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________________ बैठकर औषधियों के द्वारा सर्प को निमन्त्रित किया । वह सर्प क्रोध के परिणाम को जानता था। यदि मैं मुंह की ओर से बाहर निकलता हूँ तो मेरी दृष्टि पड़ते ही बाहर वाले भस्म हो जायेंगे' – यह सोचकर वह उसके विपरीत, पूंछ की ओर से बाहर निकलने लगा । गरुड ने उसे पूंछ से लेकर सिर तक काट डाला । सर्प का जीव एक देवता द्वारा परिगृहीत था । उसने राजा को दर्शन देकर कहा - 'साँपों को मत मार । तुझे पुत्रलाभ होगा, 2 उसका नाम नागदत्त रखना । तपस्वी सर्प का जीव सम्यग् प्रकार से प्राण त्याग कर उस राजा का पुत्र हुआ । उसका नाम नागदत्त रखा । उसे जातिस्मृतिज्ञान प्राप्त था । बचपन में ही वह तथारूप श्रमणों के पास दीक्षित हो गया । पूर्वभव में तिर्यञ्च (पशु) योनि में होने के कारण उसे भूख बहुत लगती थी । वह प्रातःकाल से लेकर सूर्यास्त होने तक खाता रहता था । वह उपशांत और धर्म में श्रद्धानिष्ठ था । ( जिस गण में वह प्रव्रजित हुआ था) उस गण में चार तपस्वी थे । 1. चातुर्मासिक तप करने वाला । 2. त्रैमासिक तप करने वाला । 3. द्वं मासिक तप करने वाला । 4. एक मासिक तप करने वाला । एक दिन रात में देवी वन्दना करने आई । दरवाजे के पास मासिक तप करने वाला तपस्वी बैठा था । उसके आगे द्वं मासिक तप करने वाला, फिर त्रैमासिक और चातुर्मासिक तप करने वाले तथा अंत में वह बाल मुनि बैठा था । सब का उल्लंघन कर देवी ने उस बाल मुनि को वंदना की। दूसरे तपस्वी मुनि रुष्ट हो गये वन्दना कर देवी जाने लगी, तब चातुर्मासिक तप करने वाले तपस्वी ने देवी के वस्त्र के अंचल को पकड़ कर कहा – 'हे कटपूतने ! तपस्वियों को वंदना नहीं करती ? प्रातः काल से सूर्यास्त तक खाने वाले को वन्दना करती हो ?' । देवी ने कहा -- - " मैं भाव क्षपक ( आन्तरिक तपस्वी) को वन्दना करती हूँ, पूजासत्कार चाहने वाले अभिमानी तपस्वियों को वन्दना नहीं करती ।" वे सभी तपस्वी बालमुनि के प्रति एकान्ततः ईर्ष्यालु हो गए। वह देवी उस बालमुनि की रक्षा के लिये तथा तपस्वियों को प्रतिबोध देने के लिये बाल मुनि की सन्निधि में रही । दूसरे दिन बालमुनि प्रातराश लेकर आया और ईर्यापथिकी आलोचना कर चातुर्मासिक तपस्वी को निमंत्रित किया । उस दिन तपस्वियों के तपस्या का पारणा था । उस तपस्वी ने बालमुनि के भोजन - पात्र में थूक दिया । बालमुनि तत्काल बोला- 'मेरा अपराध क्षमा करें। मैंने ( समय पर ) आपको थूकने का पात्र नहीं दिया ।' उसने भोजन पात्र से ऊपर का हिस्सा निकाल कर थूकने के पात्र में डाल दिया । इसी प्रकार त्रैमासिक, द्वमासिक और मासिक तपस्या करने वाले तपस्वियों ने भी उसके भोजन-पात्र में थूक डाला । बालमुनि ने उस थूक को निकाल कर बाहर फेंक दिया। ज्योंही उसने कुसणियछाछ मिश्रित चावलों खण्ड ४, अंक २ १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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