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दृष्टान्त के रूप में कथाएँ कही गयी हैं। इस प्रकार के अनेक ग्रंथों की रचना पद्य और गद्य में हुयी हैं । हरिषेण (ई० स० 132) का बृहत्कथाकोष (पद्य) और प्रभाचन्द्र (13वीं शती) का कथाकोष उदाहरण रूप हैं। काव्यात्मक दृष्टि से इनका इतना महत्त्व नहीं है जितना उपदेशात्मक दृष्टि से है।
द्वयाश्रय काव्य -- द्वयाश्रयी काव्य के रूप में "भट्टिकाव्य" प्रथम गिना जाता है । हेमचन्द्राचार्य का कुमारपाल चरित बाद का है परंतु इसकी विशेषता इतनी है कि इसमें सिद्धहेमशब्दामुशासन के सूत्र क्रमपूर्वक दिये गये हैं और इसमें पौराणिक कथा के स्थान पर ऐतिहासिक सोलंकी वंश का वर्णन किया गया है।
. अनेकसन्धान काव्य-मेघविजयगणि (ई० स० 1703) ने सप्तसन्धान काव्य की रचना की है जिसमें नौ सर्ग और 442 श्लोक हैं। उसमें ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर तथा राम और कृष्ण का वर्णन है ।
सोमप्रभाचार्य (ई० स० 1177) का शतार्थकाव्य है जिसमें जैन तीर्थंकर, हिंदूदेव, अनेक राजा इत्यादि का वर्णन एक ही पद्य से फलित होता है। इसे समझाने के लिए उनकी अपनी ही उस पर वृत्ति है।
छन्द -हेमचन्द्र का "छन्दानुशासन" सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। इसे पूर्ववर्ती ग्रंथों को ध्यान में रखकर रचा गया है । यह सबसे अधिक परिपूर्ण और अधिक विस्तृत है । उदाहरणों में ही उन-उन छन्दों का नाम दिया गया है । आधुनिक भाषा-साहित्य को श्रमणों की देन
लगभग 12वीं से 14वीं शती तक उत्तर भारत की आर्य भाषाओं में काफी परिवर्तन आया । मध्यकालीन भाषाओं और आधुनिक भाषाओं का यह संधि काल माना जाता है। इस दरम्यान अनेक गेयात्मक नवीन लोक विधाओं का अद्भव हुआ और श्रमणों (जैनों) ने उन्हीं विधाओं में साहित्य का सृजन किया। इस काल की भाषा को अवहट्ट अथवा उत्तरकालीन अपभ्रश भी कहते हैं । पश्चिमी प्रदेश की भाषा को पश्चिमी राजस्थानी/ पुरानी गुजराती, मारु-गोर्जर, गौर्जर अपभ्रंश भी कहा गया है । इस पश्चिमी भाषा का वीं से 14वीं शती तक का साहित्य अधिकतर जैनों का ही रहा है और इस युग को जैन रासा युग कहा जाता है । इस युग में रास, चर्चरी, फागु, बारहमासा, छप्पय, विवाहलु, चउप्पई, कक्क, वर्णक, छन्द, विनती, धवलगीत, संवाद इत्यादि अनेक प्रकार की रचनाएं लिखी गयीं।
इस साहित्य के विषय तो लगभग परंपरागत ही थे जैसे पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक पुरुषों का चरित, रूपकात्मक और लौकिक कथाएँ, तीर्थ, प्रतिष्ठा, पूजा, स्तुति; सुभाषित, तत्त्वज्ञान संबंधी साहित्य और उपदेशात्मक साहित्य । गद्य शैली में कथाए, दार्शनिक चर्चा, धर्मसंवाद, वादविवाद, प्रश्नोत्तरी, व्याकरण इत्यादि का साहित्य मिलता है।
इस साहित्य की परंपरा 18वीं शती तक चलती रही और इसमें जैनों का योगदान लगातार बना रहा। इस युग की प्राचीनतम कृतियां इस प्रकार हैं जो सभी जनों की रचनाएं हैं:रास-भरतेश्वरबाहुबलिघोर-वज्रसेनसूरि
(1169) भरतेश्वरबाहुबलिरास-शालिभद्र
(1185) फाग-जिनचन्द्रसूरिफागु
(1285) खण्ड ४, अंक २
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