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________________ है उसकी परिपूर्णता और निर्मलता है । अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान अपने विषय की पूर्ण निर्मलता में प्रतिष्ठित है, अतः दोनों पारमार्थिक हैं। पारमार्थिक ज्ञान के प्रसंग में यह बताया गया है कि इन्द्रिय और अन्तःकरण-निरपेक्ष ज्ञान पारमार्थिक है। एक प्रश्न उठ सकता है कि उपकरण सामग्री के अभाव में ज्ञान कैसे हो सकता है ? क्या कोई शिल्पी छैनी के बिना मूर्ति को तराश सकता है ? तूलिका के बिना चित्र बना सकता है ? और कलम के बिना लिख सकता है ? सामान्यत: ये तर्क सही प्रतीत होते हैं । प्रतिमा, चित्र और लेखन के लिये छैनी, तूलिका, कलम आदि साधन सामग्री अपेक्षित रहती है पर विशिष्ट व्यक्ति अपनी साधना के बल से संकल्प द्वारा भी इन वस्तुओं को निर्मित कर सकते हैं । इसी प्रकार साधारण आत्माएं इन्द्रियों और मन के सहयोग के बिना ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकतीं, किन्तु जिन आत्माओं के ज्ञानावरण का क्षय या विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है वे इन्द्रिय और मन आदि बाह्य सामग्री के सहयोग के बिना भी स्वसापेक्ष सम्पूर्ण अवबोध की यात्रा कर सकती हैं। पापायतन पद णव पावसायतणा पण्णता, तं जहा-पाणातिवाते, मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे । पाप के आयतन (स्थान) नौ हैं :-(1) प्राणातिपात (2) मृषावाद, (3) अदत्तादान, (4) मैथुन, (5) परिग्रह, (6) क्रोध, (7) मान, (8) माया, और (७) लोभ । -ठाणं 9/26 १०२ तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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