________________
को दुःख उत्पन्न नहीं होता फिर केवल दुष्ट परिणामवाला-केवल चिन्तन करने वाला कसे हिंसक है ? क्षमाश्रमण ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया है – “ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि रागद्वेष रहित मुनि को पीटने वाला दुष्टात्मा है । मुनि कोप-प्रसाद रहित है। इससे दुष्टात्मा अधर्म से कैसे बचेगा ? मैं अमुक प्राणो की हिंसा करूंगा, मैं अमुक से झूठ बोलूंगा (उसकी वंचना करूंगा), अमुक का धन हरण करूंगा, मैं परदारा का सेवन करूंगा इत्यादि चिन्तन कोई करे तो जिसके प्रति वैसा चिन्तन किया जाता है उसके कोपादि उत्पन्न होने की कोई संभावना न हो तो भी हिंसादि का चिन्तन करने वाले दुष्टात्मा को उससे अधर्म और दयादि का संकल्प करने वाले धर्मात्मा को उससे धर्म होता है । निश्चय से आत्मा ही अहिंसा है; और आत्मा ही हिंसा । जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है और इतर-प्रमत्त हिंसक है ।" 25
(6) कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है : “सोने, बैठने, खड़े होने, चलने आदि में जो यत्न रहित चर्या - प्रवृत्ति होती है वह मुनि के सर्वकाल में हर समय होने वाली-निरन्तर हिंसा है, इस प्रकार सर्वज्ञ देव ने कहा है-दूसरा जीव मरे या जीवित रहे जिस मुनि का आचार यत्नपूर्वक नहीं है, उसके हिंसा निश्चित है। पांचों समितियों से युक्त यत्नपूर्वक क्रिया करने वाले मुनि के हिंसा मात्र से-जीव-घात हो जाने मात्र से-बंध नहीं होता। जो श्रमण अयत्नाचारी होता है वह छहों पृथ्वी आदि कायों के प्रतिवध कर-हिंसा करने वाला है, ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है । यदि मुनि नित्य ही यत्नपूर्वक आचरण करता है, तो वह जीव घात हो जाने पर भी जल में कमल की तरह निरुपलेप-कर्मबन्धन से रहित होता है । 25. विशेषावश्यकभाष्य 3257,3259-60,3536
जइ वीयराग-दोसं मूणिमक्कोसिज्ज कोइ दुट्टप्पा । कोवप्पसायरहिओ मुणित्ति कि तस्स नाधम्मो ?॥ हिंसामि मुसं भासे हरामि परदारमाविसामि त्ति। चितेज्ज कोइ न य चितियाण कोवाइ संभूई ।। तहवि य धम्माऽधम्मोदयाइ संकप्पओ तहेहावि । आया चेव अहिंसा आया हिंस त्ति निच्छओ एस ।
जो होइ अप्पमत्तो अहिंसओ, हिंसओ इयरो ।। 26. प्रवचनसार : 31216-18
अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाण चंकमादीसु। समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ।। मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स ण त्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। (उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तोबंधो सुहुमो य देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो।] अयदाचारो समण्णो छस्सु वि कायेसु वध करो त्ति मदो। चरदि जद जदि णिच्च कमलं व जले णिरूवलेवो ।
१३०
तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only