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________________ गद्यात्मक चरित एवं रोमांस-वसुदेवचरित या वसुदेव-हिंडी भारतीय साहित्य में प्रथम गद्य-चरित एवं गद्य रोमांस कथा है । पद्यात्मक-चरित-चरित-शीर्षक वाली पद्यात्मक कृतियों में पउमचरियं और पउमचरिउ प्रथम रचनाएं हैं। चम्पूकाव्य-चम्पू काव्यों में समराइच्चकहा और कुवलयमाला का उपलब्ध साहित्य में प्रथम स्थान है। अपभ्रंश की नवीन विधाए-उत्तर अपभ्रंश अथवा अवहट्ट भाषा में जो नवीन प्रकार का साहित्य रचा गया वह श्रमणों का ही विपुल साहित्य है, श्रमणेतर साहित्य बहुत कम मिलता है और वह भी बाद का है। यह साहित्य दोहासाहित्य, रास, फागु, चूनडी, चर्चरी, बारहमासा इत्यादि है । चरित-संग्रह : इस प्रकार की रचनाओं में अनेक महापुरुषों के चरित एक ही ग्रंथ में दिये हुए होते हैं । चउप्पन्नमहापुरिसचरियं, कहावली, तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु इत्यादि ऐसे ग्रन्थ हैं । पालि का बुद्धवंस भी इसी प्रकार की रचना है । ये रचनाएँ पुराण भी कहलाती है परंतु इनकी कुछ विशेषता है । पुराणों में शैलीगत शिथिलता और कहीं-कहीं पर अव्यवस्था और पुनरावर्तन भी होता है । चरित के अलावा कितने ही अन्य पौराणिक विषयों का वर्णन भी होता है । हरेक पुराण में मुख्य पात्र के रूप में एक या दो अवतारों का ही वर्णन होता है और काव्यात्मक शैली के सामान्यतः दर्शन नहीं होते। जव कि इन चरितसंग्रहों में अन्य पौराणिक बातें छोड़ कर मात्र महान पुरुषों के जीवन-चरित का एक ही जगह पर संग्रह होता है और उन्हें सामान्य या विशेष काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है । इस प्रकार ये रचनाएं एक प्रकार से न्यूनाधिक रूप में पुराण और काव्यात्मक शैली का मिश्रण लिए हुए हैं। उपहासात्मक कथा : हरिभद्र सूरि का धूर्ताख्यान इसी प्रकार की प्रथम स्वतंत्र और बेजोड़ उपहासात्मक रचना है जिसमें कथाओं द्वारा अन्धविश्वास पर व्यंग्य किया गया है । संख्यात्मक-वर्गीकरण : अंगुत्तरनिकाय, स्थानांग, समवायांग इत्यादि में अनेक विषयों की जानकारी संख्यात्मक पद्धति में दी गयी है । इस प्रकार का कोई स्वतंत्र श्रमणेत्तर ग्रंथ ध्यान में नहीं है। संवादात्मक-सिद्धान्त-चर्चा : पालि भाषा का मिलिन्दपञ्हो एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें मान दार्शनिक विषय को संवादात्मक रूप में और सुन्दर काव्यात्मक व सुव्यवस्थित ढंग से एक ही ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है । इसकी विशेषता यह है कि इसमें अन्य कोई विषयों की चर्चा नहीं है । इस प्रकार का इसके पहले का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। रूपकात्मक-काव्य : मयणपराजयचरिउ में काम, मोह, अहंकार, अज्ञान, राग द्वेष, जिनराज आदि को पात्र बनाया गया है और अन्त में जिनराज मुक्तिरूपी अंगना से विवाह करते हैं । यह पन्द्रहवीं शती की हरिदेव की रचना है । इस शैली के नाटक तो इससे भी प्राचीन मिलते हैं परंतु ऐसा कोई काव्य ख्याल में नहीं आया है। तुलसी प्रज्ञा Jair Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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