांकि वह यह प्रमाणित नहीं कर पाया है फिर भी उसे लगता है कि विशेष आहार जैसे कि प्रोटीन और खनिज से युक्त सब्जी, फल, मेवा शरीर को उपरोक्त कामलायक शक्ति-निर्माण में मददगार हैं । उच्च भूमिकाओं में स्थित व्यक्ति जितनी ऊर्जा को खींचता है, उसकी पूर्ति के लिए अच्छी पोषणयुक्त खुराक की आवश्यकता पड़ती है ।
जब उससे पूछा गया कि विचार आदि की उच्चतम ऊर्जा औदारिक शरीर एवं जीवित जीवाणुओं पर किस प्रकार प्रभाव डालती है तो उसने कहा कि अब वह अनुमान करने लगा है कि पानी में विचित्र गुण धर्म है । एक कृष्टल-अन्वेषक के रूप में उसकी इस बात में रुचि है कि जहां अधिकतम लवणों के कृष्टल का स्वरूप एक होता है वहां हिमनदी के भीतरी नमूने तीस से भी ज्यादा अलग-अलग स्वरूप वाले होते हैं । इस विषय के अनजान व्यक्ति प्रथम बार इन्हें देखकर इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि वे अलग-अलग पदार्थ देख रहे हैं । वे अपनी निजी अपेक्षा से सत्य भी हैं क्योंकि पानी स्वयं में एक रहस्य है ।
स्थापित सत्यों के आगे जाकर वोगल आगाही (Prediction) करता है कि सभी जीवित वस्तुओं में पानी की मात्रा अधिक होने से मनुष्य की जीवन्त शक्ति उसके श्वासो - श्वास की संख्या के अनुपात में किसी तरह अवश्य जुड़ी होनी चाहिए। जैसे पानी रोम-रोम द्वारा शरीर में घूमता है वैसे-वैसे जीवन्त शक्ति का वोल की जल के प्रति इस धारणा का प्रथम संकेत इस तथ्य से मिला कि कई एक साइकिक व्यक्तियों ने अपने प्रयोगों के दौरान जब साइकिक ऊर्जा का प्रसारण किया तब उनके शरीर
निर्माण ( Charge) होता रहता है
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का कई पौण्ड वजन घट गया । यदि साइकिक प्रयोगों के पूर्व हम उनका वजन सूक्ष्म कांटे पर करें तो वोगल का कहना है कि "प्रत्येक संदर्भ में वजन की कमी पाई जाएगी ।" यह क्षति पानी की है जैसे कि मनुष्य के तत्काल शक्ति दाई (Crash ) आहार पर होती है ।
भविष्य में चाहे जो हो वोगल का विश्वास है कि उसके पौधों संबंधी अन्वेषण मनुष्यों चिरकाल से विस्मृत सत्यों की पुनर्स्थापना में सहायक बनेंगे । वह सोचता है कि बच्चों को वह उनकी भावनात्मक उर्मियों के विर्सजन की विधि सिखा सकता है और इसके परिणामों की नाप की जा सकेगी। वे इसी तरह प्रेम करने की कला सीख सकेंगे और वास्तव में जानेंगे कि जब वे एकाग्र विचार करते हैं तब वे क्षितिज में अत्यधिक शक्ति (Force) या ऊर्जा का विसर्जन करते हैं, यह जानकर कि वे अपने विचार ही हैं वे जान लेंगे कि विचार का कैसे उपयोग किया जाय ताकि वे अपना आध्यात्मिक, भावात्मक और बौद्धिक विकास प्राप्त कर सकें । यह कोई मस्तिष्क की तरंगों को नापने की मशीन अथवा जादू नहीं है जिससे मनुष्यों को दृष्टा या योगी बनाया जाय बल्कि बच्चों को सरल, ईमानदार मानव बनाने में सहयोगी मात्र है ।
अपने सारे अन्वेषणों के महत्व का उपसंहार करते हुए वोगल ने कहा "जीवन में सारी पीड़ा और दुःख का आविर्भाव इसलिए होता है कि हम अपने तनाव और ऊर्जा का विसर्जन करने में असमर्थ रहते हैं । जब एक व्यक्ति हमें अस्वीकार (Reject) करता है तो हम अन्दर ही अन्दर विद्रोह कर उठते हैं और उस अस्वीकार को पकड़ते रहते हैं । यह तनाव पैदा करता है और जैसा कि विल्हम रीच ने बहुत ही पहले बताया था कि यह तनाव स्नायु-तंतुओं के बीच संग्रहीत होता चला जाता है और अगर उसे विसर्जित (निर्जरा ) नहीं किया जाय तो शरीर के ऊर्जा क्षेत्र ( आत्म प्रदेशों) में क्षति पहुंचाता है और शरीर की रासायनिक परिणति में परिवर्तन ला देता है । मेरा पौधों सम्बन्धी अन्वेषण तनाव मुक्ति के एक मार्ग का संकेत है ।"
( श्री पीटर टोमकीन्स और कृष्टोफर बर्ड की पुस्तक 'सीक्रंट्स आव प्लान्ट लाईफ' के एक अंश का हिन्दी अनुवाद)
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कुण्डलपुर के बड़े बाबा : आदिनाथ ।
__ डा० भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' । कुंडलपुर मध्यप्रदेश के दमोह जिले में अवस्थित है । यह मध्य रेलवे के बीना-कटनी मार्ग के दमोह स्टेशन से ईशान कोण में 35 किलोमीटर दमोह-पटेरा-कुण्डलपुर मार्ग पर स्थित है। पटेरा से इस स्थान की दूरी 5 किलोमीटर है। कुण्डलपुर समुद्री सतह से तीन हजार फीट ऊंची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ है। यहां की पर्वत-श्रेणियां कुण्डलाकार हैं, कदाचित् इसीलिए यह स्थान 'कुण्डलपुर' कहलाया।
प्राकृतिक सुषमा-सम्पन्न, उत्तर भारत की महनीय तीर्थस्थली कुण्डलपुर का महत्त्व धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से तो है ही, कला और पुरातत्त्व की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है । भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से जैन संस्कृति, कला तथा पुरातत्त्व के विकास में कुण्डलपुर का योगदान अत्यन्त भव्य और प्रशस्य है। यहां ईसा की छठी शताब्दी से लेकर परवर्ती सोलहवीं सत्रहवीं शताब्दी तक का मूर्तिशिल्प पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। यहां कुल 60 जैन मन्दिर हैं, 40 पर्वत के ऊपर और 20 अधित्यका में । अधित्यका के मन्दिरों और पर्वतमाला के बीचोंबीच निर्मल जल से भरा वर्धमान सागर नामक विशाल सरोवर है।
यद्यपि कुण्डलपुर में मूर्ति और वास्तुशिल्प के अनेक बेजोड़ नमूने उपलब्ध हैं, तथापि इन पंक्तियों में हम कुण्डलपुर की उस भव्य और सौम्य मूर्ति से आपको परिचित करा रहे हैं जो छठवीं शताब्दी की निर्मित तो है ही, सौन्दर्य की सृष्टि तथा विशालता की दृष्टि से भारतीय पद्मासन मूर्तिकला के इतिहास में अनुपम भी है। यह मूर्ति 'बड़े बाबा' के नाम से सम्बोधित होती है।
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(चिन 1) बड़े बाबा
कुण्डलपुर के मन्दिर संख्या 11 (देखो चित्र संख्या एक) में अवस्थित 12 फुट 6 इंच
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ऊंची तथा 11 फुट 4 इंच चौड़ी विशाल पद्मासन मूर्ति इस क्षेत्र की सर्वाधिक प्रसिद्ध और दशकों के मन को सहज ही मोह लेने वाली निर्मिति है । इस मूर्ति का निर्माण देशी भूरे रंग के पाषाण से हुआ है । इस मूर्ति के मुख पर सौम्यता, भव्यता और दिव्य स्मिति है। यदि हम इस मूर्ति को (देखो चित्र संख्या दो) ध्यानपूर्वक कुछ समय तक देखते रहें तो इसके मुख
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(चित्र 2) पर अद्भुत लावण्य, अलौकिक तेजस्विता और दिव्य आकर्षण के दर्शन प्राप्त करेंगे। मूर्ति के वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है। कंधों पर जटाओं की दो-दो लटें दोनों ओर लटक रही हैं । मूर्ति के सिंहासन के नीचे दो सिंह उत्कीर्ण हैं, ये सिंह आसन से संबंधित हैं, तीर्थंकर के लांछन नहीं है। मूर्ति के पादपीठ के नीचे गोमुख यक्ष और चक्रेश्वरी यक्षी अंकित हैं।
इस मूर्ति को आम जनता में भगवान महावीर' की मूर्ति के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह धारणा शताब्दियों से चली आ रही है, किन्तु नवीन शोध-खोज के आधार पर वास्तव में यह मूर्ति जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की प्रमाणित होती है।
___मैंने अपने विगत कुण्डलपुर प्रवास में शोध-खोज की दृष्टि से 'बड़े बाबा' की इस सातिशय मनोज्ञ मूर्ति के सूक्ष्म रीति से पुनः पुनः दर्शन किये और उन सभी आधारों पर खण्ड ४, अंक २
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गम्भीरतापूर्वक विचार किया जिनके कारण बड़े बाबा की यह मूर्ति महावीर स्वामी के रूप में विख्यात हुई तथा वस्तुस्थिति, प्रतिमाविज्ञान, पुरातात्त्विक साक्ष्य आदि के आधार पर मुझे उन्हें 'ऋषभनाथ' की मूर्ति स्वीकार करने में जो औचित्य प्रतीत हुआ है-उस संपूर्ण चिन्तन के निष्कर्ष अग्रलिखित पक्तियों में प्रस्तुत है :
बड़े बाबा के गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बायीं ओर (अब द्वार चौड़ा किये जाने पर इसे दायीं ओर की दीवार में जड़ दिया गया है) एक अभिलेख जड़ा हुआ है । यह अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह एक फुट ग्यारह इंच चौड़ा और एक फुट सात इंच ऊंचा है। इसी अभिलेख में प्रतापी शासक, बुंदेलखंड के गौरव, महाराज छत्रसाल द्वारा कुण्डलपुर को दिए गये बहुमूल्य सहयोग और दान का वर्णन प्राप्त होता है ।
विक्रम सम्वत् 1757 के इस अभिलेख में बड़े बाबा के मन्दिर के जीर्णोद्धार के प्रसंग में पद्य संख्या दो में श्री वर्द्धमानस्य' तथा पद्य संख्या दस में 'श्री सन्मतेः' शब्द आये हैं। इस अभिलेख की तिथि और वर्ण्य-विषय सुस्पष्ट हैं। इससे केवल यह तथ्य प्रकाशित होता है कि सत्रहवीं-अठारहवीं शती में यह मन्दिरं 'श्री महावीर मन्दिर' के नाम से जाना जाता था। संभवतः 'बड़े बाबा' की यह मूर्ति भी उन दिनों श्री महावीर की मूर्ति कहलाती होगी। कदाचित् तत्कालीन भक्तों को सिंहासन में अंकित दो सिंह देखकर बड़े बाबा को 'महावीर' मानने में सहायता मिली होगी।
___ मन्दिर संख्या 11 की विशाल मूर्तियों को ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि बड़े बाबा की विशाल मूर्ति का सिंहासन दो पाषाण खंडों को जोड़कर बनाया गया है । बड़े बाबा की मूर्ति के दोनों ओर उन्हीं के बराबर ऊंची भगवान पार्श्वनाथ की दो कायोत्सर्ग मूर्तियां भी हैं, इनके सिंहासन निजी नहीं, बल्कि अन्य विशाल कायोत्सर्ग मूर्तियों के अवशेष प्रतीत होते हैं। इन मूर्तियों के सिंहासन कदाचित् कभी बदले गये हों। यदि ऐसी कोई संभावना हो भी, तो यह बात आततायियों के आक्रमण के बाद की ही हो सकती है ।
इस सबके साथ यह बात सहज ही स्वीकरणीय है कि जीर्णोद्धार के पश्चात् (गत दो-तीन शताब्दियों में) बड़े बाबा के गर्भगृह में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये हैं। जैसे गर्भगृह के भीतर चारों ओर दीवारों पर मूर्तियां जिस ढंग से जड़ी हुई हैं, उनमें कोई निश्चित योजना अथवा व्यवस्था नहीं मालूम होती है। हमारा ऐसा विश्वास है कि ये मूर्तियां अन्यत्र से लाकर लगा दी गई हैं।
निश्चित ही यह प्रसंग आश्चर्यजनक है कि साक्ष्यों की उपेक्षा करके उक्त अभिलेख (संवत् 1757) में इसे 'श्री वर्धमान मन्दिर या श्री सन्मति मंदिर' कहा गया है, जबकि मूर्ति के पादपीठ पर तीर्थंकर महावीर का लांछन 'सिंह' या अन्य कोई प्रतीक यक्ष-यक्षी' (मातंग और सिद्धायिका) अथवा कोई अभिलेख आदि उत्कीर्ण नहीं हैं। पादपीठ पर दोनों पावों में जो दो सिंह निशित हैं, वे श्री महावीर के लांछन या प्रतीक नहीं है, अपितु वे सिंहासनस्थ के शक्तिपरिचायक सिंह हैं, जैसे कि प्रायः अन्य सभी मूर्तियों के पादपीठ पर ये देखे जा सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति श्री महावीर के नाम से इसलिये सम्बोधित होने लगी होगी क्योंकि जन-सामान्य को महावीर स्वामी के संबंध में उन दिनों कुछ
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अधिक जानकारी रही होगी। अब से कुछ दशाब्दियों पहिले भी ऐसी ही स्थिति रही है, क्योंकि साधारण मनुष्य श्रद्धालु होता है। वह इतिहास, धर्मशास्त्र, साहित्य और प्रतिमा. विज्ञान की गहराइयों में नहीं पैठना चाहता। अतः उसने इस मूर्ति को सहज भाव से 'बड़े बाबा' कहते हुए भी महावीर के नाम से जाना । अस्तु ।
___ जनसामान्य की धारणा के विपरीत अनेक ऐसे ठोस प्रमाण हैं जिनके आधार पर बड़े बाबा को श्री महावीर स्वामी की मूर्ति मानने में शास्त्रीय और प्रतिमाविज्ञान संबंधी अनेक बाधायें हैं। यह मूर्ति, वास्तव में, प्रथम तीर्थंकर युगादिदेव भगवान ऋषभदेव की है। इस संबंध में मेरे निष्कर्ष निम्न प्रकार है :
(1) बड़े बाबा की इस मूर्ति के कन्धों पर जटाओं की दो-दो लटें लटक रही हैं । साधारणतः तीर्थंकर मूर्तियों की केस राशि धुंधराली और छोटी होती है। उनके जटा और जटाजूट नहीं होते । किन्तु भगवान् ऋषभनाथ की कुछ मूर्तियों में प्रायः इस प्रकार के जटाजट अथवा जटायें दिखाई देती हैं। भगवान् ऋषभदेव के दीर्घकालीन, दुर्द्ध र, तपश्चरण के कारण उनकी मूर्ति में जटायें बनाने की परम्परा मध्यकाल तक प्रचलित रही है । तीर्थंकर ऋषभनाथ की मूर्तियों का जटायुक्त रूप शास्त्रसम्मत भी है। जैसा कि आचार्य जिनसेन ने भी कहा है :
(अ) चिरं तपस्यतो यस्य जटा मूनि बमुस्तराम् । ध्यनाग्निदग्ध कर्मेन्धनिर्मद धूमशिखा इव ॥
-आदिपुराण, पर्व 1, पद्य 9 (ब) प्रलम्बजटाभार भ्राजिष्णुजिष्णुराबभौ । रूढ प्रारोहशाखाग्रो यथा न्यग्रोधपादपः ।।
-हरिवंश पुराण, 9, 204 कुण्डलपुर के बड़े बाबा के कंधों पर जटायें भी लहरा रही हैं। अतः निर्विवाद रूप से यह मूर्ति भगवान ऋषभनाथ की ही है, महावीर स्वामी की नहीं।
(2) श्री महावीर-मूर्ति के परिकर में उनके यक्ष मातंग और यक्षी सिद्धायिका का अंकन आवश्यक है, जबकि इस मूर्ति में ऐसा कोई अंकन नहीं है।
(3) बड़े बाबा की मूर्ति के पादपीठ के नीचे सिंहासन में आदिनाथ के यक्ष गोमुख और यक्षी चक्रेश्वरी का सायुध सुन्दर अंकन है। यक्ष अपने दो हाथों में से एक में परश और दूसरे में बिजौरा फल धारण किये हैं। उसका मुख गाय जैसा है। जबकि चक्रेश्वरी यक्षी चतुर्भुजी है । उसके ऊपर के दो हाथों में चक्र हैं, नीचे का दायां हाथ वरद मुद्रा में है तथा बायें हाथ में शंख है।
___ उक्त यक्ष और यक्षी के शास्त्रीय मूर्त्यङकन से निर्विवाद रूप से यह तथ्य प्रमाणित है कि बड़े बाबा की मूर्ति तीर्थंकर ऋषभनाथ की ही है।
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(8) लोक परम्पराओं में भी संस्कृति के मूल रूप के दर्शन सहज ही होते हैं । इस बात का प्रबल प्रमाण है-इस मूर्ति का 'बड़े बाबा' के नाम से सम्बोधित होना । तीर्थंकरों की परम्परा में जो बड़ा है, वृद्ध है' उसे ही तो "बड़े बाबा" का सम्बोधन प्रदान किया जा सकता है, अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के लिए 'बड़े बाबा' सम्बोधन कैसा?
उक्त प्रमाणों के प्रकाश में यह तथ्य सहज ही स्वीकार किया जाना चाहिए कि कुण्डलपुर के 'बड़े बाबा' की मूर्ति महावीर स्वामी की नहीं है, प्रत्युत प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की है।
यद्यपि भारत में यत्र तत्र अनेक विशाल पद्मासन मूर्तियां प्राप्त होती हैं, परन्तु कला का जो शाश्वत और सार्वकालिक स्मरणीय प्रभाव तथा वीतरागता की जो अनुपम अनुभूति 'बड़े बाबा' की इस मूर्ति से प्राप्त होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसी दिव्य मूर्ति को शतशः नमन । इति ।
श्रमणधर्म-पद दसविधे समणधम्मे पण्णते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संममे, तवे, चियाए, बभचे रवासे ।।
__ श्रमणधर्म के दस प्रकार हैं :-(1) क्षान्ति, (2) मुक्ति (अनासक्ति), (3) जार्जव, (4) मार्दव, (5) लागव, (6) सत्य, (7) संयम, (8) तप, (9) त्याग (अपने सांभोगिक साधुओं को भोजन आदि का दान), (10) ब्रह्मचर्य वास ।
-ठाणं, 10/16
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भारतीय भाषाओं के विकास और साहित्य की समृद्धि में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण योगदान
डा० के० आर० चन्द्र, अहमदाबाद
भारत में प्राचीनकाल से दो सांस्कृतिक परंपराएं विद्यमान रही हैं— वैदिक और श्रमण | वैदिक परंपरा ने संस्कृत भाषा को अपना प्रमुख माध्यम बनाया और धार्मिक साहित्य के लिए इस देव वाणी के सिवाय अन्य लोक भाषाओं का बहिष्कार किया। संस्कृतेतर भाषाओं को अपभ्रष्ट माना गया और नाटकों में प्राकृत भाषाओं को हीन दर्जा दिया गया । अपवाद रूप में प्राकृत भाषा में उनका कुछ शिष्ट साहित्य मिलता है ।
इसके विपरीत श्रमण-परंपरा लोकाभिमुख थी अतः उसने भाषा-विशेष को पवित या अपवित्र नहीं माना परंतु अपना संदेश लोगों तक ले जाने के लिए यह परंपरा समय और क्षेत्र के अनुसार विकासमान नयी-नयी लोक भाषाओं को साहित्यिक दर्जा दिलवाने में आगे रही और उन लोक भाषाओं को धार्मिक एवं शिष्ट साहित्य का माध्यम बनाया ।
वैदिक परंपरा के समान श्रमणों के प्राचीन साहित्य का प्रारंभ भी धार्मिक साहित्य से ही हुआ और बाद में संस्कृत साहित्य के समान अनेक प्रकार का शिष्ट साहित्य मध्यकालीन और अर्वाचीन लोक भाषाओं में रचा गया। संस्कृत भाषा में साहित्य की जितनी विधा प्राप्त हैं लगभग उतनी ही विधाएं प्राकृत भाषाओं में भी प्राप्त हैं और इन भाषाओं में संस्कृत के समकक्ष अभिव्यक्ति का सामर्थ्य है यह भी सिद्ध होता है और इन प्राकृत रचनाओं का भारतीय साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान हैं ।
किसी भाषा - विशेष के प्रति मोह नहीं होने के कारण श्रमण-परंपरा ने संस्कृत भाषा में भी साहित्य के लगभग सभी प्रकारों की रचना की है । उपलब्ध संस्कृत साहित्य में श्रमणों की अनेक रचनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
भारतीय भाषाओं का ईसा पूर्व पाँचवीं शती से आज तक का क्रमिक विकास जानने के लिए श्रमण- साहित्य ही मुख्य साधन है और इस दिशा में श्रमणों की बड़ी ही महत्त्वपूर्ण देन है । कुछ श्रमणेतर प्राकृत रचनाएं प्राप्त हैं परंतु उनमें से अधिकतर कृतियाँ संस्कृत
पालि- प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में दिनांक 21 से 23 मार्च 1977 तक आयोजित 'भारतीय संस्कृति के विकास में श्रमण संस्कृति का योगदान' नामक संगोष्ठी में पढ़ा गया लेख ।
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भाषा में सोच कर और शिष्ट प्राकृत भाषाओं में रची गयी हैं अतः उनमें मूल लोक-भाषाओं के वे स्वाभाविक तत्त्व नहीं मिलते जो श्रमण साहित्य में उपलब्ध हैं। गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी आदि आधुनिक भाषानों का प्रारंभिक साहित्य भी श्रमणों की ही देन है।
प्राकृत भाषाओं का साहित्य मागधी-पालि, अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाओं में मिलता है। इन भाषाओं में शिष्ट साहित्य के रूप में कथा और काव्य ही नहीं परंतु दर्शन और तत्त्वज्ञान जैसे गंभीर विषय पर भी साहित्य उपलब्ध है । अन्य विविध प्रकार के साहित्य से भी इन भाषाओं की सामर्थ्य शक्ति सिद्ध होती है। लोक प्रचलित अनेक राग और छंद तथा अनेक विधाओं का उपयोग और संरक्षण भी इसी परंपरा में हुआ है । भारतीय लोक संस्कृति का सर्वाङ्गीण दर्शन भी इसी साहित्य से होता है।
. आर्य भाषाओं तक ही श्रमणों का क्षत्र सीमित नहीं रहा परंतु द्रविड़ी भाषाओं को भी उनका योगदान रहा है । तमिल और कन्नड़ भाषाओं के प्राचीनतम साहित्य में भी श्रमणों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। 1. प्राकृत भाषाओं में उपलब्ध श्रमणों का विविध प्रकार का साहित्य और उसका महत्व
नीचे किया गया विषयवार विभाजन सामान्य तौर पर है। इसका अर्थ यह नहीं कि अमुक ग्रन्थ में अन्य विषय मिलते ही नहीं अथवा अमुक विषय अन्य ग्रन्थों में मिलता ही नहीं। पालि (मागधी) (ई० स० पूर्व 600 से 60 ई० स० तक)
__अर्धमागधी आगम की कुछ कृतियों के समान पालि त्रिपिटक की भी कुछ कृतियां संस्कृतेतर साहित्य में प्राचीनतम समझी जाती हैं। पालि त्रिपिटक के मुख्य तीन विभाग हैंसुत्त, विनय और अभिधम्म । सुत्त पिटक में सरल पद्धति से भगवान् बुद्ध के सिद्धान्त समझाये गये हैं। विनय पिटक में आचार और संघ संबंधी नियम हैं तथा प्रायश्चित और शिक्षा (सजा) सम्बंधी विधान हैं । अभिधम्मपिटक में सूक्ष्म दृष्टि से तत्त्वज्ञान समझाया गया है। इनमें से कुछ ग्रन्थों की विशेषता इस प्रकार है :
.. थेर-थेरी गाथा में हमें गीतिकाव्य के दर्शन होते हैं, अंगुत्तर-निकाय में विषयों का संख्यात्मक वर्गीकरण मिलता है, धम्मपद उपदेशात्मक सूक्तियों का एक अद्भुत ग्रन्थ है, जातक-कथा-ग्रंथ लोक कथाओं का अद्वितीय खजाना है जिसमें रोमांचकारी, नैतिक, विनोदात्मक, धार्मिक और पशु कथाएं मिलती हैं, बुद्धवंश में 24 बुद्धों की जीवनी मिलती है और चरियापिटक में बुद्ध के पूर्व भव की कथाएं हैं । अभिधम्म में चित्त का विश्लेषण उत्तम ढंग से हुआ है । अशोक के द्वारा उत्कीर्ण किये गये लेख भी प्राचीनतम पालि लेख हैं।
त्रिपिटक के बाद मिलिन्दपञ्हो का दार्शनिक और संवादात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है।
त्रिपिटक ग्रंथों के टीका साहित्य में पालि अट्ठकथाएं हैं जिनकी रचना मुख्यतः बुद्धदत्त, बुद्धघोष और धम्मपाल द्वारा की गयी हैं।
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अर्धमागधी साहित्य ( ई० स० पूर्व ० 500 से 600 ई० स० तक )
अर्धमागधी साहित्य निम्नलिखित विषयों पर मिलता है :
(1) सिद्धान्त स्व और पर (सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती, स्थानांग, राजप्रश्नीय, औपपातिक, उवासगदसाओ इत्यादि)
(2) आचार ( आचारांग, उवासगदसाओ)
(3) आराधना, स्तव, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित, व्यवहार, क्रियानुष्ठान, भोजन-वस्त्रनिवास, समाधि संबंधी (दशप्रकीर्णक, छ: छेदसूत्र, आवश्यक, पिंडनियुक्ति ओघनियुक्ति आदि)
(4) कथात्मक ( धार्मिक, औपदेशिक, अर्ध- ऐतिहासिक, पौराणिक ) ( नायाधम्म, उत्तराध्ययन, अनुत्तरोपपातिक, अन्तगड, विवागस्य, निरयावलिया इत्यादि) ( 5 ) भूगोल - खगोल ( जम्बुद्दीवपण्णत्ति जीवाजीवाभिगम )
(6) ज्योतिष ( गणिविज्जा, जोइस करंड )
(7) सामुद्रिक ( अंगविज्जा )
( 8 ) चरित ( कल्पसूत्र )
( 9 ) आचार्य - परंपरा ( नंदी सूत्र )
( 10 ) ज्ञानचर्चा (नंदी और अनुयोगद्वार )
( 11 ) उपदेशात्मक सूक्ति (इसिभासिया इं )
इस आगम साहित्य पर प्राकृत में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी के रूप में टीका साहित्य मिलता है । चूर्णियाँ गद्य लिखी गयी हैं और उनमें रोचक कथाएं भी मिलती हैं ।
शौरसेनी साहित्य ( ई० स० 100 से 1500 तक)
शौरसेनी साहित्य के विषय निम्न प्रकार से हैं :
(1) सिद्धान्त और कर्म ( षट्खंडागम, घवला, महाघवला, कषायप्राभृत, प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह इत्यादि)
(2) आचार, आराधना, प्रायश्चित (मूलाचार, नियमसार भगवती, आराधना, वसुनंदि, श्रावकाचार, छेदपिण्ड इत्यादि)
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( 3 ) नय ( नयचक्र - देवसेनसूरि, बृहत्नयचक्र - माइल्लधवल )
( 4 ) भूगोल - खगोल - गणित ( तिलोयपण्णत्ति, जम्बुद्दीवपण्णति संग हो )
( 5 ) ध्यान (मोक्षपाहुड, बारसअणुपेक्खा )
महाराष्ट्री और प्राकृत साहित्य ( ई० स० 100 से 1500 तक ) महाराष्ट्री प्राकृत साहित्य निम्न प्रकार से उपलब्ध है। ( 1 ) शिलालेख (खाखेल का शिलालेख )
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( 2 ) पुराण - चरित ( पउमचरिय, जंबूचरिय और अनेक तीर्थंकर चरित) ( 3 ) चरितसंग्रह ( चउप्पन्न महापुरिसचरिय, कहावलि (गद्य) इत्यादि)
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(4) रोमान्स कथा (वसुदेवहिंडी, कुवलयमाला, तरंगलोला इत्यादि) (5) उत्तम काव्य (कुवलयमाला, सुरसुन्दरीचरिय इत्यादि) (6) चम्पू (समराइच्चकहा, कुवलयमाला इत्यादि) (7) उपहासात्मक कथा (धूर्ताख्यान)
(8) औपदेशिक कथा और कथाकोष (उपदेशमाला, उपदेशपद, कथाकोषप्रकरण, आख्यानकमणिकोश इत्यादि)
(9) द्विसंधान काव्य (कुमारपालचरित) (10) स्त्रोत्र (उवसग्गहर, लोगस्स, ऋषमपंचाशिका, अजियसंतिथव) (11) सुभाषित (बप्पभट्टिका तारागण; गाहारयणकोस, वज्जालग्रा) (12) नाटक-(रंभामंजरी) (13) नाटक-रूपकात्मक-(मोहराजपराजय) (14) अलंकार (अलंकारदप्पण) (15) व्याकरण (चण्ड, हेमचन्द्र) (16) छन्द (स्वयंभूछन्दस्, छन्दानुशासन, कविदर्पण)
(17) कोष (पाइयलच्छीनाममाला, देशीनाममाला) तत्वज्ञान, सिद्धान्त और आचार संबंधी अन्य प्राकृत साहित्य इस प्रकार है :(1) जैन तत्त्वज्ञान (विशेषावश्यकभाष्य, छठींशती)
दर्शन खंडन-मंडन? (सन्मतिप्रकरण, धर्मसंग्रहणी)
व अनेकान्त (2) कर्मसिद्धान्त (कम्मपयडि, पंचसंग्रह, नव्यकर्म ग्रंथ, 13वीं शती) (3) योग (योगविशिका, योगशतक) (4) क्रियाकाण्ड (विधिमार्ग प्रपा, ई०स० 1306, प्रवचनसारोद्धार, 13वीं शती)
(5) आचार (सावयपण्णत्ति, सावयधम्म विहि, पंचासक, प्रवचनसारोद्धार इत्यादि) अपभ्रंश साहित्य (ई० स० 800 से 1500 तक)
प्राकृत साहित्य की परंपरा के अनुसार विविध विषयों और विधाओं में अपभ्रंश साहित्य का भी सृजन हुआ परंतु लोक शैली के प्रभाव के कारण उनके बाह्य स्वरूप और छन्दों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। इस काल में संधि काव्यों की नये-नये छन्दों में रचनाएँ होने लगी। गेयात्मक दोहा साहित्य में एक नवीन प्रकार के साहित्य का उद्भव हुआ। यही प्रवृत्ति आगे चली और अनेक लोक प्रचलित राग और छन्दों का साहित्य में प्रयोग हुआ। इस उत्तर-अपभ्रंश साहित्य को अवहट्ट को संज्ञा दी गयी जो आधुनिक भाषाओं का संधिकाल माना जाता है। इस अवहट्ट साहित्य में भी अनेक नवीन विधाओं का उद्भव हुआ जिनकी परंपरा आधुनिक भाषाओं में भी कुछ काल तक बनी रही।
अपभ्रंश भाषा का विविध प्रकार का साहित्य इस प्रकार है :(1) चरित (पउमचरिउ, नायकुमार चरिउ, अनेक तीर्थंकर चरित इत्यादि)
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(2) चरित संग्रह (तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारु) (3) कथाकोष (श्रीचन्द्र का कथाकोष इत्यादि) (4) उपहासात्मक कथा (धम्मपरिक्खा) (5) रूपकात्मक काव्य (मदनपराजयचरिउ)
(6) अध्यात्म, ध्यान, योग संबंधी (बौद्धों का सिद्ध दोहा साहित्य, परमात्मप्रकाश, योगसार, पाहुडदोहा, इत्यादि)
(7) शृंगार और वीर रस संबंधी (हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्धरण) (8) संधिकाव्य (भावना संधि प्रकरण) (9) श्रावक धर्म (सावयदोहा) (10) स्तोत्र (जयतिहुयण स्तोत्र) (11) छन्द (स्वयंभू और हेमचन्द्र की कृतियाँ)
रास, फागू, बारहमासा, छप्पय, विवाहलु, इत्यादि नवीन प्रकार की अपभ्रंश रचनाएं 12वीं शती से मिलती हैं । ये उत्तरकालीन अपभ्रंश कृतियां मानी जाती हैं। आधुनिक भाषा वाले इन्हें अपनी-अपनी भाषा का आदि साहित्य कहते हैं। वास्तव में यह संधिकालीन साहित्य है और इसकी परंपरा आधुनिक भाषाओं के साहित्य में बनी रही अतः इनकी चर्चा आधुनिक भाषाओं के प्राचीन साहित्य के अन्तर्गत की जा सकती है । 2. भारतीय साहित्य को उपलब्ध प्राकृत साहित्य की महत्वपूर्ण देन
यहाँ पर प्राकृत साहित्य के अन्तर्गत पालि और अपभ्रश साहित्य का भी समावेश किया गया है। भारतीय आर्य भाषाओं के उपलब्ध साहित्य में श्रमणों के प्राकृत साहित्य का कुछ महत्त्वपूर्ण और विशेष प्रदान इस प्रकार है :
शिलालेख–उपलब्ध शिलालेखों में सम्राट अशोक और खाखेल के पालि और प्राकृत के शिलालेख ही भारत के सबसे प्राचीन शिलालेख हैं। अन्य सभी उत्कीर्ण लेख इनके बाद के हैं।
उपदेशात्मक सूक्ति-संग्रह-धम्मपद सदाचार सम्बंधी सूक्तियों का श्रेष्ठ और प्राचीनतम काव्यात्मक संग्रह ग्रंथ माना जाता है । उपदेशात्मक कथा-संग्रह :
1. नायाधम्मकहाओ गद्य कथाओं का एक प्राचीन संग्रहात्मक ग्रंथ है जिसमें मुनियों को आचरण और संयम में सुदृढ़ करने के लिए दृष्टांत कथाएं दी गयी हैं।
2. जातकट्ठकथा का पद्य भाग प्राचीन माना जाता है । यह भी कथाओं का संग्रह ग्रंथ है। इसमें भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएं दी गयी हैं जिसका हेतु पारमिताओं का परिशीलन करना है । लोक-कथाओं की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।।
3. विवागसुय और अपदान जैसे ग्रंथों में पूर्व भव में किये गये कार्यों का इस जन्म में अच्छा या बुरा फल देने वाली कथाओं का प्राचीनतम संग्रह है। जातकट्ठकथा में भगवान् बुद्ध के ही पूर्व भवों की कथाएँ आती हैं परन्तु इन ग्रन्थों में अनेक अन्य पात्रों की कथाएं हैं।
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गद्यात्मक चरित एवं रोमांस-वसुदेवचरित या वसुदेव-हिंडी भारतीय साहित्य में प्रथम गद्य-चरित एवं गद्य रोमांस कथा है ।
पद्यात्मक-चरित-चरित-शीर्षक वाली पद्यात्मक कृतियों में पउमचरियं और पउमचरिउ प्रथम रचनाएं हैं।
चम्पूकाव्य-चम्पू काव्यों में समराइच्चकहा और कुवलयमाला का उपलब्ध साहित्य में प्रथम स्थान है।
अपभ्रंश की नवीन विधाए-उत्तर अपभ्रंश अथवा अवहट्ट भाषा में जो नवीन प्रकार का साहित्य रचा गया वह श्रमणों का ही विपुल साहित्य है, श्रमणेतर साहित्य बहुत कम मिलता है और वह भी बाद का है। यह साहित्य दोहासाहित्य, रास, फागु, चूनडी, चर्चरी, बारहमासा इत्यादि है ।
चरित-संग्रह : इस प्रकार की रचनाओं में अनेक महापुरुषों के चरित एक ही ग्रंथ में दिये हुए होते हैं । चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, कहावली, तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु इत्यादि ऐसे ग्रन्थ हैं । पालि का बुद्धवंस भी इसी प्रकार की रचना है । ये रचनाएँ पुराण भी कहलाती है परंतु इनकी कुछ विशेषता है । पुराणों में शैलीगत शिथिलता और कहीं-कहीं पर अव्यवस्था और पुनरावर्तन भी होता है । चरित के अलावा कितने ही अन्य पौराणिक विषयों का वर्णन भी होता है । हरेक पुराण में मुख्य पात्र के रूप में एक या दो अवतारों का ही वर्णन होता है और काव्यात्मक शैली के सामान्यतः दर्शन नहीं होते। जव कि इन चरितसंग्रहों में अन्य पौराणिक बातें छोड़ कर मात्र महान पुरुषों के जीवन-चरित का एक ही जगह पर संग्रह होता है और उन्हें सामान्य या विशेष काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है । इस प्रकार ये रचनाएं एक प्रकार से न्यूनाधिक रूप में पुराण और काव्यात्मक शैली का मिश्रण लिए हुए हैं।
उपहासात्मक कथा : हरिभद्र सूरि का धूर्ताख्यान इसी प्रकार की प्रथम स्वतंत्र और बेजोड़ उपहासात्मक रचना है जिसमें कथाओं द्वारा अन्धविश्वास पर व्यंग्य किया गया है ।
संख्यात्मक-वर्गीकरण : अंगुत्तरनिकाय, स्थानांग, समवायांग इत्यादि में अनेक विषयों की जानकारी संख्यात्मक पद्धति में दी गयी है । इस प्रकार का कोई स्वतंत्र श्रमणेत्तर ग्रंथ ध्यान में नहीं है।
संवादात्मक-सिद्धान्त-चर्चा : पालि भाषा का मिलिन्दपञ्हो एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें मान दार्शनिक विषय को संवादात्मक रूप में और सुन्दर काव्यात्मक व सुव्यवस्थित ढंग से एक ही ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है । इसकी विशेषता यह है कि इसमें अन्य कोई विषयों की चर्चा नहीं है । इस प्रकार का इसके पहले का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
रूपकात्मक-काव्य : मयणपराजयचरिउ में काम, मोह, अहंकार, अज्ञान, राग द्वेष, जिनराज आदि को पात्र बनाया गया है और अन्त में जिनराज मुक्तिरूपी अंगना से विवाह करते हैं । यह पन्द्रहवीं शती की हरिदेव की रचना है । इस शैली के नाटक तो इससे भी प्राचीन मिलते हैं परंतु ऐसा कोई काव्य ख्याल में नहीं आया है।
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कर्म-साहित्य : इस प्रकार का साहित्य तो श्रमण-परंपरा में ही उपब्ध है । अभिधम्म में सूक्ष्म चित्त-विश्लेषण पाया जाता है और जैनों के महाबंध, कम्मपयडी इत्यादि में कर्म का सूक्ष्म विवेचन पाया जाता है।
द्वयाश्रय-काव्य : इस काव्य की यह विशेषता है कि इसमें कुमारपाल के चरित के साथ प्राकृत व्याकरण के नियम भी समझाये गये हैं । जनों के सिवाय अन्य किसी की ऐसी कृति नहीं मिलती है जिसमें इस प्रकार प्राकृत व्याकरण समझाया गया हो।
ध्याकरण : हेमचन्द्रसूरि का प्राकृत व्याकरण ही प्रथम ऐसा व्याकरण है जिसमें सभी साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का (पालि के सिवाय) समावेश करते हुए उन्हें विस्तारपूर्वक समझाया गया है।
छन्द : स्वयंभूछन्दस् में प्राकृत और अपभ्रंश छन्दों का सर्वांगीण निरूपण मिलता है। हेमचन्द्र का छन्दानुशासन भी श्रेष्ठ छन्द ग्रंथ माना गया है जिसमें उस उस भाषा में नाम सहित उदाहरण दिये गये हैं।
शब्द कोस : पाइयलच्छीनाममाला और देशीनाममाला ही प्राकृत के शब्द कोष हैं। इनकी रचना जैनों ने की हैं।
3. उपलब्ध संस्कृत साहित्य में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण प्रदान :
संस्कृत भाषा में साहित्य निर्माण करने में श्रमण लोग पीछे नहीं रहे । भाषा विशेष के प्रति कदाग्रह या मोह नहीं होने के कारण संस्कृत भाषा में भी उन्होंने लगभग सभी प्रकार की विधाओं में साहित्य का निर्माण किया। उन सब प्रकार के साहित्य के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है । उपलब्ध भारतीय संस्कृत साहित्य में श्रमणों की संस्कृत कृतियों का कुछ महत्वपूर्ण प्रदान इस प्रकार है :
नाटक : अश्वघोष का शाटिपुनप्रकरण प्रथम नाटक समझा जाता है। उन्हीं का एक रूपकात्मक नाटक खंडित अंशों में उपलब्ध है उसका भी नाटक साहित्य में प्रथम स्थान है।
__ ललित-काव्य : अश्वघोष का बुद्धचरित प्रथम ललित काव्य माना जाता है। चरित संज्ञा वाले काव्यों या कृतियों में भी इस को प्रथम स्थान प्राप्त है।
उपदेशात्मक कथा-काव्य : इस वर्ग में अवदान-शतक, दिव्यावदान आदि को प्रथम स्थान मिलता है। इसमें त्याग, दान, पुण्य, पाप आदि और पूर्व कर्मों का फल दिखाया गया है ।
रूपकात्मक-कथा-काव्य-उपमितिभवप्रपञ्चाकथा जिसकी रचना ई० स० 906 में हुई है संस्कृत साहित्य में इस प्रकार की यह अद्भुत रचना मानी जाती है।
सुभाषित संग्रह - "कवीन्द्रवचनसमुच्चय" 10वीं शती के अन्त की एक बौद्ध रचना है जिसमें अलग-अलग विषयों पर सुभाषितों का संग्रह है । यह इस प्रकार की प्रथम रचना मानी जाती है । नन्दन का प्रसन्नसाहित्य-रत्नाकर इसका अनुकरण माना जाता है।
स्तोत्र - काव्यात्मक शैली में लिखे गये स्तोत्रों में मातृचेट का चतु: शतकस्तोत्र, शतपञ्चाशतिकस्तोत्र इत्यादि और सिद्धसेन का कल्याणमन्दिर स्तोत्र तथा समन्तभद्र का स्वयंभू-स्तोत्र प्राचीन गिने जाते हैं । शंकर के स्तोत्र और बाण के चण्डीस्तोत्र आदि का नम्बर बाद में आता है।
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द्विसन्धान काव्य - धनञ्जय का "राघवपाण्डवीय" काव्य इस प्रकार की रचना है जिसमें हिन्दू रामायण और महाभारत दोनों कथाओं का अर्थ घटित होता है । इसका समय 9वीं से 11वीं शती माना जाता है । इस कोटि की सन्ध्याकरनन्दि की रचना "रामपालचरित" है जिसमें बंगाल के राजा रामपाल तथा रामचरित का वर्णन है। इसका समय 11वीं शती के बाद का है ।
शब्दकोष - "अमरकोष" संस्कृत का प्रथम कोष है जो एक बौद्ध कृति मानी जाती है ।
दर्शन संग्रह - हरिभद्र सूरि का " षड्दर्शनसमुच्चय" पहला ग्रंथ है जिसमें एक साथ अनेक दर्शनों का विवरण मिलता है । सर्वदर्शनसिद्धान्तसंग्रह, सर्वदर्शनसंग्रह और सर्वमतसंग्रह बाद के हैं । हरिभद्र के ग्रंथ में जैन, बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, जैमिनीय (पूर्वमीमांसा ) और लोकायत दर्शनों का वर्णन है ।
योग प्रक्रिया - असङ्ग का “योगाचारभूमि" ( तीसरी-चौथी शती) योग प्रक्रिया का प्रथम ग्रंथ माना जाता है ।
चरित-संग्रह - यह सभी पौराणिक महान् पुरुषों के चरितों को एक ही कृति में ग्रन्थस्थ करने की पद्धति है । जिनसेन- गुणभद्र का महापुराण और हेमचन्द्र का त्रिषष्ठिशाला का पुरुष चरित उल्लेखनीय हैं। ऐसे ग्रन्थों की जो विशेषता है वह ऊपर बतला दी गयी है ।
उपहासात्मक कथा - इस प्रकार की कथाओं को एक ही कृति में ग्रन्थस्थ करने की यह विशेष पद्धति है । अमितगति द्वारा रचित धर्मपरीक्षा नामक ऐसा ही 10वीं शती का ग्रंथ है जिसमें अंधविश्वास पर व्यंग्य कसा गया है ।
पादपूर्ति काव्य - अन्य रचनाओं के पद्यों में से अन्तिम चरण लेकर अपनी तरफ से प्रारंभिक तीन चरण जोड़कर ये काव्य कृतियाँ बनायी गयी हैं । मेघदूत के आधार पर जिनसेन का पार्श्वभ्युदय काव्य, शिशुपालवध के आधार पर ( 17वीं शती) मेघविजयगणि का देवानन्द महाकाव्य और नैषधचरित के आधार पर शान्तिनाथ चरित्र ऐसी ही काव्य कृतियाँ हैं ।
पादपूर्ति स्तोत्र - ये स्तोत्र प्राचीन स्तोत्रों के पद्यों के अन्तिम चरण के आधार पर बनाये गये हैं । कल्याणमन्दिर स्तोत्र के आधार पर भानुप्रभसूरि ( 1734 ई० स० ) का जैनधर्म- वरस्तोत्र, भक्तामरस्तोत्र के आधार से समयसुन्दरगणि ( ई० स० 1623 ) का ऋषभ - भक्तामर, स्तोत्र अजैन शिवमहिम्नस्तोत्र के आधार पर ऋषिवर्धनसूरि ( 15वीं शती) का समस्या महिम्नस्तोत्र इत्यादि अनेक स्तोत्र मिलते हैं ।
विज्ञप्ति पत्र -- प्रभाचन्द्रीय विज्ञप्ति पत्र (ल० 1200 ई० स० ) प्रभाचन्द्रसूरि द्वारा बड़ौदा से यह पत्र भानुप्रभसूरि पर लिखा गया है और इसकी शैली अलंकृत काव्यमय है । इस प्रकार के अनेक विज्ञप्तिपत्र 18वीं शती तक के मिलते हैं ।
कथाकोष—ये अनेक लघु कथाओं के संग्रह हैं जिनमें धार्मिक उपदेश देते हुए पुण्य और पाप का फल दिखाते हुए तथा विनय, दान, शील, संयम, तप इत्यादि के सुफल स्वरूप
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दृष्टान्त के रूप में कथाएँ कही गयी हैं। इस प्रकार के अनेक ग्रंथों की रचना पद्य और गद्य में हुयी हैं । हरिषेण (ई० स० 132) का बृहत्कथाकोष (पद्य) और प्रभाचन्द्र (13वीं शती) का कथाकोष उदाहरण रूप हैं। काव्यात्मक दृष्टि से इनका इतना महत्त्व नहीं है जितना उपदेशात्मक दृष्टि से है।
द्वयाश्रय काव्य -- द्वयाश्रयी काव्य के रूप में "भट्टिकाव्य" प्रथम गिना जाता है । हेमचन्द्राचार्य का कुमारपाल चरित बाद का है परंतु इसकी विशेषता इतनी है कि इसमें सिद्धहेमशब्दामुशासन के सूत्र क्रमपूर्वक दिये गये हैं और इसमें पौराणिक कथा के स्थान पर ऐतिहासिक सोलंकी वंश का वर्णन किया गया है।
. अनेकसन्धान काव्य-मेघविजयगणि (ई० स० 1703) ने सप्तसन्धान काव्य की रचना की है जिसमें नौ सर्ग और 442 श्लोक हैं। उसमें ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर तथा राम और कृष्ण का वर्णन है ।
सोमप्रभाचार्य (ई० स० 1177) का शतार्थकाव्य है जिसमें जैन तीर्थंकर, हिंदूदेव, अनेक राजा इत्यादि का वर्णन एक ही पद्य से फलित होता है। इसे समझाने के लिए उनकी अपनी ही उस पर वृत्ति है।
छन्द -हेमचन्द्र का "छन्दानुशासन" सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। इसे पूर्ववर्ती ग्रंथों को ध्यान में रखकर रचा गया है । यह सबसे अधिक परिपूर्ण और अधिक विस्तृत है । उदाहरणों में ही उन-उन छन्दों का नाम दिया गया है । आधुनिक भाषा-साहित्य को श्रमणों की देन
लगभग 12वीं से 14वीं शती तक उत्तर भारत की आर्य भाषाओं में काफी परिवर्तन आया । मध्यकालीन भाषाओं और आधुनिक भाषाओं का यह संधि काल माना जाता है। इस दरम्यान अनेक गेयात्मक नवीन लोक विधाओं का अद्भव हुआ और श्रमणों (जैनों) ने उन्हीं विधाओं में साहित्य का सृजन किया। इस काल की भाषा को अवहट्ट अथवा उत्तरकालीन अपभ्रश भी कहते हैं । पश्चिमी प्रदेश की भाषा को पश्चिमी राजस्थानी/ पुरानी गुजराती, मारु-गोर्जर, गौर्जर अपभ्रंश भी कहा गया है । इस पश्चिमी भाषा का वीं से 14वीं शती तक का साहित्य अधिकतर जैनों का ही रहा है और इस युग को जैन रासा युग कहा जाता है । इस युग में रास, चर्चरी, फागु, बारहमासा, छप्पय, विवाहलु, चउप्पई, कक्क, वर्णक, छन्द, विनती, धवलगीत, संवाद इत्यादि अनेक प्रकार की रचनाएं लिखी गयीं।
इस साहित्य के विषय तो लगभग परंपरागत ही थे जैसे पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक पुरुषों का चरित, रूपकात्मक और लौकिक कथाएँ, तीर्थ, प्रतिष्ठा, पूजा, स्तुति; सुभाषित, तत्त्वज्ञान संबंधी साहित्य और उपदेशात्मक साहित्य । गद्य शैली में कथाए, दार्शनिक चर्चा, धर्मसंवाद, वादविवाद, प्रश्नोत्तरी, व्याकरण इत्यादि का साहित्य मिलता है।
इस साहित्य की परंपरा 18वीं शती तक चलती रही और इसमें जैनों का योगदान लगातार बना रहा। इस युग की प्राचीनतम कृतियां इस प्रकार हैं जो सभी जनों की रचनाएं हैं:रास-भरतेश्वरबाहुबलिघोर-वज्रसेनसूरि
(1169) भरतेश्वरबाहुबलिरास-शालिभद्र
(1185) फाग-जिनचन्द्रसूरिफागु
(1285) खण्ड ४, अंक २
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स्थूलभद्रफागु-जिनपद्मसूरि
(1334) बारहमासा-नेमिनाथचतुष्पदिका--विनयचंद्र
(1275) छप्पय --उवएसमालक इरणयछप्पय-विनयचंद्र
(1275) खरतरगुरुगुणवर्णन-छप्पय
(15वीं शती) विवाहल-जिनेश्वरसूरि विवाहलु-सोममूर्ति
(1275 पश्चात्) चर्चरी-सोलणचर्चरी (गिरनारयात्रा)
(14वीं शती) सम्यक्त्वचउप्पई - जगड़
(1275) मातृकाचउप्पई - गोराबादलचउप्पई-हेमरत्न
(1580) कक्क-शालिभद्र कक्क-पद्म
(13वीं शती) धवलगीत--जिनपतिसूरिधवल (मंगल) गीत–साहरयण (13वीं शती) प्रबन्ध-विमलप्रबन्ध-लावण्यसमय
(1512) - हम्मीरप्रबंध -- अमृतकलश
(1519) लोककथा और रूपक रूपक-भव्यचरित्र=जिनप्रभाचार्य
(13वीं शती) लोक कथा-हंसराज-वच्छराजचोपाई - विजयभद्र
(1355) ढोलामारु-कुशललाभ
(1560) सिंहासनबत्रीसी-हीरकलश
(1580) गद्यमय कृतियाँ
बालाव बोध-(कथासंक्षेप, दार्शनिक चर्चा, वादविवाद अथवा प्रश्नोत्तरी के रूप में मिलते हैं।) आराधना पर बालावबोध
(1274) अतिचार पर बालावबोध
(1284) षडावश्यक बालावबोध-तरुणप्रभ
(1355) वर्णक - (अनेक वर्णनों से भरपूर)
(1422) पृथ्वीचन्द्रचरित-माणिक्यसुन्दर
(1422) व्याकरण-बालशिक्षा-संग्रामसिंह
(1280) मुग्धावबोध औवितक-कुलमंडन
(1394) पन्द्रहवीं शती के लावण्यसमय और समय सुन्दर की अनेक प्रकार की कृतियां जैसे-स्तवन, सज्झाय, छंद, विनती, हमचडी, संवाद, गीत इत्यादि ।
यह सभी साहित्य जैनों का है और गुजराती तथा राजस्थानी के विद्वान् इस साहित्य को अपनी-अपनी भाषा का आदिकालीन साहित्य मानते हैं। यहाँ तक कि जो गद्य कृतियाँ ऊपर बतलायी गई हैं उन्हें गुजराती और राजस्थानी की आदि कृतियाँ मानी जाती हैं। ये ही साहित्य विधायें गुजराती और राजस्थानी में काफी समय तक चली आयी। 13वीं से 15वीं शती तक राजस्थानी और गुजराती भाषा एक ही थी, अतः दोनों भाषा वाले इसमें
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अपनी-अपनी भाषा के प्रारम्भिक दर्शन करते हैं और इन कृतियों में ही मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढू ढाणी, मेवाती, हाड़ोती, मालवी, निमाड़ी आदि का समावेश करते हैं। .
हिन्दी भाषा के विद्वान् भी इस प्रारम्भिक रास, फागु, चर्चरी आदि के जैन साहित्य को हिन्दी का आदिकालीन साहित्य मानते हैं। पहले वीरगाथाकाल हिन्दी का प्रारम्भिक साहित्य माना जाता था और वीसलदेव रासो तथा पृथ्वीराज रासो इत्यादि हिन्दी की आदिकृतियां मानी जाती थीं परन्तु अब उपर्युक्त रास और फागु कृतियों में हिन्दी भाषा के आदिम दर्शन किये जाते हैं।
रल्ह की जिनदत्त चौपाई (1297) को श्री अगरचन्द जी नाहटा बृजभाषा की पुरानी कृति मानते हैं जो सधारु के प्रद्य म्नचरित (1354) से पहले भी है। राजसिंह का जिनदत्तचरित (1297) पुरानी हिन्दी का प्रथम बड़ा ग्रन्थ माना जाता है। पश्चिमी हिन्दी के गद्य का नमूना उपदेशमाला पर लिखी गयी सोमसुन्दर की टीका (15वीं शती) प्रथमपाद में मिलता है। हिन्दी की प्राचीनता के दर्शन बौद्ध सिद्धों के दोहा साहित्य में (8 से 12वीं शती) और पुष्पदंत तथा स्वयंभू की अपभ्रंश कृतियों में भी कराये जाते हैं। कुछ विद्वान् पुष्पदंत की कृतियों में मराठी भाषा के आदिम दर्शन करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैनों और बौद्धों ने लोक भाषायें अपनायीं और उन भाषाओं में उनका क्रमश: ई० पू० छठी से ई०पू० पन्द्रहवीं शती तक का जो साहित्य मिलता है उसमें आर्य भाषाओं के 2000 वर्ष तक के विकास की व्यवस्थित और विशद सामग्री मिलती है वह श्रमणेतर साहित्य में कम ही मिलती है । इसके साथ साहित्य की कुछ नयी-नयी विधाओं के भी दर्शन होते हैं। द्रविड़ी भाषाओं और साहित्य को श्रमणों का प्रदान
जैन श्रमणों ने भद्रवाहु के साथ दक्षिण में जाकर अपना साहित्य-जन प्रारम्भ किया था । उसके कारण कन्नड़ भाषा और तमिल भाषा को अनेक प्राकृत शब्दों से समृद्ध किया। प्राकृत ग्रन्थों पर कन्नड़ टीकायें लिखी गयीं इससे कन्नड़ भाषा में अनेक प्राकृत शब्द आये। कन्नड़ साहित्य के कालक्रम से तीन विभाग किये जाते हैं। उनमें से पहला विभाग 5वीं से 12वीं शती तक का माना जाता है और उसे जैनयुग कहा जाता है। इस युग की लगभग सभी कृतियाँ जैनों की ही मिलती हैं। बोलचाल की भाषा को इधर भी, इस खण्ड में भी साहित्यक दर्जा दिलवाने, उसे उन्नत और प्रौढ़ स्थिति प्राप्त करवाने का श्रेय श्रमणों को ही है और इसीलिए श्रमण ही कन्नड़ भाषा के आदि कवि माने जाते हैं।
कन्नड़ साहित्य का प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ श्रमणों की रचना है। वह है नृपतग द्वारा रचित कविराज मार्ग जो एक अलंकार (814-877 AD) ग्रन्थ है । इसमें अनेक पूर्व कवियों के उल्लेख हैं और उनमें दुविनीत का नाम भी है जो गंगवंशीय राजा थे और उनका राज्यकाल ई०स० 487 से 513 तक था। इसके बाद सातवीं शती के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख अन्यत्र हुआ है और वे इस प्रकार हैं- तत्त्वार्थ पर श्री वर्धदेव या लुंबलूराचार्य की कन्नड़ चड़ामणि टीका, श्याम कुन्दाचार्य का प्राभृत ग्रन्थ, भ्रजिष्णु की आराधना पर टीका, असग (854 A.D.) का वर्धमान चरित इत्यादि ।
___उपलब्ध साहित्य में कविराजमार्ग के बाद वड्डाराधने का क्रम आता है जो ई० स० 920 की रचना है । यह कन्नड़ साहित्य की प्रथम उपलब्ध गद्य कृति है जो भगबती आराधना खण्ड ४, अंक २
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पर आधारित है । इसमें अनेक कथाओं का संग्रह है । इसके वाद की गद्य कृति चावुंडराय पुराण (त्रिषष्टि पुरुष ) है जिसकी रचना चावुंडराय ने ई० स० 978 में की थी । लगभग इसी काल दरम्यान तीन महाकवि हुए जिन्होंने चम्पू काव्य की रचना की । पम्प का आदि पुराण ( ई० स० 940 ) पोन्न का शांतिपुराण ( ई० स० 950 ), और रन्न का अजितपुराण ( ई० स० 993 ) । पंप कन्नड साहित्य के आदिकवि माने जाते हैं । उन्होंने जैन धर्म के सिवाय विक्रमार्जुनविजय काव्य भी लिखा । इस युग को पंपयुग भी कहा जाता है । रत्न की भी लौकिक विषयों पर रचनाएँ मिलती हैं जैसे - गदायुद्ध (चम्पू) और रन्नकंद ( निघंटु ) | नेमिचन्द्र की ई० स० 1170 की लीलावती कथा मिलती है । इसके अतिरिक्त अनेक धार्मिक टीका ग्रंथ उत्तरोत्तर काल के मिलते हैं ।
तमिल साहित्य का संधिकाल बहुत प्राचीन माना जाता है परन्तु उस काल की कृतियाँ नष्टप्रायः हो गयी हैं । तोलकाप्पियम् ( व्याकरण ग्रंथ ) और तिरुक्कुरल ( उपदेशात्मक ग्रंथ ) उस काल की बची हुयी रचनाएँ मानी जाती हैं । इन दोनों ही ग्रंथों को श्रमण और ब्राह्मण दोनों अपनी-अपनी कृतियाँ मानते हैं । इनके कर्त्ता और समय के विषम में वादविवाद चलता रहा है। तिरुक्कुरल में श्रमणों की सन्त परम्परा का अधिक प्रभाव देखने को मिलता है । इसके अतिरिक्त उल्लोयनार नाम के जैन कवि और इलम् पोतियार नाम के बोद्ध कवि संघ काल के माने जाते हैं ।
संघ का स्फुट कविताओं का युग था परन्तु उसके बाद वृहत् काव्यों की रचना हुई हुई जिस पर श्रमणों का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है । इस काल के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले पाँच काव्य हैं - शिलप्पदिकारम्, मणिमेकले, जीवकचिन्तामणि, वलयापदि ( लुप्त ) और कुण्डलकेशि । कथानक की दृष्टि से मणिमेकलं शिलप्पदिकारम् का उत्तरार्ध माना जाता है । शिलप्पदिकारम् में बौद्ध धर्म का ओजस्वी चित्र काव्यमय शैली में खींचा गया है । जीवकचिन्तामणि नवीं शती की महाकवि जैन मुनि तिरुतक्कत्तेवर की रचना है । कुंडलकेशि के रचनाकार बौद्ध नाथगुप्त थे जिसमें बौद्धदर्शन की स्थापना की गयी थी ( यह अनुपलब्ध है) ।
नाल दियार एक नीतिग्रंथ है जिसके कर्त्ता जैन थे। इसमें सांसारिक सुखों की अनित्यता और संत जीवन की प्रशंसा की गयी है । इसका समय पाँचवीं शती का माना जाता है । ईसा की नवीं शताब्दी के बाद जैनों के अनेक तमिल संस्कृत मिश्रित मणि-प्रवाल शैली में गद्य ग्रंथ मिलते हैं— जैसे श्रीपुराण, गद्यचिन्तामणि इत्यादि ।
• तमिल कोषों में तीन कोष महत्वपूर्ण माने जाते हैं । वे हैं - दिवाकरनिघंटु ( अनुपलब्ध), पिंगलनिघंटु और चूडामणि निघंटु । ये तीनों ही जैनों की कृतियाँ हैं ।
इस विवरण से स्पष्ट है कि श्रमणों ने साहित्य सृजन की परम्परा को अक्षुण्ण रक्खा है और उन्होंने लोक भाषाओं को उतना ही महत्व प्रदान किया जितना शिष्ट भाषा को मिला है । साहित्य को नयी-नयी विधाएं प्रदान करने में भी वे पीछे नहीं रहे । उनका 2000 वर्ष का यह साहित्य भारत को अनेक भाषाओं के क्रमबद्ध विकास को जानने के लिए अन्यन्त उपयोगी है तथा इस साहित्य का आश्रय लिये बिना उस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते ।
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"शब्द-प्रभेद टीका और उसके कता"
डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री के निबन्ध का कतिपय प्रावश्यक संशोधन
श्री अगरचन्द नाहटा
तेरापंथ-सम्प्रदाय के आचार्य तुलसी के गुरु श्री कालगणि का जन्म समारोह अभी कुछ महीनों पहले छापर में मनाया गया। उसके उपलक्ष्य में एक स्मारिका और तीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। उनमें से संस्कृत, प्राकृत, जैन व्याकरण और कोश की परम्परा नामक ग्रन्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। करीब 600 पृष्ठों के इस ग्रन्थ में जैन व्याकरण और कोश सम्बन्धी कई विद्वानों के लेख हैं। उनमें कोश साहित्य के संबंध में सबसे पहला और बड़ा निबन्ध डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री का है। इस निबन्ध का नाम है-"संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी में कोश साहित्य" । डा० शास्त्री लेखन सम्पादन आदि का काफी काम कर रहे हैं। उनसे भविष्य में बहुत-बहुत आशाएँ हैं पर बीच-बीच में सामग्री की कमी और गुरु-परम्परा आदि के अभाव के कारण कुछ महत्वपूर्ण गलतियां भी उनके निबन्ध में पायी जाती हैं, जिसका संशोधन कोई विशिष्ट अध्ययनशील विद्वान ही कर सकता है । पर हमारे विद्वानों को इतना अवकाश ही कहाँ है ? विद्वानों को आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध नहीं होती, इसीलिये कभी-कभी कुछ महत्वपूर्ण संशोधन मुझे करने पड़ते हैं, जिससे भविष्य में उन गलतियों की पुनरावृत्ति न हो, क्योंकि साधारणतया सभी विद्वान दूसरों के (प्रकाशित) ग्रन्थों पर ही आधारित होकर लिखते रहते हैं, स्वयं मूल ग्रन्थों का अध्ययन नहीं कर पाते हैं । अतः जो भूल एक बार किसी ने कर दी, उसकी पुनरावृत्ति अनेक बार होती रहती है। यहां तक किसी के द्वारा संशोधन प्रकाशित कर देने पर भी उसमें सुधार नहीं हो पाता।
डा० शास्त्री के निबन्ध के पृष्ठ 341 पर लिखा है-"महेश्वर कवि कृत विश्व प्रकाशन 1111 ई० की रचना है। इनकी एक रचना शब्द प्रभेद प्रकाश है ।" पृ० 362 पर छपा है-"संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि तथा कोशकार महेश्वर सूरि कृत विश्व प्रकाश की कृति सं० 1654 में खरतरगच्छ के आचार्य भानु के शिष्य जिनविमल ने रची थी जो महत्वपूर्ण मानी जाती है।" इसी पृष्ठ पर नीचे लिखा है - श्री ज्ञानविमलगणि ने ई० 1598 में शब्द-भेद प्रकाश की रचना की थी। सम्भवतः उपर्युक्त उल्लिखित जिनविमल कृत वृत्ति वाली यह रचना है, क्योंकि महेश्वर सूरि कृत विश्व प्रकाश और शब्द भेद प्रकाश दोनों रचनाएं एक ही ग्रन्थ में है अतः दोनों को एक समझना चाहिये । ज्ञानविमलगणि के नाम से कोई शब्द भेद प्रकाश अभी हमारे देखने में नहीं आया है।" खण्ड ४, अंक २
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पृष्ठ 341 पर तो शब्द-भेद प्रकाश को महेश्वर कवि की एक अन्य रचना बतलाया है पर पृष्ठ 362 पर "दोनों रचनाएं एक ही ग्रन्थ में हैं । अत: दोनों को एक समझना चाहिए" यह लिखकर एक भ्रम उत्पन्न कर दिया है कि विश्व प्रकाश और शब्द भेद प्रकाश दो अलगअलग ग्रन्थ हैं या एक ही ग्रन्थ है । वास्तव में ये दोनों अलग-अलग्र ग्रन्थ हैं । शब्द-भेद प्रकाश कोश का नाम भी शुद्ध रूप में नहीं लिखा गया है। वास्तव में उसका नाम 'शब्द प्रभेद नाममाला' है । पृष्ठ 341 पर कर्ता का केवल महेश्वर नाम लिखा है, पृष्ठ 362 पर ऊपर नीचे दोनों जगह 'महेश्वर सूरि' नाम लिख दिया है, इससे भी एक भ्रम उत्पन्न होता है । क्योंकि 'सूरि' यह श्वेताम्बर समाज में आचार्य पद का सूचक एक विशेषण है क्योंकि वे 'सूरि मन्त्र' की आराधना करते हैं। 'सूरि मन्त्र' के कई कल्प प्रकाशित हैं । वास्तव में महेश्वर जैन नहीं थे, अत: जैनाचार्य सूचक विशेषण 'सूरि' उनके नाम के साथ अपनी ओर से लगा देना ठीक नहीं है । महेश्वर कवि के विश्व प्रकाश की प्रशस्ति 27 श्लोकों की इस समय मेरे सामने है, जो कि L.D. इन्स्टीट्यूट के हस्तलिखित ग्रन्थों में से पुण्यविजयजी के संग्रह की सूची के भाग दो में प्रकाशित है। उसमें लिखा है - "सफल वैद्यराज, चक्रयुक्ता, शेखर रहस्य गद्य-पद्य विद्यानिधेः श्री महेश्वरस्य कृतो विश्वप्रकाशाभिधानेन नानार्थपरिच्छेदो द्वितीयः समाप्तः शुभम् ।" इससे उनके नाम के साथ सूरि' पद जोड़ना भ्रमोत्पादक ही है।
___ जिस वृत्ति का उल्लेख ऊपर और नीचे किया गया है वास्तव में वह विश्वप्रकाश की वृत्ति नहीं है, वह शब्द-प्रभेद की वृत्ति है। वृत्तिकार का नाम जिनविमल नहीं, ज्ञानविमल ही है । उनके गुरु का नाम आचार्य भानुकेश नहीं, वाचक भानुमेरु था। वे आचार्य नहीं थे। यह 'शब्द प्रभेद वृत्ति' प्रकाशनार्थ भेजी हुई हैं। मैंने बीकानेर-ज्ञान-भण्डार से भी इसकी हस्तलिखित प्रति महोपाध्याय विनयसागर को भेजी और थी इन्होंने इसका सम्पादन किया है।
श्री गौरीशंकरजी ओझा लिखित 'बीकानेर राज्य इतिहास' भाग 1 के पृष्ठ 201 की टिप्पणी में इस टीका की प्रशस्ति के अन्तिम चार श्लोक छपे हैं। जिनमें से तीन श्लोक यहां दिये जा रहे हैं । ओझाजी ने लिखा है-बीकानेर में रहकर जैन-साधु ज्ञान विमल ने कातिकादि वि० स० 1654 आषाढ़ सुदि 2 चैत्रादि वि० सं० 1655 ई० सं० 1598 ता० 25 जून रविवार को महेश्वर के शब्द-भेद की टीका समाप्त की थीं
श्री मद्विक्रमनगरे राजच्छीराजसिंहनृपराज्ये । सलोक चक्रवाक प्रमोद सूर्योदये सम्यक् ॥2411 चतुराननवदनेन्द्रियैरसवसुधासंमितेलपर्षे । श्री मद्विक्रमनृपती निः क्रान्ते (1654) तीवकृत हर्षे ।।25।। शुभोपयोगे शुभयोगयुक्ते चरे द्वितीयादिवसेति शुद्ध ।
आषाढ मासस्य विशुद्धपक्षे पुण्यक्षसंयुक्तगभस्तिवारे ।।26।। अल्प संशोधन-डा० शास्त्री ने पृष्ठ 363 में महाकवि धनपाल के पाइयलच्छी नाममाला की रचना धारा नगरी के अन्तर्गत मानखेड़ गांव में हुई लिखा है। पर यह डा० शास्त्री जी के समझने की भूल है, प्रशस्ति की गाथाएं जो उन्होंने टिप्पणी के पृष्ठ 384 में उद्धत की है, उसका भाव तो यह है कि मालवनरेन्द्र की धाड़ ने मानखेड़ को लूटा था। रचना तो धारा नगरी में ही हुई है।
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पृष्ठ 367 पर उक्तिव्यक्तिप्रकाश का परिचय दिया है, उसका कर्ता दामोदर जैन नहीं है।
पृष्ठ 369 पर साठ हजार की जगह आठ हजार सम्भवतः गलती से छप गया है ।
पृष्ठ 371 पर जैन लक्षणावली तीन भागों में हो चुकी है, लिखा है, पर तीसरा भाग तो अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है ।
पृष्ठ 359 पर सुन्दरगणि नाम छपा है । वहाँ 'साधु सुन्दर होना चाहिये ।
पृष्ठ 361 पर हर्ष कवि एवं विश्वशम्भु को केवल इसलिए जैन मान लिया है कि उनकी रचनाओं की प्रति दिगम्बर शास्त्र भण्डारों में मिली हैं पर मेरे ख्याल से दोनों ही जैन नहीं हैं।
पृष्ठ 362 पर हर्षकीर्ति की लघुनाममाला और हर्षकीर्ति की नाममाला को अलगअलग मान लिया है। पर वास्तव में हर्षकीर्ति सूरि की एक ही नाममाला है। यह प्रकाशित भी हो चुकी है। जिसका नाम सारदीय-नाममाला' और 'मनोरमानाममाला' है । पं० हीरालाल हंसराज ने जामनगर से सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया है, उसमें तो इसका नाम 'सारदीया नाममाला' है और हमारे संग्रह में इसका नाम 'मनोरमा नाममाला' लिखा है । पृष्ठ 362 पर एकादशी नाममालाओं का उल्लेख है पर ऐसी नाममालाएं तो कई मिलती हैं, जिनका संग्रह मुनि रमणीकविजयजी ने संपादित कर राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान द्वारा वि० सं० 2021 में प्रकाशित करवा दिया है । इस ग्रन्थ का नाम--'एकाक्षर नामकोश संग्रह है।
डा० शास्त्री ने अपनी ओर से काफी समय एवं श्रम लगाकर अपना निबन्ध तैयार किया है पर उसमें अज्ञात लेखकों व रचनाओं की नयी जानकारी कुछ भी नही आ सकी है। अतः उनकी अज्ञात होने की जानकारी मैं अपने अन्य लेखों में प्रकाशित करूंगा।
खण्ड ४, अंक २
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साहित्य समीक्षा
सात समंदर पार लेखक-श्री चन्दनमल 'चांद' प्रकाशक-चांद प्रकाशन, बम्बई पृष्ठ-127; प्रस्तुत अंक का मूल्य-10 रुपये
प्रस्तुत पुस्तक श्री चन्दनमल 'चाँद', जो विश्व धर्म सम्मेलन के शिष्ट मण्डल के साथ भारत जैन महामण्डल के सहयोग से विदेश गये थे, द्वारा लिखा गया यात्रा विवरण है। इस यात्रा वृत्तांत के अतिरिक्त अंतिम पृष्ठों में लेखक ने मॉरिशस में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के संस्मरण भी लिखे हैं। इससे पूर्व भी विश्व भ्रमण के संस्मरण हिन्दी में कई लिखे गये हैं, जिनमें स्व० सेठ श्री गोविन्ददास की विश्व परिक्रमा' तथा स्व० श्री रामेश्वर टांटिया की विश्व भ्रमण' ये दो पुस्तकें अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । समीक्ष्य पुस्तक की कई मौलिक विशेषताएं हैं। इसमें सात देशों, थाइलैंड, हांगकांग, जापान, अमेरिका, कनाडा, ग्रेट ब्रिटेन तथा मॉरिशस का घर बैठे आंखों देखा हाल पढ़ा जा सकता है तथा संसार के अनेक प्रसिद्ध दर्शनीय स्थानों एवं बैंकाक, हांगकांग, टोकियो, लॉसऐंजिल्स, वाशिंगटन, शिकागो, क्लीवलैंड, डिट्रायट, टोरंटो, ओटावा, मोन्ट्रीयल, न्यूयार्क जैसे संसार के बड़े-बड़े प्रसिद्ध नगरों की सैर भी की जा सकती है । लेखक की यात्रा का उद्देश्य धार्मिक तथा सांस्कृतिक मान था किन्त इस विवरण में इन देशों की सांस्कृतिक, धार्मिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, व सामाजिक सामग्री भरपूर दी गई दी गई है । वर्णन शैली मौलिक, रोचक एवं भावपूर्ण है। विदेश जाने वाले लोगों के लिए तो यह गाइड का काम करेगी ही किन्तु जो कभी विदेश यात्रा का स्वप्न भी नहीं ले सकते, उन्हें पूर्ण जानकारी व मनोरंजन देने में समर्थ होगी । लेखक यदि प्रत्येक दिन की दिनचर्या का सिलसिलेवार विस्तृत वर्णन करने के स्थान पर पाठकों को विदेशों के प्रमुख नगरों, वहां के नागरिकों, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजों आदि पर और अधिक विस्तार से प्रकाश डालते तो पुस्तक अधिक रोचक, महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी होती। तथापि वर्णन शैली, सांस्कृतिक सामग्री, रोमांचक घटनाओं को दृष्टि से पुस्तक प्रशंसनीय बन पड़ी है तथा लेखक साधुवाद के पात्र हैं।
पुस्तक की छपाई आकर्षक तथा अशुद्धियां नगण्य है । 14 चित्रों द्वारा पुस्तक का कलेवर सजाया गया है।
- डॉ० श्रीमती पुष्पा गुप्ता
तुलसी प्रज्ञा
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जिन दिन देखे वे कुसुम
लेखक-श्री ज्ञान भारिल्ल प्रकाशन-अर्चना प्रकाशन, अजमेर पृष्ठ-167, मूल्य-सात रुपये
प्रस्तुत कृति भगवान महावीर के समकालीन राजा श्रेणिक बिम्बसार तथा उनके पुत्र अभयकुमार के बुद्धि विलासों का वैदग्ध्य औपन्यासिक शैली में प्रस्तुत करती है। इसमें श्रेणिक तथा अभयकुमार की 13 रोचक कथाएं दी गई हैं। शैली इतनी मनोरंजक तथा रोचक है कि पाठक एक ही सांस में पूरा उपन्यास पढ़ जाता है। भाषा सरल व प्रसादगुण युक्त है । कथाओं की पृष्ठभूमि में तत्कालीन सांस्कृतिक व नैतिक वातावरण उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया है । हर कथा में यही बताया गया है कि उस स्वर्णयुग में पतित व्यक्ति चोर, लुटेरा आदि भी कर्तव्यनिष्ठा, सत्य व नैतिकता के एक निश्चित दायरे में बंधा हुआ था और प्राणसंकट उपस्थित होने पर भी उस सीमा का उल्लंघन नहीं करता था । रोहिणेय चोर के पिता लोहखुर के मुख से महावीर की कैसी व्याजस्तुति करवाई गई हैं
"तू उस महावीर को नहीं जानता, मैं जानता हूं। वह बड़ा भयानक आदमी है। जब वह बोलता है तब उसके होंठ भी हिलते दिखाई नहीं देते हैं । केवल आवाज आती है और सुनने वाले को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे स्वयं उसकी आत्मा ही कहीं भीतर से बोल रही है। वह लोगों को पागल बना देता है, बेटे ! उसकी बात सुनकर लोग घर-बार छोड़कर जंगल में चल देते हैं और उपवास करने लग जाते......।"
प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान है । इस विषय में अभयकुमार कहता
"बुद्धि किस मनुष्य में नहीं होती ? उचित समय पर, उचित रीति से, उसका समुचित उपयोग कर सकना आना चाहिए। रही इस सारी पृथ्वी को जीत लेने की बात, सो तो महाराज, यह सारी पृथ्वी हमारी ही है। और यह पृथ्वी ही क्या, समस्त ब्रह्माण्ड हमारा ही है, यदि हम अपनी प्रेममयी आत्मा को उतना विस्तार दे सकें तो।" ।
पुस्तक के लिए लेखक धन्यवाद के पात्र हैं। कथाओं का मूल स्रोत एवं उससे इन कथाओं का अन्तर यदि प्राक्कथन में दे दिया जाता तो और भी सुन्दर होता। जैनागमों पर आधारित कथाओं को रोचक शैली में प्रस्तुत कर भविष्य में भी इसी प्रकार सामान्य जनोपयोगी एवं शिक्षाप्रद साहित्य प्रकाशित किया जायेगा ऐसी हम प्रकाशक से आशा करते हैं।
डॉ० श्रीमती पुष्पा गुप्ता तीर्थकर (मासिक) वर्ष 8, अंक 3, जून 1978
पं० नाथूलाल शास्त्री विशेषांक संपादक-डॉ. नेमीचन्द जैन प्रकाशक-हीरा भैया प्रकाशन, 65 पत्रकार कालोनी
__ कनाडिया रोड, इन्दौर-452001 मूल्य-पाँच रुपये, पृष्ठ 204। तीर्थकर (मासिक) पत्रिका ने जैन पत्रकारिता के क्षेत्र में ही नहीं अपितु हिन्दी
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पत्रकारिता के क्षेत्र में भी शीघ्र अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। उपयोगिता की दृष्टि से इसके विशेषांकों का सर्वत्र समादर हुआ है। इसका प्रस्तुत विशेषांक पं० नाथूलालजी शास्त्री के सम्मान में प्रकाशित हुआ है। इन्दौर निवासी श्री शास्त्रीजी जैन समाज के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। अभी कुछ महीनों पहले इन्हें अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत् परिषद् के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया गया था। "सन्मति-वाणी" (मासिक) के कुशल सम्पादक, सफल अध्यापक, प्रतिष्ठाचार्य एवं संहितासूरि आदि रूप में प्रसिद्ध पण्डितजी जिनवाणी के मौन साधक हैं । शिक्षा, लेखन एवं पत्रकारिता के माध्यम से चरित्न-निर्माण की दिशा में इन्होंने बहुमूल्य योगदान दिया है। ऐसे विद्वान् के सम्मान में तीर्थंकर ने अपने प्रस्तुत विशेषांक के द्वारा सम्पूर्ण विद्वत्-जगत् का सम्मान किया है।
इस विशेषांक के प्रारम्भ में पं० नाथूलालजी शास्त्री की आज तक की जीवनयात्रा एवं सेवाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। स्वयं पण्डितजी ने अपनी कलम से अपने विषय में सच्चाई से जो लिखा है वह आत्मकथा विषयक साहित्य के लिए महत्वपूर्ण सामग्री है । पण्डितजी को समीप से जानने वाले गणमान्य व्यक्तियों द्वारा उनके सम्बन्ध में व्यक्त किये गये विचार पण्डितजी की निष्ठा एवं उज्ज्वल चरित्र के प्रतीक हैं।
इस विशेषांक में “पण्डित" शब्द का विविध आयामों से विश्लेषण किया गया है तथा इसमें 'जैन पण्डित परम्परा,' 'इसका योगदान एवं भविष्य,' विषयक विशिष्ट विद्वानों के लेख हैं। इनमें से श्री वीरेन्द्रकुमार जैन, ५० कैलाशचन्द शास्त्री, श्री नेमीचन्द पटोरिया, प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन, कन्हैयालाल सरावगी, डॉ. जयकुमार जलज, पं० पन्नालालजी, डॉ० कासलीवाल, डॉ० बिल्लोरे, डॉ० प्रेम सुमन जैन, डॉ० भास्कर एवं पं० परमानन्दजी आदि के लेख बहुत महत्वपूर्ण हैं ।
"पण्डितः भावी भूमिकाः" के अन्तर्गत विभिन्न विद्वानों के प्रेरक विचार भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। प्रमुख दिवंगत जैन पण्डित-शीर्षक के अन्तर्गत पं० गोपालदास जी बरैया, पं० सुखलाल संघवी, ब्र०५० चन्दाबाई, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य का जीवन चरित्र एवं साहित्यिक सेवाओं का मूल्यांकन किया गया है।
सरस्वती के आराधकों के सम्मान में प्रकाशित इस विशेषांक का अनुकरण अन्यान्य पत्र-पत्रिकायें करेंगी जिससे वर्तमान के सभी विशिष्ट विद्वानों की सेवाओं का उचित मूल्यांकन एवं आदर होता रहे ।
प्रस्तुत विशेषांक के विद्वान सम्पादक एवं प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस दिशा में एक नई परम्परा दी।
-डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी
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जैन गीता
(समणसुत्तं का हिन्दी पद्यानुवाद) अनुवादक-आचार्य विद्यासागर जी प्रकाशक-श्री मुनिसंघ स्वागत समिति, सागर (मध्यप्रदेश) पृष्ठ-20+248, सन् 1978 मूल्य - साधारण -- छह रुपये, सजिल्द -आठ रुपये।
भगवान् महाबीर के पच्चीस सौ वें निर्वाण महोत्सव पर सन्त विनोबा जी की प्रेरणा से सर्वमान्य “समणसुत्त" नामक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ का संकलन किया गया था। इसकी सार्वभौमिक लोकप्रियता को देखते हुए आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद "जैन गीता" नाम से किया । जैन धर्म के सभी प्रमुख सिद्धान्तों का संकलन इसमें होने से यह जैन धर्म की 'गीता" ही है । इस दृष्टि से इस पद्यानुवाद का नया आकर्षक नाम "जैन गीता" अपने आप में सार्थक है ।
"समण सुत्त" की तरह समीक्ष्य ग्रंथ ज्योतिर्मुख, मोक्षमार्ग, तत्त्वदर्शन एवं स्याद्वाद - इन चार खण्डों में विभक्त है । इन चारों खण्डों में 756 गाथायें हैं। एक पृष्ठ पर मूल प्राकृत गाथायें और दूसरे पृष्ठ पर ठीक सामने वसन्ततिलका छन्द में उस गाथा का हिन्दी पद्यानुपाद दिया गया है। सूत्र रूप में जैन सिद्धान्त की प्रतिपादक आगमों की प्राकृत गाथाओं के हार्द को अन्य भाषा के किसी एक छन्द में बांध देना सहज नहीं है, किन्तु इस ग्रंथ में हमें यह विशेषता देखने को मिलती है। कहीं-कहीं एक ही विषय की एक गाथा स्पष्ट करने के लिए एकाधिक छन्दों की रचना भी की गई है। प्रस्तुत अनुवाद में सुगमता का ध्यान रखा गया है किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत-निष्ठ शब्दों के प्रयोग से साधारण पाठक के सामने कठिनाई उत्पन्न हो जाती है । प्रचलित शब्दों के प्रयोग से अनुवाद को और भी ज्यादा सहज और लोकप्रिय बनाया जाना आवश्यक था। फिर भी अनुवाद की अविकलता निर्विवाद सिद्ध है। धर्मसूत्र के अन्तर्गत निम्न गाथा के पद्यानुवाद का उदाहरण प्रस्तुत है - मूल गाथा-अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी ।
ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तंपि ।। अनुवाद- हूं शुद्ध पूर्ण दग बोधमयी सुधा से,
मैं एक हूं. पृथक हूं सबसे सदा से । मेरा न और कुछ है नित में अरूपी,
मेरी नहीं जड़मयी यह देहरूपी !1106। इसी प्रकार "निर्वाण'' की परिभाषा को भी इन शब्दों में बांधा है :
बाधा न जीवित जहाँ कुछ भी न पीड़ा, आती न गन्ध सुख, की दुख से न क्रीड़ा। न जन्म है मरण है जिसमें दिखाते,
'निर्वाण' जान वह है, गुरु यों बताते ।।617।। द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय विषयक मूल गाथा के पद्यानुवाद में नये मौलिक उदाहरण जोड़कर विषय स्पष्ट किया है, जैसे
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द्रव्याथि के नयन में सब द्रव्य आते, पर्याय अर्थिवश पर्याय मात्र आते । 'एक्सरे' हमें हृदय-अन्दर का दिखाता,
तो कमरा शकल ऊपर की बताता।।696।। इसी तरह और भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जो समीक्ष्य ग्रंथ की अनेक विशेषताओं के परिचायक हैं । ग्रंथ के प्रारम्भ में आचार्य विद्यासागर जी ने "मनोभावना" द्वारा प्रस्तुत अनुवाद के निर्माण के विषय में स्पष्टीकरण किया है, साथ ही प्रेरणादायी आध्यात्मिक संदेश भी दिया है। इसके बाद पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की "आद्य मिताक्षर" नाम से भूमिका भी दी नई है, जिसमें आ० विद्यासागर जी का परिचय, प्रस्तुत अनुवाद की संक्षिप्त विशेषताओं का दिग्दर्शन तथा श्रमण शब्द की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के अनुवादक आचार्य विद्यासागर जी युवा होते हुए भी ज्ञान और चारित्र की दिशा में पहुंचे हुए सन्त हैं। हिन्दी और संस्कृत भाषाओं में आपकी कई रचनायें प्रकाश में आ चुकी हैं। इसी प्रकार अन्यान्य महत्त्वपूर्ण मूल ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद तथा मौलिक ग्रन्थों से जैन साहित्य की श्री वृद्धि करेंगे, ऐसी आशाय हैं ।
समीक्ष्य ग्रन्थ की छपाई यद्यपि सुन्दर है, किन्तु कहीं-कहीं घूफ संबंधी अशुद्धियाँ तो अर्थ का अनर्थ ही कर देती है आशा है इनके परिमार्जन का आगे ध्यान रखा जाएगा। इस सुन्दर एवं संग्रहणीय कृति के लिए अनुवादक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं ।
-डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी
मुणिचंद-कहाणर्य (गुजराती), लेखक-डा० के० आर० चन्द्र, प्रकाशक-नवभारत प्रकाशन एण्ड कम्पनी अहमदाबाद, मूल्य छ: रुपये, पृ० 140, द्वितीयावृत्ति, 1977
प्रस्तुत कृति का अंश शीलांकाचार्य द्वारा विरचित “च उत्पन्नमहापुरिसचरिय" से लिया गया है। इसमें मुनिचन्द्र कथानक का समीक्षात्मक विश्लेषण है। यह कथा प्राकृत की एक लोककथा पर आधारित है, जिसमें नारी के विश्वासघात का निबंधन किया गया है । यत: पुस्तक पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतः इसमें छात्रों एवं अध्यापकों के लिए समान रूप से उपयोगी भाषा-परिचय आदि का समावेश है।
गुजराती भाषा के माध्यम से प्राकृत भाषा का प्रारम्भिक अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए यह पुस्तक अतीव उपयोगी है । अन्त में दिए गए शब्दार्थ तथा टिप्पणियों से पुस्तक की उपयोगिता और बढ़ गई है।
1-डॉ० कमलेश कुमार जैन
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जैन विश्व भारती : प्रवृत्ति एवं प्रगति जैन विश्व भारती के सभी तीनों विभाग-शोध, शिक्षा एवं साधना निरन्तर प्रगति की और अग्रसर हो रहे हैं।
शोध विभाग
शोध विभाग में इस वर्ष से कई नयी योजनाएं प्रारंभ की गई हैं तथा उनकी क्रियान्विति के लिए सतत् प्रयत्न किये जा रहे हैं। प्रमुख योजनाएं निम्नलिखित हैं
(1) जैन विश्वकोश-जैन विश्वकोश की योजना को कार्यान्वित करने के लिए, उसका अंतिम प्रारूप डा० नथमल टाटिया, निदेशक, शिक्षा व शोध विभाग द्वारा तैयार कर लिया गया है। उपर्युक्त योजना के संदर्भ में इस तथ्य का विशेष ध्यान रखा गया है कि विद्वद-समाज के सम्मुख जैन-विद्या के सभी महत्त्वपूर्ण विषयों का समग्र एवं पूर्ण परिचय प्रदान करने वाला एक महद् आकर-ग्रंथ प्रस्तुत किया जाय, जो अब तक इस विषय पर हुई शोध को भी समाहित करते हुए शोध के नये आयाम प्रस्तुत करने वाला हो । जैन-विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाले भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों हेतु इस प्रकार का कोई संदर्भ ग्रन्थ अब तक उपलब्ध नहीं है।
इस जैन विश्वकोश में देश भर के प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा लगभग 1000 शब्दों पर लेख लिखे जायेगे। अब तक ऐसे 450 शब्दों की प्रारम्भिक सूची बना ली गयी है । कोश के निर्माण में आधुनिक तथा वैज्ञानिक शोध पद्धति अपनाई जा रही है । अंग्रेजी के वर्णानुक्रम से अंग्रेजी, संस्कृत व प्राकृत के शब्दों पर लेख लिखे जायेंगे। The Encyclopaedia of Religion and Ethics तथा Encyclopaedia of Buddhism को इस कार्य के लिए आदर्श बनाया गया है । इस महद् योजना में समय-समय पर मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु एक सलाहकार समिति का गठन किया गया है। इन विद्वानों एवं अधिकारियों की प्रथम बैठक 7-9 अगस्त को गंगाशहर में आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में रखी गई थी, जिसमें निम्न विद्वान् उपस्थित हुए
(1) श्री श्रीचंद रामपुरिया, कुलपति (2) श्री श्रीचंद बैंगानी, मंत्री-जैन विश्व भारती (3) प्रो० दलसुखभाई मालवणिया, सदस्य (4) प्रो० एस. के. रामचन्द्र राव, सदस्य
(5) प्रो. के. सी. सोगानी, सदस्य खंड ४, अंक २
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(6) श्री अगरचंद नाहटा, सदस्य (7) डा० महावीरराज गेलड़ा, सदस्य ( 8 ) डा० दयानन्द भार्गव, सदस्य (9)
श्री गोपीचन्द चोपड़ा, कुलसचिव- सदस्य
( 10 ) डा० नथमल टाटिया, सदस्य एवं संयोजक
विशेष आमंत्रित -
(1) श्री खेमचंद सेठिया, भू० प्र० सभापति - जैन विश्व भारती
( 2 ) श्री धर्मचन्द चोपड़ा, स्वागताध्यक्ष, आचार्य श्री तुलसी स्वा० समिति, गंगाशहर
(3) प्रो० सुमेरचन्द ( बरड़िया) जैन, जैन कॉलेज, बीकानेर
(4) प्रो० विजयराज भंडारी, डूंगर कॉलेज, बीकानेर
उपर्युक्त बैठक में सम्पूर्ण जैन विश्वकोश को निम्न आठ खण्डों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया
खंड-1 साहित्य सूची -
कालानुक्रम से विषयवार प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, तामिल, तेलगु, कन्नड़ साहित्य की तथा आधुनिक भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में किये गये अनुसंधान साहित्य की संक्षिप्त विवरण सहित सूची ।
खंड-2 योग, मंत्र, तंत्र, मनोविज्ञान |
खंड- 3 धर्म एवं आचार
पुराण, चारित्र शास्त्र, साधु आचार, गृहस्थ आचार, क्रियाकाण्ड, तीर्थक्षेत्र आदि ।
खंड- 4 दर्शन एवं न्याय -
भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत्, ज्ञान-मीमांसा, न्याय, रस-शास्त्र |
खंड-5 कला एवं स्थापत्य ।
खंड-6 साहित्य ।
खंड-7 इतिहास एवं संस्कृति | खंड-8 विज्ञान |
विस्तृत चिन्तन के अनन्तर जैन विश्वकोश के उक्त आठ खंडों के संकलन का दायित्व विभिन्न उत्कृष्ट विद्वानों को सौंपा गया है ।
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(2) जैन आगम कोश - मुनि श्री नथमल जी के निदेशन में जैन आगम कोश का कार्य चल रहा है । अकारादि क्रम से बनाये गये कार्डों में आवश्यक पूर्तियां की जा रही हैं । (3) अनुवाद - जन दर्शन, धर्म व संस्कृति से संबंधित महत्त्वपूर्ण लेखों के अंग्रेजी व हिंदी दोनों भाषाओं में अनुवाद करने की योजना है। अब तक कुछ लेखों के अनुवाद हो चुके हैं तथा मुनि श्री नथमलजी द्वारा रचित " जैन न्याय का विकास" नामक ग्रंथ का अंग्रेजी अनुवाद चालू है
।
(4) सम्पादन - ' भ्रमविध्वंसनम् ' - श्रीमज्जयाचार्यं कृत 'भ्रमविध्वंसनम्' का सम्पादन श्री जयचन्दलाल जी कोठारी के निर्देशन में चल रहा है ।
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(5) नई नियुक्तियाँ - शोध, शिक्षा एवं वर्धमान ग्रन्थगार में निम्न चार विद्वानों की नियुक्तियाँ की गई हैं—
1. श्री रामस्वरूप सोनी - शोधकर्त्ता तथा सहव्याख्याता अंग्रेजी
2. श्री विजयकुमार धर्माधिकारी - प्रवक्ता संस्कृत
3. श्री जगतपाल प्रवक्ता दर्शनशास्त्र
4. श्री सुबोधकुमार मुखर्जी - ग्रन्थागाराध्यक्ष
उपर्युक्त विद्वान् आवश्यकतानुसार अध्यापन, शोध एवं अनुवाद कार्य में भी सहयोग
करेंगे ।
( 6 ) वर्धमान ग्रन्थागार - ग्रन्थागार में सूचीकरण तथा वर्गीकरण का कार्य द्रुतगति से चल रहा है । विगत दिनों में ग्रंथागार के संवर्द्धन हेतु कई नये महत्त्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथों तथा अन्यान्य ग्रंथों को खरीदा गया है, जिनका मूल्य लगभग 20,000 रुपये है । इस समय ग्रंथागार में लगभग 10,500 ग्रंथ हैं !
शिक्षा विभाग - ब्राह्मी विद्यापीठ में इस वर्ष जैन विद्या स्नातकोत्तर तथा जैन - विद्या प्रवेशिका कक्षाएं नवीन खोली गई हैं। नवीन सत्र में प्रवेशिका तथा प्राक्स्नातक प्रथम व द्वितीय वर्ष 15 छात्राओं ने प्रवेश लिया है तथा राजस्थान विश्वविद्यालय की बी. ए. ( प्रथम वर्ष) कक्षा में 9 छात्राओं ने प्रवेश लिया है। स्नातकोत्तर प्रथम वर्म में 12 छात्राएं अध्ययन कर रही हैं ।
स्नातकोत्तर ( प्रथम एवं द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित आठ प्रश्नपत्र रखे
गये हैं -
1. अर्धमागधी एवं शौरसेनी आगम ।
2. प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य |
3. भाष्य एवं टीका साहित्य | 4. तत्त्व मीमांसा तथा न्याय ।
5. तुलनात्मक धर्म-दर्शन ।
6. इतिहास एवं संस्कृति ।
7-8. अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों का अनुवाद तथा शोधपूर्ण सम्पादन ।
अतिरिक्त पत्र - अंग्रेजी एवं पाश्चात्य दर्शन
राजस्थान विश्वविद्यालय की बी० ए० कक्षाओं में अनिवार्य विषयों के अतिरिक्त संस्कृत, राजनीति शास्त्र, दर्शनशान हिन्दी तथा अंग्रेजी, ऐच्छिक विषय भी पढ़ाये जाते हैं । साथ ही छात्राओं के लिए सिलाई, कढ़ाई एवं टंकण जैसी आधुनिक सर्वजनोपयोगी कलाओं का भी ज्ञान कराने की समुचित व्यवस्था की जा रही है। बी. ए. (प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय वर्ष) कक्षाओं में क्रमश: 9, 7 एवं 2 छात्राएं अध्ययन कर रही हैं। सभी छात्राओं को कॉलेज में प्रातः 8 बजे से सायं 5 बजे तक रहना अनिवार्य है ।
उपासक प्रशिक्षण योजना- जैन विश्व भारती की ओर से इस वर्ष से उपासक प्रशिक्षण योजना आरम्भ की गई है। इस योजना के अंतर्गत जैन विश्व भारती के तत्त्वावधान में कुछ प्रमुख उपासक एवं उपासिकाओं के समूह उन क्षेत्रों में जहां साधु-साध्वियों के चातुर्मास नहीं हैं, भिजवाये जायेंगे, जो पर्यूषण पर्व के नवाह्निक कार्यक्रम के सम्पादन में सहयोग करेंगे ।
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इसी क्रम में गंगाशहर में आचार्यप्रवर के सान्निध्य में 25-7-78 से 31-7-78 तक एक सप्ताह का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया था, जिसमें 15 उपासकों ने भाग लिया। इस योजना के अंतर्गत ब्राह्मी विद्यापीठ की मुमुक्षु साधिकाएं तीन समूहों में विभाजित होकर बेंगलोर, गोहाटी एवं सेंतियाँ नामक स्थानों पर गई थीं, जहाँ उन्हें अपने कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने में आशातीत सफलता मिली है। बेंगलोर का दल जिसका नेतृत्व कुमारी कुसुम ने किया, बड़ी सफलता के साथ उस प्रान्त में अपनी स्थायी छाप छोड़कर लौटा । कुमारी कुसुम स्नातकोत्तर कक्षा की छात्रा है । साधना विभाग
तुलसी अध्यात्म नीडम् के अन्तर्गत प्रेक्षा-ध्यान तथा अध्यात्म योग नैतिक शिक्षा प्रशिक्षण व्यवस्थित रूप से चल रहा है। दिनांक 16 मई से 25 मई तक द्वितीय अध्यापक अध्यात्म योग नैतिक शिक्षा शिविर आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ, जिसमें नागौर जिले के 21 विद्यालयों के 30 अध्यापकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। अभी 45 अध्यापकों द्वारा नागौर जिले के 32 विद्यालयों में अध्यात्म योग नैतिक शिक्षा कार्यक्रम चलाया जा रहा है । अप्रैल में हुई विद्यार्थियों की अध्यात्म योग नैतिक शिक्षा परीक्षा में 151 विद्यार्थियों ने भाग लिया, जिन्हें प्रमाण-पत्र तथा पुरस्कार भेजा जा रहा है।
दिनांक 1 जून से 10 जून तक मुनि श्री नथमल जी के निर्देशन में प्रेक्षा-ध्यान शिविर का आयोजन किया गया था, जिसमें भारत के विभिन्न स्थानों के 45 भाई-बहिनों ने भाग लिया। इस शिविर में अर्जेन्टाइना के उपासक श्री मोक्षानन्द जी ने भी भाग लिया। पंचम प्रेक्षा-ध्यान शिविर दिनांक 25 अगस्त से 3 सितम्बर तक गंगाशहर में आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य तथा मनि श्री नथमल जी के दिशा निर्देशन में आयोजित किया गया, जिसमें अनेक साधकों ने भाग लिया। शिविर में 'नमस्कार महामंत्र' पर मुनि श्री नथमल द्वारा विशेष प्रवचन-माला का आयोजन किया गया।
प्रज्ञा-प्रदीप में निरन्तर साधना क्रम जारी है। मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी तथा मुनि श्री प्रबुद्धकुमार जी के सान्निध्य में ध्यान की कक्षाएं लगती हैं। जयाचार्य साहित्य संग्रह विभाग
तेरापंथ के चतुर्थ प्राचार्य श्रीमज्जयाचार्य के विशाल साहित्य का संकलन उक्त विभाग द्वारा किया जा रहा है । यह साहित्य लगभग साढ़े तीन लाख पद्यों में गुम्फित है । अधिकांश साहित्य धारकर उसकी पांडुलिपियां तैयार कर ली गई हैं। भगवती की जोड़ जैसे विशाल ग्रन्थ के 5000 पृष्ठों में से 4000 पृष्ठ धारे जा चुके हैं। धारे हुये साहित्य को मिलाने का कार्य चालू कर दिया गता है ।
समस्त कार्य मुनि श्री नवरत्नमल जी की देख-रेख में होता रहा है । संग्रहीत कृतियों को मूल प्रतियों से मिलाने के कार्य में श्री बुद्धमल जी खटेड़ का स्तुत्य सहयोग रहा, इसके लिए उन्हें हार्दिक धन्यवाद ।
- इस कड़ी का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य साधु-साध्वियों का इतिहास लेखन है। मुनि श्री नवरत्नमल जी द्वारा स्वामी जी से लेकर तुलसी गणीराज तक के साधु-साध्वियों का पद्यबद्ध जीवन-चरित्र लिखने का कार्य अनवरत गति से चल रहा है, जिसमें सात आचार्यों के शासन
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तुलसी प्रज्ञा
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काल तक का कार्य समाप्तप्राय है। प्रथम तीन आचार्यों के काल में हुई साध्वियों के जीवनचरित्र तक का कार्य सम्पूर्ण किया गया है ।
श्री संतोषचन्द जी बड़रिया गद्य में साधु-साध्वियों के जीवन-चरित्र लिखने में अहनिश लगे रहे। उन्होंने बड़े परिश्रम-पूर्वक सप्तम आचार्य डालूगणि तक के साधु-साध्वियों के चरित्र-लेखन कार्य पूरा किया किया है। इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्य के लिए उनकी सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी। आचार्य श्री के दैनिक प्रवचनों का संकलन
आचार्य श्री के दैनिक प्रवचनों का संकलन-कार्य मुनि श्री धर्म रुचि जी करते हैं, जिसके करीब 3000 पृष्ठ धारे जा चुके हैं, उन्हें प्रकाशित करने का कार्य शीघ्र ही हाथ में लिया जा रहा है। आचार्य श्री के प्रवचनों का प्रकाशन जैन समाज की बहुत बड़ी निधि होगी। जैन विद्या परीक्षाओं का आयोजन
जैन विश्व भारती ने धार्मिक परीक्षाओं के आयोजन का महत्त्वपूर्ण कार्य अपने हाथ लिया है। अनेक कठिनाइयों के बावजूद स्वल्प समय में लिये गये निर्णय को सुचारु-रूप से क्रियान्वित किया गया। परीक्षाओं का आयोजन अखिल भारतीय स्तर पर हुआ, जिसमें 3098 परीक्षार्थियों ने आवेदन-पत्र भरे । 2543 परीक्षार्थी परीक्षा में बैठे, 1975 परीक्षार्थी उत्तीर्ण हुये, 628 परीक्षार्थी अनुत्तीर्ण हुये । परीक्षाफल 75.30% रहा ।
दो स्थानों पर पुनः परीक्षा ली गई। 43 एवं 10 परीक्षार्थियों में से 21 एवं 5 परीक्षार्थी बैठे, क्रमशः 9 एवं 4 परीक्षार्थी उत्तीर्ण हुये तथा 12 एवं 1 अनुत्तीर्ण रहे । परीक्षा फल 42.85 एवं 80% रहा।
अगले बर्ष (1978-79) की परीक्षाओं के लिए निम्न पाँच पुस्तकें प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया था, जो प्रकाशित हो चुकी हैं।
1. जैनविद्या, भाग 1 2. जैन विद्या, भाग 2 3. जैन विद्या, भाग 3 4. जैन परम्परा का इतिहास 5. जैन दर्शन में तत्त्वमीमांसा उक्त कार्य कुलपति जी एवं निदेशक जी की संरक्षता में सम्पादित होता है।
मुनि श्री सुमेरमल जी 'सुदर्शन' ने धार्मिक परीक्षा के पाठ्यक्रम के निर्धारण में अपमा अमूल्य मार्ग दर्शन प्रदान किया है ।
-- डॉ. कमलेश कुमार जैन
एवं डॉ० श्रीमती पुष्पा गुप्ता
खंड ४, अंक २
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TULSI-PRAJNA
Journal of the Jain Vishva Bharati
Vol. IV
July-September 1978
No. 2
Editors :
Shri Shreechand Rampuria Dr. Nathmal Tatia Dr. Dayanand Bhargawa
ha
POTATIS?
Jain Vishva Bharati, Ladnun, Rajasthan.
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TULSI-PRAJNĀ
Volume IV
July-September 1978
No. 2.
CONTENTS
Dr. S.D. Sharma Muni Shri Dulaharaj
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1. Jain Philosophy and Quantum
Mechanical Concepts 2. Manual of Käyotsarga 3. The Path of Salvation as in
Buddhism and Jainism 4. On Jaina School of Astronomy 5. Antiquity of the Āyāro
Dr. Sukomal Chaudhari 58 Dr. Sajjan Singh Lishk 61 Dr. Nathmal Tatia 63
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Jaina Philosophy and Quantum Mechanical Concepts
Dr. S. D. Sharma Quantum mechanics has entirely different types of concepts than classical mechanics. Here theory of causation (#141*170-979-facia) has been replaced by concepts of probability densities. These developments have taken place after introduction of uncertainty principle by Heisenburg in 1925. Although many top physicists, like Albert Einstein of that time were very much opposed to these notions but these ideas developed and got firm maturity during the last few decades. Now the formulations based on syllogism etc. are at their fag end and new pavements have been formed for radically new results in microscopic worlds. All these formulations are based on the uncertainty in position and momentum of microscopic system due to the disturbance caused by the use of unavoidable instruments in these studies. The strict causation theoretical approach is valid for microscopic world (FETT TTT) only, while in dynamics of unisolated microscopic systems uncertainty creeps in and in this domain probability language is the only shelter.
If there is an electron with 0.5 me, v. of energy (E) and a barrier of V.=1.0 me.V., according to classical notions the electron can not cross this potential barrier while according to the quantum mechanical concepts there is a finite probability of transmission, as the electron behaves like a wave and some fraction of intensity will be transmitted after suffering refraction at the barrier but it is only in terms of probability over a large number of electrons that one can talk of this event and not specifically for any individual electron. Similar is the situation in case of a barrier with an energy lesser (say 0-2 me v.) than that of the impinging electron. In this case, there is a probability that electron may not be able to cross the barrier which is against the classical notions of cause and effect, There are cases where probability
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of transmission increases and decreases sinusoidally with decreasing amplitude when energy is increased. In this case, on increasing the energy of the particle E, transmittivity decreases or increases sinusoidally which is against classical notions.
Transmittis
.. . Evo *** Here in diagram is shown transmittivity as a function of incident energy. Classically the transmittivity must go on increasing with increasing energy but actually it is found to decrease also, for some ranges of energies. In fact there the particle struggles for its behaviour as a wave or as a matter. Also peculiar is the case of identical colliding particles where there can be no distinction between the target and the incident particles. Here the scattering cross-section will be very much different than the classical estimates. In fact it will be sum of two individual cross-sections (first with particle l as incident, particle 2 as target and second with particle 2 as incident and particle 1 as target) and an additional term due to the interference of the two matter waves. Also in resonance scattering of a particle by patential well v phenomenon which has no classical analogue. Here, when the energy of particle is decreased, it may cross the well, while on increasing energy it may cease crossing the well.
The radius of an atom is the distance at which the probability of finding the electron is maximum. In fact this is the definition under the assumption of point charge of proton. If the charge of nucleus is assumed to be distributed over a surface of radius R. (Nuclear radius) the Bohr's model of atom (say-H-atom) needs some corrections to ordinary Bohr spectrum. It is interesting to note that under some modifications of the model, the electron is found to penetrate into the nuclear core which one can not believe on classical grounds, as two solids as such can not penetrate into each other. In fact this event is an interference of two waves. Also in case of zero energy there can exist a bound state under Quantum mechanical concepts while it is untenable according to the classical picture. In decay the case of zero energy yields results not confirming to causation laws.
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In quantum mechanical concepts there can be a composite system consisting of superimposition of many waves. The system can exist in many states simultaneously with varying probabilities for each state.
uch notions have no place in classical concepts of cause and effect but such situations occur in wave-behaviour. It is found that applications of some potentials may result into separation of the states which is termed as removal of degeneracy of states, on the contrary in classical mechanics a system can not exist as an admixture of many.
The concept of exchange degeneracy for states with identical particles is an important feature in quantum mechanical notions. In this case the system exists in two states due to the identical nature of some constituents of the system. Such a degenaracy is removed under the interaction potentials of the interacting constituents.
It is of interest to know if Indian philosophers ever thought of such situations. In Chandogya Upanishad (Trasf79) we find frvrtkarana (fata FITU) in which any one of Prithivi, Jala and Tejas are not pure but admixtures. Everyone has the respective constituent as half of the total while the other remaining two are the one fourth of the total each. In Taitriya Upanishad (afattatafaqa) we find the advancement leading to pancikarana (9581*70) of finer mahābhūtas. Here Gross Ppthivi = of Pệthivi-tan-mātra + 1 of all the four remaining ones each. Similar is the case with other gross bhūtas also. If we permit the notion of intensity of tanmātra-state in this concept and assume the concept of amplitude in relation to intensity, then for n-krtvhkaraņa (or n-sankhyikaraña)(n-fica: Tut ar n-86977307) will mean that any gross state y; is the superimposition of the all subtle states di with as the amplitude of the respective and 12
* V 2 (n-1) as the amplitude for all the remaining ones each. Mathematically speaking2.3
1
4;=: Sain di
i=1.2.. Where has been carried on all the n-subtle states and ass=_ for i=j and dj=
for ij.
V 2 (n - 1) These ideas got maturity and formed the basis of Vedantist's concept of cosmogony. Also in sānkhya-philosophy we have all the entities in the world as admixtures os Sattva, Rajas, Tamas (+a, 757: 74:) None of these can be zero at any stage of evolution of all the tattvas
A
2
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and hence through all the creation. In quantum mechanics terminology one can say that eigen vectors of all the three are non-zero and whenever there is dominance of one type of state-intensity it leads to Alfa,
Tiefg and airf fe. It may be noted that in these processes, the cosmic inertia a#: prevents the processes of evolution at every stage while ata has creation properties and the 75t: has the properties of preservation. The Japanese quantum Physicist Dr. Sakurai has likened the three guņas with creation, preservation and annihilation operators and the respective operators can be termed as Brahmă, Vishnu and Mahesa operators. Also the language of ambliquity crept into the concepts of philosophers at quite an early date. The language of negation and ambliquity about māyā etc. is a result of similar concepts in philosophy. The māyā is attributed with very peculiar properties like neither a nor 377 nor 5 0164etc. These concepts are similar to the notions of modern scientists about the physical realities of microscopic systems e g. benzene ring was considered to be neither close nor open but an admixture of two states or a resonance state. In the light of all these developments the syllogisms of NAVYANYAYA are to be changed for all these developments. The mathematical preliminaries are being developed by the author.5
In yoga-darśana we find a siddhi through which one can find the distinction between two identical particles. The yoga sūtra is,
"जाति लक्षणदेशैरन्यतानवच्छदात् तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः" In commentary to this sūtra by Bhoja (719-afa) there is an example of two identical Pārthiva-parmāņus of same colour which are placed at the same point. This siddhi appears just to reveal the exchange degeneracy in Yogic-Pratyakşa
Despite these concepts of six Darśanas, Jainas contributed a lot to philosophy through the concepts of Syādvāda. The Syädvāda or Anekānta vāda of Jaina Philosophy is a unique feature of this school. As we have seen the quantum mechanical concepts have questioned the validity of causation-theoratical applications in microscopic systems leading to notions similar to those of Syādvāda. Although big dignified scholars like Sankarācārya have refuted Jain Philosophical notions involving many ambiguous statements. But these days the experimental evidences have proved beyond doubt that the stern applicability of cause-effect relations is no more a realistic approach for microscopic worlds where particles may behave like waves. These advances have confirmed the validity of Anekānta-Paksa (3 78-99) of Jaina Ācāryas. Here we question the validity of Anvaya and
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Vyatireka syllogisms (894-ayfartati-at) i.e., Anvaya and Vyatireka stand no more valid means to prove a result. On the contrary Jaina philosophy has sapta-bhangi-nyāya. Everything possesses many Dharmas (attributes) but Sankaracharya refutes the anekānta-vāda in the sutra-( fea s ala) which means that opposing attributes can not exist in the same thing simultaneously but the Anekānta-vāda has such provisions under notions of relative nature of all attributes usually all pandits of traditional non-mathematical logic and philosophy take such arguements to be very much authentic as they are satisfied that these arguments are based on deterministic formulations, but they are not aware of the fact that in microscopic dynamics such arguements have loose bearings and are quite incapable of explaining many physically observed phenomena. In fact according to Jainas a Vastu can be asti-swarupa and nāsti-swarūpa with respect to swarūpa-catustaya and para-catustaya (Dravya, Kshetra, Kāla and Swabhäva). Even these days, science talks of such events in the language of probability. The probability-notion in Syādvāda is very striking. Some scholars like Raghunath Acārya started developing symbolic logic also and assumed certainty to be unity in the language of probability. Sankarācārya while refuting Syādvāda of Jainas, behaved like Einstein in refuting the uncertainty principle of Heisenberg, througout his life.
The Sapta-Bhangi Nyaya has seven bhangis : 1. Faffa 2. Fer FATEA 3. ftrafea, ForFarfa 4. Farafaaaaaa 5. स्यादस्ति स्यादनिर्वचनीयमस्ति 6. स्यान्नास्ति स्याद् अनिर्वचनीयमस्ति 7. FUTEFFA Farfatfat fure afaágatuarea i
Here in this language we find the notion of probability quite similar to one in depicting the physical situations of quantum mechanical states. First three are clearly the sentences of mere probabilities while other ones have the notion of ambiguity and incapability of expressions on the basis of language. In the 4th Bhangi we have Anirvacanyata on account of simultaneous existence of opposing attributes and the 5th, 6th and 7th Bhangis deal with Adirvacaniyata w.r. to Astitvaswarūpa, Nāstitva-swarūpa and both. Similar language is used by scientists in describing the physical situations in an event which is probable but to a certain extent only. It may be pointed out that the language of quantum mechanics is not the language of negation as used by Sankaracarya in describing the attributes of Māyā :
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो ।
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atqı fazgıyazıkaær at महाभूतैषाऽनिर्वचनीयशक्तिः ॥
The Syadvāda language is similar to the vedic statements where opposing attributes are ascribed existing in the samething simultaneously and such a language is tenable in quantum mechanical concepts. But the quantum mechanical language is not the one of negation like the above statements.
A word of caution may be added here that in modern notions of quantum mechanics the syādvadiya language has crept in, due to uncertainty in simultaneous measurement of canonically conjugate variables like position and momentum or energy and time etc. In fact this forms a physically valid reason for such a notion of uncertainty, as in many cases, even the microscopic quantity itself is marked by the uncertainity (error unavoidable) in the system which is indispensable under the techniques of measurement and perception. It is interesting to note that in the microscopic domains uncertainty in position may be the dimension of the system itself. Uncertainty in time may be the life time of the system. Uncertainty in momentum may be the very momentum of the system in question. Thus uncertainty is not error but an indispensable essential of the system. This feature is much used in microscopic dynamics. Even eye lenses and other sense instruments may create uncertainties. The only way to avoid uncertainty is not to try any af for perception. In Syadvāda the situation is different as there the uncertain ambiguous language arises because of the relative notions about catustaya which in other words means the probability-language in terms of space and time etc. What is striking in the modern logical approach and syadvada is that both apply a similar language. Although the quantum mechanical treatments are quantitative, and the syadvadiya notions are qualitative. But it is clear that Indian Philosophers used to think in terms of probability. Symbolic logic too had started developing. Syadvada could resolve many views of opposing school and finally lead the followers to Nirvāņa. Here we are reminded of a striking statement from ( श्लोक 225 )
f
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एकेनापकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तु-तत्त्वमितरेण । अन्येन नयति नीतिर्मन्थान- नेत्रमिव गोपी ॥
As Gopi (while churning curd for butter, using a rod-stirrer with a rope) drags with one hand and releases the same with the other hand, similarly the Nyaya (of Sapta-bhangi) drags (argues deterministi
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cally) and releases (in probabilistic fashion) resulting in drawing out the real facts therein.
There is no doubt that the notions of stern applicability of पञ्चावयव वाक्य had been loosened which was a big break through in the history of development of logic. The notions about microscopic dynamics like in case of motion of pudgala (g) etc., Jainas talk of random variables in the language of uncertainty. All these notions are against the deterministic approach of other schools of Indian philosophy. While Vedantists and Samkhyas developed the notions of probable admixtures of tanmatra-states and three guṇa-states, the Jaina philosophers gave a big blow to the deterministic approach and paved bases for radically new concepts in Philosophy.
REFERENCES
"Quantum Mechanics" by Albert Messiah, Vol. 1.
1.
2.
3.
4.
5.
D.S. Kothari's Lecture in All India Science Congress 1975. S.D. Sharma & P.V. Sharma "fa" in ( Sanskrit) विश्व संस्कृतम (1965).
Author's private and meeting discussions with many traditional scholars, Sadhus and Pari-Vrajakacaryas etc. The belief among these scholars is very strong. These are quite uninformed about the developments, which have taken place during the second and 3rd quarters of the present centuries in the field of logic and Philosophy.
7. Sakurai "Relativistic quantum-Mechanics".
S.D. Sharma, in M.I.C.I. Symposium on Vedas and Science at Banglore June, 1975.
S.D. Sharma “भारतीयदर्शनेषु दुःखम् ” in "विश्व संस्कृतम्” of V.V.R.I. Hoshiarpur (1975).
6.
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Manual of Kayotsarga
Muni Shri Dulaharajji 1. The synonyms of Kāyā' (body) are thirteen :
Kāyā, Sharirā, Deha, Bondi, chāyā, upchāyā, Sanghatā, Ucchraya, Samuchhaya, Kalevara, Bhastra, Tanu and Pānu.
2. The synonyms of Utsarga are eleven :
Utsarga, Vyutsarga, Ujhana, Avakirana, Chardana, Viveka, Varjana, Tyajana, Unmochana, Parishatana and Shatana.
3. Utsarga is of two kinds - Ceștā and Abhibhava. To do Kāyotsarga after performing the activities of begging etc. is called Ceștā Kāyotsarga and to do Kāyotsarga just as to bear the strifes and tribulations which confront one at the time of Sādhanā is called Abhibhava Kāyotsarga.
4. The disciple questioned-My Lord; it is improper to pride even in minor instances and as such how can it be considered proper to pride in Käyotsarga ? Through arrogance and pride one can capture the city of one's opponent. But even in this case, pride is considered as trifle. Likewise to foster pride in Kāyotsarga is improper.
5. Ācārya replied—Vatsa; Fear is a part of delusion. One should engage in Kāyotsarga just to overcome fear but not to get rid of the outer circumstances which generate fear. There are three main outer circumstances which cause fear-(1) Deva-gods, (2) Man and (3) Beasts. Kāyotsarga is not meant to subjugate these but to annihilate the roots of fear. I recommend Abhibhava Kāyotsarga for this purpose.
6. In the battle-field, one challenges and defeats one's enemy. Likewise in the act of Kāyotsarga, if one challenges others, it can be considered as a defeat. But in the absence of a challenge, there is no question of any defeat.
7. The eight-fold Karmas are the real enemies of self. Monks have entirely engaged themselves in eradicating them through penance and self-control.
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8. Anger, pride, deceit, Avarice—these four are the leaders of the army of Karmas. They cause hindrances in the realm of Kāyotsarga. Hence one should engage in achieving victory over them.
9. The maximum and minimum duration of Abhibhava Kāyotsarga is one year and one Antarmuhūrta respectively. We will discuss later on the duration of Ceștā Kāyotsarga.
10.--11. Uchhrit-aUchhrita, Uchhrita, Uchhrita-Nişaņņa, Nişaņņa-Uchhrita, NişanņaNişaņņa-Nişaņņa, Nişaņņa-Uchhrita, Nişaņņa, Nişaņņa-Nişaņņa, Nişaņņa-Uchhrita, Nipaņņa, NipannaNipaņņa.
These are the nine different forms of Kayotsarga which will be dealt with hereinafter.
12. These three kinds of Kāyotsarga done in the posture of standing sitting and sleeping have each four different categories related to Dravya and Bhāva.
(1) Physically standing and mentally engrossed in meritorious
meditation. (2) Physically standing and mentally engrossed in immeritorious
meditation. (3) Physically sitting or sleeping and mentally engrossed in merito
rious meditation. (4) Physically sitting or sleeping and mentally engrossed in im
meritorious meditation. 13. Kāyotsarga begets these five benefits :
(1) Dispels physical inertia by removing cough etc. (2) Removes intellectual inertia through alertness. (3) Increases the power of enjoying happiness and forbearing
sorrow with equanimity of mind. (4) Affords adequate opportunities for contemplation. (5) Provides adequate opportunities for deep meditation.
14. Concentration of mind on one particular object for an Antar Muhurta is called meditation. It is of four kinds- Ārta, Raudra Dharmya and Sukla.
15. The first two kinds of meditation lead to transmigration and the last two which lead to emancipation are dealt with in this treatise.
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16-17. In these two stanzas are described the main features of (1) Meditator, (2) Place of meditation, (3) Posture of meditation and (4) Support for meditation.
(1) Meditator-One who has control over the senses and has obstructed the inflow of Karmas.
(2) Place of meditation-It must be free from din and bustle and such other obstacles and also free from stony beds, insects and beasts.
(3) Posture of meditation-In all the thrce postures-standing, sitting or sleeping, one must be stable.
(4) Support for meditation-One must concentrate with an exclusive mind on an animate or inanimate object, text or its meaning, substance or its modes.
18. Some Acāryas say that meditation is exclusively mental. This is not correct. Lord Mahāvīra has said that meditation is of three kinds-Mental, Vocal and Physical.
19. Body is made up of three elements-wind, bile and cough. Of these, one which is aggravated is termed as agitated and the remaining two are never mentioned altogether. This does not mean that the remaining two elements have no entity of their own.
20. Likewise, among the three activities of the body-mental, vocal and physical, that one is named which is prominent for the time being and the rest two are neglected. Among them, one may be in existence or two may function simultaneously or both may not exist altogether.
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21. Mind may be spiritual; likewise physical and vocal organs may also be spiritual. To keep the body steady with deep concentration of mind is physical meditation. To desist from unrestrained language with deep concentration is vocal meditation. Hence the Lord has lucidly delineated three phases of spirituality.
(1) Spirituality in mind-Mental meditation. (2) Spirituality in word-Vocal meditation.
(3) Spirituality in body-Physical meditation.
In other words, restraint of mind, word and body is respectively mental, vccal and physical meditation.
22. If the concentration of mind on any particular object or its restraint is meditation, then to concentrate or restrain vocal and physical organs is also meditation.
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23. The 'way-shower' (guide) goes ahead while leading the ceremonial procession of a king. The king and all the followers follow the path shown by the guide. Even then the masses say that the 'king is going'. The whole paraphernalia is not mentioned but is neglected.
24. Anger is of four kinds-Anantanu-bandhi, Apratyākhyāna, Pratyākhyāna and Samjvalana. Even in the wake of the first type, all the remaining three have their entity and cannot be neglected. They are not mentioned because of their secondary status at that particular stage.
25. 'Let not my body shake’-With this resolution in mind, one who becomes steady, engages oneself in physical meditation. Likewise the steadiness or the restraint of mind is called mental meditation.
26. The disciple asked; My Lord; As the restraint of body and mind is called meditation, the same does not apply for the vocal organ. That is, the restraint of speech can never be vocal meditation. Unlike mind and body, it is not always in action, hence there is no vocal meditation. My Lord; What special features of speech bring it under the sphere of vocal meditation ?
27. 'Let not my body shake--This resolution leads one to physical meditation. Likewise, to dispel the un-restrained language is vocal meditation.
28. One who discriminates between appropriate and inappropriate language is said to practise vocal meditation.
29. One who engages oneself in Bhangika Sruta is said to practise the three types of meditation. His mind is entirely concentrated upon the main subject of Bhangika Śruta. At the same time he utters the contents of the Śruta and counts on his fingers the numerical relating to that Śruta or writes them with the aid of his fingers. Because he is exclusively engrossed in all the three physical activities, he is said to be engaged in all the three types of meditation.
30. The practice of Dharmya or Sukla Dhyāna in standing posture is termed as Uchhrita-Uchhrita Kāyotsarga.
Standing posture-Physical elevation. Practice of Dharmya and Sukla Dhyāna-Spiritual elevation.
31. Not to be engaged in any of the four types of Dhyāna even in standing posture is physically elevated Kāyotsarga.
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Standing posture-Physical elevation
Negation of meditation--Devoid of spirituality. 32. One who is asleep and is in deep slumber is neither engaged in meritorious or immeritorious meditation. Likewise one with an inactive mind even though awake, is neither engaged in good or bad activities.
The state of a sleep-Devoid of meditation. The state of slumber - Devoid of meditation.
The inactiveness of mind even in awakened state—Devoid of meditation.
33. The minds of new born, stupified, immatured, infatuated and a slumbering person are obstructed and undeveloped. In these stages, meditation is not possible.
34. The mind which has become steady through deep concentration the accepted support is termed as meditation. The mind which is not deeply engrossed, unmanifested and wavering is not meditation.
35. The fire which is not completely extinguished becomes ablaze with fresh fuel. Likewise the immatured mind might subsequently become matured.
36. The disciple asked -My Lord; You have just depicted that the concentration of kind is meditation. As such how can physical, vocal and mental-all the three types of meditation be practised simultaneously? This is because the mind engaged in all the three types will take different objects as its support. Hence it can only be mind and not meditation.
37. Ācārya replied-One who engages oneself in physical activity with the awareness of mind and speaks with the same awareness, is said to be in 'Bhāva Kriyā'. The activity which is devoid of mental awareness is Dravya Kriyā.
38. The disciple again asked-My Lord; If you just believe that mind is meditation, then meditation will also be considered as mind as such physical and vocal meditation will be impossible. Hence you will have to accept that mind is meditation. If you do not accept this theory, then it is crystal clear that meditation is not only mental but also different from it.
39. Ācārya replied-Vatsa ! it can be said with certainty that mind is meditation, but meditation may or may not be mind. Just as 'Khadira' is a tree but a tree may or may not be 'Khadira'
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arga.
40. The practice of Ārta and Raudra meditation in standing posture is physically elevated but spiritually not--elevated Kāyotsarga.
41. The practice of Dharmya and Sukla meditation in sitting posture is Nişaņņa-Uchbrita Kāyotsarga.
Sitting posture-Physically Nişaņņa
Practice of Dharmya and Sukla meditation-Spiritually elevated. 42. Not to be engaged in any of the four types of Dhyāna in sitting posture is physically Nişaņņa Kāyotsarga. Sitting posture-Physically Nişhaņņa; Negation of meditation ---Spiritually Nişhaņņa.
43. The practice of Ārta and Raudra meditation in sitting posture is Nişaņņa--Nişaņņa Kāyotsarga.
Sitting posture-Physically Nişaņņa.
Practice of Ārta and Raudra meditation-Spiritually Nişaņņa. 44. The practice of Dharmya and Sukla meditation in sleeping posture is Nipanna-Uchhrita Käyotsarga.
45. Not to be engaged in any of the four types of Dhyāna in sleeping posture is physically Nipaņņa Kāyotsarga.
46. The practice of Ārta and Raudra meditation in sleeping posture Nipaņņa-Nipanna Käyotsarga.
47. One incapable of standing can do Kāyotsarga in sitting posture and if one is unable to sit, one can lie down and do Kāyotsarga. If the place of Kāyotsarga is narrow and small, and if one is duly engaged in the service of Ācārya, even though capable of standing can sit and engage oneself in Kāyotsarga.
48. Kāyotsarga is the way to emancipation Having this in mind, a monk with the power of forbearance, should engage in Kāyotsarga just to know clearly the transgressions committed during day and night.
49. The contrary activities with regard to the place of sleeping and sitting, or the articles used there for, food, water, temple, residence, disposal of urine and stool, samiti, bhāvanā and gupti-are named as transgressions.
50. A monk engaged in Kāyotsarga in the morning should recollect all the transgressions commited with regard to the examination of all the belongings including Mukha Pattikā. Having realised by his in-: tellect he establishes them in his heart.
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51. After doing so, he must serially ponder over them. As long as the Guru does not complete the Kāyotsarga, he should make his respiration subtle and engage himself in Dharmya -Sukla Dhyāna.
52 Pratikramaņa (coming back to the original state) is of five kinds, namely, relating to day, night, fortnight, four months and a year. Each has three sub-divisions.
(1) To engage in Kāyotsarga after completing Sāmāyika. (2) To engage in Sāmāyika after completing Kāyotsarga
(3) To engage in Kāyotsarga again after completing sāmāyika. 53. The disciple asked --My Lord; During the first Kāyotsarga, the Sāmāyika has been observed and as such why should one do second Sāmāyika in Pratikramaņa and the third Sāmāyika in the last Kāyotsarga ?
54. Ācārya replied—Vatsa ! the monk engrossed in the equanimity of mind completes his Kāyotsarga and accepts the punishment given by the Guru for the transgressions committed during the day or night. Thus engaged in equanimity, he observes the third Sāmāyika in course of Käyotsarga
55. Repetition is not considered a fault in the case of study, meditation, penance, medicine, instruction, order and songs of praise of the saints.
56. One engaged in Abhibhava Kāyotsarga does not completely stop one's respiration and as such why should one stop one's respiration while engaged in Cheștā Kāyotsarga; The cessation of respiration leads to death. Hence while engaged in Kāyotsarga, one should respirate slowly with care.
57. Kāyotsarga relating to day, night, fortnight, four months and a year are fixed as far as the number of respirations is concerned during their observance. The remaining Kāyotsargas are not fixed because the number of respiration differs with the kind of activity for which the Kāyotsarga is observed.
58. The number of respirations during the observance of Kāyotsarga is as follows: (1) Evening
100 (2) Morning
50 (3) Fortnight
300 (4) Four months 500 (5) Year
1008
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59.60. The Udyotakaras and the number of ślokas for different Kāyotsargas are as follows:
Regarding day - four - 25 ślokas Regarding night - two - 127 ślokas Regarding Fortnight - Twelve 75 - ślokas Regarding Four months - Twenty - 125 ślokas
Regarding'year - Forty - 252 ślokas It is to be noted that one śloka is equivalent to four respirations.
61. Going out, coming back, moving from one place to another, sleeping, dreaming, crossing the river by boat and Iryā - pathikī Pratikramana - in all these activities, the Kāyotsarga is of 25 respirations.
62. While imparting lessons of śruta and their meanings, one has to do Kāyotsarga of 27 respirations and while giving permission to teach others and to establish Svādhyāya Mandali (study group) one has to do Kāyotsarga of 8 respirations.
63. Likewise to study and recite the Śrutas at inappropriate times, giving lessons to an imprudent person, giving lessons with their meaning to others - in all these activities one has to observe Kāyotsarga.
64. The disciple asked - Lord ! a monk who does not transgress the limits of Śruta while giving lessons to others, has also to observe Kāyotsarga. Is it not futile to prescribe Kāyotsarga even without any fault ?'
65. Ācārya replied - "Just to get rid of sins, one observes Kāyotsarga considering it to be benedictory, let not our activities be hindered by any obstacle in the absence of benedictory actions. Hence one observes Kāyotsarga, an act of benediction.'
66. If, while dreaming one indulges in violence, falsehood, theft, uncelebacy and accumulations, one has to observe Kāyotsarga of 100 respirations.
67. The time - duration of one respiration is to recite one pada of a sloka. This is the time duration of Kāyotsarga.
68. If a monk, even though, capable of doing Kāyotsarga, does not observe it in the wake of delusion, he is not able to cut short his karmas. He will have to bear the consequences thereof. Who else will suffer from the fruits of his actions ?
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69. Hence, a monk should engage in Kâyotsarga in standing posture steady like a wood - log in accordance with his age and might without any pretence. 70. Monks are of four kinds :
(1) Young and strong (2) Young and weak (3) Old and strong
(4) Old and weak. In all these stages, a monk should observe Kāyotsarga according to his strength.
71. As the time for observing Kāyotsarga approaches, if a monk pretends to be asleep, begins to question the text and its meaning, engages in extracting a thorn, goes out to attend a call of nature, engages in religious discourses and pretends to be sick-all these vities are utterly false.
72. A disciple should engage in Kāyotsarga only after the Guru has engaged himself in it and complete it likewise. Those who are young and steady, should observe Kāyotsarga for a longer duration.
73. The posture for the observance of Kāyotsarga is as follows :
A monk in Kāyotsarga posture should have his feet at a distance of four fingers, should have Mukhavastrikā in the right hand and Rajoharan in left hand. He should dispel the bodily - activities and become oblivious to the care of the body.
74-75. A monk should be aware of and get rid of the 21 shortcomings in the observance of Kāyotsarga. Those are as follows :(1) Ghotaka–To keep the legs in an awkward position like
a horse. (2) Latā—To shake like a creeper tossed by the wind. (3) Stambha-To stand with the support of a pillar. (4) Kudya---To stand with the support of a wall. (5) Māla-To stand with the head touching the roof. (6) Shabari-To stand covering the private parts with the
hands just like a naked aboriginal woman
standing. (7) Bāhu-To stand bending one's head just like a newly
married girl. (8) Nigada-To stand stretching or joining the feet. (9) Lambottara--To tie the lower garment above the naval
stretching to the knees.
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(10) Stana--To stand with the lower garment tied to the
breast, just to get rid of the bites of mosquitoes
etc. (11) Uddhi-To stand by joining the heels and stretching the
feet or to stand by joining the toes of the legs
and stretching the heels. (12) Samyati—To stand covering like a nun the body with a
cotton or woollen cloth. (13) Khaleena-To stand by stretching the Rajoharan in
front. (14) Vāyasa-To turn frequently one's gaze like a crow. (15) Kapittah--To stand by tying the thighs with a cloth in
a circle like kapittah in fear of lice. (16) Shesha-Prakampana-To stand shaking the head like
a man over-powered by a ghost. (17) Mooka-To obstruct the activities of other persons
through utterances like Hu, Ku. (18) Anguli—To count on the fingers while engaged in Kāyot
sarga. (19) Bhru-To dance the brows giving signs for certain
actions. (20) Varuni - To buble over like wine.
(21) Prekshā-To move the lips like a monkey. An observer of Kāyotsarga should avoid the aforesaid shortcomings. He should wear the lower garment below the naval and stretch the hands to the knees. He should complete the Kāyotsarga with the utterance of Namaskāra Mantra and recite the eulogy of God.
76. A monk who is equanimous towards one who inflicts injury or annoints him with sandal paste, maintains equanimity towards life and death and also remains unattached to the body is also entitled to observe Kāyotsarga.
77. One who bears with equanimity of mind, the troubles caused by devas, men and beasts, is said to perform the proper Kāyotsarga.
78. In this stanza, the material benefits resulting from Kāyotsarga are narrated.
(1) Jindatta was a rich resident of Vasanpur. Subhadrã was his beloved daughter. Once she was the subject of a false accusa
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tion. A deva showed her the way to be free of that accusation. All the main gates of Benares were closed. Subhhadrā, after performing Kāyotsarga, drew water with a seive and sprinkled the same over the closed doors. They were atonce ajar. The whole city rejoiced and eulogised Subhadrā for her chastity.
(2) The queen used to harass the monk whenever he visited
the palace for alms. The king performed Kāyotsarga
and got rid of the entire trouble. (3) In the town of Champā, there lived Sudarshana, the son
of a big business-man. His wife was Mitrāvati. Once the chief consort of the king requested him to satisfy her sexual desires. He refused to yield. One day Sudarshana was performing Kāyotsarga in standing posture. At the instance of the queen, the attendants came and shackled him and brought him to the queen. She again requested him to enjoy her sexually. Sudarshana remained silent. The queen raised a hue and cry. Hearing her wails, the sentries rushed in and caught hold of Sudarshana. He was brought before the king who ordered for his execution. When the sentries were taking him to the place of execution. Mitrāvati, wife of Sudarshana heard the news and atonce began to perform Kāyotsarga and became fully engrossed in it. The sentries took Sudarshana to the place of execution. The head executioner ordered that Sudarshana should be cut into eight pieces. The executioners tried to carry out the orders but in vain. As soon as they lifted the swords, they became transformed into flowery garlands. The king heard of the miracle. Sudarshana was set free. Mitrāvati completed her Kāyotsarga. There lived a monk who did not practise the monk-rules and as such he became after death a rhino. Once some monks were passing by that path. As soon as he saw them, he rushed to kill them. After realising this awful situation all the monks stood in Kāyotsarga. Rhino came near them but was completely pacified. Thus the monks escaped the trouble.
All the aforesaid results are of the material world. Emancipation or the attainment of heavenly bliss is the significant result of Kāyotsarga pertaining to the world next,
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79. One who is well-established in Kayotsarga experiences as if one's body is shattered to pieces. Likewise a monk absorbed in Kayotsarga cuts asunder all the eight types of Karmas.
80-82. Oh Vatsa! you just foster the thought that the body is different from the soul. Thus you will be able to remove the feelings of attachment towards the body which is above trouble and misery. You just think that the trouble and misery which you have experienced in this world is meagre and trifle as compared to the troubles and miseries of hell. Thus the monk who realises the fundamental dictum of non-attachment should observe Kayotsarga to extinguish the everburning flames of Karma.
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The Path of salvation-as in Buddhism and Jainism
Dr. Sukomal Chaudhari Neither Buddhism nor Jainism is a religion in the real sense of the term. They are but two dynamic systems. Their cardinal principles of compassion, humanity and equality, their liberal attitude in throwing doors open to all, irrespective of caste, creed and nation, earned them universal popularity through the ages. In the face of these humanist forces the existing barrier between man and man was shattered, and man was confident of the fact that everybody has potentiality of becoming a superman, an Arhant, a Buddha, Jina and every man has fundamental right to exert for the same in this very birth as well as in the successive births hereafter. The principles promulgated by their exponents, the Buddhas and the Jinas, were intended to be practical aid to the attainment of perfection and thereby to the final liberation from the repeated existences--birth after death, death after birth...and so on. The especiality of these two dynamic systems-Buddhism and Jainism- lies in the fact that their exponents did not preach what they had not practised and realised themselves. As they were contemporary one had undoubtedly influenced the other in many respects, but we are not sure which was influenced by which.
The path of salvation i.e. Nirvāṇa or Moksa is found in both the systems-Buddhist and Jaina. Actually there is no major difference between the path. Both apparently seem to be different due to their different terminology and interpretation.
In Buddhism the path leading to Nirvāṇa is the Noble Eightfold Path (Ariyo atthanjiko maggo), right view (samma dițthi), right resolution (samma sankappo), right speech (samma vācā), right action (samma kammanto), right livelihood (samma ajīvo), right effort (samma vayamo), right mindfulness (samma satii and right concentration (samma samādhi). These eight may be grouped into three cate
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gories. viz. Sīla (morality or caritra), Citta or Samadhi (concentration) and Panņā (knowledge). Thus right speech, right action, right livelihood and right effort come to the first category i.e. Sila. Right mindfulness and right concentration come to the category of Citta or Samadhi. And the rest i.e. right view and right resolution come to the category of Paņņā (Prajana knowledge).
In Jainism the path leading to Moksa is the Noble Three Jewels (Triratna), viz. samyag darśana (right view), samyag jñāna (right knowledge) and samyak caritra (right conduct or morality). These three jewels are more or less similar to Buddhist three jewels as mentioned above, i.e. Sila, Citta or Samadhi and Paņņā. More or less, because Buddhist citta or samadhi (i. e. right mindfulness and right concentration) is not properly found in the Jaina Triratna. It is rather found in the 7th and 8th Tattvas of the Jainas i.e. Samvara and Nirjară for the attainment of which Suddhadhyāna i.e. right meditation has been prescribed as one of the means.
Both samyag darśana and samyag jñāna of the Jainas are found in the Buddhist Prajñā (Panņā), and samyak caritra is found in the Buddhist Sīla.
We may therefore come to the conclusion that if we can make our mind free from any bias, free from mithyätva we will find that the Jaina path of salvation is in no way different from that of the Buddhist.
Now, let us see how these paths can help us in achieving our goal i.e. in realising the perfect truth.
First of all comes Samyag darśana. What is Samyag darśana ? It means to know a thing as it is', e.g. * to know a chair as chair, a table as table, and the like. Its opposite is 'Mithyatva' i.e. to know a thing not 'as it as', e.g. to know a chair not as chair, to know a table not as a table, and the like. So Samyag darśana means to know each Tattva or Padartha as it is, to know suffering as suffering, happiness as happiness, truth as truth. We must believe, we must have faith in our mind that Samsara (repeated existence) is not the only entity, suffering is not the only end. There is also the end of Samsara and end of this worldly suffering. Buddhas and Jainas have realised this Truth and so they have preached the path which undoubtedly safely leads the way-farer to his goal. i.e. emancipation. So we must not have any least doubt in our mind about the perfection and the path leading to it. This is Samyag darśana.
Then comes Samyag jñāna. What is this? Every living being has jñāna as it has got some sort of knowledge-right or wrong, good
*The definition of Samyag Darśana as given by the author is his own.-Ed.
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or bad. But-a human being aspiring for moksa must have samyag jñāna i.e. right knowledge. If his mind is possessed with samyag darśana, he will possess gradually samyag jñāna. He will have clear vision about the world, about the self and about the last pariņāma (transformation) of the self and the world.
Then comes Samyak cāritra, i.e. right conduct. A Yogin equip. ped with weapons like Samyag darśana and Samyag jñāna can easily fight out all passions arising out of five Kāmaguņas i.e. Rūpa, Sabda, Gandha, Rasa and Sparśa. He can easily control his three doors of actions—body, speech and mind. He can control Himșa, Asatya, Caurya, Abrahmacarya and Parigraha. He can control Krodha, Māna, Mäyā and Lobha.
So, if either of these two trios-i.e. Šīla, Samādhi, Prajñā of the Buddhists, Samyag darśana, Samyag jñāna and Samyak caritra of the Jainas-is properly followed, it will lead the follower beyond the realm of ever-continuous life and death and ultimately will help him in realising perfect emancipation.
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!
On Jaina School of Astronomy
Sajjan Singh Lishk
A simple probe is rendered into the mathematical structure of the astronomical data in Jaina canonical literature which belongs to post-Vedānga pre-Siddhantic, the so called dark period in the history of ancient Indian astronomy. Several unique features of the Jaina School of astronomy have been first unearthed, e.g.,
1.
There existed in Atharva Veda Jyotiṣa, a thirty-fold division's system of time-units which may be conveniently called as 'Trigesimal system'. Jaina astronomical system rendered a great role in the profitable conversion of Trigesimal system into Sexagesimal system of timeunits.
There existed three unique systems of length-units viz. ātmā, utsedha and pramāna systems. The mystery of diversity of relationship between a yojana and the number of British miles is revealed out. Besides, Jainas had evolved a system of arc division or graduation of the zodiacal circumference. It was divided into 272 days and then 81927muhrūtas of a naksatra month (lunar sidereal month) and subsequently in 54900 gagana-khandas (celestial parts) and 360 saura days leading to the concept of 360 modern degrees of act.
2. Jainas had regarded earth as made up of concentric rings of land masses alternatively surrounded by ccean rings. The two suns, two moons etc. move diameterically opposite about the mount Meru placed at the centre of Jambudvipa (the isle of Jambu tree), the central island of earth. The tentative astronomical model of Meru was purposefully designed such that its dimensions fit into certain astronomical constants e g. obliquity of ecliptic.
3. The time of day was measured and the seasons were determined through the science of sciatherics.
4. Kinematical studies of sun and moon were distinctly made and the notion of declination was developed as implied in the concent of mandalas (diurnal circles) of sun and moon.
5. Jainas had attempted to reform the Vedānga Jyotiṣa quinquennial cycle. An extensive study of zadkiel (pancanga or five parts viz. tithi, i.e. lunar day, day, karana i.e. half lunar day, nakṣatra i.e. asterism and yoga i.e. combination) was also made. Nakṣatras (asterisms) were classified into kula (category), upkula (sub-category) and kulopa
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kula (Sub-sub-category) nakșatras depending upon their positions with respect to moon's position among asterisms at syzygies.
6. The phenomena of heliacal rising and setting of venus were keenly observed. The concept of vīthis (lanes) of venus among the different parts of lunar zodiac is peculiar to Jaina School of astronomy. Such kinematical studies of venus are parallel to those of planetary ephemerides of Seleucid and Menomides periods.
7. Jaina's cycles of eclipses viz. 42 eclipse months cycle of lunar eclipses and 48 eclipse years cycle of solar eclipses, are absolutely free from any foreign influence of Chaldean Saros or Metonic cycle.
8. Directions of lunar occultations with nakṣatras indicate a notion of celestial latitude of moon. Chatraticatra yoga (lunar occultation with Citra i.e. Virginis) has been illustrated in detail. Probably that was the time when reckoning of the first point of zodiacal circumference was shifted from winter solstice to Vernal equinox,
9. Jainas had a set theoretic approach, e.g., in classification of Jyotișikas (astral bodies).
10. Jainas used zigzag functions parallel to their use in Babylonian astronomy of Seleucid period.
11. Jainas had developed a technique of measuring celestial distances in terms of corresponding distances projected along the surface of earth. Variation of declination, celestial latitude of moon and diurnal paths of sun and moon were measured in an alike manner.
12. Astronomical instruments like gnomon, water psydra etc. were in use.
Obviously, irrespective of certain resemblances between Vedānga Jyotisa and Jaina astronomy, the latter represents a far advanced astronomical system over Vedānga Jyotişa. In the absence of knowledge of Jaina astronomy, a confusing link between Vedānga Jyotisa and Siddhāntic astronomy has been the product of certain similarities between Vedānga Jyotișa and Paitāmaha Siddhānta. Our findings in Jaina School of astronomy have opened up many new vistas of research in this field and thus the task of bridging the gap between Vedānga Jyotișa and Siddhāntic astronomy has been initiated on its progress. Consequently Pingree's views about Mesopotamian origin of ancient Indian mathematical astronomy become refutable. N.B.: For more details, see S.S. Lishk's Ph.D. thesis entitled “Mathe
matical Analysis of Post-Vedānga Pre-Siddhāntic Data in Jaina Astronomy' Panjābị University, Patiālā (January, 1977).
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Antiquity of the Ayaro (First Srutaskandha)
-Dr. Nathmal Tatia
1. The first Srutaskandha of the Āyāro represents an early phase of the ascetic ideology, and the language and metres of the work are directly derived from the Vedic idiom. The terminology used in the text is related to an earlier state of Nirgranthism and is at the same time the harbinger of its later development as a system of morality and religion with its own definite disciplinary code. The text opens with a passage which embodies the perennial concern of pholosophers, doubts that embarrass their minds. The cosmic doubt of the Vedic seer-kuta ājātā kuta iyam visssțih1 (from whence did it spring forth, from whence did this creation emanate ?)-finds its counterpart in the Āyāro's query about the self-ke aham āsī,ke vā cute peccā bhavissāmi? (what was I, what shall I be in the next birth after departure from here ?)—which is reminiscent of a heresay recorded in the Majjhima Nikāya<3 ayam nu kho satto kuto agato, SO kuhimgami bhavissati (wherefrom indeed this being came, where shall he go ?). Mortification of the flesh for the regeneration of the spirit is the quintessence of the philosophy of the Āyāro which is replete with exhortations to the spiritual aspirant to subjugate the passions through infinite endurance of hardships and relinquishment of worldly interests. "Stoutlyt ing the (unpleasant)sound and touch and subduing the lust for life, the saint, true to his saintliness, mortifies his body born of past karma ; he subsists on the stale and insipid (food), being courageous and equinamous; he is indeed the saint who has crossed the flood and is rightly designated as one 'who has crossed', 'who is emancipated', 'who has withdrawn himself'-thus do I say."4 In fact the biography of Mahāvīra in the Āyāro, chapter IX, which undoubtedly is the oldest and at the same time absolutely free from mythology, is an illustration of the extreme type of asceticism adumbrated in the text. We shall
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see in what follows the religio-moral spirit that characterized the age of Mahavira and has found vent through the pithy sayings and pregnant expressions which are so abundant in the work under review.
2. Now to come to the pithy sayings, they cover a large number of themes, namely, rejection of violence or non-violence, bondage and emancipation, fearlessness, friendship, attachment to life, atman in its empirical and transcendental aspects, mysticism, renunciation, ascetism, clusters of essentially connected concepts, prophetic injunctions (prajñāpanā), and such other subjects which offer copious insight into the moral and spiritual background of Mahāvīra's teachings.
(1) Non-violence: The man of violence (danda) is indeed he who is unmindful and addicted to worldly pleasures.5 Above, below, and in front, people indulge in violent activities against living beings individually and collectively in many ways; discerning this, a wise man neither himself inflicts violence on these bodies, nor induces others to do so, nor approves of their doing so. The unwise are sleeping, the wise are awake; know that pain is the cause of evil in the world; knowing the welfare of the world, one should eschew weapons of violence."
(2) Bondage and Emancipation: Bondage and emancipation are within yourself-baṁdha-pamokkho tujjhajjhattheva. Blinded and immersed in worldly pleasures, the fool with bondage unsevered and attachment not cut off, dwells in darkness, being ignorant, and is never able to get at the command." Attached to things sensual, they bewail bitterly, and on account of desires, fail to get at emancipation.10 Man, restrain thyself, and thus thou shalt be emancipated from suffering."1
(iii) Fearlessness : The unmindful is beset with fear on all sides for the unmindful, there is no fear from any side.12
(iv) Friendship: Man, thou art thy own friend, why wishest thou for a friend beyond thyself.13
(v) Attachment to Life: All beings are fond of life, they like pleasure, dislike pain, disfavour injury, wish for long life, long for survival; life is dear to all.14
(vi) Atman in its Empirical and Transcendental Aspects: There are beings who are blind, sunk in darkness; they experience ups and downs, indulging in an activity (anew) for the first time, or repeating it many times.15 Having contained the stream, and leaving the world, the great (soul) becomes free from karma and knows and perceives (the truth) and does not desire (anything), being introspective; having com
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prehended the coming and going, he crosses the path of birth and death, being established in perfection (viz. the state of emancipation). 16 For the seer, there is no need if instruction.17 Of one who is free from karma, there exists no description. It is karma that gives rise to (the necessity of) imposition (of characteristics). 18
(vii) Mysticism: The wise is neither bound nor liberated. 19 The ätman is the knower, and the knower is the ātman; that by which one knows is the atman.20 The liberated state is not expressible through language; and it is amenable to reasoning; intellect does not penetrate there; the passionless (atman) is conversant with the nature of 'what is without support' (viz. emancipation); he is neither long nor small
..........neither feminine nor masculine nor otherwise (neuter)......... there is no analogy; it is formless existence; there is no condition of the unconditioned;.21
(viii) Renunciation: Such person is rightly called 'houseless' who is straight-forward, follows the right path, and practises deceitlessness.22 Emancipated indeed are those who are gone to the other shore; conquering greed through non-greed, he does not addict to pleasures that might offer themselves; being free from greed, he renounces the world; ceasing to act, he knows and perceives (the truth) he has no desires because of his insight; he is rightly called the 'houseless'.23
(ix) Asceticism: The sixth chapter called dhuya-ajjhayana contains material which is definitely the precursor of the dhutanga of early Buddhism. Dhuta stands for austerities which wash away the passions. The sage who is well-versed in the dhamma and firm in the discipline of austerity (vidhutakappe) is always the destroyer of the effects of Karma; to a monk who has given up the garment, it does never occur: my clothes are torn, I shall beg for new ones....... such unclothed monk, while thus exerting himself in the discipline, is often exposed to the (harsh) touch of grass-blades, of cold, heat, gnats, and mosquitoes; he endures such other various hardships, remaining unclothed in order to move light; he is well-established in penance as propounded by the Exalted Ones; realising this in full and in all respects, he should rightly comprehend equanimity.24 Of the enlightened ones, the arms are emaciated and flesh and blood are reduced to the utmost.25 Look at (the state of) attachment; men are bound by fetters, sunk in spirit and overpowered by lust; be not, therefore, afraid of hardship. He who is perfectly and completely enlightened about the acts of violence and from whom even his robbers do not fear harm, is indeed one who has shaken off anger, pride, deceit
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and greed; he is indeed worthy being called 'the metamorphosed one' -thus I say, Such person, on account of his renunciation of the body, is considered as standing 'in the forefront of the battle'. He is indeed the sage who has reached the other side. Even on being killed, he stands still like a beam approached by death, courting death as the dissolution of the body-thus I say."26 This discipline unto death as finds its consummation in the eighth chapter called the vimohaajjhayana (chapter on liberation).
(x) The Clusters of Essentially Connected Concepts: Our text contains clusters of words connoting similar concepts which throw a flood of light on the evolution of those concepts-the history of their origin and the latter course of their development. Thus, for instance, the cluster-āyāvādī, logāvādī, kiriyāvādī (respectively, believers in soul world, karama, action)27 represent the early stage of the doctrine of soul and rebirth in Indian philosophy. Similarly, the bunch-pana (breathing), bhūta (existing), jīva (living), satta (sentient-creatures)28— indicates the dirvergent conceptions of the principle of soul in our ancient thought. On the other hand, the group-gamtha (bondage), moha (delusion), māra (death), niraya (hell)29 - stands for the cause as well as the state of worldly life in the earlier phase of the ancient religions of our country. In I, 2.4.92, the terms dukkha (suffering) and naraga-tirikkha (hell-animal) are found added. The clusterātavam, ṇaṇavam, veyavam, dhammavam, bambhavam (respectively, established in atman, knowledge, vedas, dharma, Brahman)30 refers to the state of inter-action of the Brāhmaṇa and Śramaņa cultures, which gave rise to an integrated Indian culture in later times. The highest achievements of the spiritual aspirant are grouped together in the bunch-samti (peace) virati (abstinence), uvasama (calmness), nivvaṇa (liberation), soyavipa (purity), ajjaviya (uprightness) maddaviya (modesty), laghaviya (lightness) antivattiya (non-tronsgression).31 The cluster-hiyam (good, suham (blissful), khemam (wholesome), nissesam (complete), anugamiyam (favourable)32-represents the different aspects of the ancient concept of the highest good, the sumum bonum of the spiritual disciplines. The firm conviction about a particular doctrine was expressed by any of the words-diṭṭhi (view), mutti (faith, cf. Pali adhimutti), purakkara dominant idea), sanna (notion), nivesana (persuation). 33
(xi) Prophetic Injunctions (Panṇavaṇā): Our text contains few excerpts which are given as universal injunctions of the Exalted ones, past, present, and future. These passages are definitely of a very great antiquity, if not the words of the Nayaputa himself. One such
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excerpt is given at the very outset of chapter IV, called SammattaAjjhayana. It runs as follows: Thus do I say-the Arahamtas (the Revered Ones) and the Bhagavamtas (the Lords) of the past, present and future, all say thus, enjoin thus (evam pannavante), explain thusall breathing, all existing, all living, all sentient creatures should not be killed, nor treated with violence, nor abused, nor tormented, nor driven away. This is the discipline which is pure, eternal, inalterable, and declared by the enlightened ones who have comprehcnded (the nature of) the world. Non-violence is always the theme of these injunctions.
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(To be concluded)
1. Rgveda, X, 129. 6. 2. I, 1, 1, 1, 2.
3. I, p. 12 (NNMEdn).
4. Ayaro, 1. 2. 6. 161-5 :
sadde ya phase ahiyāsamāṇa nivvimda namdim iha jiviyassa
muņi monam samādāya, dhuṇe kamma-sarīragaṁ
paṁtaṁ lūham sevaṁti vīrā samattadamisiņo
esa oghamtare muņi, tiņne mutte virate, viyähite tti bemi
5. ibid. I. 1. 4. 68-69:
virehim eyam abhibhūya diṭṭham, samjetehim
saya jatehim saya appamattehim
je pamatte gunaṭṭhie, se nu dande pavuccati
6. ibid. I, 8. 1. 17-18. :
uḍdham aham tiriyam disāsu, savvato savvävamti
ca nam padiyakkaṁ jīvehiṁ kamma-samāraṁbhe nam tam pariņņaya mehāvi ņeva sayaṁ etehim kāehim da ṇḍam samārambhejjā, nevannehim etehim käehim daṇḍam
samārambhavejja,
nevanne etehim kāehim daṇḍaṁ samārambhaṁte vi samaņujāņejjā
7. ibid. I, 3. 1. 1-3:
suttă amuņi sayā, muņņo sayā jāgaraṁti loyaṁsi jāņa ahiyāya dukkham samayam logassa jänittä, ettha satthovarae
8. ibid. I, 5. 2. 36.
9. ibid. I, 4. 4. 45:
nettehim palichiņṇehim, āyaṇasoya-gaḍhie bāle
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avvocchinnabamdhane, aṇabhikkamtasamjoe, tamamsi avijāṇao āņãe lambho natthi tti bemi 10. ibid. I, 6. 1. 7:
rūvehiṁ satta kaluņam thaṇamti,
niyāṇao te na labhamti mokkham
11. ibid. I, 3. 3. 64:
purisă! attāṇameva abhiņigijjha, evam dukkhā pamokkhasi 12. ibid. I, 3. 4. 75:
savvato pamattassa bhayaṁ, savvato appamattassa natthi bhayam
13. ibid. I, 3. 3. 62:
purisā ! tumameva tumaṁ mittam, kim bahiyā mittamicchasi ? 14. ibid. I, 2. 3. 63:
savve pāṇā piyāuyā suhasāyā dukkhapadikūtā appiyavahā piyajīviņo jīviukāmā
savvesim jïviyam piyam
15. ibid. I, 6. 1. 9-10:
samti pāņā aṁdhā tamamsi viyahiyā
tămeva saim asaim atiacca uccavayaphase paḍisaṁvedemti 16. ibid. I, 5. 6. 120-122:
viņaettu soyam ņikkhamm, esa mahaṁ akammā jāṇati pāsati padilehae ṇāvakaṁkhati, iha ägatim pariņṇāya accei jāi-maraṇassa vaṭṭamaggam vakkhāya-rae
17. ibid. I, 2. 3. 73:
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uddeso pasagassa natthi
18. ibid. I, 3. 1. 18-19:
akammassa vavahāro na vijjai kammuņā uvāhi jāyai
19. Ayaro, I, 5, 5, 104:
kusale puna no baddhe, no mukke
20. ibid. 5, 5, 104:
je äyä se viņṇāyā, je viņņāyā se āyā jeņa vijāṇati se āyā 21. ibid. I, 5. 6. 123-140:
savve sarā niyaṭṭamti takkā jattha na vijjai
mai tattha na gahiyā
oe appatiṭṭhāṇassa kheyanne
se na dîhe, na hasse....
na itthi, na purise, na anṇaha.......
uvamā na vijjae
arūvi sattā
apayassa payam natthi
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22. ibid. I, 1. 3. 35 :
se jahā vi aņagāre ujjukade niyāgapaļivaņņe amāyam
kuwvamāņe viyāhite 23. ibid. I, 1. 2. 2. 35-39 :
Vimukkā hu te jaņā je jaņā pāragāmiņo, lobhamalobheņa duguṁchamāṇe laddhe kāme ņābhigāhati vinā vi lobham ņikkhamma esa akamme jānati pāsati paạibhãe ņāvakamkhati;
esa añagāre tti pavuccati 24. ibid. I, 6. 3. 59-65 :
etam khu munī ādāņam sadā suakkhātadhamme vidhūtakappe njjhosaittā je acele parivusite tassa ņam bhikkhussa ņo evam bhavati-parijuņne me vatthe, vattham jāissāmi.... aduvā tattha parakkamamtam bhujjo acelam taņa-phāsā phusamti, sītaphāsa phusamti, teuphāsā phusamti, damsamasagaphāsa phusamti, egatare aņņayare virūvarūve phāse adhiyaseti acele lāghavam āgamamāne. tave se abhisamaņņāgae bhavati. jahetam bhagavatā paveditam tameva abhisameccā savvato
savvattāe sammattameva samabhijāniyā 25. ibid. I, 6. 3. 67:
ägayapaņņāņāņam kisā bāhā bhavami,
payaņue va mamsa-soņie. 26. ibid. I, 6. 5. 108-113 :
tamhā samgam ti pāsahā. gamthehim gadhita şarī visaņņā kāmakkamtā. tamhā lūhālo ņo pasivittasejjā. jassime ārambhā savvato savvatāe supariņņātā bhavamti jesime lusiņo ņo parivittasamti, se vamtā kodham ca māņam ca māyam ca lobham ca. esa tiųțțe viyāhite tti bemi.
kāyassa viyāvāe esa samgāmasise viyāhie, se hu paramgame munī, avi hammamāne phalagāvataţthi kālovaņīte
kamkhejja kālam jāva sarīrabhedo tti bemi. 27. ibid. I, 4. 7 1.
se āyāyādī logāvādi kammāvādi kiriyāvādī. 28. ibid. I, 4. 7. 1. 29. ibid. I, 1, 6. 134. 30. ibid. I, 3. 1. 4. 31. ibid. I, 6. 5. 102. 32. ibid. I, 8. 4. 61, 33. ibid. I, 5. 4. 68.
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34. ibid. I, 4. 1. 1. :
se bemi-je ya a tītā je ya paņuppaņņā je ya āgamissā arahamtā bhagavamtā te savve evamāikkhaməti, evam bhāsamti evam pņņavemti, evam parūvemti--savve pāņā savve bhūtā savve jīvā savve sattā ņa hamtayva, na ajjavetavyā, ņa parighettavvā, ņa paritāveyavvā, ņa uddaveyavvā. esa dhamme suddhe ņitie sāsae samecca loyam khetaņņehim pavedite.
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Journal of the Jain Vishva Bharati
Journal of the Jain Vishva Bharati is a quarterly bilingual research organ of the Jain Vishva Bharati, LADNUN and its year is April to March. It includes research papers on all subjects of Jainology-Religion, Philosophy, History, Archaeology and Arts cum Sciences. It includes section also on critin cal Editions of old Sanskrit, Prakrit Texts, Monographs, Reviews, Summary of articles published in journals etc. Papers on any branch of indology are acceptable but they must have some bearing on Jain culture, Contributions :
Learned papers written in English or Hindi pertaining to research on any of the above mentioned subjects can be considered for publication in the Journal.
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All correspondence should be addressed to : The Managing Editor-TULSI PRAJNA
Jain Vishva Bharati, LADNUN 341306 (Rajasthan)
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________________ Regd. NO. R. N. 8340/75 TULSI PRAJNA July-September, 1978 जैन विश्व भारती, लाडन महत्त्वपूर्ण प्रकाशन वाचना प्रमुख : आचार्य श्री तुलसी, विवेचक तथा सम्पादक : मनि श्री नथमलजी 8000 आगम ग्रन्थ : मुल्य 1. अंगसुत्ताणि 1 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) 85.00 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई : विआपण्णत्तो) 10.00 3. अंगसुत्ताणि 3 (णायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ,) अंणत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावागरणाइ, वियगसृयं) उपर्युक्त तीनों ग्रन्थ संशोधित मूलपाठ, पाठान्तर, पाठान्तर-विमर्श, जाव" पूर्ति और उसके आधारस्थल, विषयसूची, सम्पादकीय तथा भूमिका से युक्त, प्रत्येक भाग 1100-1200 पृष्ठि -4. दसवेलियं (द्वितीय संस्करण) पृष्ठ 612 साईज डिमाई; 85.00 5. ठाणं पृष्ठ 1200, 12500 6. आयारो-मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पण 30.00 7. दशवकालिक (गुटका) मूलपाठ 8. उत्तराध्ययन (गुटका) मूलपाठ 6. दशवकालिक तथा उत्तराध्ययन-मान हिन्दी अनुवाद 15.0 10. दशवकालिक, उत्तसध्ययन (हिन्दी-पद्यानुवाद) 10.00 प्रागमेतर ग्रन्थ : 1. श्रमण महावीर-मुनिश्री नथमल 16.00 2. भगवान महाबीर-आचार्य श्री तुलसी 5.00 3. भरतबाहवलि महाकाव्यं - अनु० मुनि श्री दुलहराज 30.00 4. सत्य की खोज : अनेकांत के आलोक में-मुनि श्री नथमल 5. थ्योरी ऑफ एटम इन जैन फिलोसफी-जे० एस० जवेरी 6. श्रेणिक बिम्बिसार एण्ड कृणिक अजातशत्रु 7. प्रतिदिन का एक विचार (गुटका)-श्रीचन्द रामपूरिया -:प्राप्ति स्थान : - जैन विश्व भारती, लाडनू (राजस्थान) Jain Vishva Bharati, Ladnun (Raj), 347306 प्रकाशक-मुद्रक : रामस्वरूप गर्ग, कार्यालय-सचिव, जैन विश्वभारती लाडनूं, श्याम प्रेस लाडन के लिए एस. नारायण एण्ड संस 7117/18 पहाड़ी धीरज दिल्ली में मुद्रित Farm room 0000 000000 ow 2009 000000 www.jardel