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हत्या न होने पर भी वह घातक है और पाप कर्मों का बन्धन करता है।
(आ) जो असंयती है उसके द्वारा किसी जीव को घात न भी हो तो भी वह निरन्तर हिंसक है । प्राणी-धात अर्थात् द्रव्य हिंसा न होने पर भी अविरति के कारण वह निरन्तर शस्त्र-धारी है अतः भावतः हिंसक है और पाप-भाक् है ।
(इ) जो संयतासंयती है उसके जिन जीवों की हिंसा का त्याग नहीं होता वह उनका निरन्तर, भावतः हिंसक है, और पापार्जन करता है। जिन जीवों की हिंसा का त्याग है उनके प्रति भी वह भावतः हिंसक है । यदि वह प्रमत्त है अर्थात जीवन-वर्तन में सावधान अथवा विधि-युक्त नहीं वह भी पापार्जन करता है ।
(3) जिनदास ने दशवकालिक सूत्र की अपनी चूर्णि में लिखा है :
कोई मनुष्य सर्प को तलवार से मारूगा ऐसा विचार कर रज्जु का छेदन करता है वहां भावतः हिंसा द्रव्यतः नहीं वाला भङ्ग घटित होता है । 20
उक्त उदाहरण को पल्लवित करते हुए हरिभद्र लिखते हैं : “कोई पुरुष मन्द प्रकाश वाले स्थान में रखी हुई काली रस्सी को देखकर यह सर्प है ऐसा सोच कर उसको वध करने के परिणाम से परिणत हो तलवार से उसका शीघ्र-शीघ्र छेदना करता है यह भावतः हिंसा है द्रव्यत: नहीं । 21
इस भंग में प्राणि-घात न होने पर भी वध का परिणाम होता है, अत: तत्त्वतः उस परिणाम के कारण मनुष्य वधक ही होता है और उसके साम्परायिक वध होता है, जो भव परम्परा का कारण होता है । 22
(4) इस भंग को समझाने के लिए सिद्धसेन ने भिन्न ही उदाहरण दिया है : कषायादि प्रमाद के वशवर्ती, शिकार के प्रति आकृष्ट, कठिन धनुष्य को धारण करने वाला, निशाना लगाकर किसी मृग-शावक पर बाण छोड़ देता है । पर मृग-शावक लक्ष्य-स्थान से दूर भाग जाता है जिससे मारा नहीं जाता है। यहां प्राणी-वध न होने से द्रव्यत: हिंसा नहीं है परन्तु अशुद्ध चेता शिकारी की हिंसा में परिणति होने से भावतः हिंसा है । दृढ़ आयुष्य वाला मृग अपने कर्मों के कारण अथवा पुरुषार्थ के कारण बच गया, परन्तु व्याध का चित्त हनन क्रिया युक्त था अतः द्रव्यतः हिंसा न होने पर भी व्यापादक भाव से भावतः 20. दश० 111 चू प० 20 :
तत्थ जा सा भावओ न दव्वओ जहा केइ पुरिसे असिणा अहिं छिदिस्सामित्तिकट्ट.
रज्जुछिदिज्जा एसा भावओ। 21. दश० 111 हारि० पृ. 48-49
या पुनर्भावतो न द्रव्यतः, सेयम् जहा के पिपुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकायं रज्जुपासित्ता एस अहित्ति तव्वहपरिणामपरिणए णिकढ्ढियासिपत्ते
दुअं दुअं छिदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दव्वओ। 22. मंदपगासे देसे रज्जुकिना हिसरिसयंदट्ट, ।
अच्छित्तु तिक्खखग्ग वहिज्ज तं तप्परीणामो ॥22511 सप्पवहाभावपि वि वहपरिणामाउ चेव एयस्स। नियमेण संपराइयबंधो खलु होइ नायव्वो ॥226।।
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तुलसी प्रज्ञा
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