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हिंसा हुई | 2
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(5) प्रथम और द्वितीय भङ्ग को लक्ष्य में रख कर ही जिन भद्र गणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में कहा है- "कोई घातक है, इतने से ही हिंसक नहीं हो जाता । कोई घातक नहीं इससे वह निश्चय ही अहिंसक है ऐसा भी नहीं । जो पांच समिति से समित है, तीन गुप्ति से गुप्त है और ज्ञानी है ( जीव- अजीव को जानने वाला, जीव-रक्षा की क्रिया अभिज्ञ, सर्वथा जीवरक्षा के परिणामों से परिणत - भावितात्मा है) वह ( जीव घात होने पर भी ) हमेशा हिंसा नहीं करने वाला है । जो इसके विपरीत है वह ( जीव-घात नहीं करता हुआ भी) अहिंसक नहीं । जीवघात द्वारा बाह्य हिंसा हो या न हो संयमी हमेशा अहिंसक है और असंयमी हमेशा हिंसक । हनन नहीं करता हुआ भी दुष्ट भाव के कारण मनुष्य हिंसक कहा गया है जैसे कि व्याध । जो अशुभ परिणाम है वास्तव में वही हिंसा है । अशुभ परिणाम रूप हिंसा बाह्य-निमित्त बाह्य जीव घात की अपेक्षा रखती है और नहीं भी रखती है; क्योंकि बाह्य जीवघात अनेकान्तिक होता है । जो जीवघात अशुभ परिणाम के फलस्वरूप होता है वह हिंसा कही गयी है। जिसके ऐसे परिणामों का निमित्त नहीं होता, उस साधु से जीवघात होने पर भी वह उसके लिए हिंसा नहीं है । जिस तरह शुद्ध भावशुचि के कारण वीतराग के लिए शब्दादि विषय रागजनक नहीं होते उसी तरह शुद्ध मनवाले संयमी द्वारा जीवघात होने पर भी वह उसके लिए हिंसा नहीं होती । 24 इस भंग के विषय में एक शंका उठाई गई है -- एक वीतराग मुनि है । कोई उस पर आक्रोश करता है—उसे पीटता है फिर भी उसे क्रोध नहीं आता। दूसरे को दुःख होता है तभी हिंसा होती है । वीतराग मुनि को पीटने पर भी पीटने वाला हिंसक नहीं क्योंकि मुनि
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23. कदाचिद् भावतः प्राणातिपातः, न द्रव्यतः । कषायादि प्रमादवशवर्तिनः खलु
मृगकृष्ट कठिन कोदण्डस्य शरगोचरवर्तनमुद्दिश्यैणकं विसर्जितशिलीमुखस्य शरपातस्थानादपसृते सारङ्ग चेतसोऽशुद्ध त्वादकृतेऽपि प्राणापहारे द्रव्यतोऽप्रध्वतेष्वपि प्राणिषु भवत्येव हिंसा, हिंसारूपेण परिणत्वात् काण्डक्षेपिणः स्वकृतदृढायुष्यकर्म शेषादपसृतो मृगः पुरुषकाराच्च, चेतस्तु हन्तुरतिक्लिष्ट मेवातो व्यापादकम् ।
24. विशेषावश्यक भाष्य 1763-68
णय घायत्ति हिंसो णाघातेंतोति णिच्छित महिसो । अहणतो विहु हिंसो दुट्टत्तणओ मतो अहिमरो व्व । वाधेतो वि ण हिंसो सुद्धत्तणतो जवा विज्जो ॥ पंचसमितो तिगुत्तोणाणी अविहिंस ओ ण विवरीतो । होतु व संपत्ती से मा वा जीवोवरोधेणं ॥ असुभो जो परिणामोसा हिंसा सो तु बाहिर णिमितं । को वि अवेक्खेज्ज णवा जम्हाऽणेगंतियं बज्झं | असुभ परिणामहेऊ जीवाबाहो त्ति तो मतं हिंसा । जस्स तु ण सो णिमितं संतो वि ण तस्स सा हिंसा ॥ सद्दातयो रतिफला ण वीतमोहस्स भावसुद्धीतो । जध तव जीवाबाहो ण सुद्धमणसो विहिंसाए ।
खण्ड ४, अंक २
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