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इसका तात्पर्य है - यह ठीक है कि विहित कार्य करने वाले साध को उसके निमित्त से हो जाने वाले प्राणि-घात का पाप नहीं लगता, क्योंकि अध्यात्मतः वह निष्पाप होता है, उसके हिंसा का परिणाम नहीं होता । पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह बाह्यघात से बचता हुआ न चले । अगर वह अपनी क्रिया में आलसी-पूर्ण यतनावाला नहीं होता तो उस हालत में परिणाम-शुद्धि की दलील उसके लिए काम नहीं दे सकती । कहा भी है -"परिणाम एव बाह्यक्रिया रहितः शुद्धो न भवति"- बाह्य क्रिया रहित केवल परिणाम भी शुद्ध नहीं होता। ऐसी स्थिति में जहाँ निश्चय नय से यह मानना उचित है कि जीवों से व्याप्त इस लोक में अध्यात्म-विशुद्धि से ही हिंसा-अहिंसा का निर्णय होता है। वहां यह भी समझ लेना नितान्त आवश्यक है कि जो बाह्य वध से बचने में प्रमाद दिखाता है, अपनी यतना में आलसी या प्रमादी है, सूत्र विधि से वर्तन नहीं करता, अविहित कार्य करता है वह साधु भी निश्चय से हिंसक है और पाप-भाक् है । इस तरह प्रथम भंग का पात्र साधु भी निश्चय-व्यवहार दोनों को स्वीकार कर चले। 2-भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं :
___ इस भंग को प्राचीन आचार्यों ने भिन्न-भिन्न रूप से समझाया है । थोड़े से अभिप्राय नीचे दिए जा रहे हैं :
(1) भद्रबाहु के अनुसार जो पुरुष प्रमत्त है वह सदा हिंसक अथवा वधिक है। जिन सत्त्वों का व्यापादन नहीं करता वह नियम से उनका भी हिंसक होता है क्योंकि वह प्रयोगतः सर्वभाव से सावध होता है ।17 उनके मत से जहां प्रमाद है वहां द्रव्य हिंसा न होते हुए भी भाव हिंसा अवश्य होती है।
(2) संघदास गणि ने लिखा है : "भावतः हिंसा असंयतियों के तथा उन संयतियों के जो समितियुक्त नहीं होते, उन जीवों के प्रति होती है जिनका वे कभी वध नहीं करते।"18
जैन शास्त्रों में मनुष्यों की तीन श्रेणियां की गई हैं-(1) संयती (2) असंयती और (3) संयता संयती । संयती अर्थात् सर्वविरत साधु । असंयती अर्थात् जिसके पापों की थोड़ी भी विरति न हो । संयतासंयती अर्थात कुछ विरति हो, कुछ विरति न हो। संघदासगणि के अनुसार दूसरा भंग इस प्रकार घटित होता है।
(अ) जो संयती है पर समितियुक्त नहीं उससे किसी जीव की हिंसा न होती हो अर्थात् द्रव्य हिंसा न देखी जाती हो तो भी भाव हिंसा निरन्तर होती है । अर्थात् प्राणी की 17. ओघनियुक्ति गा० 753-54
जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड्ड च्च जे सत्ता। वावज्जते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ।। जेवि न वावज्जति नियमा तेसिपि हिंसओ सोउ ।
सावज्जो उ पओगेण सव्वभावओ सो जम्हा ।। 18. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य (3933) ___ भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जेवावि सत्ते ण सदा वधेति ।। 19. सूत्रकृताङ्ग 1, श्रुतस्कन्ध 2, अध्ययन 2
खण्ड ४, अंक २
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