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पूणि-कथा: (हिन्दी भाषान्तर)
तम्हें वन्दना कैसे करें ?
अनु मुनिश्री दुलहराज
एक तपस्वी वर्षा ऋतु में अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिये निकले । उनके द्वारा एक मेंढकी मर गई। शिष्य ने उनका ध्यान उस ओर खींचा। तपस्वी ने कहा-'यह तो पहले से ही मरी हुई थी।'
रात्रि में प्रतिक्रमण करते समय तपस्वी ने आलोचना नहीं की । तब शिष्य ने कहा'मेंढकी की आलोचना कर लें।' इतना कहते ही तपस्वी कुपित हो गए। उन्होंने थूकने का पात्र उठाया और शिष्य पर प्रहार करने दौड़े। वे खम्भे के एक कोने से वेगपूर्वक जा टकराए और नीचे गिर पड़े। भूमि पर गिरते ही उनकी मृत्यु हो गई और वे ज्योतिष्क देव में जा उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे दृष्टिविष सों के कुल में दृष्टिविष सर्प हुए।
पार्श्ववर्ती नगर में राजपुत्र को एक सर्प ने डस लिया। एक गारुडिक ने मंत्रों द्वारा सों को एक मंडल में एकत्रित कर कहा - 'जिस सर्प ने राजकुमार को डसा है वह इस मंडल में रहे, शेष सब चले जायें ।' सब चले गये। एक सर्प वहाँ रहा । उसे अग्नि के पास ले जाकर गारुडिक ने कहा – 'या तो विष को पुनः चूस ले या अग्नि में प्रवेश कर जा।'
सर्प दो प्रकार के होते हैं - गंधन और अगंधन । अगन्धन सर्प उत्तम और अहंकारी होते हैं । वह अगन्धन सप था। वह अग्नि में कूद पड़ा, किन्तु उसने विष को नहीं चूसा।
राजपुत्र मर गया । कुपित होकर राजा ने यह घोषणा करवाई—'जो कोई सर्प का सिर लाएगा, मैं उसे एक दीनार (सिक्का) दूंगा।' दीनार के लोभ से लोग सों को मारने लगे। जिस सर्प-कुल में तपस्वी उत्पन्न हुआ था, उस कुल को जातिस्मति ज्ञान (पूर्वजन्मों का ज्ञान) उपलब्ध था। उस कुल के सर्प - दिन में हम किसी को भस्म न कर दें'- इस विचार से रात को बाहर निकलते थे । गारुडिक भी सों की खोज कर रहे थे। एक दिन रात्रि में उन्होंने गंध से पूर्वजन्म के तपस्वी सर्प का बिल देख लिया। उन्होंने बिल के पास
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तुलसी प्रज्ञा
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