________________
(i) एकत्व प्रत्यभिज्ञा (ii) सादृश्य प्रत्यभिज्ञा
(iii) वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञा (iv) प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञा
बौद्ध दर्शन तर्क को अप्रमाण मानता है । नैयायिक इसको प्रमाण के अनुग्राहक रूप में स्वीकार करते हैं । जैन तर्क पद्धति में यह परोक्ष प्रमाण का एक भेद है ।
प्रमाण चर्चा के प्रसंग में अनुमान का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इसमें तर्कशास्त्र के बीज अंकुरित होकर अपने अस्तित्व को दृढ़ता प्रदान करते हैं । अनुमान की पांच धाराएं हैं-पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन | स्वार्थानुमान में पक्ष और हेतु इन दो से ही काम चल जाता है, किन्तु परार्थानुमान में दृष्टान्त, उपनय और निगमन का भी सहारा लेना होता है । इस प्रकार अनुमान प्रमाण पंचात्मक हो जाता है ।
1
अनुमान प्रमाण परोक्ष ज्ञान का अंग है । परोक्ष ज्ञान पांच इन्द्रियों व मन से अनुबन्धित है । छद्मस्थ व्यक्तियों के पदार्थज्ञान का माध्यम यही बनता है। कुछ विचारक परोक्ष ज्ञान को इन्द्रियग्राही और अविशद होने के कारण अप्रमाण मानते हैं । किन्तु अधिकांश विद्वान् इसे प्रमाण मानने के पक्ष में है, क्योंकि पदार्थ ज्ञान में पराधीन होने पर भी यह प्रत्यक्ष ज्ञान जितना ही सुदृढ़ होता है, अर्थ की निर्णीति का माध्यम बनता है । अत: परोक्ष ज्ञान के प्रामाण्य में सन्देह का अवकाश नहीं है ।
परोक्ष ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहा गया है— परदो विण्णाणं परोक्खं' जो ज्ञान पर द्रव्य अन्तःकरण, इन्द्रिय, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार प्रकाश आदि बाह्य निमित्तों के योग से प्राप्त होता है, वह परोक्ष ज्ञान है ।
इन्द्रिय ज्ञान व्यवहार में प्रत्यक्ष जैसा प्रतीत होता है, किन्तु निश्चय नय की दृष्टि से वह परोक्ष है । उसका परोक्षत्व केवलज्ञान की अपेक्षा से है ।
प्रत्यक्ष ज्ञान असहाय होता है । उसे वस्तु के अवबोध में किसी अन्य साधन के सहयोग की अपेक्षा नहीं रहती । प्रत्यक्ष ज्ञान के सकल, विकल, पारमार्थिक, सांव्यावहारिक; इन्द्रिय- प्रत्यक्ष, अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष आदि भेदों के साथ सैद्धान्तिक दृष्टि से भी दो भेद हैंक्षायिक प्रत्यक्ष और क्षायोपशमिक प्रत्यक्ष |
केवलज्ञान क्षायिक प्रत्यक्ष है । इसमें ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होता है । सार्वदिक् और सम्पूर्ण क्षय सर्वग्राही ज्ञान अनावृत हो जाता है । केवलज्ञान की तुलना में अन्य सभी ज्ञान विकल हैं, अत: सकल प्रत्यक्ष की संज्ञा का अधिकारी एक मात्र केवलज्ञान ही है ।
अवधिज्ञान और मन. पर्यवज्ञान को विकल इस दृष्टि से कहा जाता है कि वे मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों तथा पर्यायों के अवबोधक नहीं बनते, किन्तु ये भी अपारमार्थिक ज्ञान नहीं है क्योंकि इनका विषय है मूर्त द्रव्यों और पर्यायों का अवबोध करना । अपने विषय के ग्रहण में इनकी किचित् भी अक्षमता नहीं है इसलिये ये पारमार्थिक ज्ञान हैं । इस सन्दर्भ में पारमार्थिकता का अर्थ सब अर्थों को अपना विषय बनाना नहीं है, किन्तु जो अपना विषय
खण्ड ४, अंक २
१०.१ www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only