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ज्ञान को प्रमाण मानकर उसके भेद प्रभेदों की लम्बी चर्चा की गयी है पर कुछ आचार्यों ने ज्ञान और ज्ञानी में अभेद कल्पना करके ज्ञानी को ही प्रमाण कह दिया है
"निर्बाध-बोध-विशिष्ट आत्मा प्रमाणम्"
संशय, विभ्रम और विमोह से ऊपर उठी हुयी आत्मा ही वस्तु का यथार्थ ज्ञान करती है और वह ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है।
प्रमाण यथार्थ ज्ञान है, अत: वह सत्य ही होता है, किन्तु उसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिये कुछ हेतुओं की अपेक्षा रहती है । तथ्य के साथ सांगत्य, अबाधि-तत्त्व, अप्रसिद्ध-अर्थख्यापन या अपूर्व-अर्थप्रायण, अविसंवादित्व या संवादी-प्रवृत्ति, प्रवृत्ति-सामर्थ्य या क्रियात्मक-उपयोगिता ये सब हेतु हैं, जो दार्शनिकों द्वारा सम्मत रहे हैं।
प्रमाण (ज्ञान) के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है और निर्णीति स्वतः तथा परतः दोनों प्रकार से होती है। उत्पत्ति में निमित्त सामग्री प्रामाण्य और अप्रामाण्य का आधार बनती है । गुणवत् सामग्री प्रामाण्य और दोषवत सामग्री से अप्रामाण्य की उत्पत्ति होती है।
प्रामाण्य का निश्चय स्वत: भी हो सकता है और परतः भी। अभ्यास की परिपक्वता में वस्तु ज्ञान के साथ ही निश्चय हो जाए कि मेरा जानना सही है, यह स्वतः निश्चय है। जहाँ अपने ज्ञान के प्रति पूरा भरोसा नहीं होता वहाँ उसकी सत्यता प्रमाणित करने में संवादी प्रमाण अथवा बाधक के अभाव से प्रामाण्य का निर्णय होता है।
जैन दर्शन के अनुसार प्रमाणों का मौलिक वर्गीकरण इस प्रकार होता है-प्रमाण के दो भेद हैं -प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण वह होता है जो सहाय-निरपेक्ष होता है। उसके दो भेद हैं-व्यवहार प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । व्यवहार प्रत्यक्ष के चार प्रकार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणा।
अवग्रह में वस्तु का सामान्य अवबोध होता है । संशय के उत्तरकाल में अन्वयव्यतिरेकात्मक निर्णयोन्मुख ज्ञान को ईहा कहते हैं । निर्णयात्मक ज्ञान अवाय है और चेतना में उसकी अवस्थिति धारणा है । ये चारों ऋमिक होते हैं और उत्तरोत्तर विशद ज्ञान के निमित्त हैं।
परमार्थ प्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं - सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । सकल प्रत्यक्ष पूर्ण प्रत्यक्ष है, यह केवल ज्ञान है। विकल प्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान कहलाता है।
__ परोक्ष प्रमाण वह है जिसका इन्द्रिय और मन के सहयोग से ज्ञान होता है। वह द्विविध है-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान ये मतिज्ञान के चार भेद हैं।
जैन दर्शन के अतिरिक्त किसी भी दर्शन में स्मृति आदि का प्रामाण्य नहीं है। नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि प्रत्यभिज्ञा को प्रत्यक्ष से भिन्न नहीं मानते।
प्रत्यभिज्ञा के चार रूप हैं
तुलसी प्रज्ञा
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