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________________ (7) अमृतचन्द्र सूरि ने कुन्दकुन्दाचार्य के श्लोकों की वृत्ति करते हुए लिखा है : "अशुद्ध उपयोग ही (संयम) का छेद है। शुद्ध उपयोग रूप संयम (श्रामण्य) का छेद करने से-उसकी हिंसा-घात करने से अशुद्ध उपयोग ही हिंसा है। श्रमण की यत्नरहित चर्या अशुद्ध उपयोग के बिना नहीं होती । अशद्ध उपयोग रूप प्रमत्त चर्या द्वारा संयम का हर समय घात होता रहता है, जिसमें सतत हिंसा होती रहती है । अशुद्ध उपयोग अन्तरङ्गच्छेद-अन्तरङ्ग हिंसा है । पर-प्राण-व्यपरोपण हो अथवा न हो, अयत्न पूर्वक आचार से अशुद्ध उपयोग का होना प्रसिद्ध है और उससे हिंसा का होना सुनिश्चित है । अतः अयत्नाचार का हिंसा के साथ अविनाभावी सम्बन्ध है (अर्थात् जहां अयत्ना होगी वहां हिंसा होगी ही—यह नियम है) यत्नपूर्वक आचरण से अशुद्धोपयोग का न होना प्रसिद्ध है । अत: पर-प्राण-व्यपरोपण होने पर भी बन्ध का न होना सब का जाना हुआ है । अतः हिंसा का यत्ना के साथ विनाभावी सम्बन्ध है । अर्थात् जहाँ यत्ना है वहां हिंसा नहीं होती। इस तरह अन्तरङ्गछेद ही बलवान है न कि बहिरङ्गछेद । अयत्नाचार से अशुद्ध उपयोग का होना प्रसिद्ध है, क्योंकि उसके साथ उस का (अशुद्ध उपयोग का) अविनाभावी सम्बन्ध है । जिसके अशुद्ध उपयोग है वह हिंसक ही है और उसके षट्काय के व्यपरोपण प्रत्ययिक बन्ध प्रसिद्ध है । जो यत्नाचारी है उसके अशुद्ध उपयोग का असद्भाव प्रसिद्ध है; क्योंकि यत्नाचार के साथ अशुद्ध उपयोग का विनाभावी सम्बन्ध है। जिसके शुद्ध उपयोग है वह अहिंसक है और परजीव व्यपरोपण विषयक लेशमात्र भी बन्ध उसके नहीं होता। इस कारण से जल में निर्लिप्त कमल की तरह उसका निरुपलेप होना प्रसिद्ध है। इसलिए सर्वज्ञों ने अशुद्ध उपयोग रूप अन्तरङ्ग छेद का सर्व प्रकार से प्रतिषेध किया है। क्योंकि अन्तरङ्गछेद के न होने से परप्राण-व्यपरोपण रूप बहिरङ्ग छेद दूर से ही प्रतिषिद्ध हो जाता है ।27 27. प्रवचनसार: तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति : 31216-18 अशुद्धोपयोगो हि छेद:, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्; तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा । अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचङ क्रमणा दिष्वप्रयता या चर्या सा खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिसैव ।। अशुद्धोपयोगोऽन्तरङ्गच्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरङ्गः । तत्र परप्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्ध स्तथा तद्विनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदश द्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्ध श्चान्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरङ्गः एव मप्यन्तरङ्गच्छेदायतनमात्रत्वाद्वहिरङ्गच्छेदोऽभ्युयपम्येतैव ।।217।। यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राणव्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात् । यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाज्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपत्वप्रसिद्ध रहिंसक एव स्यात् । ततस्तैस्तैः सर्वैः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरङ्गछेदः प्रतिषेध्यो यैर्यस्तदायतनमानभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरङ्गच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्ध: स्यात् ।।218॥ खण्ड ४, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524515
Book TitleTulsi Prajna 1978 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1978
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size3 MB
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