________________
कर्म-साहित्य : इस प्रकार का साहित्य तो श्रमण-परंपरा में ही उपब्ध है । अभिधम्म में सूक्ष्म चित्त-विश्लेषण पाया जाता है और जैनों के महाबंध, कम्मपयडी इत्यादि में कर्म का सूक्ष्म विवेचन पाया जाता है।
द्वयाश्रय-काव्य : इस काव्य की यह विशेषता है कि इसमें कुमारपाल के चरित के साथ प्राकृत व्याकरण के नियम भी समझाये गये हैं । जनों के सिवाय अन्य किसी की ऐसी कृति नहीं मिलती है जिसमें इस प्रकार प्राकृत व्याकरण समझाया गया हो।
ध्याकरण : हेमचन्द्रसूरि का प्राकृत व्याकरण ही प्रथम ऐसा व्याकरण है जिसमें सभी साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का (पालि के सिवाय) समावेश करते हुए उन्हें विस्तारपूर्वक समझाया गया है।
छन्द : स्वयंभूछन्दस् में प्राकृत और अपभ्रंश छन्दों का सर्वांगीण निरूपण मिलता है। हेमचन्द्र का छन्दानुशासन भी श्रेष्ठ छन्द ग्रंथ माना गया है जिसमें उस उस भाषा में नाम सहित उदाहरण दिये गये हैं।
शब्द कोस : पाइयलच्छीनाममाला और देशीनाममाला ही प्राकृत के शब्द कोष हैं। इनकी रचना जैनों ने की हैं।
3. उपलब्ध संस्कृत साहित्य में श्रमणों का महत्त्वपूर्ण प्रदान :
संस्कृत भाषा में साहित्य निर्माण करने में श्रमण लोग पीछे नहीं रहे । भाषा विशेष के प्रति कदाग्रह या मोह नहीं होने के कारण संस्कृत भाषा में भी उन्होंने लगभग सभी प्रकार की विधाओं में साहित्य का निर्माण किया। उन सब प्रकार के साहित्य के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है । उपलब्ध भारतीय संस्कृत साहित्य में श्रमणों की संस्कृत कृतियों का कुछ महत्वपूर्ण प्रदान इस प्रकार है :
नाटक : अश्वघोष का शाटिपुनप्रकरण प्रथम नाटक समझा जाता है। उन्हीं का एक रूपकात्मक नाटक खंडित अंशों में उपलब्ध है उसका भी नाटक साहित्य में प्रथम स्थान है।
__ ललित-काव्य : अश्वघोष का बुद्धचरित प्रथम ललित काव्य माना जाता है। चरित संज्ञा वाले काव्यों या कृतियों में भी इस को प्रथम स्थान प्राप्त है।
उपदेशात्मक कथा-काव्य : इस वर्ग में अवदान-शतक, दिव्यावदान आदि को प्रथम स्थान मिलता है। इसमें त्याग, दान, पुण्य, पाप आदि और पूर्व कर्मों का फल दिखाया गया है ।
रूपकात्मक-कथा-काव्य-उपमितिभवप्रपञ्चाकथा जिसकी रचना ई० स० 906 में हुई है संस्कृत साहित्य में इस प्रकार की यह अद्भुत रचना मानी जाती है।
सुभाषित संग्रह - "कवीन्द्रवचनसमुच्चय" 10वीं शती के अन्त की एक बौद्ध रचना है जिसमें अलग-अलग विषयों पर सुभाषितों का संग्रह है । यह इस प्रकार की प्रथम रचना मानी जाती है । नन्दन का प्रसन्नसाहित्य-रत्नाकर इसका अनुकरण माना जाता है।
स्तोत्र - काव्यात्मक शैली में लिखे गये स्तोत्रों में मातृचेट का चतु: शतकस्तोत्र, शतपञ्चाशतिकस्तोत्र इत्यादि और सिद्धसेन का कल्याणमन्दिर स्तोत्र तथा समन्तभद्र का स्वयंभू-स्तोत्र प्राचीन गिने जाते हैं । शंकर के स्तोत्र और बाण के चण्डीस्तोत्र आदि का नम्बर बाद में आता है।
खण्ड ४, अं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org