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भद्रबाहु ने इसी दृष्टि से कहा है कि जो प्रमत है उसके योग निमित्त से जिन सत्त्वों का व्यापादन होता है नियम से वह उनका हिंसक है। (इतना ही नहीं) जिन सत्त्वों का वह व्यापादन नहीं करता नियम से वह उनका भी हिंसक होता है, क्योंकि वह पुरुष प्रयोगतः --मन-वचन-काय से सावध-पापी होता है। निश्चय से आत्मा ही अहिंसा और आत्मा ही हिंसा है । जो अप्रमत्त होता है वह अहिंसक है । जो उससे भिन्न है अर्थात् प्रमत्त है वह हिंसक है।14
यह लोक जीवों से खचाखच भरा है । तब महाव्रतधारी सर्वगुण सम्पन्न नग्न मुनि भी हिंसक कैसे नहीं होगा ? इस शंका का उत्तर देते हुए भद्रबाहु ने कहा है-'त्रिलोकदर्शी जिनों ने जीव-निकाय से संस्तृत-व्याप्त इस लोक में अध्यात्म-विशुद्धि से ही अहिंसकत्व की देशना की है ।'15 कहने का आशय यह है कि मुनि के लिए अहिंसकत्व अनहिंसकत्व की कसौटी अध्यात्म-शुद्धि है। जिसके अध्यात्म-शुद्धि है वह मुनि जीवों से खचाखच भरे लोक में अहिंसक है, जिसके अध्यात्म-विशद्धि नहीं वह यदि जीवों से शून्य लोक में भी हो तो हिंसक होगा। कहा भी है-पुण पमत्तोऽवि देव जोगेता कहपि तप्पएसे पाणिणो नासी, एस तइयो अशुद्धो य ।' यदि कोई मनुष्य देव प्रयोग से ऐसे प्रदेश में भी पहुंच जाए जहां कोई जीव न हो तो भी यदि वह प्रमत्त है तो वह अशुद्ध है-हिंसक है।
आगे जाकर भद्रबाहु ने एक बड़ी गंभीर बात कही है । वे कहते हैं- 'समस्त गणिपिटक के खींचे हुए सार से जो युक्त है, जो निश्चय का अवलम्बन कर चलने वाले हैं उन ऋषियों का यही परम रहस्य है कि पारिणामिक भाव, शुद्ध-अशुद्ध चित्त परिणाम, ही प्रमाण है- वही हिंसा अहिंसा का निर्णायक है । पर कई निश्चय का अवलम्बन कर निश्चय को निश्चयपूर्वक नहीं जानते हुए बाह्यकरण में-बाह्यक्रिया में- आलसी- अयत्नवान् हो चरणकरण का नाश कर डालते हैं ।'16
14. ओघनियुक्ति गा० 753 से 755 :
जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड्डुच्च जे सत्ता। . वावज्जते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ । जेवि न वावज्जती नियमा तेसिपि हिंसओ सो उ । सावज्जो उ पओगेण सव्वभावओ सो जम्हा ।। आया चेव अहिंसा आया हिंसत्ति निच्छओ एसो।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ हिंसओ इयरो॥ 15. ओघनियुक्ति गा० 748 :
अज्झप्पविसोहीए जीवनिकाएहिं संथडे लोए।
देसियमहिंसगत्तं जिणेहिं तेलोक्कदंसीहिं ॥ 16. ओघनियुक्ति गा० 761-62
परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरितसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयम वलं बमाणाणं ।। निच्छयमवलंबंता निच्छयओ निच्छयं अयाणंता । नासंति चरण करणं बाहिरकरणालसा केइ ।
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तुलसी प्रज्ञा
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