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द्विसन्धान काव्य - धनञ्जय का "राघवपाण्डवीय" काव्य इस प्रकार की रचना है जिसमें हिन्दू रामायण और महाभारत दोनों कथाओं का अर्थ घटित होता है । इसका समय 9वीं से 11वीं शती माना जाता है । इस कोटि की सन्ध्याकरनन्दि की रचना "रामपालचरित" है जिसमें बंगाल के राजा रामपाल तथा रामचरित का वर्णन है। इसका समय 11वीं शती के बाद का है ।
शब्दकोष - "अमरकोष" संस्कृत का प्रथम कोष है जो एक बौद्ध कृति मानी जाती है ।
दर्शन संग्रह - हरिभद्र सूरि का " षड्दर्शनसमुच्चय" पहला ग्रंथ है जिसमें एक साथ अनेक दर्शनों का विवरण मिलता है । सर्वदर्शनसिद्धान्तसंग्रह, सर्वदर्शनसंग्रह और सर्वमतसंग्रह बाद के हैं । हरिभद्र के ग्रंथ में जैन, बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, जैमिनीय (पूर्वमीमांसा ) और लोकायत दर्शनों का वर्णन है ।
योग प्रक्रिया - असङ्ग का “योगाचारभूमि" ( तीसरी-चौथी शती) योग प्रक्रिया का प्रथम ग्रंथ माना जाता है ।
चरित-संग्रह - यह सभी पौराणिक महान् पुरुषों के चरितों को एक ही कृति में ग्रन्थस्थ करने की पद्धति है । जिनसेन- गुणभद्र का महापुराण और हेमचन्द्र का त्रिषष्ठिशाला का पुरुष चरित उल्लेखनीय हैं। ऐसे ग्रन्थों की जो विशेषता है वह ऊपर बतला दी गयी है ।
उपहासात्मक कथा - इस प्रकार की कथाओं को एक ही कृति में ग्रन्थस्थ करने की यह विशेष पद्धति है । अमितगति द्वारा रचित धर्मपरीक्षा नामक ऐसा ही 10वीं शती का ग्रंथ है जिसमें अंधविश्वास पर व्यंग्य कसा गया है ।
पादपूर्ति काव्य - अन्य रचनाओं के पद्यों में से अन्तिम चरण लेकर अपनी तरफ से प्रारंभिक तीन चरण जोड़कर ये काव्य कृतियाँ बनायी गयी हैं । मेघदूत के आधार पर जिनसेन का पार्श्वभ्युदय काव्य, शिशुपालवध के आधार पर ( 17वीं शती) मेघविजयगणि का देवानन्द महाकाव्य और नैषधचरित के आधार पर शान्तिनाथ चरित्र ऐसी ही काव्य कृतियाँ हैं ।
पादपूर्ति स्तोत्र - ये स्तोत्र प्राचीन स्तोत्रों के पद्यों के अन्तिम चरण के आधार पर बनाये गये हैं । कल्याणमन्दिर स्तोत्र के आधार पर भानुप्रभसूरि ( 1734 ई० स० ) का जैनधर्म- वरस्तोत्र, भक्तामरस्तोत्र के आधार से समयसुन्दरगणि ( ई० स० 1623 ) का ऋषभ - भक्तामर, स्तोत्र अजैन शिवमहिम्नस्तोत्र के आधार पर ऋषिवर्धनसूरि ( 15वीं शती) का समस्या महिम्नस्तोत्र इत्यादि अनेक स्तोत्र मिलते हैं ।
विज्ञप्ति पत्र -- प्रभाचन्द्रीय विज्ञप्ति पत्र (ल० 1200 ई० स० ) प्रभाचन्द्रसूरि द्वारा बड़ौदा से यह पत्र भानुप्रभसूरि पर लिखा गया है और इसकी शैली अलंकृत काव्यमय है । इस प्रकार के अनेक विज्ञप्तिपत्र 18वीं शती तक के मिलते हैं ।
कथाकोष—ये अनेक लघु कथाओं के संग्रह हैं जिनमें धार्मिक उपदेश देते हुए पुण्य और पाप का फल दिखाते हुए तथा विनय, दान, शील, संयम, तप इत्यादि के सुफल स्वरूप
तुलसी प्रज्ञा
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